नागालैंड ओटिंग नरसंहार और लोकतंत्र में अपवाद की स्थिति
भारतीय सेना की एक विशेष बल इकाई ने इस महीने की शुरुआत में नागालैंड के मोन ज़िले के एक गांव- ओटिंग में दिन का काम पूरा कर लेने के बाद खनिकों को घर ले जा रही एक वैन पर घात लगाकर हमला किया। इस हमले में छ: खनिक मारे गये, कई घायल हुए, और उसके बाद हुए विरोध के बलवे और दहशत में सेना के एक जवान के साथ-साथ सात और नागरिक मारे गये।
कुछ दिनों बाद संसद के सामने दिये गये एक बयान में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने खेद जताते हुए कहा कि सेना के विशेष बलों ने "आतंकवादियों के ख़िलाफ़ अभियान" चलाते समय ग़लती से "नागरिकों को आतंकवादी" समझ लिया था। उन्होंने कहा कि इस स्थिति की विस्तार से समीक्षा की गयी है ,ताकि "सामान्य स्थिति बहाल” की जा सके। आख़िर में गृह मंत्री ने सभी "ज़रूरी उपायों" के ज़रिये "अमन और चैन" को सुनिश्चित करते हुए "इस चल रहे घटनाक्रम की स्थिति पर कड़ी नज़र रखने" का यक़ीन दिलाया।
उग्रवाद का मुक़ाबला करने के वैध उद्देश्य की ओर इशारा करते हुए गृह मंत्री ने कमांड पदानुक्रम में किसी भी तरह की स्पष्ट गुनाह की माफ़ी की पेशकश कर दी। ग़ौरतलब है कि उग्रवाद को ऐसी व्यवस्था-विरोधी राजनीति के रूप में देखा जाता है, जिसमें अक्सर हिंसा शामिल होती है। यह उग्रवाद उन राज्यों में है, जो लोकतांत्रिक वैधता के दावे पर टिके हुए हैं, जिसमें कि अपवाद वाली स्थिति के पैदा करने की शर्त होती है। चूंकि सशस्त्र बल (विशेष बल) अधिनियम (AFSPA), 1958 में भारत के उत्तर-पूर्वी सीमावर्ती क्षेत्रों में उग्रवाद से निपटने के लिए लगाया गया था। इन क्षेत्रों में "सामान्य स्थिति" का मतलब लोकतांत्रिक मानदंडों के लिए स्थायी अपवाद की स्थिति होती है।
मगर इस "अपवाद" के नज़रिये से किसी राज्य के रूप में "सामान्य स्थिति" की आकांक्षा के इस आह्वान में अनचाही विडंबना है। उस मंत्री के लिए इस "सामान्य स्थिति" और "अमन और चैन" की बहाली का मतलब बहुत अलग चीज़ें हो सकती है, जो जवाबदेही के बिना सत्ता का इस्तेमाल कर रहे हैं और आम नागरिक लगातार सत्ता के निशाने पर होता है।
राजनीतिक पृष्ठभूमि
नागा विद्रोह के साथ हुई शांति वार्ता ने पहले 1975 में शिलांग समझौते का रूप लिया था, और फिर 1997 में नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ़ नागालैंड, या एनएससीएन (IM) के इसहाक-मुइवा गुट के साथ युद्धविराम हुआ था। 2015 में बड़ी धूमधाम के साथ नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली सरकार ने ऐलान किया था कि 1997 में शुरू हुई बातचीत से एक ऐसा "बुनियादी समझौता" सामने आया था, जिससे अंतिम समझौता निकल सकता है। इसके बाद के सालों में इस बुनियादी समझौते का ब्योरा पूरी तरह से गोपनीय रहा है और इस सिलसिले में बहुत कम प्रगति हो पायी है।
लेकिन, अगस्त, 2020 में एनएससीएन(IM) ने अधीरता दिखाते हुए बहुत ही जल्दबाज़ी में इस बुनियादी समझौते का ब्योरा जारी कर दिया। उन्होंने कहा था कि इस समझौते की प्रगति में बाधा पहुंचायी गयी है, क्योंकि केंद्र को समझौते के उस ढांचे के एक प्रमुख सिद्धांत, यानी नागा लोगों और बड़े राष्ट्र राज्य के बीच की साझी संप्रभुता को लेकर अफ़सोसजनक़ या चिंताजनक स्थिति बन गयी है। उस बुनियादी समझौते में इस्तेमाल हुआ प्रासंगिक वाक्यांश-"संप्रभु सत्ता की साझेदारी" और "दो संस्थाओं के शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व” स्थायी समावेशी नये रिश्ते" की ओर इशारा करता है।
एनएससीएन (IM) की दलील है कि सरकार की ओर से वार्ताकार रहे एक पूर्व ख़ुफ़िया अधिकारी ने इस परिकल्पित रिश्ते के ब्योरे में इस्तेमाल हुए उस जोड़े गये शब्द, यानी "नया" को हटा दिया था। उनकी नज़र में यह मामूली बदलाव दिखायी देता है, मगर इससे वार्ता के दायरे और महत्वाकांक्षा में अहम ह्रास आया है। जोड़े गये इस "नया" शब्द के साथ सरकार, नागरिक समाज और नागरिक के बीच के रिश्तों में एक आदर्श बदलाव संभव था। इसके बिना यह संभावना ज़्यादा के बनिस्पत कहीं कुछ कम थी।
लोकतंत्र में 'अपवाद की स्थिति' और 'संप्रभुता का विरोधाभास'
जैसा कि इतालवी राजनीतिक दार्शनिक जियोर्जियो एगाम्बेन ने प्रतिपादित किया है कि "संप्रभुता" और "अपवाद" शब्द बहुत ही बारीक़ी के साथ एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। लोकतांत्रिक शासन ने हमेशा ही इस "अपवाद की स्थिति" को लेकर पर्याप्त गुंज़ाइश की स्थिति बनाये रखी है। यह अपवाद की स्थिति एक ऐसा ग़ैर-मामूली उपाय रहा है, जिसे संविधान को अपनी हिफ़ाज़त के लिए अपनाना पड़ता है। इसके अतार्किक होने की स्थिति किसी राजनीतिक सिद्धांतकार के बेचैनी से भरे हठ में समाहित है, जिसे इतालवी राजनीतिक दार्शनिक जी.अगाम्बेन इस तरह उद्धृत करते हैं: लोकतंत्र की रक्षा में कोई भी बलिदान, यहां तक कि ख़ुद लोकतंत्र का बलिदान भी मुनासिब है।
अगम्बेन इस बातो लेकर बताते हैंकि अपवाद के इस मुद्दे पर राजनीतिक सिद्धांत को हमेशा किस तरह विभाजित किया गया है। कुछ लोगों की दलील है कि कोई संवैधानिक आदेश बेहद ज़रूरत की स्थितियों में अपने निलंबन का प्रावधान कर सकता है। वहीं कुछ दूसरे लोगों का कहना है कि यह धारणा ही अपने आप में बेतुकी है, क्योंकि अपवाद की यह स्थिति संवैधानिक व्यवस्था से बाहर है और परिभाषा के मुताबिक़, इस धारणा को क़ानून तो नहीं माना जा सकता। यह पूरी तरह से एक शासनात्मक विशेषाधिकार है।
इस लिहाज़ से यह साफ़ हो जाना चाहिए कि केंद्र ने नागा क्षेत्रों में अमन-चैन को लेकर बुनियादी समझौते पर रोक क्यों लगा दी है। अगम्बेन को फिर से उद्धृत करते हुए कहा जा सकता है कि आधुनिक लोकतंत्रों में "संप्रभुता का विरोधाभास" यह है कि इसे लोगों की ओर से मिलने वाली शक्ति के रूप में देखा जाता है। लेकिन, संप्रभु सत्ता अपवादों को भी तो तय करती है। सत्ता के संविधान और क़ानूनी शक्ति के इस्तेमाल के बीच एक विरोधाभास होता है और इस विरोधाभास का हल इस उपाय से तो नहीं किया जा सकता।
ओटिंग नरसंहार के बाद नागालैंड और दूसरी जगहों पर सिविल सोसाइटी समूहों ने सशस्त्र बल (विशेष बल) अधिनियम (AFSPA) को तत्काल निरस्त किये जाने की मांग की है। सही मायने में आगे की शांति की तलाश को लेकर इस मांग को एक पूर्व शर्त बना दिया गया है। पहले असम और मणिपुर और फिर बाद में शामिल किये गये राज्य मिज़ोरम और नागालैंड की सीमाओं के भीतरी इलाक़े इस सशस्त्र बल (विशेष बल) अधिनियम (AFSPA) के लागू किये जाने वाली पहली प्रयोगशाला थे। उस अपवाद की स्थिति को तब से जम्मू और कश्मीर और कुछ समय के लिए पंजाब तक भी विस्तार कर दिया गया था।
अतीत की तरह ओटिंग हत्याकांड ने देश के दूसरे हिस्सों में आंतरिक संघर्ष की स्थितियों में ज़्यादा से ज़्यादा सैन्य बल के लिए सज़ा से मुक्ति के ख़तरों को लेकर एक सार्वजनिक बहस का सिलसिला शुरू कर दिया है। अगर अतीत कोई मिसाल बनता है, तो यह बहस एक स्वाभाविक मौत मर जायेगी, जिसे दूर-दराज़ के इलाक़ों को लेकर बरती गयी उदासीनता की जानी-समझी रुग्णता से ग़लत साबित कर दिया गया है। जो आम समझ है, वह यह है कि उस पक्ष के लिए सज़ा से छूट का एकमात्र हल भारी सैन्य बल के इस तर्क को स्वीकार कर लेना है, जो मुख्यधारा की भारतीय राय पर एक ज़बरदस्त असर डालता है।
"अमन और चैन" की जल्द बहाली किये जाने वाले अपने आह्वान के साथ ही गृह मंत्री ने संसद को यह भी बताया कि प्रभावित इलाक़ों में "निषेधाज्ञा" लागू कर दी गयी है। इस बीच मोन ज़िले में सिविल सोसाइटी संगठनों ने सेना के काफ़िले के आने-जाने पर प्रतिबंध लगाने का ऐलान कर दिया है।
संवैधानिक अधिकार, और सशर्त छूट
नागरिक संप्रभुता अविभाज्य रूप से अपने आप में पूर्ण है और इसी तरह संवैधानिक अधिकार भी अपने आप में पूर्ण है। हालांकि, सभी नागरिकों पर लागू होने वाले भारतीय संविधान में आपातकालीन प्रावधानों के अलावा कई प्रमुख अधिकारों की गारंटी भी शामिल है। इसके बावजूद इसमें ऐसा अनुच्छेद भी है, जो अपवादों का प्रावधान करता है। इस तरह, मनमाने ढंग से गिरफ़्तारी के ख़िलाफ़ वह सुरक्षा किसी भी क़ानून से मान्य होती है, जिसे निवारक निरोध के लिहाज़ से प्रदान किया जा सकता है और मौलिक अधिकारों को लागू करने में न्यायपालिका का रिट क्षेत्राधिकार उन परिस्थितियों में सीमित हो जाता है, जहां मार्शल लॉ लागू हो सकता है।
भारत के संविधान का अनुच्छेद 14 सभी "व्यक्तियों" को क़ानून के बराबर संरक्षण और क़ानून के सामने बराबरी का वादा करता है। यह एक बिना शर्त आश्वासन है और यह अनुच्छेद आकस्मिक अमल की किसी भी तरह की कमी से ग्रस्त नहीं है। इसके बावजूद, राजनीति और क़ानूनी सिद्धांत उन साधनों के साथ संघर्ष करते रहे हैं, जिनके ज़रिये इस अमूर्त वादे को एक ऐसे देश में लागू किया जा सकता है, जहां विरासत में मिली ग़ैर-बराबरी का रोज़मर्रे की ज़िंदगी पर एक ज़बरदस्त असर है।
सकारात्मक कार्रवाई वाले न्यायशास्त्र से निकले एक दार्शनिक झुकाव का यह मानना है कि ऐतिहासिक नुक़सान को दूर करने के लिए बराबरी वाले अनुच्छेद के अमल में सशर्त छूट की कलाकारी की जा सकती है। दूसरी तरफ़, न्यायशास्त्र में नये रास्ते तलाशने के लिहाज़ से 1970 के दशक में सुप्रीम कोर्ट के रास्ते एक और सिद्धांत दिया गया था, जिसके मुताबिक़ ग़ैर-बराबरी के शिकार हुए लोगों के साथ समान व्यवहार असमानता के सिद्धांत का खंडन था। छूट से दूर कम सामाजिक और शैक्षिक थाती वालों को दी जाने वाली प्राथमिकतायें समानता के इस सिद्धांत की कहीं ज़्यादा एक मज़बूत पुष्टि थी।
सवाल है कि क्या इतिहास और संस्कृति के आधार पर नागरिकों की श्रेणियों से जुड़े मामलों में "समान लेकिन विशिष्ट" का सिद्धांत लागू किया जा सकता है? संविधान का पूर्ववर्ती अनुच्छेद 370 जम्मू और कश्मीर के लोगों को एक विशेष दर्जा देने का आश्वासन देता था, साथ ही अनुच्छेद 371ए भी था, जिसने नागालैंड में निर्वाचित विधायी निकायों के लिए कुछ संप्रभु अधिकारों को सुनिश्चित किया था। भूतपूर्व राज्य जम्मू-कश्मीर के भीतर के राजनेताओं की मिलीभगत से संविधान से मिले विशेषाधिकारों को धीरे-धीरे ख़त्म कर दिया गया, जिन्होंने लंबे समय तक आम लोगों के बजाय केंद्र के प्रति जवाबदेही के सिद्धांत पर काम किया था। अंतिम झटका अगस्त 2019 में तब लगा था, जब अनुच्छेद 370 को एक प्रक्रियात्मक छल-कपट से ख़त्म कर दिया गया, जबकि राज्य में विधायी शक्ति राज्यपाल के पास थी।
वहीं अनुच्छेद 371ए के मामले में नागालैंड में राज्य विधायिका को हासिल हर उस विशेषाधिकार को उस उप-अनुच्छेदों से प्रभावी रूप से ख़त्म कर दिया गया था, जो राज्यपाल में सुरक्षा, बजटीय ख़र्च और बहुत सारे और मामलों में इस तरह की शक्तियां निहित थी।
अगर इस लिहाज़ से देखा जाये, तो नगा क्षेत्रों को किसी भी रूप में संप्रभु सत्ता सौंपने को लेकर केंद्र के विरोध के पीछे का यह तर्क साफ़ तौर पर सामने आ जाता है। अपवाद बनाने की उस संप्रभु शक्ति का इस्तेमाल इस तरह से नहीं किया जा सकता है, जो ख़ुद को ही ख़त्म कर दे। अनुच्छेद 370 और 371ए राष्ट्र-राज्य की परिधि से लोगों को लोकतांत्रिक शासन के एक सुगठित ढांचे में खींचने के इरादे के प्रतीक थे। इसका वास्तविक असर तो लगभग न के बराबर था, क्योंकि इन विशेष प्रावधानों को अपवाद बनाने की इसी शक्ति से कुचल दिया गया था, इन क्षेत्रों में लोगों को संवैधानिक व्यवस्था के तहत दिये गये मूल अधिकारों से वंचित कर दिया गया।
विविधता एक ऐसा मूल्य था, जिसका उत्सव भारत ने एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में अपने अस्तित्व के आने के समय से ही मनाया था, लेकिन आज भारत की वही विलक्षणता जड़वत हो गयी है। विभिन्न नीतिगत क़दमों को विलक्षणता के इस आदर्श को सामान्य मानकों से एकजुट हुए "एक राष्ट्र" की पूर्ति के रूप में चित्रित किया गया है। वस्तु और सेवा कर (GST) की शुरूआत में कराधान व्यवस्था की विलक्षणता को भी इसी रूप में रेखांकित किया गया था, और पूरे देश के लिए एक एकल नागरिक पहचान पत्र, एक एकीकृत बिजली ग्रिड और संघ और राज्यों के स्तर पर एकीकृत चुनावी चक्र की आकांक्षा को भी इसी लिहाज़ से सामने रखा जाता रहा है। भावों में बह जाने के पलों में प्रधान मंत्री और उनके राजनीतिक सहयोगियों को एकल संस्कृति से एकजुट हुए राष्ट्र को लेकर एकालाप करते सुना जाता है।
संवैधानिक मानकों की एकरूपता को अनुच्छेद 370 को निरस्त करने और जम्मू और कश्मीर के दर्जे को छिन्न-भिन्न करने में भी रेखांकित किया गया है। यह अपने आप में पर्याप्त कारण है कि नागालैंड के लिए ख़ास तौर पर संप्रभु शक्तियों को शामिल करते हुए कोई विशेष संवैधानिक अपवाद नहीं बनाया जा सका। केंद्र आज अपने ख़ुद के बनाये जाल में फंस गया है, जहां ख़ास तौर पर सांस्कृतिक और भौगोलिक परिधि से बहुलता के दावे को अधिकारों के इस निलंबन के ज़रिये ख़त्म कर दिया गया है। जर्मन-अमेरिकी दार्शनिक हन्ना अरेंड्ट के शब्दों में भारत की उस सीमावर्ती भूमि पर "अधिकार पाने का अधिकार" लगातार हमले की ज़द में है, जहां लोग "मानवता से जुड़े" हक़ को हासिल करने को लेकर संघर्ष कर रहे हैं।
(सुकुमार मुरलीधरन दिल्ली क्षेत्र स्थित जिंदल स्कूल ऑफ़ जर्नलिज्म एंड कम्युनिकेशन में पढ़ा रहे हैं। वह प्रिंट मीडिया में काम करते हुए तीन दशकों से ज़्यादा से पत्रकारिता कर रहे हैं और पत्रकारिता के प्रशिक्षक रहे हैं। व्यक्त विचार निजी हैं।)
मूल रूप से लीफ़लेट में प्रकाशित
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें
The Oting Massacre and the State of Exception in Democracies
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