क्या यह मोदी लहर के ख़ात्मे की शुरूआत है?
पहले बेहद चर्चित पश्चिम बंगाल में बीजेपी की पिछले साल हार हुई, जहां अपनी व्याकुलता में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के खिलाफ़ फूहड़ चुनावी अभियान पर तक उतर गए। लेकिन इसका कोई फायदा नहीं हुआ। इसके बाद प्रधानमंत्री ने उत्तर प्रदेश, हरियाणा और दिल्ली बॉर्डर पर बैठे किसानों के सामने सरेंडर किया। एक साल तक सतत् आंदोलन के जारी रहने के बाद प्रधानमंत्री ने विवादित कृषि कानूनों को पूरी तरह वापस ले लिया।
अब आने वाले उत्तर प्रदेश चुनावों में मोदी एक बार फिर रक्षात्मक अवस्था में हैं और उन्होंने व्याकुलता भरे काम करने शुरू कर दिए हैं। उत्तर प्रदेश चुनाव के शुरू होने के कुछ घंटे पहले, चुनावी संहिता के एक संभावित उल्लंघन के तहत, उन्होंने एक न्यूज़ एजेंसी को इंटरव्यू दिया, जो प्रायोगिक तौर पर एक चुनावी भाषण था। यह देखना बाकी है कि क्या ये उनकी पार्टी को बचा पाता है या नहीं।
पश्चिम बंगाल में बड़े स्तर पर उल्लंघन हुए थे, क्योंकि पूरा चुनाव नौ चरणों में हुआ था। उत्तर प्रदेश ज़्यादा बड़ा राज्य है, वहां सात चरणों में चुनाव हो रहे हैं। चुनाव आयोग द्वारा इस समस्या पर फ़ैसला लेने की बात कहना एक नियमित सुझाव है। लेकिन तथ्य यह है कि जब तक चुनावी संहिता लागू है, तब तक किसी को भी इसका उल्लंघन नहीं करना चाहिए। प्रधानमंत्री को तो कतई नहीं।
उत्तर प्रदेश, गोवा, मणिपुर, पंजाब और उत्तराखंड में चुनावों का जो भी नतीज़ा आए, एक चीज तो बिल्कुल साफ़ है। अब प्रतिद्वंदी बीजेपी से डर नहीं खाते हैं, बीजेपी के ना हारने की धारणा का खात्मा हो चुका है। यह तब है, जब आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सीधे चुनौती देने वाले किसी एक नेता की कमी है। लेकिन भारत का लोकतंत्र वक़्त-वक़्त पर छुपे हुए नए नेता उभारने में माहिर है। खैर ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल इस तरह के नेता तो नहीं हैं।
मोदी का कम होता प्रभाव एक हद तक उनकी मुस्लिम को भला-बुरा कहने की राजनीति भी है, जो किसी भी चुनाव के वक़्त अपने चरम पर पहुंच जाती है। यह ना केवल नेहरू विरोधी भाषणबाजी के साथ लिपटी हुई रहती है, बल्कि इसमें धर्मनिरपेक्षता के विचार को भी बिल्कुल नकार दिया जाता है, जिसे मोदी ने पश्चिमी विचार कहकर प्रचारित किया है, जिसका भारत के लिए कोई मायने नहीं है। लेकिन हर किसी को यह याद रखना चाहिए कि प्रशासन के बुनियादी सिद्धांत कभी देश विशेष के लिए गढ़े नहीं गए होते। ऊपर से बहुधार्मिक और बहुजातीय भारत के लिए धर्मनिरपेक्षता किसी भी आधुनिक पश्चिमी राष्ट्र-राज्य से ज़्यादा अहम होनी चाहिए, जो कभी ईसाई प्रभुत्व वाले देश हुआ करते थे। कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट के बीच पहले हुए संघर्ष अब इतिहास बन चुके हैं। लेकिन यह इसी सिद्धांत को दोहराते हैं।
बीजेपी कठोर तरीके से अब इस पाठ को सीखने पर मजबूर हो रही है। अगर उत्तर प्रदेश चुनाव में 10 फरवरी और 14 फरवरी को हुए शुरुआती चरणों से आई ज़मीनी रिपोर्टों का भरोसा करें, तो हिंदुत्व कार्ड अपनी साख खोता जा रहा है। ना ही मोदी और ना ही गृहमंत्री अमित शाह ने चुनावों में सांप्रदायिक ज़हर घोलने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने जाट-मुस्लिम अलगाव फैलाने की कोशिश की। इसके बावजूद किसान आंदोलन वह करने में कामयाब रहा है, जो कोई भी भारतीय राजनीतिक पार्टी नहीं कर सकती थी। एक लोकप्रिय प्रोत्साहन के बीच आंदोलन में हर-हर महादेव और अल्लाहू अकबर के नारे मंच से लगाए गए। धर्मनिरपेक्षता के इस भारतीय सिद्धांत (मूल रूप से गांधीवादी, जिसके बारे में मैंने कहीं और लिखा है)। अब इनकी एकमात्र आशा उन मतदाताओं से है, जो राज्य द्वारा वितरित मुफ़्त खाद्यान्न पर निर्भर हैं, जिन्हें मोदी लाभार्थी का नाम देते हैं।
बड़े पैमाने पर नाराज़ मुस्लिम मतदाता मोदी और बीजेपी के दुश्मन हैं। विडंबना यह है कि बीजेपी ने ही इस मुस्लिम वोट बैंक को तैयार किया है, मतलब इसे सैद्धांतिक विमर्श से निकालकर सामाजिक-राजनीतिक वास्तविकता में बदला है। इसके शुरुआती सबूत पश्चिम बंगाल में मिल सकते हैं, जहां मुस्लिम मतदाताओं ने तृणमूल कांग्रेस के पक्ष में असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम को पूरी तरह नकार दिया। साफ़ है कि वे अपनी बिहारी भाईयों की गलती दोहराना नहीं चाहते थे, जिन्होंने अपना वोट आरजेडी, एआईएमआईएम और कांग्रेस के बीच 2020 के विधानसभा चुनाव में बांट दिया था। नतीज़तन आरजेडी अहम चुनाव हार गई, जिससे बीजेपी और नीतीश कुमार बेहद कम अंतर के साथ जीत दर्ज करने में कामयाब रहे। विरोधाभास यह है कि मोदी का नारा है- सबका साथ, सबका विकास। लेकिन इसे बीजेपी के सार्वकालिक विरोधी मुस्लिम सिर के बल खड़ा कर रहे हैं।
मोदी के राजनीतिक फार्मूला में मुस्लिमों को अनाप-शनाप कहना जरूरी तत्व है, लेकिन यह अकेला नहीं है। इसके दूसरे तत्व हैं- एक ताकतवर केंद्र जो संघवाद को कमज़ोर करता है, मानवाधिकारों को मूर्खता भरी अवधारणा कहकर खारिज़ करना, स्वतंत्र प्रेस का अपमान, बेहद निरंकुश कानूनों का बेइंतहां इस्तेमाल, कई प्रबुद्ध व्यक्तियों को देशद्रोही कहना, सभी तर्कों से परे जाकर भारत के अतीत के गौरव को बढ़ा-चढ़ाकर बताना और दावा करना कि पहले भारत की प्रशंसा पूरी दुनिया में होती थी। और यह सूची आगे बढ़ती ही जाती है। हमारे बचपन से हमने महात्मा गांधी को पढ़ा है और समझा है कि देशभक्ति और झूठ एक दूसरे के विरोध में होते हैं। लेकिन क्या कोई परवाह करता है? आज हमारी संसद के सदस्य महात्मा गांधी के हत्यारे की पूजा करते हैं।
मुझे धीरे-धीरे विश्वास हुआ है कि छोटे इतिहास वाले देश खुशहाल होते हैं। अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और हमारे पड़ोस में बांग्लादेश जैसे देशों पर अपनी सार्वकालिक महानता को अतीत में खोजने की बाध्यता नहीं होती। आज भारत की आधी बौद्धिक ऊर्जा तो यह खोजने में खर्च हो रही है कि मुगल और नेहरू ने भारत की महानता का नाश किया। इन बढ़ा-चढ़ाकर की गई बातों में आगे कहा जाता है, अगर वे बीच में नहीं आते, तो भारतीय इस दुनिया में सबसे महान होने का दावा जीत जाते। इस दौरान 200 साल के ब्रिटिश दमन को पूरी तरह नकार दिया जाता है, जैसे स्वतंत्रता संघर्ष हुआ ही ना हो। यहां तक कि भारतीय मध्यम वर्ग का एक पढ़ा-लिखा तबका भी इन काल्पनिक चीजों में भरोसा करने लगा है। उनके लिए नेहरू का कार्यकाल भारतीय इतिहास का अंधकार काल था।
पोस्टस्क्रिप्ट: इन दिनों हम मध्यमवर्गीय लोगों में से बहुत सारे अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के साथ राजनीतिक विमर्श करने से बचते हैं, हमें डर होता है कि उनसे संबंध कड़वे हो जाएंगे। लेकिन हम “लिबटार्ड” के लिए कुछ जरूरी बात सुनिए, जो राहत पहुंचाएगी। 1962 की जनवरी में मशहूर बुद्धिजीवी जॉन बार्ट्रेंड रसेल को जाने-माने अंग्रेजी फासीवादी सर ओसवाल्ड मोसली से कई ख़त मिले, जो उनसे राजनीतिक विमर्श करने की भीख मांग रहे थे। रसेल ने बेहद विनम्रता से यह जवाब दिया- “मुझे यह बताना मेरा कर्तव्य लगता है कि हम जिस भावनात्मक दुनिया में रहते हैं, वह बेहद विविध है, और यह बेहद ज़्यादा स्तर तक एक-दूसरे की विरोधी है। तो हमारे बीच जुड़ाव से कुछ भी गंभीर या बेहतर नहीं निकल सकता। मैं चाहता हूं कि आप इस भावना की प्रबलता को समझें। मैं आपका अपमान करने के लिए कठोर तरीके से यह नहीं कह रहा हूं, बल्कि मैं मानवीय अनुभव और इंसानी हासिल को ध्यान में रखकर यह कह रहा हूं।
लेखक इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस में सीनियर फैलो हैं। वे आईसीएसएसआर नेशनल फैलो और जेएनयू में दक्षिण एशियाई अध्ययन में प्रोफ़ेसर थे। यह उनके निजी विचार हैं।
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Modi Magic Loses its Spell: Is it Just the Beginning?
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