जब जज ही निशाने पर हों, तो फिर आरटीआई एक्टिविस्ट, व्हिसलब्लोअर की क्या बिसात
धनबाद के ज़िला और सत्र न्यायाधीश उत्तम आनंद की 28 जुलाई को रहस्यमय परिस्थितियों में हत्या कर दी गयी थी। सीसीटीवी फ़ुटेज में जज एक काफी चौड़ी सड़क के एक तरफ टहलते हुए दिख रहे हैं, उसी समय एक ऑटोरिक्शा पीछे से उनकी ओर आता है, उन्हें ज़ोर से टक्कर मारता है और भाग जाता है। जज आनंद को मृत अवस्था में अस्पताल लाया गया। इस हत्या से कोहराम मच गया।
दो साल पहले उत्तर प्रदेश बार काउंसिल की पहली महिला चेयरपर्सन दरवेश यादव की नियुक्ति के दो दिन बाद ही आगरा कोर्ट परिसर में गोली मारकर हत्या कर दी गयी थी।
इन मामलों में पुलिस और केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI) के ढुलमुल रवैये को लेकर सुप्रीम कोर्ट (SC) की टिप्पणियां ज़्यादा चिंताजनक हैं। न्यायाधीश आनंद की हत्या का संज्ञान लेते हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) एनवी रमना की अध्यक्षता वाली दो-न्यायाधीशों की पीठ ने अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल से कहा कि जब न्यायाधीश शिकायत दर्ज कराते हैं, तो पुलिस और सीबीआई कार्रवाई नहीं करते।
अगर ताक़तवर और विशेषाधिकार प्राप्त लोगों की यह स्थिति है, तो सूचना का अधिकार (RTI) कार्यकर्ता, व्हिसलब्लोअर और आम आदमी तो कहीं ज़्यादा ख़तरे में हैं।
बार काउंसिल ऑफ़ इंडिया पुलिस पर निर्भर रहने के बजाय न्यायाधीशों और गार्ड कोर्ट परिसर को सुरक्षा दिये जाने को लेकर न्यायपालिका के नियंत्रण में एक विशेष सुरक्षा बल के गठन के लिए पहले ही सुप्रीम कोर्ट का रुख़ कर चुकी है। हालांकि, यह समस्या पर विचार करने का एक अदूरदर्शी दृष्टिकोण है कि संविधान के तहत सभी नागरिक बराबर हैं और प्रत्येक मानव जीवन समान रूप से मूल्यवान है।
बुनियादी वजह भ्रष्टाचार
इस समस्या की बुनियादी वजह भ्रष्टाचार है, क्योंकि कई हाई-प्रोफाइल मामलों में अमीर और ताक़तवर लोग शामिल होते हैं। उनके ख़िलाफ़ कोई भी फ़ैसला न सिर्फ़ उन्हें प्रभावित करता है, बल्कि उनके संचालन का समर्थन करने वाली पूरी श्रृंखला को प्रभावित करता है। उनके रास्ते में आने वाले कार्यकर्ता / व्हिसलब्लोअर / शिकायतकर्ता, जो भी उनके ख़िलाफ़ मामले का पर्दाफ़ाश करते हैं या मामला दर्ज कराते हैं, वे गवाह जिन्हें ख़रीदा नहीं जा सकता है और वे न्यायाधीश,जो किसी तरह के समझौते से इनकार करते हैं, उन सबको या तो धमकाया जाता है, चोट पहुंचायी जाती है या फिर मार दिया जाता है।
भ्रष्टाचार समाज के तमाम ताने-बाने को नष्ट कर देता है। ऐसे में भ्रष्टाचार से लड़ने में पहला कदम तो यह अहसास है कि यह एक ऐसा अभिशाप है,जो निष्क्रिय धूम्रपान की तरह प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हम में से हर एक को प्रभावित करता है। अगर हम एक वैध, शांतिपूर्ण और सुशासित समाज चाहते हैं, तो किसी भी लिहाज़ से भ्रष्टाचार को नज़रअंदाज़ करना कोई विकल्प नहीं है।
इसलिए, ध्यान सिर्फ़ सुरक्षा मुहैया कराने पर ही केंद्रित नहीं होना चाहिए, बल्कि एक ऐसी प्रणाली के निर्माण पर भी होना चाहिए, जो भ्रष्टाचार को भले ही जड़ से ख़त्म नहीं कर पाये, लेकिन वह जवाबदेही बढ़ाने और यह सुनिश्चित करने पर ज़रूर केंद्रित होना चाहिए कि हर मामले में क़ानून का शासन लागू हो, तो भ्रष्टाचार काफ़ी हद तक कम हो सकता है।
इसका पहला पड़ाव तो पुलिस होना चाहिए, लेकिन पुलिस के पिछले कार्यों का रिकॉर्ड आत्मविश्वास को प्रेरित नहीं कर पाता है। पिछले हफ़्ते सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रमना ने रामपुर, दुर्ग और बिलासपुर के एक पूर्व पुलिस महानिरीक्षक के मामले की सुनवाई करते हुए सत्तारूढ़ दल का पक्ष लेने वाली पुलिस की परेशान कर देने वाले रवैये पर टिप्पणी की थी। किसी दूसरे मामले की सुनवाई के दौरान मुख्य न्यायाधीश रमना ने कहा कि मानवाधिकारों को लेकर ख़तरा तो पुलिस थानों में सबसे ज़्यादा है।
मार्च में मुंबई के पूर्व पुलिस आयुक्त परम बीर सिंह ने राज्य के तत्कालीन गृह मंत्री अनिल देशमुख पर जबरन वसूली का रैकेट चलाने का आरोप लगाया था। पंजाब में एक डीजीपी पर अपनी आय के ज्ञात स्रोतों से कहीं ज़्यादा संपत्ति जमा करने का आरोप लगाया गया है।
सुप्रीम कोर्ट की पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने आठ साल पुराने (12.11.2013) ललिता कुमारी बनाम यूपी सरकार और अन्य मामले के फैसले की घोर अवमानना में एक संज्ञेय अपराध की दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 154 के तहत प्राथमिकी दर्ज करना अनिवार्य बना दिया था।जब मामले में अमीर और ताक़तवर लोगों की संलिप्तता होती है,तो कई सालों तक एफ़आईआर तक दर्ज नहीं की जाती है । इसके बजाय, शिकायतकर्ताओं को परेशान किया जाता है और उनकी शिकायतों को वापस लेने के लिए उन्हें धमकाया जाता है।
सिविल सोसाइटी की भूमिका
इस ऊंघती आधिकारिक व्यवस्था की खाई को पाटने के लिहाज़ से भ्रष्टाचार से लड़ने में सिवल सोसाइटी, आरटीआई कार्यकर्ता और व्हिसलब्लोअर की भूमिका ज़्यादा प्रासंगिक हो जाती है। हालांकि, अब तक की प्रगति धीमी रही है। वे इस उम्मीद में पर्दाफ़ाश करने की शुरुआत करते हैं कि न्यायपालिका उनके प्रयासों को तार्किक निष्कर्ष तक ले जायेगी। मगर,अफ़सोसनाक़ बात है कि सिस्टम अक्सर उनकी इन कोशिशों को नाकाम कर देता है। 2014 में व्हिसल ब्लोअर प्रोटेक्शन एक्ट लागू होने के बावजूद पिछले कई वर्षों में बेहिसाब आरटीआई कार्यकर्ता और व्हिसलब्लोअर मारे गये हैं।
मुक्ति के उपाय
देश के अलग-अलग हिस्सों में कई आरटीआई कार्यकर्ता और व्हिसलब्लोअर बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। कई और लोग जो भ्रष्टाचार को जड़ से ख़त्म करने में अहम योगदान दे सकते हैं, उन्हें या तो सुरक्षा की कमी या होने वाली प्रतिक्रिया का डर ऐसा करने से रोक लेता है। इसके अलावा, उनमें से कई लोग तो अपने सवालों के जवाब पाने या ख़ुलासे को लेकर आधिकारिक प्रतिक्रिया की सुस्ती की वजह से उस प्रक्रिया के दौरान ही थक-हार जाते हैं।
ऐसे में क़ानूनी विशेषज्ञता, अनुसंधान और वित्तीय सहायता मुहैया कराते हुए कुछ मामलों को उनके तार्किक निष्कर्ष पर ले जाने की प्राथमिकता वाले राष्ट्रीय स्तर पर समन्वित कार्रवाई से फ़र्क़ पड़ेगा। इससे ऐसे कार्यों में लगे लोगों का आत्मविश्वास बढ़ेगा और दूसरे लोग भी आगे आने के लिए प्रेरित होंगे। इसका समाधान संख्या, दृढ़ता, संचालन और कामयाबी की भूख में निहित है। अगर हम अंग्रेज़ों को भारत से बाहर निकाल सकते थे, तो कोई वजह नहीं कि हम इस भ्रष्टाचार को जड़ से ख़त्म नहीं कर सकते।
सर्वेश माथुर एक वरिष्ठ वित्तीय पेशेवर हैं और पहले टाटा टेलीकॉम लिमिटेड और प्राइसवाटरहाउस कूपर्स के सीएफ़ओ के तौर पर काम कर चुके हैं। यहां इनके व्यक्त विचार निजी हैं।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें
RTI Activists, Whistleblowers not Safe When Judges are Targeted
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