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तेल उत्पादन में कटौती के OPEC के फ़ैसले के मायने

ओपेक यानी ऑर्गनाइजेशन ऑफ पैट्रोलियम एक्सपोर्टिंग कंट्रीज के 13 सदस्यों और रूस के नेतृत्व में 11 अन्य तेल निर्यातक देशों ने मिलकर, 5 अक्टूबर को फैसला लिया है कि नवंबर से लगाकर अपने तेल उत्पादन में 20 लाख बैरल प्रतिदिन की कटौती कर देंगे।
OPEC
Image courtesy : ETEnergyworld

ओपेक यानी ऑर्गनाइजेशन ऑफ पैट्रोलियम एक्सपोर्टिंग कंट्रीज के 13 सदस्यों और रूस के नेतृत्व में 11 अन्य तेल निर्यातक देशों ने मिलकर, 5 अक्टूबर को फैसला लिया है कि नवंबर से लगाकर अपने तेल उत्पादन में 20 लाख बैरल प्रतिदिन की कटौती कर देंगे।

अमरीकी दबाव के बावजूद हुई कटौती

अमरीका, ओपेक पर ऐसा फैसला न करने के लिए दबाव डाल रहा था। इस तरह के फैसले को रोकने लिए अमरीका की ओर से बहुत भारी लाबीइंग की गयी थी और अपनी बात मानने के लिए राजी करने के लिए, अमरीकी उच्चाधिकारियों ने साऊदी अरब के दौरे पर दौरे किए थे और इनमें राष्ट्रपति जो बाइडेन का दौरा भी शामिल था। इस सबके बाद भी ओपेक ने उनकी इच्छा के खिलाफ फैसला कर लिया। हैरानी की बात नहीं है कि इस फैसले को पश्चिमी मीडिया में ‘बाइडन के मुंह पर तमाचा’ कहा जा रहा है।

ओपेक को अपने तेल उत्पादन में कटौती करने से रोकने में अमरीका की दिलचस्पी के तीन तरह के कारण थे। पहला तो यही कि इसके चलते तेल की विश्व बाजार की कीमतों में जो बढ़ोतरी होगी, उससे अमरीका में तथा बाकी सब जगह भी मुद्रास्फीति बढ़ जाएगी और इसकी काट करने के लिए ब्याज की दरों में सर्वव्यापी बढ़ोतरी होगी। इससे मंदी का खतरा और भी बढ़ जाएगा और इसमें अमरीका में मंदी का खतरा भी शामिल है। दूसरे, अगर हम इन प्रभावों को छोड़ भी दें, जिनके प्रकट होने में कुछ समय लगेगा, तब भी पैट्रोलियम उत्पादन में कटौती से ऊर्जा की कीमतों में जो बढ़ोतरी होगी, उसकी चोट फौरन ही अमरीकी उपभोक्ताओं पर पड़ेगी तथा उनकी नाराजगी बढ़ जाएगी। इसका, अमरीका में कांग्रेस तथा सीनेट के, इसी नवंबर में होने जा रहे चुनावों में, डैमोक्रेटिक पार्टी की संभावनाओं पर बुरा असर पड़ेगा। तीसरे, इस बात का डर है कि ओपेक द्वारा अपने तेल उत्पादन में किसी भी तरह की कटौती से, रूस को तेल की बिक्री से अपना राजस्व बढ़ाने में मदद मिलेगी और अमरीका नहीं चाहता है कि उसके राजस्व में इस तरह की कोई बढ़ोतरी हो क्योंकि उसके तेल राजस्व में बढ़ोतरी होने से तो, यूक्रेन युद्घ की पृष्ठïभूमि में रूस के खिलाफ थोपी गयी पाबंदियों का कोई अर्थ ही नहीं रह जाएगा।

रूसी-विरोधी एंगल

इनमें से आखिरी कारण तो इतना गंभीर है कि साऊदी अरब के दौरे करने वाले अमरीकी उच्चाधिकारियों द्वारा तो उसे यही समझाने की कोशिश की जाती रही थी कि इस मामले में अपने फैसले के जरिए साऊदी अरब, वास्तव में अमेरिका तथा रूस में से किसी एक का चुनाव कर रहा होगा। और तेल उत्पादन में कटौती के ओपेक के फैसले को भूराजनीतिक महत्व का फैसला माना जा रहा है, जो अमरीका-साऊदी अरब रिश्तों के ठंडा पडऩे को दिखाता है।

तेल के उत्पादन में ऐसी किसी भी कटौती से रूस को मदद मिलने में तो किसी शक की गुंजाइश ही नहीं है। वास्तव में इससे रूस को ही सबसे ज्यादा मदद मिलेगी। इसकी वजह यह है कि इस ओपेक प्लस समूह में कई देश तो पहले भी अपने हिस्से के पूरे तेल का उत्पादन नहीं कर रहे थे। ऐसे देशों में सिर्फ नाइजीरिया व अंगोला ही शामिल नहीं हैं, जो अपने तेल उत्पादन में वांछित बढ़ोतरी करने के लिए अतीत मेें पर्याप्त निवेश नहीं कर सके थे। उनके अलावा इस समूह में रूस भी शामिल है, जो अपने खिलाफ लगायी गयी पाबंदियों के चलते, अपने कोटे से कम तेल का उत्पादन कर रहा था। ऐसे में, तेल उत्पादन में 20 लाख बैरल प्रतिदिन की कटौती करने के इस फैसले का नतीजा यह होगा कि इस समूह में शामिल सभी देशों के उत्पादन कोटा में इसी हिसाब से कमी कर दी जाएगी, जिसके बाद भी रूस का कोटा, उसके वर्तमान तेल उत्पादन से कुछ फालतू ही बना रहेगा। इसलिए, इस फैसले के चलते रूस द्वारा तो अपने उत्पादन में कोई कटौती की ही नहीं जा रही होगी। दूसरी ओर, इस फैसले के चलते विश्व बाजार में तेल की कीमतों में जो बढ़ोतरी होगी, उसका फायदा रूस को भी मिलेगा। इससे न सिर्फ रूस का तेल राजस्व बढ़ जाएगा बल्कि बड़े तेल उत्पादकों में सबसे ज्यादा उसी का राजस्व बढ़ेगा। जाहिर है कि यह अमरीका के लिए साफ तौर पर एक धक्का होगा क्योंकि वह तो रूस से घुटने टेकवाने के इरादे से, उसके खिलाफ पाबंदियां लगाने की अपनी मुहिम छेड़े रहा है।

विकसित दुनिया में मुद्रास्फीति और प्राथमिक माल उत्पादक

लेकिन, ओपेक ने तेल उत्पादन में कटौती करने का फैसला लिया ही क्यों? तेल उत्पादन में इस कटौती के पक्ष में ओपेक की ओर से दी गयी दलील विडंबनापूर्ण तरीके से तेल उत्पादन में कटौती किए जाने के खिलाफ विकसित दुनिया द्वारा दी जा रही दलील जैसी ही थी। विकसित देशों की ओर से यह दलील दी जा रही थी कि तेल उत्पादन में इस तरह की कटौती से, मुद्रास्फीति बढ़ेती तथा इसके चलते ब्याज की दरें बढ़ जाएंगी और यह गंभीर मंदी पैदा कर देगा। ओपेक देशों की दलील यह थी कि ब्याज की दरों में जो बढ़ोतरी हो रही है, उससे मंदी पैदा होगी, जिससे तेल की मांग में तथा इसलिए उसकी कीमतों में कमी हो जाएगी और इसकी रोकथाम करने के लिए तेल के उत्पादन में कटौती करना जरूरी है। संक्षेप में यह कि इस तरह की कटौती के जरिए ओपेक, सिर पर मंडराती मंदी के खतरे के सामने, विश्व बाजार में तेल की कीमतों को बस स्थिर करना चाहता है।

यह एक सामान्य बात है कि जब किसी प्राथमिक उत्पाद की मांग में तो कमी हो जाए, लेकिन उत्पादन में उस अनुपात में कमी नहीं हो, तो संबंधित उत्पाद की कीमतें गिर जाती हैं। मिसाल के तौर पर 1930 के दशक की महामंदी के दौरान, विनिर्मित मालों की तुलना में, प्राथमिक मालों की कीमतों में भारी गिरावट हुई थी। इससे व्यापार की शर्तें प्राथमिक मालों के खिलाफ झुक गयी थीं और इनमें कृषि उत्पाद भी शामिल थे। इसका नतीजा यह हुआ था कि हर जगह पर, जिसमें भारत भी शामिल था, किसान कर्ज के बोझ के तले दब गए। इसी संकट ने किसान जनता को आंदोलित करने का काम किया और उसने उपनिवेशविरोधी संघर्ष में सक्रिय रूप से भाग लिया था।
जब आपूर्ति जस की तस रहे, पर मांग में कमी हो जाए, उससे कीमतों में जो गिरावट आती है उसे ‘मूल्य समायोजन’ कहा जाता है। इसके विपरीत, जब किसी प्राथमिक उत्पाद की मांग में कमी हो, तो आपूर्ति में उसी हिसाब से कटौती की जा सकती है और उस सूरत में कीमतें जस की तस बनी रह सकती हैं--इसे ‘परिमाण समायोजन’ कहते हैं। उक्त निर्णय के जरिए ओपेक ने तेल बाजार में परिमाण समायोजन का ही कदम उठाया है, जबकि अमरीकी उससे मूल्य समायोजन करने की मांग कर रहे थे।
 
उत्पादन कटौती में ही है तेल उत्पादक देशों का हित

प्राथमिक मालों के बाजारों में होने वाले इन दो प्रकार के समायोजनों में, परिमाणात्मक समायोजन ही उत्पादकों के नजरिए से कहीं बेहतर होता है। एक उदाहरण से बात साफ हो जाएगी। मान लीजिए कि किसी उत्पाद की मांग में 10 फीसद की कमी हो जाती है, तो अगर आपूर्ति में भी 10 फीसद की कमी हो जाती है और कीमत जस की तस बनी रहती है, तो उत्पादक की राजस्व हानि 10 फीसद तक ही सीमित रहेगी। लेकिन, अगर आपूर्ति जस की तस बनी रहती है और कीमत को गिरने दिया जाता है, तो मांग को ज्यों का त्यों बनाए रखने के लिए, कीमत में 10 फीसद से ज्यादा कमी करनी होगी। इसी को इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि प्राथमिक मालों की मांग, मूल्य-‘अनम्य’ होती है। उस सूरत में अगर कीमत में 20 फीसद गिरावट हो जाती है, तो राजस्व में भी 20 फीसद की गिरावट हो जाएगी।

इसलिए, मूल्य समायोजन के बाद मिलने वाला राजस्व, परिमाण समायोजन से मिलने वाले राजस्व से कम ही होगा। इसके अलावा, चूंकि मूल्य समायोजन की सूरत में उत्पाद में तो कमी की नहीं जा रही होगी, इन हालात में लागत भी परिमाण समायोजन के मुकाबले ज्यादा होगी। इन दोनों ही कारणों से, मूल्य समायोजन उत्पादकों के लिए ज्यादा घाटे का सौदा होता है।

इसलिए, ओपेक का फैसला न तो उसकी किसी प्रकार की बदनीयती का नतीजा है और न ही उसके पीछे अमरीका को नीचा दिखाने की कोई इच्छा है। उल्टे ओपेक देशों के नजरिए से तो सबसे ज्यादा तुक इसी की बनती है। फिर भी, उनका पैट्रोलियम उत्पादन को जस का तस बनाए रखने के लिए अमरीका द्वारा डाले जा रहे दबाव का मुकाबला करने में समर्थ होना, बदलते वक्त का इशारा जरूर है। यह उन देशों के बीच से भी, जो कल तक अमरीका के सबसे पक्के सहयोगी रहे थे, उसके वर्चस्व के लिए उभर रही चुनौती की ओर इशारा करता है।

बढ़ते कारपोरेट मुनाफे हैं मुद्रास्फीति का मुख्य कारण

यह सही है कि कच्चे तेल की कीमतें पिछले कुछ समय से गिर रही थीं। मिसाल के तौर पर ब्रेन्ट क्रूड के दाम, जो इसी जून में 120 डालर प्रति बैरल के स्तर पर थे, ओपेक के उक्त निर्णय लेने के समय तक गिरकर 100 डालर से काफी नीचे चले गए थे। लेकिन, यह पूछा जा सकता है कि क्या इस फैसले से मुद्रास्फीति की दर नहीं बढ़ जाएगी? उल्लेखनीय है कि मुद्रास्फीति में तेजी के इस दौर में, कारपोरेटों के मुनाफे, जिसमें पैट्रोलियम उत्पादों के निर्माताओं के मुनाफे भी शामिल हैं, बढ़ते ही गए हैं। अब अगर कच्चे तेल की कीमतें बढ़ती हैं और बस इसी बढ़ोतरी को आगे ग्राहकों पर खिसका दिया जाता है, तो मुनाफे ज्यों के त्यों ही रहने चाहिए और उस सूरत में इससे पैदा होने वाली मुद्रास्फीति के बारे में यह कहा जा सकता है कि कच्चे तेल की कीमतें बढऩे से मुद्रास्फीति हो रही है। लेकिन, अगर मुनाफे भी बढ़ते हैं, तो मुद्रास्फीति का फौरी कारण कारपोरेटों के लालच को ही माना जाएगा, न कि कच्चे तेल की कीमतों में बढ़ोतरी को।

इस तथ्य को अब काफी व्यापक स्तर पर पहचाना जा रहा है कि मुद्रास्फीति के मौजूदा उछाल के पीछे मुख्य कारण, कारपोरेटों का लालच ही है। वास्तव में ब्रिटेन में इसकी बहुत प्रबल मांग थी कि तेल कंपनियों पर लगने वाले करों में बढ़ोतरी की जानी चाहिए और इस मांग को मध्यमार्गवादी लिबरल डैमोक्रेटों तक ने स्वर दिया था। लेकिन, तत्कालीन प्रधानमंत्री बोरिस जॉन्सन ने इस मांग को नामंजूर कर दिया था।
अमरीका तो ऐसे हालात ही देखना चाहेगा, जहां सकल मांग में कटौती के जरिए, मुद्रास्फीति की काट करने के लिए, ब्याज की दरों में जो बढ़ोतरी की जा रही है, वह सिर्फ एक नहीं बल्कि दो-दो चैनलों से काम करे। पहला तो यह कि इस सब से बेरोजगारी पैदा हो, जिससे मजदूरों की सौदेबाजी की ताकत में इतनी कमी हो जाए कि वे, मुद्रा मजदूरी में महंगाई के अनुपात में बढ़ोतरी कराने के जरिए, मुद्रास्फीति से अपनी हिफाजत करने में ही असमर्थ हो जाएं। दूसरे, इससे प्राथमिक मालों की कीमतें और खासतौर पर तेल की कीमतें, जो कि उपभोक्ताओं के लिए इतना ज्यादा महत्वपूर्ण है, नीचे आ जाएं ताकि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक को अंकुश में रखा जा सके।

मजदूर और प्राथमिक माल उत्पादकों की कुर्बानी

संक्षेप में यह कि इस सब के पीछे विचार यही है कि मजदूरों तथा प्राथमिक माल उत्पादकों की कीमत पर, विकसित दुनिया में मुद्रास्फीति पर काबू पाया जाए। लेकिन, यह कभी उनके एजेंडा पर आ ही नहीं सकता है कि बढ़ते कारपोरेट मुनाफों में किसी तरह की कटौती की जाए या उन पर किसी तरह का अंकुश लगाया जाए, जबकि ये बढ़े हुए मुनाफे ही मौजूदा मुद्रास्फीति का मुख्य कारण हैं। तेल उत्पादक देशों का इस संकट के सामने अपने उत्पादन में ही कटौती करने का फैसला, कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट को रोकने के जरिए, मुद्रास्फीति की काट की विकसित दुनिया की कोशिश के दूसरे रास्ते को रोक देता है।

अमरीका ने एलान किया है कि नवंबर के महीने में वह, अपने तेल के सुरक्षित भंडारों में से एक करोड़ बैरल तेल बाजार में निकालेगा, ताकि ओपेक के फैसले का तेल की कीमतों पर जो असर पड़ सकता है, उसकी काट की जा सके। बहरहाल, उसकी यह घोषणा नवंबर में होने वाले चुनाव तो पार करा देगी, लेकिन उसके बाद अमरीकी उपभोक्ताओं को भी इस संकट की बढ़ती हुई मार झेलनी पड़ेगी।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल ख़बर को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

Why US is Cut up With OPEC’s Decision to Cut Output

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