वो आपातकाल और अब ये
एक दशक से पहले तक 25 जून, 1975 को लगाए गए आपातकाल की यादें धूमिल होती जा रही थीं। जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल के लिए माफी मांगी तो लगा कि हमारे इतिहास का एक भयावह काल खत्म हो गया है और अब यह वापस कभी नहीं आएगा। 46 साल बाद यह एहसास हो रहा है कि हम गलत थे। आपातकाल की छाया एक बार फिर से दिख रही है। हालांकि, इसका रूप अलग है। अगर आपातकाल एक ‘झटका’ था तो आज की स्थिति ‘हलाल’ की तरह है जिसमें लोकतंत्र को हमारी राजव्यवस्था से अलग किया जा रहा है। कई तरह से देखा जाए तो यह अधिक सूक्ष्म और खतरनाक है।
आपातकाल ने शासन के विरोधाभासों को पैदा किया था। उस समय के सांसद पी.जी. मावलंकर ने इसे ‘संवैधानिक तानाशाही’ कहा था। इंदिरा गांधी ने बड़े ध्यान से संविधान के अनुच्छेद-352 के एक प्रावधान का इस्तेमाल करके आपातकाल लगाया था। विपक्ष के 59 सांसदों को जेल में बंद किया गया था। साथ ही उस समय की सरकार का विरोध करने वाले कई लोगों और पत्रकारों को भी गिरफ्तार किया गया था। प्रेस का दमन किया गया। न्यायपालिका को अनुशासित करने के प्रयास किए गए। नागरिकों के मौलिक अधिकारों को निलंबित करने के लिए जल्दी-जल्दी संवैधानिक संशोधन किए गए। आपातकाल को असाधारण परिस्थिति माना गया और यह उम्मीद की गई कि स्थितियां सामान्य होंगी।
आज शासन में विरोधाभास सामान्य हो गया है। यह कई चीजों को तोड़-मरोड़कर लगातार किया जा रहा है। जब कोविड की दूसरी लहर आई तो केंद्र सरकार ने हिंदू त्योहारों और चुनावी रैलियों में भीड़ को प्रोत्साहित किया। यह सब तब हुआ जब जीवन बचाने के लिए अस्पतालों में पर्याप्त मेडिकल सुविधाएं और ऑक्सीजन सिलिंडर नहीं उपलब्ध हो पा रहे थे। टीकाकरण को शुरू करने में भी देरी की गई। ऐसे वक्त में भी नरेंद्र मोदी सरकार विरोध करने वालों को सजा देने के काम में लगी रही। इस सरकार के प्रशासनिक ढांचे ने लोगों की चिंता करने की बजाय उन्हें सजा देने को तरजीह दी। इससे गुस्सा भय में बदल गया और असत्य भावुक अपील में। अगर यह स्पष्ट है कि मोदी-अमित शाह की जोड़ी के कहे बिना ये सरकार काम नहीं करती तो ये भी उतना ही सच है कि जब इन दोनों का मन हो तो ब्राजील, हंगरी, फिलीपिंस और तुर्की जैसे देशों की तरह दमन भी हो सकता है।
आपातकाल जल्दबाजी में लगाया गया था। इतिहासकार बताते हैं कि इंदिरा गांधी आपातकाल लगाने को लेकर निर्णय नहीं ले पा रही थीं। लेकिन उनके बेटे संजय गांधी और उनके सहयोगियों ने उन पर इतना दबाव बनाया कि उन्होंने आपातकाल लगाने का निर्णय लिया। इसके बाद भारी उथल-पुथल होने लगी। रातोंरात उनके विरोधियों को जेल में बंद किया गया और उन्हें यातनाएं दी गईं। इंदिरा गांधी देश के लिए कितनी जरूरी हैं, ऐसी सभाओं में शामिल होने के लिए लोगों को पैसे दिए गए। कोई खास वैचारिक तैयारी नहीं थी। वास्तव में आपातकाल ने देश को अराजनीतिक बनाने की कोशिश की। आपातकाल लगाने में अहम भूमिका निभाने वालों में शामिल संजय गांधी ने यह घोषणा की थी वे राजनीति से ऊब गए हैं। इसी वैचारिक पृष्ठभूमि में तुच्छ और खाली बीस-सूत्री और पांच-सूत्री कार्यक्रम उभरे थे। साथ ही यह बात भी प्रमुखता से चली थी कि उस समय की प्रधानमंत्री ही राष्ट्र की प्रतीक हैं। आपातकाल लगाए जाने के पहले 1974 में कांग्रेस नेता देवकांत बरूआ ने कहा था, ‘इंदिरा ही इंडिया हैं और इंडिया ही इंदिरा है।’
अभी जिस हिंदुत्व का राज है, उसके दो ईंजन हैं। अगर मोदी-शाह की जोड़ी में केंद्रित ताकत इंदिरा-संजय के राज की याद दिलाती है तो इस नई जोड़ी में ऐसा कुछ भी है जो आपातकाल में नहीं था। भारतीय जनता पार्टी के पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सांस्कृतिक परिवर्तन का एजेंडा बहुत पुराना रहा है। आपातकाल लगने की आधी सदी पहले यानी 1925 से ही यह संगठन इस दिशा में सक्रिय रहा है।
ध्यान देने की बात है कि प्रधानमंत्री मोदी ने भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू पर तो काफी हमले किए हैं लेकिन उनकी बेटी इंदिरा गांधी पर उतने प्रहार नहीं किए। वास्तव में इंदिरा गांधी और नरेंद्र मोदी दोनों की राजनीतिक शैली एक जैसी है। दोनों में करिश्मा है और दोनों ने इसका इस्तेमाल संसद से परे जाने के लिए किया। उनकी पार्टी और उनका प्रशासन उनके द्वारा चुने गए प्रशासकों द्वारा चलाया जाता है।
आपातकाल को इंदिरा गांधी के साथ जोड़कर देखा जाता है। लेकिन इसके लिए वे अकेली जिम्मेदार नहीं रहीं। उनके छोटे बेटे ने तानाशाही वाले इस निर्णय का क्रियान्वयन किया। 29 साल की उम्र में संजय गांधी की एकमात्र उपलब्धि यह थी कि ‘जनता की कार’ बनाने के लिए उन्होंने सरकारी ठेका हासिल किया और फिर सरकारी संस्थाओं से कर्ज लेकर और वसूली करके कंपनी को सब्सिडी दिया। वे जिस एक अकबर रोड में रहते थे, वह सत्ता का असली केंद्र था। क्योंकि उनके बारे में यह माना जाता था कि उनका निर्णय उनकी मां की अनुमति से होता है। उस वक्त शासन में राजनीतिक प्रतिनिधित्व को नजरंदाज करते हुए और केंद्रीय कैबिनेट को दरकिनार करते हुए कुछ चुने हुए अफसरशाहों और पुलिस अधिकारियों के जरिए काम करने का तरीका इन्होंने निकाला था।
इंदिरा और संजय ने साथ मिलकर राजनीतिक प्रतिनिधित्व को प्रशासनिक आदेशों में तब्दील कर दिया था। इंदिरा गांधी ने कांग्रेस पार्टी को अपने आदेशों के विस्तार में बदल दिया था। 1971 में हुए आम चुनावों में इंदिरा गांधी ने अपनी पार्टी को भारी जीत दिलाई थी। इससे उनकी लोकप्रियता बढ़ी और फिर इसी साल बांग्लोदश युद्ध हुआ जिसमें वे कामयाब रहीं। इसके बाद उनके विरोधियों ने भी उनकी तुलना देवी दुर्गा से की थी। उन्होंने लगातार यह दावा किया पार्टी का एक रूढ़िवादी धड़ा और विपक्ष साथ मिलकर उन्हें ‘गूंगी गुड़िया कहते हुए सत्ता से बाहर करना चाहता है जबकि वे देश से ‘गरीबी हटाना’ चाहती हैं।
उस समय की स्थितियों और अभी की स्थितियों में काफी समानताएं हैं। मोदी ने सत्ता का इतना केंद्रीकरण कर दिया है कि निर्णय ले लिए जाते हैं और संबंधित विभाग के मंत्री को पता भी नहीं होता है। क्या उस समय के वित्त मंत्री अरुण जेटली जानते थे कि 2016 में नोटबंदी होने वाली है? वास्तव में मंत्रियों को थोड़े इज्जतदार जनसंपर्क अधिकारी में तब्दील कर दिया गया है। प्रधानमंत्री और उनके सहयोगी अपने कार्यालय से पूरी सरकार चलाते हैं। अगर कोई बात मानने से इनकार करता है तो उसे हटा दिया जाता है। भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन के साथ यही हुआ। ऐसे लोगों को हटाकर गैर-विशेषज्ञों को लाया जाता है।
आपातकाल में प्रशासकों का चयन योग्यता के बल पर नहीं बल्कि हां में हां मिलाने की क्षमता को देखकर होता था। 31 मार्च, 2020 को गृह सचिव अजय भल्ला ने भारत के मुख्य न्यायाधीश शरद ए. बोबड़े को बताया कि देश की सड़कों पर एक भी प्रवासी मजदूर नहीं है। जबकि उस वक्त देश हाल के इतिहास की सबसे बड़े पलायन से जूझ रहा था। आपातकाल की तुलना में देखें तो प्रशासनिक संस्थाओं की स्वतंत्रता और अधिक खत्म हुई है। चुनाव आयोग, सशस्त्र बलों, न्यायपालिका, नियंत्रक और महालेखा परीक्षक जैसी संस्थाएं राजनीतिक हस्तक्षेप से अपनी स्वतंत्रता के लिए जानी जाती हैं लेकिन अभी ये मोदी-शाह की जोड़ी के साथ मिलकर उनकी हिंदुत्व की परियोजना के लिए काम करती दिखती हैं।
यह सही है कि नागरिक स्वतंत्रताओं और मानवाधिकारों की रक्षा के लिए बने कानूनों को निलंबित करने से आपातकाल लगाना आसान हो गया था। इंदिरा गांधी के विश्वस्त सलाहकार पीएन हक्सर ने कहा था कि प्रतिबद्ध न्यायपालिका और ब्यूरोक्रेसी के कितने लाभ हैं। अभी औपचारिक तौर पर मीडिया, न्यायपालिका और राजनीतिक दल स्वतंत्र हैं। लेकिन लोगों को किसी भी तरह देशद्रोह (राजद्रोह) के कानून या अन्य ऐसे कानूनों के तहत उठाया जा सकता है और जिस तरह से मीसा कानून में पक्ष रखने का मौका नहीं मिलता था, वही अब भी हो रहा है। पीड़ितों को इस तरह से चुना जा रहा है कि सरकार का खौफ बना रहे। 80 साल के स्टैन स्वामी को सिपर इस्तेमाल करने की इजाजत नहीं मिली।
आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था अधिनियम यानी मीसा {Maintenance of Internal Security Act (MISA)} की तरह ही गैरकानूनी गतिविधियां प्रतिरोधक कानून {Unlawful Activities (Prevention) Act (UAPA)} के प्रावधान भी बेहद व्यापक हैं। अंग्रेजों के जमाने के इस कानून का इस्तेमाल अपने प्रोपेगैंडा की जरूरतों को ध्यान में रखकर देशद्रोह का मामला बनाने के लिए किया जा रहा है। ऐसा करके सरकार आरोपियों को बुनियादी सुविधाएं देने से भी पल्ला झाड़ लेती है।
इससे लगातार तानाशाही प्रवृत्ति को मान्यता मिलती जा रही है। हिंदुत्ववादी संगठनों द्वारा सोशल मीडिया का इस्तेमाल करना इस कड़ी में एक नई प्रवृत्ति है। यह सही है कि सोशल मीडिया दोधारी तलवार है। हाल के दिनों में इस पर सरकार की आलोचना बढ़ी है। इसका परिणाम यह हुआ कि विरोध का गला घोंटने के लिए निजता कानून के नाम पर नए कदम उठाए जा रहे हैं। हालांकि, इससे कोई इनकार नहीं कर सकता कि सोशल मीडिया का सबसे सही इस्तेमाल भाजपा के आईटी सेल ने किया है। संबित पात्रा ने जैसे ‘टूलकिट’ का पूरा फर्जी मामला बनाया है, वैसे ही फर्जीवाड़े को प्रचारित करने के लिए इसका इस्तेमाल हुआ है। इसके जरिए प्रताड़ित करने वाले मामलों का तेजी से प्रसार होता है। जैसे सामाजिक कार्यकर्ता नताशा नरवाल को अपने मरते पिता से नहीं मिलने देने का मामला। सोशल मीडिया ऐसे सामाजिक कार्यकर्ताओं के मन में सरकार और सत्ताधारी पार्टी का भय बैठाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है।
आपातकाल में भी दमन किया गया था। संजय गांधी जनसंख्या नियंत्रण और शहरी सौंदर्यीकरण पर आमादा थे। इन दोनों अभियानों के जरिए गरीबों और मुसलमानों को निशाना बनाया गया। इसके लिए संजय गांधी ने ऐसे अभियान चलाए जिसमें गोली और मौत की अहम भूमिका थी। उस समय ऐसी ही एक घटना दिल्ली के तुर्कमान गेट पर हुई थी। संजय को उस वक्त दिल्ली विकास प्राधिकारण के उपाध्यक्ष जगमोहन से पूरी मदद मिल रही थी। जगमोहन ने किलों के शहर का गौरव वापस दिलाने को लेकर कविताएं लिखी थीं। इन लोगों ने बुलडोजर लगाकर गरीबों के घर गिरवाए थे और गरीबों को हटाकर शहर को सुंदर बनाने की कोशिश की थी। पीड़ित नागरिकों और कारोबारियों ने संजय गांधी की करीबी माने जानी वाली रूखसाना सुल्ताना से मदद मांगी। हालांकि, वे खुद अपना नसबंदी कैंप चला रही थीं। सुल्ताना ने सीधी मांग की कि उन्हें एक निश्चित संख्या में लोगों को नसबंदी के लिए भेजना होगा। लेकिन इतने से भी बात नहीं बनी। जब पुलिस और अद्धसैनिक बलों का सामना नाराज स्थानीय लोगों से हुआ कि सुरक्षाबल एक मस्जिद में घुसे और डरे हुए तकरीब 2,000 लोगों की भीड़ पर गोलियां चलाईं। इसके बाद पुरानी दिल्ली में तलाशी अभियान चला जिसमें काफी तोड़फोड़, मारपीट, बलात्कार और आभूषण चुराने का काम किया गया। 840 से अधिक मकानों को तोड़ दिया गया। इस अभियान में मारे गए लोगों की संख्या जगमोहन ने छह बताई लेकिन दूसरे स्रोतों से इनकी संख्या 1,600 तक बताई गई।
संजय गांधी ने सौंदर्यवादी अधिनायकवाद की परिकल्पना करके उसका क्रियान्वयन किया। मोदी उसे ही आगे बढ़ा रहे हैं। उन्हें भी पता है कि हिंदू राष्ट्र के एजेंडे को आगे बढ़ाने में स्थापत्य कला और शहरी नियोजन का कितना महत्व है। संजय जहां पुरानी दिल्ली को बेहतर बनाना चाहते थे तो मोदी पूरी राजधानी को नया करना चाहते हैं। सेंट्रल विस्टा परियोजना को काफी तेजी से आगे बढ़ाया जा रहा है। वह भी ऐसे समय में जब हजारों लोग स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में मर रहे थे। इसका डिजाइन ऐसा है कि राष्ट्रपति भवन और संसद भवन एक साथ रहेंगे और पूरा प्रशासन प्रधानमंत्री आवास से नियंत्रित होगा। अगर मोदी की चली तो इसके पूरे संकेत मिल रहे हैं कि पूरे देश को नए सिरे से बनाया जाएगा। बनारस में घाटों का सौंदर्यीकरण और अहमदाबाद में मोटेरा स्टेडियम को मोदी के नाम पर करना इसके कुछ शुरुआती उदाहरण हैं।
संजय के पास लोकतांत्रिक सुधारों के लिए सब्र नहीं था। इन सुधारों में वक्त लगता है। वे लोगों को हैरान करने वाली तकनीक पर काम करते थे। उनकी मां भी ऐसा ही करती थीं। कई लोग भूल गए होंगे कि जुलाई, 1969 में बैंकों का राष्ट्रीयकरण और सितंबर, 1970 में प्रिवी पर्स खत्म करने की इंदिरा गांधी की घोषणा ने पूरे देश को हैरान कर दिया था। उनकी तरह मोदी भी चुनावी लोकतंत्र का इस्तेमाल बगैर जनता से विचार-विमर्श के निर्णयों को लेने के लिए कर रहे हैं। कृषि कानूनों को जिस तरह से संसद में पारित किया गया, वह इसका एक उदाहरण है। कॉरपोरेट कृषि को बढ़ावा देने वाला निर्णय बगैर किसानों की राय जाने ले लिया गया। मोदी ने ऐसे कई निर्णय लिए हैं। नवंबर, 2016 में नोटबंदी, अगस्त, 2019 में जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद-370 हटाना और इसके टुकड़े करना और 24 मार्च, 2020 को पूरे देश में लाॅकडाउन लगाना इसके कुछ उदाहरण हैं।
सांस्थानिक प्रक्रियाओं को नजरंदाज करने से मोदी का जादू उनके भक्तों पर बना रहता है। ऐसे निर्णयों के जरिए मोदी एक ऐसे नेता के तौर पर उभरते हुए पेश किए जाते हैं जो बगैर ‘समझौता’ किए निर्णय लेते हैं। चुनावी लोकतंत्र में जिस दबाव-वार्ता-समझौते का जो चक्र चलता है, वह मोदी सरकार के कार्यकाल में टूट गया है। उनकी निर्णय लेने की क्षमता उनके प्रति भक्ति का भाव पैदा करती है। हर हैरान करने वाला निर्णय आम लोगों को अपने सर्वोच्च नेता के प्रति समर्पित बनाता है और लोकतंत्र में जवाबदेही जैसे तत्वों को दरकिनार करता जाता है।
आपातकाल की तुलना में अभी अलग यह है कि अधिनायकवाद को उदार संस्थाओं और चुनावी बहुमत के जरिए नियमित करने की कोशिश हो रही है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अगर इसे लेकर व्यापक जमीनी कार्य नहीं किया होता तो ये संभव नहीं होता। आपातकाल शीर्ष से कानून के जरिए लगाया गया था। मोदी राज और इसके प्रति भक्ति हिंदुत्व की विचारधारा के बगैर संभव नहीं होती।
एक तरफ तो हिंदुत्व पूरे राष्ट्र की हिंदू पूजा पद्धति के हिसाब से पूजा करने की बात करता है। वहीं दूसरी तरफ यह कहता है कि देश के अंदर ऐसे दुश्मन हैं जिनसे हिंदू राष्ट्र की अखंडता को खतरा है। मुसलमानों को निशाना बनाकर अपने पाले में भीड़ को जुटाने का काम होता है। यह कहा जा सकता है कि आपातकाल के दौरान सरकार की ओर से जो हिंसा हो रही थी, उसकी जगह हिंदुत्ववादी संगठनों की हिंसा ने ले ली है। इनके दुश्मन भी अलग-अलग हैं। इनमें ईसाई, वामपंथी, मानवाधिकार कार्यकर्ता, सभी विपक्षी नेता और कभी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के साथ रही पार्टियां भी शामिल हैं। इन पार्टियों में शिव सेना, शिरोमणि अकाली दल और तृणमूल कांग्रेस और जम्मू कश्मीर की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी प्रमुख हैं। पीडीपी ने जम्मू कश्मीर में भाजपा के साथ मिलकर गठबंधन सरकार चलाई लेकिन अनुच्छेद-370 हटने के बाद इसी भाजपा सरकार ने उन्हें उनके घर में ही गिरफ्तार करके रखा।
राष्ट्रीय गौरव और आंतरिक दुश्मनों के प्रति घृणा और संदेह के भाव से एक अलग तरह की भक्ति पैदा होती है। ये भक्त ऐसे हिंदू नेता के प्रति श्रद्धावान होते जाते हैं तो शासन तंत्र और समाज को हिंदुत्व के रंग में रंग रहा हो। करिश्माई नेता और वैचारिक तैयारी का दोहरा ईंजन आपातकाल के लिए उपलब्ध नहीं था। बल्कि उस समय की सरकार को इंदिरा गांधी और उनके बेटे के व्यक्तित्व को प्रचारित करते हुए लोगों को यह समझाने की कोशिश करना पड़ रहा था कि राष्ट्र प्रगति के रास्ते पर बढ़ रहा है।
आपराधिक कुशासन की वजह से महामारी के वक्त बड़ी संख्या में लोगों की हुई मौत ने कुछ भक्तों को जगाया है और उन्हें महसूस कराया है कि बहुत अधिक केंद्रित नेतृत्व की क्या दिक्कतें हैं। लेकिन आपातकाल हटने के बाद जब इंदिरा गांधी ने इसके लिए माफी मांगी, उस वक्त जिस तरह से यह समस्या दूर हुई थी, वैसे अभी होता नहीं दिख रहा। अभी इस तरह के नेतृत्व को ताकत वैचारिक पृष्ठभूमि से मिल रही है। दुर्भाग्य यह है कि अभी ये खत्म होता नहीं दिख रहा।
दिल्ली विश्वविद्यालय के युवा छात्र के तौर पर हमने इसका अनुभव किया है कि लोकतंत्र का खत्म होना किसी परिसर में छात्रों के बर्ताव को किस तरह प्रभावित करता है। वह एक अलग आपातकाल था जिसे हम करीब-करीब भूल गए थे। वरिष्ठ नागरिक के तौर हम घबराहट के साथ यह सोचने की कोशिश करते हैं कि नए वैचारिक माहौल का सामना हमारे बच्चे कैसे करेंगे वह भी एक ऐसी जगह पर जिसे हम गर्व से ‘दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र’ कहते थे। जिसमें लोकतांत्रिक मूल्यों और संस्थाओं को लगातार मजबूत किया गया था।
(लेखक परंजॉय गुहा ठाकुरता वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार, डॉक्यूमेंट्री निर्माता और शिक्षक हैं। प्रदीप कुमार दत्ता एक बुद्धिजीवी हैं। आप जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से प्रोफेसर के तौर पर सेवानिवृत्त हुए हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
नोट: इस लेख का एक संक्षिप्त प्रारूप 25 जून, 2021 को कोलकाता से निकलने वाले दि टेलीग्राफ में अंग्रेजी में प्रकाशित हुआ है।
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