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ग्रामीण भारत में कोरोना-40: बिहार के भर्री गाँव में श्रम-शक्ति पर पड़ रहे असर को लेकर एक अपडेट

तकरीबन सभी आयु वर्ग के लोगों की श्रम-शक्ति में भागीदारी बढ़ी है, जिसमें कई तो आत्म निर्भर परिवार थे, जो आज दिहाड़ी मजदूर के तौर पर काम करने के लिए मजबूर हो चुके हैं। ऐसे में श्रमिकों के रिवर्स पलायन के साथ-साथ रोजगार के अवसरों की अनुपस्थिति ने भविष्य की तस्वीर को बेहद भयावह बना डाला है।
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प्रतिनिधि छवि. | सौजन्य: इकोनॉमिक टाइम्स

यह जारी श्रृंखला की 40 वीं रिपोर्ट है जो ग्रामीण भारत के जीवन पर कोविड-19 से संबंधित नीतियों के चलते पड़ रहे प्रभावों की झलकियाँ प्रदान करती है। सोसाइटी फॉर सोशल एंड इकोनॉमिक रिसर्च द्वारा जारी की गई इस श्रृंखला में विभिन्न शोधकर्ताओं की रिपोर्टों को शामिल किया गया है, जो भारत के विभिन्न हिस्सों में गाँवों के अध्ययन से सम्बद्ध हैं। ये रिपोर्टें उनके अध्ययन में शामिल गांवों में मौजूद प्रमुख सूचना प्रदाताओं के साथ की गई टेलीफोन वार्ता के माध्यम से लिए गए साक्षात्कार के आधार पर तैयार की गई हैं।

बिहार के कटिहार जिले में भर्री नामक एक गाँव है। अप्रैल 2020 के तीसरे सप्ताह के दौरान मैंने इस महामारी से पड़ रहे सामाजिक और आर्थिक प्रभावों के आकलन के लिए गाँव में मौजूद उत्तरदाताओं के साथ टेलीफोन के जरिये इंटरव्यू किया था। मैंने उन तथ्यों को एक रिपोर्ट की शक्ल में सार-संकलन करने का काम किया था, जिसमें इस बात की पड़ताल की गई थी कि लॉकडाउन की वजह से गाँव में गेहूं की फसल की कटाई, मक्के की खेती, पशुपालन, डेयरी फार्मिंग के साथ-साथ गैर-खेतिहर कार्यों पर कैसा असर पड़ रहा था। इसके साथ-साथ ग्रामीणों के बीच बैंकिंग सुविधाओं, खाने-पीने की वस्तुओं और अन्य आवश्यक वस्तुओं तक उनकी पहुँच को भी अध्ययन में शामिल किया था।

तत्पश्चात मई 2020 के तीसरे सप्ताह में जाकर मैंने एक बार फिर से भर्री के 21 उत्तरदाताओं के साथ इंटरव्यू संचालित किया था। इनमें से आठ व्यक्ति ऐसे थे जो छोटे गैर-खेतिहर व्यवसायों (खाद उर्वरक डीलर सहित) से जुड़े थे। इनके अलावा पांच लोग खेती-किसानी करते थे और बाकी के बचे आठ व्यक्ति दिहाड़ी मजदूरी करते थे। इन इंटरव्यू में मेरे उत्तरदाताओं ने गाँव में किसानों द्वारा काट कर घर पर रखी हुई मक्के की फसल को बेचने और गरमा धान की खेती (रबी की फसल के तुरंत बाद बोई जाने वाली और मानसून से पहले की ग्रीष्मकालीन धान की किस्म) की तैयारी में आ रही कठिनाइयों पर चर्चा की थी। इसके साथ ही गाँव में खेतीबाड़ी और गैर-खेतिहर कार्यों की उपलब्धता, खाद्य सुरक्षा, पशुपालन और ग्रामवासियों के बीच बढती ऋणग्रस्तता पर भी चर्चा की गई थी। नीचे प्रस्तुत रिपोर्ट मेरे द्वारा प्राप्त सूचनाओं को संक्षेप में रखने का काम करती है और लॉकडाउन के दौरान किए गए सार्वजनिक हस्तक्षेपों का आलोचनात्मक तौर पर आकलन करती है।

खेतीबाड़ी पर लॉकडाउन का असर

भर्री में रबी की मुख्य फसल मक्के की होती है: इस दौरान तकरीबन 80% खेती योग्य भूमि पर मक्के की ही खेती की जाती है। मक्के की फसल की कटाई के बाद मिला-जुलाकर सरसों और गरमा धान की बुआई की जाती है। गेहूं की खेती के लिए जमीन का इस्तेमाल यहाँ पर न के बराबर है।मक्के की खेती उन खेती लायक जमीन पर जल्दी कर दी जाती है जिन खेतों में खरीफ के सीजन में बुआई नहीं की गई हो। ऐसे खेतों में उर्वरकों, कीटनाशकों के छिड़काव का काम और निराई गुड़ाई जैसे मुख्य काम लॉकडाउन के शुरू होने से पहले ही पूरे कर लिए गए थे। और जिन खेतों में धान की बुआई खरीफ के सीजन में होती है, वहाँ पर मक्के की बुआई धान कट जाने के बाद ही हो पाती है। आमतौर पर छोटे और मझौले किसानों के बीच यही चलन में है। वहीँ कुछ काश्तकार किसान ऐसे भी हैं जो धान की फसल की कटाई के बाद खासकर मक्के की खेती के लिए सीजन के हिसाब से ठेके पर जमीन ले लेते हैं।

लॉकडाउन ठीक उस समय लगा दिया गया था जब बुआई और कटाई के बीच के कई महत्वपूर्ण कार्य जैसे कि उर्वरकों का उपर से छिडकाव, कीटनाशकों का इस्तेमाल से लेकर सिंचाई और निराई का काम होना बाकी पड़ा हुआ था। ऐसे में भर्री में किसानों को कृषि इनपुट की अनियमित उपलब्धता, आवागमन के लिए परिवहन के साधनों की अनुपस्थिति, कुछ इनपुट (जैसे कि डीजल) की कीमतों में अस्थायी वृद्धि, नकदी की कमी और संक्रमण फैलने के डर के साथ-साथ प्रशासनिक प्रतिबंधों की मार जैसी चुनौतियों से दो-चार होना पड़ा था।

इसके अलावा बेमौसम की भारी बारिश और बीच-बीच में होने वाली ओलावृष्टि की वजह से भी फसल की कटाई देरी से हो सकी थी और पैदावार में भी गिरावट देखने को मिली है। जब मैंने पहली बार इंटरव्यू किया था तो उस समय जल्दी बो दी गई फसलों की कटाई चल रही थी, लेकिन देर में तैयार होने वाली फसलों की कटाई होनी बाकी थी। 0.4 एकड़ जमीन के मालिक एक किसान ने चिंता जाहिर करते हुए बताया कि इस साल मक्के की पैदावार पिछले साल की तुलना में 20% कम होने जा रही है।

मक्के की खेती करने वाले किसानों को इस साल कम कीमतों का भी झटका झेलना पड़ रहा है। 2019 में मक्का 1,600 रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब में बिका था। लेकिन इस साल इसकी कीमत मात्र 1,000 रुपये प्रति क्विंटल रह गई है। उससे भी बड़ी बात यह है कि इतनी कम कीमतों के बावजूद किसानों को अपनी फसलों को बेच पाने में मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। चूंकि सरकारी एजेंसियां मक्के की सरकारी खरीद नहीं करती हैं, और मक्के के लिए घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम्एसपी: 1,850 रुपये प्रति क्विंटल) की बात सिर्फ घोषणाओं में है, और ऐसा कोई तरीका नहीं विकसित किया जा सका है कि हकीकत में किसान अपनी फसलों को एमएसपी पर बेच सकें।

आमतौर पर किसान अपनी फसल को निजी व्यापारियों के हाथों बेच दिया करते थे। लेकिन इस साल लॉकडाउन की वजह से शायद ही कोई व्यापारी होगा जिसने हाथ के हाथ फसल की कीमत चुकता करने की पेशकश की हो। इनमें से ज्यादातर व्यापारी सिर्फ उसी हालत में फसल खरीदने को राजी हो रहे हैं, यदि भुगतान उनके द्वारा बाद में करने पर किसान राजी हो (या अगली फसल के लिए जो इनपुट की किसान खरीद करेगा, एक हिस्से को उसमें समायोजित कर लिया जायेगा)। भर्री के किसानों के लिए मक्के की खेती उनकी आय का सबसे बड़ा स्रोत रहा है, लेकिन इस बार बेहद कम कीमत पर बिकवाली के साथ-साथ खरीदारों की कमी के चलते उनकी आय में भारी गिरावट दर्ज हुई है। ऐसे में छोटे, मझौले और सीमांत और पट्टे पर खेती करने वाले किसानों के सामने गंभीर आर्थिक संकट खड़ा हो गया है। वे पट्टाधारी किसान जो आम तौर पर जमींदारों को प्रति एकड़ 13,000 से 15,000 रुपये किराये के तौर पर भुगतान किया करते थे, मक्के की खेती से हुए नुकसान ने विशेष तौर इनको बेहद बुरी तरह से प्रभावित किया है।

गरमा धान के उत्पादन से जुड़े किसानों को इस बार आवश्यक इनपुट और नकदी तक अपनी पहुंच बना पाने में दिक्कतें पेश आई हैं। उन्होंने बताया कि पिछले साल की तुलना में इस बार उन्होंने उर्वरकों का इस्तेमाल काफी कम किया है, फसलों की सिंचाई भी कम की है और कोशिश इस बात की भी रही है कि कीटनाशकों और खरपतवार नाशकों का उपयोग कम से कम किया जाए। एक कृषि इनपुट डीलर ने सूचित किया है कि इस साल गरमा धान के लिए उर्वरक की बिक्री में काफी गिरावट दर्ज हुई है और कीटनाशकों और खरपतवारनाशकों की बिक्री तो ना के बराबर रही है।

मेरे सभी उत्तरदाताओं ने जिन्होंने धान की बुवाई की थी, बताया है कि उनके द्वारा खेतों में आवश्यक मात्रा में इनपुट का उपयोग कर पाने में असमर्थता की वजह से इस बार फसलों की उत्पादकता पर प्रतिकूल असर पड़ने की आशंका है। ज्यादातर गरमा धान की खेती पट्टे वाली जमीन पर की जाती है, जिसमें औसत किराया आठ क्विंटल प्रति एकड़ भूमि का पंपिंग सेट के साथ पड़ता है और पाँच क्विंटल प्रति एकड़ बिना पंप सेट के साथ पड़ता है। किराए के भुगतान के बाद जो अनाज बच जाता है वह आमतौर पर किसानों द्वारा घरेलू खपत के लिए रख लिया जाता है। इस साल आशंका है कि पैदावार काफी कम रहने वाली है, जो इन पट्टे पर खेती करने वाले किसान परिवारों की खाद्य सुरक्षा को काफी हद तक प्रभावित करने जा रहा है।

दिहाड़ी मजदूरों पर पड़ता असर  

भर्री में इस लॉकडाउन का यदि सबसे खराब असर किसी पर पड़ा है तो वह यहाँ के दिहाड़ी मजदूरों पर देखने को मिला है। जिस पैमाने पर आर्थिक संकट देखने को मिल रहा है और लोगों की आय में जिस कदर गिरावट आई है, ऐसे हालात में कई ऐसे लोग जो इससे पहले कभी भी दिहाड़ी मजदूर के तौर पर काम नहीं करते थे, या वे लोग जो कभी भी श्रम शक्ति का हिस्सा रहे ही नहीं जैसे कि बच्चे और बुजुर्ग लोग- आज मजदूर के तौर पर रोजगार की तलाश में भटक रहे हैं। कई लोग जो अपना खुद का स्व-रोजगार कर रहे थे, जिनमें दुकानदार और उनके परिवार शामिल हैं, ऐसे लोग भी मजदूरी करने के लिए बाजार में उतर चुके हैं।

मनरेगा के तहत गांव में कोई भी काम शुरू नहीं हो सका है। अभी तक एकमात्र रोजगार मक्के की कटाई में ही उपलब्ध हो सका है। यही वजह है कि मक्के की कटाई के दौरान भारी संख्या में श्रम शक्ति उपलब्ध थी। श्रमिक इस बात को लेकर आशंकित हैं कि आने वाले महीनों में रोजगार की उपलब्धता और भी कम रहने वाली है, क्योंकि खरीफ के धान की खेती में मजदूरों की आवश्यकता मक्के की खेती से काफी कम पड़ती है।

पिछले साल तक मक्के की कटाई के लिए मजदूरी (जिसमें मकई को निकालना, उपज इकट्ठा करना और उसे ट्रैक्टरों पर लोड करना शामिल है) की दर पुरुष श्रमिक के लिए 250 रुपये और महिला श्रमिकों के लिए 150 रुपये प्रति दिन की देय थी। एक एकड़ में यदि मक्के की फसल है तो उसके लिए करीब 25 मजदूरों की जरूरत पड़ती है। कुछ मजदूर बड़े किसानों के साथ सम्बद्ध (लागुवा श्रमिक) थे, और चूँकि वे नियमित तौर पर इन किसानों द्वारा काम पर रखे हुए थे, इसलिए वे थोड़ी कम मजूरी की दर पर भी (पुरुषों के लिए रोज का 200 रुपये और महिलाओं के लिए 140 रुपये रोजाना के हिसाब से) काम करने के लिए राजी हो गये थे।

मक्के की कटाई के अलावा किसी भी अन्य गतिविधि में रोजगार न मिलने की संभावना को देखते हुए और भारी संख्या में प्रवासी श्रमिकों की घर वापसी ने श्रम के माँग और आपूर्ति के संतुलन को बुरी तरह से असंतुलित करके रख दिया है। नतीजे के तौर पर नियोक्ता इस बात पर जोर दे रहे थे कि श्रमिकों को तय मजदूरी के दर पर लंबे समय तक काम करते रहना होगा। इसके अलावा कई किसानों ने ठेके पर कटाई का कम संपन्न करा लेने की ओर स्विच कर लिया था। श्रमिकों की बढ़ी हुई आपूर्ति को देखते हुए, मक्का की कटाई के लिए पीस-रेट पर काम 4,500 रुपये प्रति एकड़ तक गिर चुकी थी। चूंकि किसानों को मक्का बेचने में मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा था, इसलिए उन्होंने कटाई कर रहे श्रमिकों की मजदूरी के भुगतान में भी देरी की थी।

कुछ मामलों में तो मजदूरों को उनकी मजदूरी के केवल एक हिस्से का ही भुगतान किया जा सका था, जबकि बाकी का हिस्सा फसल के बिक जाने के बाद करने का वायदा किया गया था।

पशुधन वाले किसानों पर पड़ता प्रभाव

जो लोग मवेशियों पर निर्भर हैं, उन लोगों पर इसकी दुगुनी मार पड़ी है। एक तरफ जहाँ दूध की माँग में अचानक से भारी गिरावट देखने को मिली है, वहीँ दूसरी ओर वे लोग अपने जानवरों की देखभाल कर पाने में काफी मुश्किलों का सामना कर रहे हैं। लॉकडाउन के दौरान वे लोग अपने जानवरों को चराई के लिए बाहर नहीं ले जा सकते थे, इसलिए उनके घरों में जो भी पुआल पड़ा हुआ था उसी से उन्हें इस दौरान गुजारा चलाना पड़ा था। इसकी वजह से दुधारू पशुओं की उत्पादकता पर काफी असर पड़ा है। एक उत्तरदाता ने सूचित किया है कि उसकी गाय जहाँ पहले दो लीटर दूध दिया करती थी, अब यह मात्रा घटकर मात्र एक लीटर रह गई है।

छोटे किसानों के पास पुआल को रखने के लिए संसाधन सीमित होने के कारण अब उनके पास चारे की समस्या उठ खड़ी हो गई है। ऐसे में जिन लोगों ने इस बार गरमा धान की फसल बो रखी है, उन्होंने अपनी सारी उम्मीद इस फसल की कटाई से मिलने वाले पुआल की ताजा आपूर्ति पर लगा रखी है। वहीँ जिन लोगों ने गरमा धान की फसल नहीं बोई है उन्हें उसके चारे की खरीद पर निर्भर रहना पड़ेगा, और उन्हें अभी से इस बात की आशंका सता रही है कि इस बार इसकी कीमतें ऊँची रहने वाली हैं।

गैर-खेतिहर क्षेत्र में स्वरोजगार से जुड़े लोगों पर पड़ता प्रभाव

भर्री चौक आस-पास के चार-पाँच गाँवों के मुख्य बाज़ार के तौर पर है और यहाँ पर कुलमिलाकर 30 दुकानें होंगी। इनमें किराने की दुकान, एक खाद की दुकान, एक मुर्गी विक्रेता, एक हेयर सैलून, खाने-पीने की कुछ छोटी-मोटी दुकानें जो लोकल मिठाई भी बेचते हैं के अलावा फोटोकॉपी/प्रिंटआउट शॉप,  मोबाइल फोन और कपड़े की दुकानें शामिल हैं। लॉकडाउन के दौरान इनमें से अधिकांश दुकानें 40 दिनों से भी अधिक समय से बंद पड़ी थीं। हालाँकि इनमें से ज्यादातर दुकानें रोजाना कुछ समय के लिए खुलती थीं, लेकिन खरीदार ना के बराबर होते हैं।

एक दुकानदार जिसकी फोटोकॉपी की दुकान है, ने बताया है कि उसकी आय का एक महत्वपूर्ण स्रोत शादियों और अन्य सामाजिक समारोहों के लिए निमन्त्रण कार्ड की छपाई के कार्य से प्राप्त होता था। लेकिन इस साल चूँकि लॉकडाउन का समय शादी के सीजन के साथ-साथ शुरू हुआ, जिसकी वजह से करीब-करीब सभी सामाजिक समारोहों को रद्द कर देना पड़ा था। उत्तरदाता के अनुसार उसकी दैनिक बिक्री अब घटकर महज 50 रुपये से 100 रुपये के बीच रह गई है। जबकि इस सीजन में पिछले साल वह रोजाना के हिसाब से 1,000 रुपये तक का कारोबार कर पाने में सफल था, और इस हिसाब से उसके धंधे में जबर्दस्त गिरावट देखने को मिली है। उसका यह भी कहना था कि हालांकि छपाई के लिए इस्तेमाल होने वाले कागज और कार्ट्रिज की लागत में इस बीच काफी बढ़ोत्तरी हो चुकी है, लेकिन पहले से ही माँग में कमी के चलते फोटोकॉपी और प्रिंटआउट की कीमत बढ़ा पाने में वह फिलहाल असमर्थ है।

शादी-ब्याह जैसे सामाजिक समारोहों और कार्यक्रमों के रद्द हो जाने की स्थिति में कई अन्य स्व-रोजगार से जुड़े परिवारों की आय पर भी काफी बुरा असर पड़ा है। एक सजावट के काम से जुड़े उत्तरदाता ने जो टेंट, लाइट और फ़र्नीचर की आपूर्ति से जुड़े हैं का कहना था कि इस साल उनके पास कोई काम नहीं है। पिछले साल उन्होंने मार्च और जून के बीच में चार मजदूरों को काम पर रखा था, और हर एक को प्रति दिन के हिसाब से 300 रुपये का भुगतान किया था। जबकि इस साल इन चार महीनों के दौरान कोई काम-काज न होने की वजह से एक भी श्रमिक को काम पर नहीं रखा है।

इस वर्ष की शुरुआत में उन्होंने अपने व्यवसाय से संबंधित कुछ अन्य वस्तुओं की खरीद यह ध्यान में रखकर की थी कि आने वाले सीजन में इनकी माँग में इजाफा हो सकता है। लेकिन चूँकि लॉकडाउन लागू हो जाने के बाद से स्थिति यह हो चुकी है कि वे उस गोदाम तक का किराया दे पाने में वे असमर्थ हैं, जहाँ पर उन्होंने इन उपकरणों को स्टोर कर रखा है। शादी का सीजन करीब-करीब अपनी समाप्ति की दिशा में है और इस सीजन में उन्हें जो घाटा उठाना पड़ा है, उसकी भरपाई इस सीजन में हो पाने की उन्हें कोई संभावना नजर नहीं आ रही है। किराने की दुकान वालों और एक सब्जी विक्रेता से मैंने बात की, जिन्होंने बताया कि गाँव में लोगों के घरों में आज के दिन बुनियादी आवश्यकताओं की खरीद के अलावा कुछ भी खरीद पाने की सामर्थ्य न होने के चलते बिक्री में गिरावट का क्रम जारी है। इसी के परिणामस्वरूप उनमें से अधिकांश दुकानें लॉकडाउन के दौरान में बंद पड़ी थीं।

हालांकि आवश्यक वस्तुओं के विक्रेताओं को लॉकडाउन के दौरान अपनी दुकानों को बंद करने की जरूरत नहीं थी, लेकिन कई अन्य वजहों के चलते उन्होंने ऐसा करना पड़ा। किराने का सामन रखने वालों ने इस ओर भी इंगित किया है कि माल की बिक्री न हो पाने की वजह से कई सामान या तो खराब हो चुके थे या उनके इस्तेमाल की तिथि निकल चुकी थी या दीमक जैसे कीडेमकोडे से सामान नष्ट हो चुके थे। कई दुकानदारों ने बढ़ते कर्जों को लेकर भी अपनी बात रखी और किस प्रकार से उनमें से कुछ दुकानदारों को अपनी आय की क्षतिपूर्ति के लिए मक्के की कटाई के दौरान मजदूर के तौर पर काम करने के लिए मजबूर होना पड़ा था।

खाद्य सुरक्षा पर पड़ता असर

कुछ श्रमिकों ने सूचित किया है कि लॉकडाउन के पहले चरण के दौरान जरुरी खाद्य पदार्थों की कीमतों में अचानक से बढ़ोत्तरी देखने को मिली थी। नमक के एक छोटे पैकेट की कीमत जहाँ 5 रुपये से बढ़कर 15 रुपये हो गई थी, वहीँ एक पाव सरसों के तेल की कीमत 20 रुपये से बढ़कर 30 रुपये (80 रुपये प्रति लीटर से 120 रुपये प्रति लीटर) हो चली थी और चावल की कीमतों में भी 10 रुपये प्रति किलोग्राम से अधिक का उछाल देखने को मिला था। नमक की कीमतें आख़िरकार जहाँ लॉकडाउन पूर्व की दर पर आ चुकी हैं, वहीँ दूसरी ओर बाकी की वस्तुओं की कीमतों में अभी भी तेजी का रुख बना हुआ है। सब्जियां या तो बाजार में उपलब्ध ही नहीं थीं या काफी महँगे दामों पर उपलब्ध थीं। खाद्य तेल के दामों में वृद्धि ने तो कईयों को नमक के साथ चावल खाने पर मजबूर कर दिया है। चावल के दामों में भी ऊँची वृद्धि को देखते हुए कईयों ने अपने भोजन की संख्या को घटाकर दिन में सिर्फ दो बार खाने का नियम बना लिया है। एक महिला श्रमिक ने आपबीती सुनाते हुए बताया है कि उसका परिवार पिछले एक महीने से नमक के साथ चावल खाकर अपना गुजारा चला रहा है, और इसी वजह से वे लोग अब इतने अशक्त हो चुके हैं कि दिन भर शारीरिक श्रम कर पाने की हालत में नहीं हैं।

लॉकडाउन की शुरुआत के बाद से ही स्कूलों को बंद कर दिए जाने के बाद से स्कूली बच्चों को मध्याह्न भोजन मुहैय्या नहीं कराया गया है। एक महिला उत्तरदाता ने बताया है कि उसके बच्चे दोपहर के भोजन में प्रत्येक दिन सिर्फ चावल और नमक खाने को मजबूर हैं क्योंकि उनको मिलने वाला मध्याह्न भोजन अब बंद हो चुका है। हालांकि सरकारी राशन की दुकान से प्रति व्यक्ति पांच किलो चावल/गेहूं के वितरण किये जाने से काफी राहत मिली है लेकिन किसी भी उत्तरदाता ने इस बात की पुष्टि नहीं की है कि प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के माध्यम से किसी को भी मुफ्त अतिरिक्त अनाज प्राप्त हो सका है।

बैंकिंग सेवाओं तक पहुँच बना पाने में कमी और सूदखोरों से कर्ज लेने के लिए बढ़ता दबाव

मैंने जिन आठों मजदूरों से बातचीत की थी, उन सभी के पास बैंक में जन धन खाते थे। हालाँकि उनमें से सिर्फ दो लोगों ने ही केंद्र सरकार के वायदे के अनुसार हर माह 500 रुपये की दूसरी किस्त अपने जन धन खाते में प्राप्त करने की पुष्टि की थी। इसी प्रकार सिर्फ दो श्रमिकों ने राज्य सरकार द्वारा घोषित 1,000 रुपये की सहायता राशि हासिल किये जाने की सूचना दी है। वहीँ एक महिला श्रमिक ने सूचित किया है कि हालाँकि उसके पास एक मेसेज आया है जिसमें इस बात को निर्दिष्ट किया गया है कि उसके खाते में 1,000 रुपये जमा कर दिए गए हैं, लेकिन बैंक अधिकारियों से पूछताछ पर उनका कहना था कि उसके खाते में कोई पैसा क्रेडिट नहीं हुआ है।

जैसा कि भर्री पर मेरी पहले की रिपोर्ट में बताया गया था कि बैंक से कैश निकालने के लिए ग्रामीणों को घंटों कतार में लगना पड़ रहा था। एक उत्तरदाता ने सूचित किया कि उसने बैंक जाकर तीन बार नकदी निकालने की कोशिश की थी लेकिन 10 घंटे तक कतार में खड़े रहने के बावजूद हर बार असफलता ही हाथ लगी है।

आय का कोई साधन न होने और बैंकिंग सेवाओं तक पहुंच की कमी ने गांव के परिवारों को साहूकारों से उधार लेने के लिए मजबूर कर दिया है। सर्वेक्षण के दौरान मैंने जिन-जिन श्रमिकों से पूछताछ की, तकरीबन सभी ने लॉकडाउन की अवधि के दौरान स्थानीय साहूकारों से 8000 रुपये से लेकर 40,000 रुपये तक का कर्ज ले रखा था। ऐसे ऋणों पर ब्याज दर आमतौर पर 60% से लेकर 120% तक की होती है। कई छोटे दुकानदारों तक ने इस बात पर हामी भरी है कि अपने घरेलू खर्चों की पूर्ति के लिए उन्होंने पैसे उधार ले रखे हैं। ऐसे में अधिकांश ग्रामीण अपने भविष्य की रोजगार की संभावनाओं को लेकर चिंता में डूबे हुए हैं, क्योंकि उन्हें इन कर्जों को चुका पाने के रास्तों को तलाश कर पाने की आवश्यकता पड़ने वाली है।

अन्य सरकारी योजनाओं से मिलने वाले लाभ की स्थिति

इस सिलसिले में जब मैंने एक स्कूली छात्रा से बात की तो उसका कहना था कि वह और उसके कई सहपाठियों ने खेतों में मजदूरों के तौर पर काम करना शुरू कर दिया था क्योंकि उनकी छात्रवृत्ति का वितरण नहीं किया जा रहा था। इस बात की पुष्टि एक अन्य उत्तरदाता की ओर से भी की गई, क्योंकि उनकी बेटी को भी इस बीच छात्रवृत्ति का कोई पैसा नहीं मिला था।

गाँव में क्वारंटाइन होने की सुविधा की स्थिति  

इस बीच गाँव में भारी संख्या में प्रवासी मजदूर लौटकर आ रहे हैं, लेकिन गाँव में क्वारंटाइन होने की सुविधाएं बेहद दयनीय स्थिति में हैं। गाँव के उच्च प्राथमिक विद्यालय में तकरीबन 15 कमरे हैं, और उन सभी को क्वारंटाइन सेंटर के बतौर इस्तेमाल में लाया जा रहा था। एक बार तो हालत यह हो गई थी कि इनमें 600 से अधिक लोगों को रखा गया था। स्कूल परिसर के भीतर ही इनमें से कुछ लोगों के रहने के लिए अस्थाई तौर पर एक छोटा सा कच्चा ढांचा खड़ा कर दिया गया था। नहाने धोने और पीने के लिए स्कूल में सिर्फ एक हैंड पंप मौजूद है जबकि एक भी शौचालय चालू हालत में नहीं है। यहाँ पर रहने की भयावह स्थिति को देखते हुए क्वारंटाइन में रह रहे कुछ श्रमिक 14 दिन पूरा होने से पहले ही भाग खड़े हुए। इसके बाद से ही गाँव में रह रहे लोग इस बात से डरे हुए हैं कि घर वापसी के लिए आये लोगों से उनके बीच में वायरस फैलने का खतरा उत्पन्न हो गया है। इस सबके बावजूद अभी तक इन सवालों और चिंताओं को लेकर न तो पंचायत द्वारा और न ही प्रशासन की ओर से कोई पहल ली गई है।

साम्प्रदायिक दुष्प्रचार का प्रभाव

महामारी के दौरान सांप्रदायिक दुष्प्रचार के चलते गाँव में सांप्रदायिक आधार पर विभाजन की स्थिति पैदा हो गई है। ऐसी सूचना मिल रही है कि कई परिवारों ने मुसलमानों की दुकानों से सामान खरीदने से परहेज करना शुरू कर दिया था। वहीँ एक हिंदू दुकानदार ने बताया कि उसने अपने मुस्लिम ग्राहकों को सामान बेचना बंद कर दिया था। यह अफवाह भी खूब चली कि कोरोनवायरस एक ‘पाकिस्तानी’ साजिश है, और कई मुस्लिम जानबूझकर यह वायरस फैला रहे थे। एक ठेकेदार ने सूचित किया कि हालांकि उसे पैसे की ज़रूरत थी लेकिन वह अपना बकाया पैसा एक मुस्लिम खरीदार से इसलिए वसूलने से बचता रहा क्योंकि उसे डर था कि कहीं उसके पास जाने पर वह वायरस से संक्रमित न हो जाये।

उपसंहार

निष्कर्ष के तौर कह सकते हैं कि बिना किसी ठोस योजना के लॉकडाउन को लागू करने की वजह से एक ऐसी स्थिति पैदा हो चुकी है जिसमें ग्रामीण आबादी का सबसे कमजोर हिस्सा जैसे कि दिहाड़ी मजदूर, छोटे स्वरोजगार पर पलने वाले परिवार और वे किसान जिनके हाथों में छोटी जोतें हैं, ये सभी लोग गंभीर संकट के दौर से गुजर रहे हैं। लॉकडाउन की वजह से अर्थव्यवस्था पर जो दीर्घकालिक असर पड़ने जा रहा है वह भर्री में विकास के संदर्भ में पीछे की ओर ले जाने वाला हो सकता है। तकरीबन सभी आयु वर्ग के लोगों की जिस प्रकार से श्रम शक्ति में भागीदारी बढ़ी है, जिसमें कई खुद का रोजगार चला रहे लोग आज दिहाड़ी मजदूर के तौर पर काम करने के लिए मजबूर हैं, ऐसे में श्रमिकों की घर वापसी के साथ-साथ रोजगार के अवसरों की अनुपस्थिति ने भविष्य की तस्वीर को बेहद विकट बना डाला है।

(लेखक ओ पी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर हैं).

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

COVID-19 in Rural India - XL: Impact on Rural Workforce in Bihar’s Bharri, An Update

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