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क्या अग्निवीर योजना को कभी भी ख़त्म किया जाएगा?

यह इजरायल की तरह नागरिकों का सैन्यीकरण करने की योजना है।
agniveer
प्रतीकात्मक तस्वीर।

जैसा कि वे कहते हैं, सत्य में अप्रत्याशित रूप से सामने आने की अद्भुत क्षमता होती है। ऐसा ही कुछ विवादास्पद अग्निवीर योजना के साथ हुआ है - सेना में चार साल के अनुबंध पर आधारित रोजगार योजना की शुरूआत की गई थी – और जिसके कारण हाल ही में हुए संसदीय चुनावों में सत्तारूढ़ दल को कुछ सीटों का नुकसान भी उठाना पड़ा है।

पिछले ग्यारह सालों से 'ऑर्गनाइजर' के संपादक रहे प्रफुल्ल केतकर, ने एक कार्यक्रम में जो कुछ रेखांकित किया, इस मामले में उस पर गौर करने की जरूरत है। एक तीखा सवाल उठाते हुए जब उनसे पूछा गया कि 'क्या भारत को इजरायल जैसे हालत से निपटने के लिए नागरिकों को तैयार करना चाहिए', तो उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि 'अग्निवीर योजना इसी उद्देश्य से शुरू की गई थी। इस योजना का उद्देश्य व्यक्तियों को प्रशिक्षित करना है, जिन्हें संकट के समय तैनात किया जा सकता है।'

केतकर को यह बयान दिए हुए चार दिन से ज़्यादा हो चुके हैं, जो स्पष्ट रूप से सरकार की उस दिलासा के विपरीत है जिस हमें दिया गया था। लेकिन न तो उच्चतम स्तर से इस बयान का खंडन किया गया है और न ही संघ परिवार के शीर्ष नेताओं ने इस तरह के अपमानजनक बयान देने के लिए उन्हें फटकार लगाई गई है।

एक तरफ़ यह याद रखना चाहिए कि इस योजना के बारे में सरकार का दिया गया अब तक का तर्क सेना को युवा बनाए रखने और पैसे बचाने में मदद करने के इर्द-गिर्द घूमता रहा है। एक मोटा-मोटा हिसाब यह था कि इस योजना से सरकार अपने 75 प्रतिशत नियमित सैन्य बल को अलविदा कह सकेगी और उन्हें पेंशन और अन्य लाभ देने से बच जाएगी। वित्तीय दृष्टि से यह सरकार के लिए जीत वाली स्थिति होगी क्योंकि अभी उसे अपने लगभग 5 लाख करोड़ रुपये के रक्षा बजट में से सशस्त्र कर्मियों को भुगतान और पेंशन के रूप में लगभग 2.6 लाख करोड़ रुपये देने होते हैं।

संघ परिवार के भीतर से यह पहली औपचारिक स्वीकारोक्ति हो सकती है कि अग्निवीर योजना का वास्तविक उद्देश्य सैन्य प्रशिक्षित व्यक्तियों को तैयार करना है, जिन्हें इजरायल जैसे संकट (स्पष्ट रूप से सीमाओं पर नहीं बल्कि सीमाओं के भीतर) के समय तैनात किया जा सके, हालांकि आलोचकों ने पहले भी इस चिंता को साझा किया है, यह तर्क देते हुए कि यह समाज को सांप्रदायिक आधार पर सैन्यीकृत करने की योजना है।

हम यह भी याद कर सकते हैं कि कर्नाटक के पूर्व-मुख्यमंत्री और अब मोदी सरकार में कैबिनेट मंत्री एच.डी. कुमारस्वामी ने अग्निपथ योजना के बारे में क्या कहा था:

"यह सेना को आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) के नियंत्रण में लाने और सेना से निकलने वाले 75 फीसदी (10 लाख में से) के इस्तेमाल करने की योजना का हिस्सा है और उन्हें पूरे देश में फैलाया जाएगा। क्या अग्निपथ योजना अग्निवीरों को बनाने के लिए उन्हीं उपायों (एजेंडे) को लागू करने की एक चाल है?"

प्रफुल्ल केतकर ने जो कहा, उस पर टिप्पणी करते हुए ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस-ए-मुशावरत के पूर्व अध्यक्ष नवेद हामिद ने कहा: "मैं लंबे समय से कहता रहा हूं कि अग्निवीर योजना शुरू करने का मुख्य उद्देश्य देश में भविष्य में नागरिक अशांति की तैयारी के लिए हिंदू युवाओं का सैन्यीकरण करना है। आरएसएस के मुखपत्र के संपादक ने अब इसकी पुष्टि की है।"

निस्संदेह, प्रफुल्ल केतकर ने अनजाने में या जानबूझकर जो खुलासा किया है, वह यह है कि इस योजना को जारी रखने के लिए सत्तारूढ़ व्यवस्था द्वारा दिखाई गई अड़ियल रवैया कोई अचानक लिया गया कदम नहीं है। यह एक सुविचारित और सचेत कदम है जिसकी जड़ें हिंदुत्व वर्चस्ववादी विचारधारा के बड़े एजेंडे में समाहित हैं - जो सत्तारूढ़ व्यवस्था को संचालित करती है।

याद रखें, अपनी स्थापना के बाद से ही यह ‘नास्तिकों’ या ‘धर्म के शत्रुओं’ के खिलाफ़ कई तरीकों से ‘श्रद्धालु लोगों को हथियारबंद’ करने के लिए उत्सुक रही है। यह अब इतिहास का हिस्सा है कि 1930 के दशक के मध्य या 1940 के दशक की शुरुआत से, हिंदुओं के सैन्यीकरण का आह्वान धीरे-धीरे लोकप्रिय होता गया। 1937 में भोंसला मिलिट्री स्कूल के गठन से लेकर विभिन्न वर्चस्ववादी संरचनाओं के बीच हथियारों के नियमित प्रशिक्षण तक, कोई भी देख सकता है कि 1940 के दशक की शुरुआत में एक तरह का चरमोत्कर्ष तब आया जब दूसरा विश्व युद्ध छिड़ गया था।

हिंदू महासभा के नेता सावरकर ने इस 'ऐतिहासिक अवसर' का इस्तेमाल मुस्लिम लीग आदि के साथ हाथ मिलाकर पंजाब, बंगाल और अन्य सीमावर्ती प्रांतों में गठबंधन सरकारें बनाने के लिए किया और राष्ट्रीय स्तर पर हिंदुओं को ब्रिटिश युद्ध प्रयासों में शामिल होने के लिए संगठित करने के लिए एक अभियान का नेतृत्व किया था, जिसका मुख्य नारा था 'सेना का हिंदूकरण करो, राष्ट्र का सैन्यीकरण करो'।

वर्तमान सत्तारूढ़ व्यवस्था के पहले दशक के शासनकाल पर करीबी नजर डालने से यह स्पष्ट हो जाता है कि ऐसे कितने अवसर आए हैं जब लोगों को हथियारबंद करने तथा समाज का सैन्यीकरण करने की उनकी इच्छा/योजना/तत्परता उजागर हुई है।

क्या किसी को अब भी याद है कि किस तरह संघ सुप्रीमो मोहन भागवत ने 2018 में मुजफ्फरपुर दौरे के दौरान खुलेआम यह कहकर राजनीतिक हलकों में बड़ा तूफान खड़ा कर दिया था कि उनके लोगों/कार्यकर्ताओं में एक "सेना" खड़ी करने की क्षमता है, जिसे तीन दिन के भीतर मोर्चे पर तैनात किया जा सकता है, और तब सुरक्षा बलों की त्वरित कार्रवाई की क्षमता पर सवाल उठाए थे?

या, कैसे एक विवादास्पद और बहुचर्चित निर्णय में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने “सैनिक स्कूलों के 67 प्रतिशत हिस्से को संघ परिवार (और इसके सहयोगी संगठन जो स्वयंभू बहुसंख्यकवादी और असंवैधानिक निकाय हैं), भाजपा नेताओं और सहयोगियों को सौंपने का फैसला किया था।

अग्निवीर की बात करें तो यह बहुत बड़ी नादानी होगी अगर कोई यह सोचे कि मोदी सरकार और उसके सलाहकारों ने इस संभावना पर विचार नहीं किया कि हर साल हजारों की संख्या में ऐसे युवा - जिन्होंने हथियार चलाने का प्रशिक्षण लिया है और हथियार लाइसेंस हासिल किए हैं - व्यापक समाज में बेरोजगार युवाओं के रूप में प्रवेश करेंगे हैं और वे किस तरह का माहौल बनाने में मदद कर सकते हैं या किस तरह की सामाजिक अराजकता पैदा कर सकते हैं। शायद वे यह संदेश देना चाहते हैं कि वे समाज में बेरोजगार युवाओं की ऐसी फौज चाहते हैं जो हिंदुत्व की अलगाववादी विचारधारा के लिए तोप का चारा बन जाए?

जो भी हो, यह भारत के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने के लिए एक बड़ा खतरा है और गणतंत्र के लिए एक हिंसक भविष्य का संकेत देता है। यह एक खुला रहस्य है कि जिन समाजों में आबादी का बड़े पैमाने पर सैन्यीकरण हुआ है और जहां तथाकथित बहुसंख्यक न केवल सशस्त्र हैं, बल्कि उन्हें इसके इस्तेमाल का प्रशिक्षण भी मिला है, वहां संघर्ष की स्थितियों (धार्मिक या सांप्रदायिक आधारों पर) में, बहुसंख्यक समुदाय ऐसे अवसरों से वंचित ‘अल्पसंख्यकों’ पर जबरदस्त दुख बरपाने में सक्षम रहा है।

सुरक्षा विशेषज्ञ और विश्लेषक सुशांत सिंह, जो सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च से जुड़े थे, ने इस तरह के सैन्यीकरण के सामाजिक प्रभावों और लोगों को हथियारबंद करने के सामाजिक हिंसा पर पड़ने वाले गंभीर प्रभाव के बारे में लिखा है।

वह यूगोस्लाविया में किए गए जातीय सफाए के बारे में लिखते हैं - इसके धीमे विघटन के बाद - या कैसे अफ्रीका के रवांडा में हुतु जनजाति के सशस्त्र मिलिशिया के हाथों अल्पसंख्यक तुत्सी और कुछ मध्यम मार्गी हुतुओं की बड़े पैमाने पर हत्याएं हुईं। मोटे अनुमान के अनुसार 7 अप्रैल 1994 से 15 जुलाई 1994 के बीच रवांडा में हुए नरसंहार में 5 से 6.25 लाख लोग मारे गए थे।

हम खुद भी - और बाकी दुनिया भी - भारतीय उपमहाद्वीप के विभाजन के समय हुई हिंसा के बारे में जानते हैं। अनुमान है कि विभिन्न समुदायों के 10-20 लाख लोग मारे गए और 1 करोड़ 20 लाख से ज़्यादा लोगों को जबरन उनके घरों से विस्थापित होना पड़ा था। अध्ययनों से यह भी पता चलता है कि सीमा के दोनों तरफ़ पंजाब के उन इलाकों में ज़्यादा हिंसा हुई जो ज़्यादा हथियारबंद थे। याद रखें कि पंजाब के लोग बड़ी संख्या में ब्रिटिश सेना में भर्ती होते थे और ऐसे सेवानिवृत्त सैन्यकर्मियों की संख्या दोनों तरफ़ काफ़ी ज़्यादा थी।

इस तथ्य को देखते हुए कि भारतीय उपमहाद्वीप में बहुसंख्यकवादी हिंसा बढ़ रही है, अल्पसंख्यक समुदायों को कई तरीकों से निशाना बनाया जा रहा है और ऐसी हिंसा को सत्ता में बैठे लोगों का पूरा समर्थन हासिल है तथा मीडिया भी पक्षपातपूर्ण दिखता है, यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि हम सतर्क रहें।

आज स्थिति यह है कि तथाकथित धार्मिक या अन्य सम्मेलनों में धार्मिक अल्पसंख्यकों के नरसंहार का खुला आह्वान किया जाता है, लेकिन न केवल कार्यपालिका चुप रहती है, बल्कि अपवादस्वरूप मामलों को छोड़कर न्यायपालिका की भूमिका भी बहुत खराब रहती है।

ऐसी विस्फोटक स्थिति में यह कल्पना करना आसान है कि ऐसे बेरोजगार युवा - जिन्होंने चार साल तक सेना में प्रशिक्षण हासिल किया है - समाज में किस तरह का सामाजिक प्रभाव पैदा कर सकते हैं, खासकर जिन युवाओं के पास हथियार रखने का लाइसेंस है।

यह रवांडा नरसंहार का तीसवां वर्ष है और मानवता के खिलाफ़ ऐसे अपराधों को हमेशा के लिए इतिहास में दर्ज करने के लिए सभी प्रयास किए जाने चाहिए। इस तथ्य को देखते हुए हमारे लिए बहुत कुछ सीखने को है कि इसमें वह सब कुछ है जिसे लेखक ‘आज के भारत में भयानक समानताएं’ कहते हैं।

भारत में इस दिशा में शुरुआत तब की जा सकती है जब अगिनवीर योजना को अंततः समाप्त कर दिया जाएगा।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

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