मीडिया को लेकर मोदी शासन का विज़न: झुकाने से लेकर पूर्ण गठजोड़ की हद तक
उन लोगों के लिए 2021 एक पेचीदगी भरा साल हो सकता है, जो सावधानी के साथ पत्रकारिता करते रहे हैं। जब से भाजपा सत्ता में आयी है, इन छह सालों से संतुलन साधने वाली इस विधा में कई पत्रकार पेचीदगी से भरे उस मध्य मार्ग पर चलते रहे हैं, जहाँ लक्ष्मण रेखा को पार किए बिना सत्तारूढ़ व्यवस्था की हल्की आलोचना को भी सावधानी से बुना जाता है ताकि किसी तरह की कोई नाराज़गी से बचा जा सके।
लेकिन, इस तरह के पत्रकारों का दौर ख़त्म हो सकता है। प्रेस में जो रिपोर्टें आई हैं, उससे मंत्रियों के समूह (GoM) की सिफ़ारिशों से इस बात का ख़ुलासा होता है। इन सिफ़ारिशों में "मीडिया के साथ मिलकर, राज्य और ज़िला स्तरों पर लोगों तक पहुँच बनाने वाले कार्यक्रमों और प्रभावशाली लोगों के साथ काम करने के ज़रिए संदेशों को आगे बढ़ाने को लेकर एक बहुस्तरीय रणनीति विकसित करने" का आह्वान किया गया है।
इसके छुपे हुए मायने को तलाश करते हुए कोई इस बात की परिकल्पना कर सकता है कि पीआर की इस क़वायद का मक़सद सरकार की पसंदीदा कोटि में रहने के इच्छुक उसके अनुकूल संवाददाताओं, संपादकों और असर डालने वालों से संपूर्ण निष्ठा जताने की मांग से कुछ भी कम नहीं है। इसमें कोई शक नहीं कि यह नया "संचार दबाव" पहले से ही सिकुड़ रहे इस अस्पष्ट पत्रकारिता की परिधि को और कम कर देगा। इसका नतीजा यह होगा कि कई और पत्र-पत्रिकायें एक तरफ़ा पत्रकारिता करते हुए सरकार का पक्ष लेंगी और सरकार के सभी कार्यों को सही ठहरायेंगी।
साधारण पत्रकारों को अपनी नौकरी को बचाए रखने के लिए ऐसा करने के लिए मजबूर किया जा सकता है। कई अख़बारों के प्रबंधन इस बात को लेकर स्पष्ट हैं कि उन्हें सरकार विरोधी किसी मज़बूत स्टोरी की दरकार नहीं है। भाजपा के कथित छुटभैये तत्वों और छोटे-छोटे नीतिगत फ़ैसलों के ख़िलाफ़ कुछ रिपोर्टों को बर्दाश्त कर लिया जाता है। लेकिन, जो लोग जोखिम उठाने वाली पत्रकारिता करते हैं, उन्हें दरकिनार कर दिया जाता है, या इससे भी बदतर उनके साथ यह होता है कि रोज़गार देने वाले संगठन को "पुनर्गठित" किए जाने के नाम पर उनसे इस्तीफ़ा देने के लिए कहा जाता है।
जो लोग प्रतिष्ठानों का पीआर हथियार बनने के बजाय नौकरी ही छोड़ देते हैं, उनके पास एक ही विकल्प बचता है कि या तो वे चुप हो जाएँ या फिर उन वैकल्पिक वेबसाइटों के लिए लिखें, जो उनके रिपोर्टों का स्वागत करते हैं। पिछले कुछ साल में ऐसे पत्रकारों की तादाद बढ़ी है और 2021में इस वर्ग में कई और पत्रकार शामिल होंगे।
कोई शक नहीं कि मुख्यधारा में काम करे उन पत्रकारों को अब भी विपक्ष, ख़ासकर कांग्रेस पर हमला करते हुए और उसका पर्दाफ़ाश करते हुए अपनी पत्रकारिता की दिलेरी को साबित करने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा। यह बड़ी पुरानी पार्टी, इसके विभिन्न पदों पर बैठे नेताओं के बीच बग़ावत, चुनावी नाकामियाँ और राहुल गांधी की मनमौज़ी कार्यप्रणाली एक पसंदीदा लक्ष्य रहे हैं। कभी-कभार ही सत्ता पक्ष की नाकामियों पर इस क़दर सवाल उठाया जाता है, जैसे कि वह सत्तारूढ़ ही न हो। लेकिन, अब तक एक ही पार्टी के ख़िलाफ़ और उसके नेता को चिढ़ाते हुए कई विरोधी स्टोरी लिखी जाती रही हैं, जिससे इस तरह की पत्रकारिता के बारे में अनुमान लगाना आसान हो गया है और इससे पत्रकारिता दोहराव का शिकार भी हुई है।
शायद दूसरे विपक्षी दलों को इसी तरह निशाने पर रखना इस पत्रकारिता का अगला क़दम हो सकता है, क्योंकि पत्रकार और टिप्पणीकार सरकार के लिए अपने इस तरह के "अच्छा काम" जारी रखे हुए हैं। हालांकि, इसे हर कोई समझता है कि प्रतिष्ठान अब हुक़ूमत का समर्थन करने और विपक्ष पर हमला करने के लिए नए सिरे से अपनी आवाज़ उठाने की तलाश में है। अपनी इस कोशिश में जीओएम(GoM) बेरोज़गार पत्रकारों की सेवाओं को नियोजित करने की सिफ़ारिश करता है। किसी पत्रकार ने मुझे बताया कि इसका एक मक़सद न सिर्फ़ कांग्रेस-मुक्त भारत, बल्कि विपक्षी-मुक्त भारत का प्रचार करना भी हो सकता है।
सरकार के रास्ते में खड़ी राजनीतिक ताक़तों को बेअसर करना एक बात है, लेकिन सत्ता में बैठे लोगों की तारीफ़ किए जाने को क्या कहा जाये? भाजपा अपने दरबारी भाटों से अपने तारीफ़ के छंदों को और ज़्यादा मधुर बनाने की मांग करना चाहेगी। वे सिर्फ़ विपक्ष को रगड़कर या इस "संतुलित" धारणा को तेज़ी से आगे बढ़ाते हुए कि मोदी की तमाम ख़ामियों के बावजूद मोदी का कोई विकल्प नहीं है, जैसी बातें करते हुए अपना पल्ला नहीं झाड़ सकते।
हम पहले से ही पत्रकारों के रूप में बारीक़ तरीक़े से छुपी हुई उन पीआर स्टोरी से परिचित हैं, जो "कमियों में भी कुछ अच्छाइयां होती हैं" जैसे बार-बार इस्तेमाल होने वाले वाक्यांशों का इस्तेमाल करते हुए पहले से ही "वैचारिक" लेख के तौर पर पेश की जाती रही हैं और "आख़िरकार यह सही दिशा में एक क़दम है।" कुछ संपादक / राय बनाने वाले लेखकों ने तो विधानसभा चुनाव नतीजों को राष्ट्रीय स्तर पर लागू नीतियों के समर्थन के तौर पर पेश करने के हद तक चले गये हैं।
लेकिन, इस क़वायद को आगे बढ़ाना और आंख बंद करके भाजपा की सराहना कर पाना उन “उदारवादियों” के लिए मुश्किल हो सकता है, जो “पक्षपातरहित” टिप्पणी वाले अपने रुख़ को छोड़ना पसंद नहीं करेंगे। इसके अलावा, विदेश स्थित उन मंचों और विश्वविद्यालयों को गंभीरता से भी लिया जाना चाहिए, जो इस समय भी भारत के भीतर एक ऐसे शासन की ख़ुशामद में लगे हुए हैं, जिसमें मानवाधिकारों के लिए शायद ही कोई सम्मान हो, यह भी 2021 की चुनौती होगी।
सचाई तो यह भी है कि धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक होने के दिखावे को बनाये रखना भी मुश्किल हो सकता है। लेकिन, विश्वसनीयता खोने के जोखिम की क़ीमत पर भी कुछ "असरदार पत्रकार" और संपादक सत्ता में बैठे लोगों के प्रति अपनी निष्ठा दिखाने के लिए समझौता करेंगे। हमने पहले ही कुछ माननीय सज्जनों को मर्यादा से बाहर जाते हुए देखा है और यह कहते हुए सुना है कि सुधारों के लिए बहुत ज़्यादा लोकतंत्र ख़राब होता है। इस बात के पीछे का मतलब तो यही है कि कमज़ोर गणतंत्र और एक ऐसे मीडिया की ज़रूरत है, जो कोई सवाल नहीं करे।
समस्याओं और मुद्दों की एक बड़ी श्रृंखला रही है, जिस पर प्रेस ने एक प्रहरी के रूप में अपनी भूमिका का निर्वहन नहीं किया है। आधार और सीएए विरोधी प्रदर्शनों से लेकर कश्मीर, चीन और महामारी जैसे मुद्दों को लेकर भी प्रेस के कई घराने बिना किसी अहम सवाल के सरकार के बयान को चुपचाप सामने रख देते रहे हैं। कई मीडिया घराने बिना किसी तथ्यों की जांच के फ़र्ज़ी ख़बरें चलाते रहे हैं और भाजपा के मुख्यमंत्रियों के पक्ष में रिपोर्ट कार्ड तैयार करते रहे हैं।
एक तरफा पत्रकारिता का ताज़ा उदाहरण किसानों का आंदोलन है। मीडिया ने लाखों आंदोलनकारी किसानों को अमीर के तौर पर चित्रित करने और उन्हें हमारी सहानुभूति के क़ाबिल नहीं होने का पात्र ठहराने का दोषी रहा है। इसके अलावा, विचार बनाने वाले लेखकों ने यह दृष्टिकोण पेश किया है कि सिर्फ़ निजीकरण से ही ग्रामीण भारत को बचाया जा सकता है। दरअस्ल, वे हमें यक़ील दिलाते हैं कि सूट और फैंसी कार वाला हर एक कारोबारी नेक इरादों से भरा होता है और वही देश के हितों को ध्यान में रखता है। उनकी ओर से मेगा लोन डिफ़ॉल्ट जैसी कोई भी छोटी से छोटी चूक को भी करदाता के पैसे से माफ़ किया जाना चाहिए, क्योंकि ये ऐसे जोखिम हैं, जिन्हें वे अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के लिए उठाते रहे हैं!
मई 2024 में होने वाले अगले आम चुनावों में इस तरह के और भी "नये-नये" और आप पर असर डालने वाले बदले-बदले "असर दिखाने वालों" से इसी तरह के विचारों की अपेक्षा करें। इसके अलावा, महामारी के दौरान बेरोज़गार हो चुके कुछ आज्ञाकारी पत्रकार मित्रों को उन मीडिया संगठनों में जगह मिल सकती है या सोशल मीडिया पर सक्रिय रहने के लिए उन्हें उपकृत किया जा सकता है, जहाँ वे अपने नाम से सरकार के अनुकूल रिपोर्ट, पोस्ट और ट्वीट करेंगे।
2014 में मोदी को वोट देने के मामले की पैरवी करने वाले और "अपना सुर बदल देने" की अपील करने वाले "उदारवादियों" के लिए यह नया साल ख़ुद को "भुनाने" का मौक़ा देता है और सरकार से प्रभावित झुंड में ये शामिल हो सकते हैं और सत्ता में रह रहे लोगों के क़रीबी हो सकते हैं। 2014वाले अपने रुख़ से इस यू-टर्न को सही ठहराने के लिए उनके लिए "हमें नयी वास्तविकता के साथ बदलना होगा" वाला जुमला काम आयेगा।
हालांकि, असली पत्रकारों को अपना काम करने से अलग कर दिया गया है। ठीक है कि उन्हें मुख्यधारा से बाहर कर दिया गया है, फिर भी उन्हें सवाल उठाने और जनता को सूचित करते रहना चाहिए। यह एक ऐसा कार्य है, जिसे उन्होंने अतीत में यूपीए के सत्ता में रहते हुए भी किया है। इसके अलावा,प्रकाशन और वेबसाइट उन रिपोर्टों को आगे ले जाने के लिहाज़ से पर्याप्त रूप से साहसी हैं, जो सरकार को ज़िम्मेदार बनाए रखते हैं, उन्हें प्रोत्साहित किया जाना चाहिए और उनका समर्थ होना चाहिए।
महज़ दुष्प्रचार के ज़रिये लोगों को हमेशा के लिए मूर्ख नहीं बनाया सकता है। शायद2021में नज़र आने वाली उम्मीद की एक मात्र किरण यही है कि बड़ी संख्या में लोगों के के बीच इस बात का अहसास हो बढ़ता जा रहा है कि जिस कथित सच को उनके सामने परोसा जा रहा है, वह दरअस्ल झूठ है। सौभाग्य से किसानों के आंदोलन से सरकार के वास्तविक इरादों के उजागर होने के बाद इस तरह का अहसास ज़्यादा स्पष्ट हो गया है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं। इनके विचार निजी हैं।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें
Modi Regime’s Vision for Media: Go from Pliant to Totally Aligned
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