एक था वीर और एक थी बुलबुल
बहुत पुरानी बात है। जंबू द्वीपे, भारत खंडे ने जब यूरोप को लात मारकर परे ठेला, यूरोप तो दूर जा पड़ा पर दक्षिण दिशा में एक चोंच सी निकल आयी और एक टुकड़ा झड़कर सागर में जा पड़ा। कालांतर में, यूरोप वालों ने हमारे पुष्पक विमान ज्ञान को चुरा कर, पानी के जहाज़ बना लिए और उन पर सवार होकर, सात समंदर पार भारत आकर, कारोबार से शुरू करके अपना राज क़ायम कर लिया। तब उन्होंने यहां छोटी-बड़ी, ख़राब और बहुत ख़राब, तरह-तरह की जेलें बनाईं। सबसे भयानक जेल उन्होंने झड़कर समंदर में जा पड़े उस टापू पर बनाई, जिसका नाम अंडमान पड़ गया था। अब एक तो जेल भयानक। बहुत ऊंची-ऊंची दीवारें। जेलर एकदम जल्लाद। ऊपर से टापू को घेरे भयंकर समंदर। हर तरफ काला पानी। जेल में जाने के बाद लौटने का कोई चांस ही नहीं, भागने का तो हरगिज़ नहीं। छूट कर निकलने का भी नहीं के बराबर ही समझो। जो अंडमान गया, समझो दुनिया से ही चला गया।
इसी भयंकर जेल की एक कोठरी में एक वीर रहता था। कोठरी क्या एकदम काल कोठरी थी। न खिड़की, न जंगला। घुप्प अंधेरा। दरवाज़ा तो था, पर सुनते हैं कि दरवाज़े में चाबी लगाने का छेद तक नहीं। ताला भी बाहर ही बाहर लटकने वाला। होने को तो जेल में दूसरे लोग भी थे। दूसरे लोग थे ही नहीं, बहुत सारे बल्कि सैकड़ों दूसरे लोग भी बंद थे। मगर उनमें से किसी में भी वीर वाली बात नहीं थी। उनमें से बहुत से तो वहीं मर-खप गए, कुछ फांसी से और उनसे ज़्यादा ज़ोर-जब्र से। जो बचे रह गए, वो वीर के जाने के बहुत बाद तक जेल में ही बंद रह गए। माना कि कायर तो वे भी नहीं थे; पर वैसे वाले वीर नहीं थे। वीर की टक्कर वाले वीर तो किसी भी तरह नहीं थे। असल में उनमें से ज़्यादातर की वीरता बिना उफ किए विदेशी हुकूमत के ज़ुल्म सहते रहने से आगे नहीं जाती थी। विदेशी राज के ज़ुल्म से लड़ने का हमारे असली वीर वाला हौसला जो नहीं था। वर्ना वीर की तरह, पांच-पांच चिट्ठियों के तीरों से अंग्रेज़ों की नींद हराम नहीं भी करते, तो भी कम से कम माफ़ी की एकाध चिट्ठी देकर, अंग्रेज़ों का काम बढ़ाकर, उन्हें परेशान तो कर ही सकते थे। ख़ैर! वीर न सही, देश के लिए वे भी कुछ न कुछ काम तो आए, सो अमृत काल में प्रवेश करते हुए एक नमन तो उनके लिए भी बनता ही है।
आना बुलबुल का वीर के पास
फिर भी, कहानी कहने और सुनाने लायक वीर तो एक ही था। और वीर जितना बड़ा वीर था, उतना ही बड़ा प्रेमी भी था--देश प्रेमी। वीर था, सो विदेशी राज से लड़ता रहा। रुका नहीं, झुका नहीं, बरसों लड़ता ही गया। पर प्रेमी था, सो वीर के चेहरे पर, बिछोह की उदासी का एक पर्दा सा चढ़ता गया। जब वह वीरता नहीं कर रहा होता था, तब कोठरी की दीवार में जहां खिड़की होनी चाहिए थी पर थी नहीं, उसकी ओर उदासी भरी नज़रों से घंटों ताकता रहता था। पर एक दिन अचानक चमत्कार हुआ और उसने उदासी भरी नज़र उस ग़ैर-खिड़की वाली जगह पर डाली, तो वहां एक खिड़की निकल आयी। और खिड़की भी खाली कहां थी। खिड़की में एक बुलबुल थी, जो चहक रही थी और नाच रही थी और वीर का दिल बहलाने के जतन कर रही थी। वीर के चेहरे पर बरबस हंसी आ गयी। लेकिन, फिर वह यह सोचकर उदास हो गया कि ज़रूर कोठरी के अंधेरे में उसे भ्रम हो रहा है। यहां बुलबुल कहां? बुलबुल ने बड़ी मुश्किल से उसे विश्वास दिलाया कि वह सचमुच की बुलबुल है।
वीर को शक हुआ कि यह दुश्मन की कोई चाल हो सकती है। उसने बुलबुल से कड़ी आवाज़ में पूछा-तू भीतर कैसे आ गयी? नाच-गाकर मेरी तपस्या भंग करने पर क्यों तुली है? पर जवाब में बुलबुल के मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला, बस आंखों से आंसुओं की झड़ी लग गयी। देश-प्रेमी वीर के सारे संदेह भारतीय बलबुल के आंसुओं की बाढ़ में बह गए। वीर ने किसी तरह से चुप कराया तो बुलबुल ने हिचकियों के बीच अपना दर्दभरा क़िस्सा सुनाया। वह भी वीर की तरह अपने देश से बिछुडक़र तड़प रही थी। गोरा जेलर उसे भारत से पकडक़र अपने साथ ले आया था। यहां जब उसे वीर की तड़प का पता चला, तो उससे अपना दु:ख बांटने के लिए तड़प उठी। चूहों की मदद से उसने काल कोठरी की दीवार में छेद कर के बाहर से न दिखाई देने वाली खिड़की बनाई और पहुंच गयी वीर से मिलने। दोनों का दु:ख एक, क़ैद करने वाला एक, प्रेम एक--दोनों रात भर देश की बात करते रह गए। सूर्योदय से पहले बुलबुल वापस चली गयी और जाते-जाते बाहर से खिड़की भी बंद कर गयी।
बुलबुल की सवारी और वीर की देश-दर्शन यात्रा
उसके बाद से बुलबुल ने नियम ही बना लिया। रात होते ही, गुप्त खिड़की से वीर की जेल की कोठरी में आ जाती और दोनों बैठे सुबह तक देश की बातें करते रहते। शुरू-शुरू में वीर के चेहरे की उदासी की परत हल्की भी होने लगी। पर एक दिन बुलबुल को लगा कि उदासी की परत फिर मोटी होने लगी है। उसने वीर से कारण पूछा तो वीर ने गहरी सांस भर कर कहा, देश की बातों से मन नहीं भरता, तड़प और बढ़ जाती है। काश! देश-दर्शन कर पाता। फिर वीर को अचानक ख़्याल आया और उसने बुलबुल के पंखों पर हाथ फेरते हुए कहा--तुझे कौन क़ैद करके रख सकता है, तू तो उड़ सकती है। कम से कम तू तो देश चली जा! बुलबुल ने कहा कि उड़ के तो देश, आप भी जा सकते हैं। आप को देश की ही नहीं, देश को भी अपने वीर की ज़रूरत है। वीर का गला भर आया, बोला क्यों मज़ाक करती हो, मेरे क्या पंख हैं? बुलबुल ने कहा मेरे तो पंख हैं। आप को मैं ले चलूंगी। वीर ने कहा मैं लघु रूप धारण कर लूंगा। बुलबुल ने कहा, मैं विशाल रूप धारण कर लूंगी। दोनों ने कहा--अब क्या कहेेंगे बाद में यह सवाल उठाने वाले कि इतनी छोटी सी बुलबुल, समंदर पार भारत-खंडे तक, वीर को ढ़ोकर कैसे ले गयी होगी!
क़िस्सा देश दर्शन में ब्रेक और माफ़ी की चिट्ठियों का
इस तरह बुलबुल पर सवार होकर वीर, हर रात को भारत भूमि की सैर पर आ जाता था और सूरज उगने से पहले जेल की अपनी कोठरी में पहुंच जाता था। यह सिलसिला बिला नाग़ा कई साल चलता रहा। यहां तक कि बुलबुल और उस पर सवार वीर को इस हवाई रास्ते की इतनी आदत हो गयी कि उड़ान के दौरान उन्होंने झपकी लेना भी शुरू कर दिया। कहते हैं कि एक दिन झपकी के चक्कर में बुलबुल ने नीचे की तरफ डाइव लगा दी और पंख पर सवार वीर, नीचे सागर में जा पड़ा। पीठ पर हल्का सा लगा तो बुलबुल की आंख खुली और उसने झट से सागर की लहरों से निकालकर वीर को अपनी पीठ पर दोबारा बैठा भी लिया, पर वीर की काली टोपी और गोल चश्मा तो वहीं पानी में गिर गए। वीर ने कहा ऐसे मैं क्या भारत दर्शन करूंगा, आज वापस चलते हैं। पर उधर भारत देश में, वीर के दर्शन नहीं होने से तूफ़ान खड़ा हो गया। वीर को क्या हुआ, ऐसा कहकर पूरा देश सड़कों पर उतर आया। विदेशी हुकूमत के यह समझाने में पसीने छूट गए कि वीर अपनी कोठरी में सुरक्षित है। तब जासूसों ने ब्रिटिश राज को वीर और बुलबुल के देश भ्रमण का पूरा क़िस्सा सुनाया। अंग्रेज़ डर गए कि वीर के एक दिन नहीं आने से जो देश उबल पड़ा, वीर को कुछ हो गया तो, यहां पर कैसे राज कर पाएंगे? तब छोटे लाट को आइडिया आया कि वीर से माफ़ी की चिट्ठी लिखवा कर, उसे छोड़ देते हैं। नाक भी बच जाएगी और राज भी। ख़ुद ही चिट्ठी लिखवाई गयी, वह भी ट्रिप्लीकेट में, जैसा कि अंग्रेज़ी राज का क़ायदा था। ग़लती से दो बाबुओं को काम दे दिया गया। बाद में जब वीर से चिट्ठी पर दस्तख़त कराने की कोशिश की गयी, तो वीर ने साफ़ इंकार कर दिया। ज़्यादा ज़ोर-ज़बर्दस्ती की गयी तो, तो वीर ने दस्तख़त करने की जगह चिट्ठी ही निगल ली। पर अंग्रेज़ कहां बाज़ आने वाले थे। एक कॉपी खाने के बाद भी, ट्रिप्लीकेट के चक्कर में चिट्ठी की पांच कॉपियां बची थीं, पट्ठों ने पीछे की तारीख़ें डालकर, वीर के दस्तख़त कर के माफ़ी की पांच-पांच चिट्ठीयां बना लीं। और हद तो यह कि वीर को शर्तों के साथ जेल से छोड़ा तो छोड़ा, साथ में तगड़ी सी पेंशन भी बांध दी कि बंदा, भूख-वूख से बलिदान देकर आफ़त खड़ी नहीं कर दे।
और अंत में विरोधी मत-खंडन
जाते-जाते भी अंग्रेज़ों ने एक चाल चली और वीर का हक मार कर गद्दी, ग़ैर-वीरों को पकड़ा गए। ग़ैर-वीरों ने वीर से जलन की वजह से उसके ख़िलाफ़ बहुत दुष्प्रचार किया। पहले गांधी की हत्या के मामले में घसीट लिया। वह तो भला हो गोडसे का जो कट्टर वफ़ादार चेला निकला और गुरु को क्लीन चिट दे गया, वरना न जाने क्या होता। फिर चिट्ठियों से लेकर पेंशन तक के संबंध में दुष्प्रचार। और यहां तक कि वीर के वीर नाम पर भी सवाल। शोध के नाम पर कुछ लोगों ने तो यह भी साबित कर दिया कि वीर ने ख़ुद अपनी जीवनी लेखकीय छद्म नाम से लिख कर, ख़ुद को वीर नाम दिया था। लेकिन, यह सच नहीं है। वीर नाम दरअसल इस कहानी वाली बुलबुल ने दिया था। वीर का लंबा नाम बार-बार लेने की असुविधा से बचने के लिए, उसने विनायक से वीर कर दिया। और अब जब वीर की वीरता की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए कर्नाटक में स्कूलों में बच्चों को बुलबुल वाली कहानी पढ़ायी जा रही है, तो विरोधी इतिहास में भौतिकी के लॉजिक की मांग कर रहे हैं--नन्ही सी बुलबुल, दुबले सही पर सामान्य क़द-काठी के वीर को ऊपर बैठाकर समंदर पार...कैसे? कवि कल्पना की तो बात ही क्या है, बुलबुलों की सामूहिक ताक़त भी तो वीर का बोझ उठा सकती थी। जाल लेकर उड़ने वाली चिड़ियाओं की कहानी पहले से बच्चों को पढ़ाई जा रही थी, तब तो किसी को आपत्ति नहीं हुई। अब वीर को उड़ाकर ले जाने वाली बुलबुलों पर ही आपत्ति क्यों? हां! किताब में बुलबुल ग़लती से अगर एक वचन में छप भी गया है, तो अगले साल से बहुवचन में कर दिया जाएगा, अगर वीर-भक्त पार्टी की सरकार आयी तो।
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