'क्वाड समूह' उड़ान नहीं भर सकता, इसकी वजह ये है
उम्मीदें इस बात को लेकर की जा रही थीं कि अमेरिका के उप-विदेश मंत्री स्टीफन बीएगुन 12 अक्टूबर को दिल्ली में सार्वजनिक मंच से उस पटकथा पर विस्तार से खुलासा करेंगे, जिसे उन्होंने करीब छह सप्ताह पहले एक ऑनलाइन सेमिनार के दौरान दुस्साहसिक तरीके से व्याख्यायित किया था, कि किस प्रकार वाशिंगटन का लक्ष्य भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ बढ़ते रणनीतिक संबंधों को “औपचारिक” स्वरूप देने के लिए तथाकथित क्वाड के ढांचे के भीतर लाने का था।
बेएगुन ने कहा “यह एक हकीकत है कि भारत-प्रशांत क्षेत्र में वास्तव में मजबूत बहुपक्षीय ढांचे की कमी बरकरार है। उनके पास नाटो या यूरोपीय संघ के समान मजबूती से खड़े होने जैसा कुछ भी नहीं है। इस प्रकार के किसी ढाँचे को औपचारिक रूप देने के लिए निश्चित तौर पर कुछ मौकों पर एक आग्रह नजर आता है।”
इस टिप्पणी को लेकर भारत के भीतर और क्षेत्रीय स्तर पर नाक-भौं सिकोड़े जाते देखना स्वाभाविक था, क्योंकि बेइगुन ने असल में निषिद्ध क्षेत्र में हाथ डाल दिया था। बेइगुन ऐसा बयान देने से अवश्य बचते यदि वे सिर्फ एक बार विदेश मंत्री एस जयशंकर लिखित पुस्तक 'द इंडिया वे' को पलटकर देख लिए होते।
असल मुद्दा ये है कि यहाँ तक कि पूर्व के सोवियत संघ तक ने भारत के साथ दोस्ती के उन खुशनुमा दिनों में भी – यहाँ तक कि 1971 में बंगाल की खाड़ी में चहलकदमी करते अमेरिकी एंटरप्राइज द्वारा भारत को धमकाये जाने पर उसे दूर भगाने के दौरान भी कभी भी नई दिल्ली के साथ किसी प्रकार के औपचारिक सैन्य गठबंधन के प्रस्ताव को नहीं रखा था।
इसलिए कल के बेइगुन के भाषण के बारे में सबसे खास बात यह रही कि उन्होंने "एशियाई नाटो" पटकथा को स्पष्ट कर दिया है। असल में क्वाड मंत्रिस्तरीय बैठक के एक हफ्ते बाद टोक्यो में भी बेइगुन इस बारे में बोल रहे थे, जहां जयशंकर ने इसे पूरी तरह से न्यूनतम आवश्यक करार दिया था - और बीजिंग ने तत्काल इस बात को नोट किया था।
इस प्रकार के सन्दर्भों के मद्देनजर बेइगुन ने प्लान बी को रेखांकित किया है, जो स्पष्ट तौर पर इस बात को स्वीकार करता है कि यह जरूरी नहीं कि "एक भारी देश के भीतर अमेरिकी सैन्य उपस्थिति (या कहें नाटो) के साथ आपसी रक्षा संधियों के पिछली सदी के मॉडल” को ही क्वाड का भविष्य मान लिया जाए।
इसके बजाय बेइगुन ने एक ढीले-ढाले "गठजोड़ को जो कि एक दूसरे की संप्रभुता का सम्मान करते हुए किस प्रकार सबसे बेहतर तरीके से समान रूप से रणनीतिक खतरों को संबोधित कर सके” को प्रस्तावित किया।
भारत में मौजूद चीनी हाथ की बात करने वाले सज-धज कर अमेरिका के साथ "रणनीतिक संबंधों" में जाने के लिए तैयार खड़े लोग निश्चित तौर पर इससे बेहद निराश हुए होंगे जब बेइगुन ने भारत की रणनीतिक स्वायत्तता के प्रति अपने “आदर भाव” की घोषणा की। (जयशंकर बेधड़क इसे “गुटनिरपेक्षता” कहते हैं।)
क्वाड क्या कर सकता है के बारे में बताने के लिए बेइगुन ने नपेतुले शब्दों को चुनाव किया, जैसे कि "एक आर्गेनिक एवं गहरी साझेदारी - जो कि युद्धोपरांत मॉडल पर आधारित गठबंधन नहीं है, बल्कि साझा सुरक्षा और भू राजनीतिक लक्ष्यों, साझा हितों और साझा मूल्यों के आधार पर एक बुनियादी गठजोड़ होगा।"
बहरहाल उन्होंने रेखांकित किया कि चीन के तौर पर "कमरे में हाथी" घुस चुका है। तो फिर ऐसे में क्वाड कैसा दिखता है? बेइगुन ने “क्वाड से सम्बद्ध सभी राजनयिकों, रक्षा अधिकारियों एवं तकनीकी विशेषज्ञों के बीच सभी स्तरों पर संपर्क को बढ़ाने और नियमित तौर पर बनाये रखने” का आह्वान किया। इसके साथ-साथ इंडो-पैसेफिक जरूरतों को मुहैय्या कराने में मदद करने के लिए विकास वित्त निगमों के बीच भागीदारी के जरिये ऊर्जा एवं बुनियादी ढाँचे के विकास, आसियान के साथ जुड़ाव को और गहरा करने, समुद्रों की स्वतंत्रता की रक्षा में आपसी सहयोग करने, शासन, स्वास्थ्य, पर्यावरण संरक्षण, जल संरक्षण एवं डेटा के साझाकरण में पारदर्शिता के साथ-साथ लोगों से लोगों के बीच में रिश्तों को बढ़ावा देने के मामले में संयुक्त प्रयासों को अपने वक्तव्य में दुहराया है।
बेइगुन की अवधारणा कुछ इस प्रकार की थी: "क्वाड एक साझेदारी है, जोकि साझा हितों से प्रेरित है, जिसमें किसी प्रकार की बाध्यता नहीं है, और इसको लेकर किसी भी प्रकार के विशिष्ट समूह को बनाने का इरादा नहीं है।"
बेइगुन की यात्रा का मुख्य उद्देश्य इस भाषण को देने का नहीं था, बल्कि भारतीय अधिकारियों के साथ की गई आज की बातचीत का मकसद दिल्ली में होने जा रही 2+2 विदेश एवं रक्षा मंत्रियों के द्विपक्षीय बैठक के बारे में पूर्वावलोकन करने तक सीमित था। कोई भी आशाजनक परिणाम ट्रम्प के चुनावी अभियान के लिए फायदेमंद हो सकता है, जो इस समय पूरे जोर-शोर से चल रहा है।
बेइगुन एक यथार्थवादी शक्सियत हैं, आप उत्तर कोरिया में राष्ट्रपति ट्रम्प के दूत के तौर पर कार्यरत रहने के साथ-साथ मॉस्को में अपने निवास के दौरान संचित सजीव अनुभवों के चलते रूसी मामलों के विशेषज्ञ के तौर पर जाने जाते हैं। और वे इस बात को समझते हैं कि एशिया के भू-राजनीतिक परिदृश्य में क्वाड कुलांचे नहीं भर सकता।
टोक्यो बैठक में भाग लेते वक्त वाशिंगटन को उम्मीद थी कि क्वाड में वह मंगोलिया, दक्षिण कोरिया और वियतनाम जैसे अन्य देशों को भी आकर्षित कर पाने में सफल रहेगा। लेकिन जैसे ही पोम्पेओ ने देखा कि इसको लेकर कोई भी उत्सुक नहीं है तो उन्होंने अचानक से अपनी उलानबटोर और सियोल की पूर्वनिर्धारित यात्राओं को रद्द कर दिया।
टोक्यो में क्वाड की बैठक से एक सप्ताह पूर्व ही चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने वियतनाम की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव और राष्ट्रपति न्गुयेन फु ट्रोंग से बातचीत की। चीनी आधिकारिक वक्तव्य के अनुसार,"वियतनामी पक्ष चीन के साथ मैत्रीपूर्ण एवं पारस्परिक सहयोगात्मक संबंधों को बेहद मूल्यवान समझता है एवं मजबूती से उसकी रक्षा के प्रति प्रतिबद्ध है। वियतनाम की मुक्ति और विकास के विभिन्न चरणों में मूल्यवान समर्थन और सहायता प्रदान करने के प्रति वह चीनी पक्ष का कृतज्ञ है ... वियतनामी पक्ष को उम्मीद है कि दोनों दलों और दोनों देशों के बीच पारस्परिक राजनीतिक विश्वास में और मजबूती हासिल होगी, जबकि चीनी पक्ष दोनों दलों के राजनीतिक नेतृत्व को द्विपक्षीय संबंधों को विकसित करने में पूरा समर्थन के प्रति कटिबद्ध है। सार्वजनिक बातचीत के सन्दर्भ में सही स्वरों को कायम रखना है, और आर्थिक और व्यापार सहयोग के क्षेत्र में नई प्रगति पर जोर देना है।
दोनों ही पक्षों को स्थानीय स्तर पर आदान-प्रदान और सहयोग को बढ़ावा देने के प्रयासों को करते रहना चाहिए, बहुपक्षीय ढांचे के भीतर समन्वय और सहयोग को बढ़ावा देना चाहिए, संयुक्त तौर पर विकास के लिए एक शांतिपूर्ण और स्थिर वातावरण को सुरक्षित करना चाहिए, मौजूदा समस्याओं को संबोधित करने के साथ उनका उचित समाधान निकालना चाहिए, और दोनों दलों और देशों के बीच में संबंधों को एक नए ऐतिहासिक ऊँचाई तक ले जाने की अगुआई करनी चाहिए।”
असल में हमारे पूर्व-जनरलों एवं पूर्व-राजनयिकों ने, जो क्वाड को लेकर कल्पनाओं में डूबे रहते हैं, की पटकथा अब किसी काम की नहीं रह गई है। साफ़ शब्दों में कहें तो चीन के खिलाफ किसी प्रकार के राजनीतिक अथवा सैन्य गठबंधन को खड़ा कर पाने का लक्ष्य अब प्राप्य नहीं रहा। इसे भूल जाना होगा। टोक्यो में जहाँ पोम्पेओ घनघोर तरीके से चीन विरोधी अभियोगात्मक भाषण देने में मशगूल थे, वहीँ उनके क्वाड सहकर्मी कहीं और देख रहे थे।
वहीँ नए जापानी प्रधान मंत्री योशीहिदे सुगा, जिन्होंने आबे की तरह खुद को ट्रम्प का मित्र दिखाने को लेकर कोई ढोंग नहीं किया है, ने इस बात को स्पष्ट कर दिया है कि वे एक हद तक जाकर चीन के साथ परस्पर तनावपूर्ण संबंधों को सुधारना चाहेंगे। जहाँ तक द्विपक्षीय रक्षा गठबंधन का प्रश्न है तो इस बारे में जापान के अमेरिका के प्रति विश्वासपात्र बने रहने को लेकर कोई संदेह नहीं है, लेकिन सुगा को अगले साल चुनावों का सामना करना है और कोविड-19 एवं जापान की अर्थव्यवस्था के पटरी पर वापस लाने वाले मुद्दे बेहद अहम होने जा रहे हैं, जिसमें चीन के साथ घनिष्ठ आर्थिक और व्यापारिक संबंध एक बड़ा अंतर बना सकते हैं।
भारत के लिए भी आर्थिक हालात में किसी भी प्रकार के सुधार में तेजी लाने के लिए बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव ही एकमात्र छलांग लगाने वाले कदम के तौर पर मौजूद है, जो कि 2024 के आम चुनावों से पहले एक तीव्र विकास पथ एवं रोजगार सृजन को संभव बना सकता है।
12 अक्टूबर के दिन बॉर्डर रोड्स ऑर्गनाइजेशन के आभासी कार्यक्रम के दौरान अपने भाषण में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने पाकिस्तान और चीन से मिलने वाले कपटपूर्ण खतरे को इंगित किया था। उनका कहना था “पहले पाकिस्तान, और अब चीन द्वारा भी ऐसा जान पड़ता है जैसे कि दोनों देश किसी मिशन के तहत सीमा विवाद को खड़ा करने में लगे हैं। हमारे पास इन देशों के साथ तकरीबन 7000 किमी की सीमा साझा है।”
इसमें कोई संदेह नहीं कि युद्ध छिड़ने की अतीत की यादें भारत को सता रही हैं। लेकिन यह सब विदेश नीति की विफलता का नतीजा है। चीन के साथ एक व्यवहारिक तौर पर समझौता निहायत जरूरी है। इसे कैसे हासिल किया जा सकता है, यह कोई सैन्य मसला न होकर एक बौद्धिक चुनौती प्रस्तुत करता है। भारत को इस बारे में शीत-युद्ध युग वाले सामरिक धोखे वाली गलती से बचना चाहिए, जिसने अंततः पूर्व के सोवियत संघ को थका डाला था, और अंततः यह उसके पतन की वजह बना।
इसे हल करने के लिए प्रारंभिक बिंदु यह होगा कि चीन के प्रति अमेरिका की शत्रुता के अंतर्निहित कारकों के बारे में बेहद शांत दिमाग के साथ जांच पड़ताल होनी चाहिए। संक्षेप में कहें तो अमेरिका की स्थिति यह है कि जहाँ पिछले सात-दशकों से यह दुनिया के आधे या उससे भी ज्यादा के विनिर्माण में हिस्सेदार रहा है, आज वह कुल उत्पादन के छठे हिस्से को ही उत्पादित कर पाने में सक्षम है। अमेरिका की हालत आज पागलों जैसी हो रखी है, क्योंकि उसके वैश्विक प्रभुत्व के युग का समापन उसे साफ़ नजर आ रहा है। और जैसा कि अक्सर इतिहास में घटित होता आया है, कि अपने पराभव के दौर में हर महाशक्ति ने इस भू-राजनीतिक वास्तविकता को स्वीकार करने और खुद को नई आम सच्चाई में ढालने से इंकार किया है।
आज के दिन चीन वैश्विक विनिर्माण के 30 प्रतिशत हिस्से के लिए जिम्मेदार है और इसमें उत्तरोत्तर वृद्धि जारी है। एक ऐसी अर्थव्यवस्था जो क्रय शक्ति के आधार पर देखें तो अमेरिका की तुलना में तकरीबन एक तिहाई बड़ी है और बड़ी तेजी के साथ मामूली विनिमय दरों के मामले में बराबरी पर पहुँचने वाली है। चीन को हराना बेहद कठिन है क्योंकि इस ग्रह पर अब यह सबसे बड़े उपभोक्ता बाजार के तौर पर स्थापित है और दुनिया की अन्य तीन-चौथाई से अधिक अर्थव्यस्थाओं का चीन सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार बनकर उभरा है।
चीन पूरी तरह से वैश्विक पूंजीवादी व्यवस्था के साथ एकीकृत हो चुका है और अब इसे दीवारों में बंद नहीं किया जा सकता है। इसके साथ ही चीन पहले से ही दुनिया के वैज्ञानिक, तकनीकी, इंजीनियरिंग और गणितीय कार्यबल के मामले में एक-चौथाई हिस्से का मालिक है। इसके उठान को रोक पाना अब दूर की कौड़ी है।
इसके बावजूद अमेरिका द्वारा अपने सैन्य खर्चों में किये जाने वाले मौजूदा जीडीपी के 7.9% खर्च करने की तुलना में चीन केवल दो प्रतिशत या उससे भी कम खर्च करता है। चीन अमेरिका के परमाणु शस्त्रागार से होड़ के मामले में उदासीन बना हुआ है और "नो फर्स्ट यूज" पॉलिसी का पालन करता है, जिसे वह एक मामूली फ़ोर्स डे फ्रैपे से मदद करता है जो एक सीमित लेकिन विनाशकारी जवाबी कार्रवाई के संचालन में सक्षम है।
चीन को परास्त इसलिए भी नहीं किया जा सकता क्योंकि यूएसएसआर के विपरीत यह अमेरिका के समान उसी वैश्विक समाज का हिस्सा है। अमेरिकी-चीनी लड़ाई के मैदानों के चहुँओर फैली व्यापकता पर एक बार नजर डालें, जो कि- वैश्विक शासन, भू-अर्थशास्त्र, व्यापार, निवेश, वित्त, मुद्रा के उपयोग, आपूर्ति श्रृंखला प्रबंधन, प्रौद्योगिकी मानक और सिस्टम, वैज्ञानिक सहयोग और काफी कुछ में बिखरा पड़ा है। यह चीन की विशाल वैश्विक पहुंच को दर्शाता है। जबकि यूएसएसआर के साथ ऐसा कुछ नहीं था।
और इस सबसे उपर चीन के पास निर्यात करने के लिए कोई मसीहाई विचारधारा नहीं है और वह अपने प्रदर्शन के बल पर मॉडल को स्थापित करने को वरीयता देना पसंद करता है। यह दूसरे देशों में शासन परिवर्तन को उकसाते रहने के धंधे में शामिल नहीं है, उल्टा जहाँ-जहाँ लोकतंत्र हैं उनके साथ इसकी अच्छी पटरी बैठती है।
असल बात तो यह है कि भारत के पास अमेरिका के अंधानुकरण करने की कोई वजह नजर नहीं आती। अमेरिका में जो थोड़ी-बहुत असाधारणता बची हुई थी वह भी अब खत्म होने को है, क्योंकि दुनिया कोविड-19 के साथ इसके दयनीय संघर्ष, नस्लभेद के बारम्बार दुहराव के प्रदर्शन, बंदूक की संस्कृति, राजनीतिक जरखीद, ज़ेनोफोबिया के बार-बार प्रदर्शन की आज गवाह बन चुकी है। इस बात में कोई आश्चर्य नहीं कि उत्तर-अटलांटिक गठबंधन विघटित हो रहा है और अमेरिका के चीन को “काबू में रखने” के प्रयासों से यूरोपीय खुद को अलग कर रहे हैं।
आसियान की स्थापना अमेरिका ने की थी, लेकिन आज कोई भी एशियाई सुरक्षा में साझीदार देश अमेरिका और चीन के बीच में किसी एक का चुनाव नहीं करना चाहता। चीन का मुकाबला करने के मकसद से आसियान को नई गुटबाजी के तौर पर इस्तेमाल में नहीं लाया जा सकता है। इस प्रकार से दक्षिण चीन सागर में चीन के खिलाफ ऐसा कोई भी दावेदार नहीं बचा जो अमेरिका के चीन के साथ चल रही नौसैनिक हाथापाई में अमेरिका के साथ शामिल होने के लिए राजी हो।
चीन के पास जहाँ अपने सहयोगियों को मदद की पेशकश करने के लिए धन सहित अन्य संसाधन मौजूद हैं, वहीँ दूसरी तरफ अमेरिकी बजट घाटे की स्थिति काफी दयनीय बनी हुई है और रोज-ब-रोज के सरकारी काम-काज को भी अब कर्ज के जरिये वित्त पोषित किये जाने की आवश्यकता है। चीन एवं बाकी की बड़ी आर्थिक शक्तियों के साथ प्रतिस्पर्धात्मक स्तर पर अपने मानवीय एवं भौतिक बुनियादी ढांचे को कायम रखने के लिए इसे आवश्यक संसाधनों के संधान की दरकार है।
यह बात समझ से परे है कि क्यों भारत को इस फालतू के पचड़े में खुद को उलझाने की जरूरत आन पड़ी, जिसका अंतिम परिणाम पहले से ही पता है? नहीं, चीजों को कभी भी ऐसे मुकाम तक नहीं पहुंचने देना चाहिए जिससे कि भारत को चीन-पाकिस्तान की मिलीभगत से निपटने के लिए मजबूर होना पड़े।
चीन के साथ सीमा-विवाद के मसले पर समाधान तक पहुंचने के लिए ठोस कोशिशों की आवश्यकता है, जो आपसी सहयोग के विशाल परिदृश्य को खोलने में कारगर हो सके और जिससे भारत के विकास की ट्रेजेक्ट्री में उछाल लाने में मदद मिल सके।
यदि हमारे जनरलों (या भूतपूर्व जनरलों) को बड़े रक्षा बजट की दरकार है तो ऐसा हो, कोई दिक्कत नहीं है। क्योंकि यदि सरकार के पास फालतू पैसा है, तो ऐसा करने में क्या परेशानी हो सकती है? लेकिन इस सबका आधार इस बेतुकी अवधारणा पर हर्गिज नहीं होना चाहिए कि चीन के साथ एक ऐतिहासिक युद्ध की अनिवार्यता अपरिहार्य तौर पर मौजूद है। असल बात तो यह है कि जब चीन पहले से ही जीत रहा है, तो उसे भला किसी जंग में जाने की जरूरत ही क्या है।
सौजन्य:: इंडियन पंचलाइन
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