हिमाचल में यूनियनों को तोड़ने के लिए लगातार बढ़ रहे शारीरिक हमले : विजेंद्र मेहरा, सीटू
बेंगलुरु : 17वां अखिल भारतीय सीटू (सेंटर ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियन) सम्मेलन बेंगलुरू में चल रहा है, जिसमें देश भर के 1,525 प्रतिनिधि, संगठन और ट्रेड यूनियन आंदोलन को बेहतर बनाने के तरीकों पर चर्चा करने के लिए इकट्ठा हुए हैं। न्यूज़क्लिक ने हिमाचल प्रदेश में सीटू के प्रदेश अध्यक्ष विजेंद्र मेहरा से मुलाकात की। उन्होंने पुलिस की बर्बरता, श्रम विभाग और एंप्लॉयर्स के बीच आपसी साँठ-गाँठ और पहाड़ी राज्य में खतरनाक नौकरियों में कार्यरत लोगों के लिए उचित वेतन सुनिश्चित करने के लिए यूनियनों द्वारा शुरू किए गए सफल आंदोलनों के बारे में बात की। संपादित अंश :
निखिल करिअप्पा : हिमाचल प्रदेश में यूनियन बनाने में क्या चुनौतियाँ हैं?
विजेंद्र मेहरा : साल 1988 में, हमारे एक साथी, रविशंकर, जो एक कारखाने में काम कर रहे थे, उनकी यूनियन बनाने की गतिविधियों के चलते हत्या कर दी गई थी। हिमाचल प्रदेश में सीटू की स्थापना के बाद से ही हमारे कैडर पर शारीरिक हमले होते रहे हैं। इसके अलावा, हाइडल (जलविद्युत) उद्योग में हमारे हस्तक्षेप के दौरान, साल 1999 में देवदत्त नामक एक प्रवासी श्रमिक जो यूनियन के सदस्य भी थे उनकी गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। साल 2006 में, हिंदुस्तान कंस्ट्रक्शन कंपनी (एचसीसी) चंबा जिले में एक जलविद्युत परियोजना का निर्माण कर रही थी। जब हम वहां अपनी यूनियन बना रहे थे तो सीटू जिलाध्यक्ष सहित हमारे तीन सदस्यों की हत्या कर दी गई और उनके शवों को राबी नदी में फेंक दिया गया। इसमें कंपनी के अधिकारियों की भूमिका बताई जाती है।
निखिल : क्या आरोपियों को गिरफ्तार किया गया था?
विजेंद्र : हां, लेकिन वे ज़मानत पर बाहर हैं। उनकी मदद के लिए पूरा रूलिंग क्लास एकजुट हो गया। हिमाचल में ऊर्जा क्षेत्र काफी मजबूत है। काफी सारी जलविद्युत परियोजनाओं का निर्माण निजी कंपनियों द्वारा किया जा रहा है। जब भी यूनियन बनाने की कोशिश होती है तो प्रबंधन की तरफ से पलटवार किया जाता है।
साल 2015 में मंडी में आईआईटी कैंपस बनाने के लिए एक निजी कंपनी को लाया गया था। यूनियन के सदस्यों को पीटने के लिए प्रबंधन पंजाब से बाउंसर लेकर आया। लेकिन स्थानीय लोगों ने विरोध किया और चारों गुंडों को जनता ने खदेड़ भगाया। बचने की कोशिश में वे चट्टान से गिर पड़े और उनकी मौत हो गई। पुलिस ने वरिष्ठ नेता राजेश शर्मा के खिलाफ मामला दर्ज किया और उन्हें डेढ़ साल की जेल हुई। जबकि घटना के समय वह मौके पर मौजूद भी नहीं थे।
निखिल : तो इन मामलों को लड़ने में बहुत लीगल कॉस्ट आई होगी?
विजेंद्र : हाँ। एक यूनियन बनाने में दो चुनौतियां हैं। पहली-प्रबंधन की ओर से शारीरिक हमलों का खतरा, और दूसरी चुनौती है-श्रम विभाग द्वारा अपनी यूनियनों को पंजीकृत करवाना। आधिकारिक तौर पर, हिमाचल प्रदेश में हमारी 63 यूनियनें हैं (सीटू से संबद्ध), लेकिन वास्तव में, 100 से अधिक यूनियनें हैं। बाकी यूनियन तीन/चार वर्षों से सरकार द्वारा पंजीकृत नहीं हैं। श्रम विभाग प्रबंधन को अलर्ट करता है कि इन लोगों ने यूनियन बनाने के लिए आवेदन किया है। ये सब कुछ भ्रष्टाचार के कारण होता है। इसके बाद मजदूरों को निशाना बनाया जाता है। उन्हें या तो नौकरी से हटाया जा सकता है या राज्य से बाहर ट्रांसफर किया जा सकता है।
निखिल : अगर उनका ट्रांसफर किया जा रहा है, तो ज़रूर ये सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां होंगी जो इस तरह की चीज़ें कर रही हैं।
विजेंद्र : नहीं, निजी कंपनियां भी ऐसा कर रही हैं। ऊना जिले में, ल्यूमिनस कंपनी ने 12 यूनियन नेताओं को हिमाचल से तमिलनाडु ट्रांसफर कर दिया, जबकि तमिलनाडु शाखा का व्यवसाय बिल्कुल अलग था। इसे लेकर हमने लेबर कोर्ट में केस किया और जीत हासिल की। हमें मुआवज़ा भी दिया गया। कंपनी को इस बीच की अवधि के वेतन का भुगतान करने का आदेश दिया गया। कंपनी ने हाई कोर्ट में अपील दायर की, और वे वहां भी मुकदमा हार गए। अभी पिछले हफ्ते ही फैसला आया। अब कंपनी ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की है। इसलिए, यह अंततः न्याय से वंचित रखना हुआ क्योंकि जब तक सुप्रीम कोर्ट में मामला समाप्त होगा तब तक कर्मचारी सेवानिवृत्त हो चुके होंगें। इसके साथ ही, जलविद्युत परियोजनाओं में बहुत अधिक शोषण के मामले हैं क्योंकि यह प्रवासी श्रमिकों को रोज़गार देती है।
निखिल : सबसे ज़्यादा प्रवासी मजदूर कहां से हैं?
विजेंद्र : वे ओडिशा, झारखंड, बिहार, पश्चिम बंगाल और आंध्र प्रदेश आदि राज्यों से हैं। प्रबंधन उन्हें डराने की कोशिश करता है क्योंकि उनमें पहले से ही असुरक्षा का भाव रहता है। लेकिन हमने ये देखा है कि प्रवासी श्रमिक लड़ाकू होते हैं। वे अपने अधिकारों को जानते हैं और उनके लिए लड़ने के लिए तैयार रहते हैं।
निखिल : क्या आपको पुलिस से किसी तरह के खतरे का सामना करना पड़ता है?
विजेंद्र : हाँ। साल 2006 में चंबा में जलविद्युत परियोजना के तीन श्रमिकों की हत्या के बाद हमने मृतकों के लिए न्याय की मांग की। हमने एक प्रोटेस्ट शुरू किया, जिससे बाद मेरे सहित कई यूनियन सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया गया। हमारे राष्ट्रीय सचिव कश्मीर ठाकुर को पुलिस हिरासत में पीटा गया। हमारे पास सभी मेडिकल रिकार्ड्स थे, इसलिए हमने पुलिस की बर्बरता की शिकायत करने के लिए सेशंस कोर्ट का रुख किया। इसके बाद आरोपी पुलिस अधिकारियों को एक साल की जेल हुई। और कोर्ट ने 25 लाख रुपये के मुआवज़े का भी आदेश दिया। हालांकि, राज्य सरकार ने इस फैसले के खिलाफ हाईकोर्ट में अपील की। इस तरह वे आंदोलनों को तोड़ने के लिए शारीरिक हमले बढ़ा रहे हैं।
निखिल : क्या आप हमें हिमाचल प्रदेश में औद्योगिक विकास के बारे में बता सकते हैं?
विजेंद्र : हिमाचल में पांच हज़ार से अधिक कारखाने हैं, जिनमें कम से कम 3.5 लाख कर्मचारी काम करते हैं। इसके अलावा करीब 23 हज़ार लघु उद्योग हो सकते हैं। कुल मिलाकर, लगभग 5.5 लाख श्रमिक इन उद्योगों में कार्यरत हैं।
निखिल : पहाड़ी क्षेत्र के लिए यह काफी अच्छी संख्या है।
विजेंद्र : हाँ। साल 2003 में, अटल बिहारी वाजपेयी सरकार द्वारा एक औद्योगिक नीति लाई गई जिसके तहत राज्य को एक बड़ा पैकेज मिला। इसने बहुत सारे उद्योगों को राज्य की ओर आकर्षित किया, विशेष रूप से फार्मा उद्योग को, जो यहां प्रोडक्ट्स की पैकेजिंग के लिए आए थे। कई कंपनियां सरकार द्वारा टैक्स में दी जाने वाली छूट का लाभ उठाने के लिए यहां आई थीं। लेकिन अब यह बदल रहा है, और कंपनियां दूसरे राज्यों में स्थानांतरित हो गई हैं।
इसके अलावा यहां मनरेगा में पंजीकरण भी अधिक है। यहां मनरेगा के लिए 27 लाख लोग पंजीकृत हैं। हमारे राज्य में लगभग 75 लाख लोगों की एक छोटी सी आबादी है, जिनमें से 14 लाख सक्रिय मनरेगा कार्ड धारक हैं। साथ ही, राज्य में कम से कम दो लाख प्रवासी मज़दूर हैं।
निखिल : क्या वहां के लोगों में कोई 'प्रवासी विरोधी' भावना है?
विजेंद्र : बिल्कुल भी नहीं। बहुत समय पहले हिमाचल में स्थानीय रोज़गार के लिए एक बड़ा आंदोलन चला था और ऐसा इसलिए क्योंकि जलविद्युत परियोजनाओं के लिए बहुत अधिक विस्थापन हुआ था। इन परियोजनाओं के दौरान राज्य की काफी ज़मीन जलमग्न हो गई थी। कई गांव गायब हो गए। सीटू और अखिल भारतीय किसान सभा सक्रिय रूप से स्थानीय रोज़गार की मांग कर रहे थे, जिसे बाद में मंज़ूर भी कर लिया गया। इसके बाद जल विद्युत परियोजनाओं सहित कई क्षेत्रों में स्थानीय लोगों को रोज़गार दिया गया। हिमाचल की औद्योगिक नीति कहती है कि 80 फीसदी रोज़गार स्थानीय लोगों को मिलना चाहिए ये संख्या शायद 50 फीसदी के करीब हो सकती है, लेकिन स्थानीय लोगों और प्रवासियों के बीच कोई टकराव नहीं है। शिक्षा और स्वास्थ के मामले में भी यह राज्य अव्वल है।
निखिल : राज्य में सबसे बड़ा उद्योग कौन सा है?
विजेंद्र : ज़्यादातर नौकरियां असंगठित क्षेत्र से आती हैं। पहले जल विद्युत परियोजनाओं का निर्माण रोज़गार का एक बड़ा स्रोत था। अब रोज़गार का एक नया स्रोत आगामी रेलवे लाईन है। राज्य में बहुत कम रेलवे लाइनें हैं और नया निर्माण शुरू हो गया है। नए सड़क मार्ग और राजमार्ग भी बन रहे हैं।
निखिल : क्या आप यूनियन की कुछ उपलब्धियां गिना सकते हैं?
विजेंद्र : हमने जलविद्युत परियोजनाओं में कामगारों के लिए उचित वेतन की लड़ाई जीती। उदाहरण के लिए - यदि एक पीडब्ल्यूडी कर्मचारी प्रतिदिन 100 रुपये कमाता है, तो हम हाइडल श्रमिकों के लिए 100 रुपये + 20% की मांग करते हैं। इसके अलावा, सुरंग खोदने वाले श्रमिकों को हमेशा मृत्यु का खतरा होता है, इसलिए हमने उन श्रमिकों के लिए 20% अतिरिक्त सुरंग भत्ते की मांग की। और अगर परियोजनाएँ आदिवासी क्षेत्रों में हैं, तो भूभाग और भी ज़्यादा अप्रत्याशित और जोखिम भरा रहता है क्योंकि वहाँ हमेशा बर्फ रहती है ऐसे श्रमिकों के लिए हमने अलग से 10% की मांग की। इसलिए, अगर एक साधारण मज़दूर 10,000 रुपये प्रति माह कमा रहा था, तो हमने यह सुनिश्चित किया कि जलविद्युत परियोजनाओं में काम करने वाले मज़दूर कम से कम दोगुनी कमाई करें।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल ख़बर को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।
Physical Attacks to Break Unions Are Mounting in Himachal: CITU’s Vijender Mehra
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।