उत्पीड़ितता के खोल में सेटलर उपनिवेशवाद
अठारहवीं तथा उन्नीसवीं शताब्दियों में उपनिवेशवाद के दो अलग-अलग नमूने या प्रतिमान उभर कर सामने आए थे।
उपनिवेशवाद के दो अलग-अलग रूप
पहला, जिसका क्लासिकल उदाहरण भारत में देखने को मिला था, ऐसे देशों को जीते जाने का था, जिनका एक ऐसे केंद्रीय प्रशासन की स्थापना का इतिहास रहा था, जो अतिरिक्त मूल्य की उगाही की स्थापित व्यवस्था के सहारे पोषित होती थी और अब पुराने प्रशासनों की जगह पर, औपनिवेशिक निजामों को बैठा दिया गया था। इस उपनिवेशवाद का सार, स्थानीय दस्तकारों की कीमत पर, यूरोपीय मालों के लिए बाजार खोजना तो था ही, इसके अलावा उक्त अतिरिक्त मूल्य का हड़पा जाना और विकसित पूंजी के केंद्रों में जिन मालों की जरूरत थी उनके रूप में, इस अतिरिक्त मूल्य का जहाजों में भरकर भेजा जाना था। इन देशों में, जो पहले ही काफी अच्छी तरह से आबाद थे और जिनका गर्म इलाकों में स्थित होना, पूंजी के विकसित केंद्रों के ठंडे इलाके से, आबादी के उनकी ओर तबादले को हतोत्साहित करता था, यूरोपीय आबादी का बहुत ही कम स्थानांतरण हुआ था।
दूसरा प्रतिमान, जिसका क्लासिकल उदाहरण अमेरिका था, ऐसे इलाकों के जीते जाने पर आधारित था, जहां से स्थानीय आबादी को उसकी जमीनों से खदेड़ दिया गया था और इन जमीनों पर पूंजी के विकसित केंद्रों से आए सेटलरों ने कब्जा कर लिया था। यहां उपनिवेशवाद का सार था, विकसित पूंजी के केंद्रों या मैट्रोपोलिस से आबादी का स्थानांतरण और उनके द्वारा स्थानीय निवासियों से जमीनों का तथा अन्य परिसंपत्तियों का भी छीना जाना। इस प्रक्रिया में स्थानीय निवासियों का या तो सफाया कर दिया जाता है या उन्हें इकट्ठा कर सुरक्षित क्षेत्रों में बंद कर दिया जाता है। मैं उपनिवेशवाद के इन दो प्रतिमानों को क्रमश: ‘स्वामित्वहरणकारी उपनिवेशवाद’ या ‘‘एक्सप्रोप्रिएटिव कोलोनिअलिज्म’’ और ‘सेटलर उपनिवेशवाद’ का नाम दूंगा।
सेटलर उपनिवेशवाद: जनसंहारक और विस्तारवादी
इन दो प्रतिमानों या रूपों में अंतर यह है कि जहां एक मामले में उपनिवेशवाद जमीन के उत्पादों को हड़पता था, दूसरे में वह जमीन को ही हड़प लेता था। बहरहाल, इसका एक महत्वपूर्ण निहितार्थ था। पहले मामले में, उसे जमीन पर स्थानीय आबादी से काम लेना होता था और अगर जमीन के उत्पादों के बहुत बड़े हिस्से का इस तरह स्वामित्वहरण किया जा रहा होता था, तो ऐसा स्थानीय आबादी के भूखों को मारकर ही किया जा रहा होता था, जैसा कि ब्रिटिश भारत में बार-बार पड़ने वाले अकालों के रूप में होता रहा था। लेकिन, उस सूरत में उसे कुछ उपचारात्मक कदम भी उठाने पड़ते थे, ताकि पर्याप्त संख्या में लोग बचे रहें, ताकि उनके पैदा किए हुए अतिरिक्त मूल्य को, वह हड़प सके। बहरहाल, सेटलर उपनिवेशों के मामले में स्थानीय आबादी को बचाए रखने की ऐसी कोई मजबूरी नहीं थी। यह तब खासतौर पर होता था, जब विकसित पूंजी केंद्र से लोगों का स्थानांतरण पर्याप्त रूप से बड़ी तादाद में हो रहा हो या फिर स्थानीय आबादी का सफाया किए जाने की सूरत में, किसी दूसरी जगह से आसानी से मजदूरों को लाया जा सकता हो। इसलिए, सेटलर उपनिवेशवाद सामान्य रूप से इथनिक सफाए से जुड़ा रहता था और अक्सर तो जनसंहारात्मक इथनिक सफाए से जुड़ा रहता था।
सेटलर उपनिवेशवाद की एक और महत्वपूर्ण विशेषता थी। वह विस्तारकारी प्रवृत्ति का होता था यानी सेटलरों द्वारा कब्जाया गया इलाका लगातार बढ़ता जाता था। यह तब तो होता ही था, जब संबंधित इलाके में पूंजी के विकसित केंद्रों से आव्रजन चल रहा होता था, यह अन्यथा भी हो रहा होता था, जब तक कि या तो कब्जाई जा रही जमीन की प्राकृतिक सीमा नहीं आ जाती थी या जब तक किसी मजबूत पड़ेसी राज्य की सीमाएं, आगे विस्तार के रास्ते में दीवार बनकर खड़ी नहीं हो जाती थीं।
इजराइल: सेटलर उपनिवेशवाद का क्लासिकल उदाहरण
सामान्यत: किसी ने भी यही सोचा होता कि यह सब अब अतीत की चीज हो चुका है। हालांकि, पूंजीवाद के अंतर्गत साम्राज्यवाद अब भी एक सच्चाई बना हुआ है, लेकिन उपनिवेशवाद की अब कोई खास प्रासंगिकता नहीं रह गयी है। लेकिन, यह धारणा गलत है। इजराइल, समकालीन दौर में सेटलर उपनिवेशवाद का एक उत्तम उदाहरण बन गया है। यहूदी, सदियों तक एक उत्पीडि़त अल्पसंख्यक समुदाय बने रहे थे, जिनका उत्पीड़न जनसंहार में अपनी हौलनाक ऊंचाई पर पहुंचा था। शुरूआत में वे ब्रिटिश उपनिवेशवाद के बढ़ावे पर, एक शत्रुतापूर्ण दुनिया से शरणार्थियों के रूप में फिलिस्तीन आए थे और 1948 में उन्होंने इजराइली यहूदीवादी राज्य कायम किया था। लेकिन, अमेरिकी साम्राज्यवाद की मिलीभगत तथा उसके सक्रिय हस्तक्षेप से और उस देश में एक के बाद एक दक्षिणपंथी सरकारों के आने के साथ, उत्पीड़ित शरणार्थियों के लिए शरणस्थली के रूप में जो शुरूआत हुई थी, उसने आधुनिक सेटलर उपनिवेशवाद के एक उदाहरण का रूप ले लिया। उसने सेटलर उपनिवेशवाद के सभी लक्षणों का प्रदर्शन करना शुरू कर दिया है; अंतर्निहित विस्तारकारी प्रवृत्ति से लगाकर, जिसके तहत देश के सशस्त्र सेटलरों को पश्चिमी तट तथा गजा पट्टी जैसे नये-नये इलाकों में बसने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था, इथनिक सफाए की ओर झुकाव तक और अब तो जनसंहार का सहारा लेने तक भी।
हरेक सेटलर उपनिवेशवाद की पहचान, एक रंगभेदी निजाम से होती है। यह एक प्रकार से तमाम उपनिवेशवादों के लिए सच है। हरेक औपनिवेशिक शहर में, औपनिवेशिक प्रभुओं के रहने तथा काम करने के इलाके में और साधारण लोगों के रहने के इलाके में, एक कड़ा विभाजन रहता है। लेकिन, सेटलर उपनिवेशवाद के अंतर्गत, ‘‘गोरों’’ के इलाके, औपनिवेशिक अधिकारियों की अपेक्षाकृत छोटी सी संख्या की जगह तक ही सीमित नहीं रहते हैं बल्कि वहां विशाल उत्प्रवासी जनसंख्या को रखा जाता है, जो उन्हें कहीं ज्यादा घनिष्ठ रूप से रंगभेद के हालात जैसा बना देता है। अचरज की बात नहीं है कि सेटलर उपनिवेशवाद का समकालीन उदाहरण होने के नाते इजराइल, रंगभेद की भी पारंपरिक तस्वीर पेश करता है।
पश्चिमी साम्राज्यवाद की भूमिका
यह इजराइली सेटलर उपनिवेशवाद, पश्चिमी साम्राज्यवाद के मजबूत समर्थन के बिना चल ही नहीं सकता था। साम्राज्यवादियों के लिए सबसे पहले तो यह यहूदियों के सदियों तक चले उत्पीड़न पर अपने पाप बोध से उबरने का तरीका है। साम्राज्यवादी देश, फिलिस्तीनी आबादी की कीमत पर, खुद को इस पाप बोध से बरी कर रहे हैं। और इजराइली दक्षिणपंथ के लिए, सदियों का उत्पीड़न और सबसे बढ़कर जनसंहार, सेटलर उपनिवेशवाद के लिए एक प्रकार का आवरण मुहैया कराता है। इस उपनिवेशवाद की और इससे जुड़ी रंगभेद, विस्तावरवाद, इथनिक सफाए तथा यहां तक कि जनसंहार तक की परिघटनाओं की हरेक आलोचना को, फौरन यहूदी-विरोध बना दिया जाता है, जो यहूदी-विरोध के नरसंहार से संबंध के इतिहास के चलते तथा अपेक्षाकृत हाल में नाजीवाद के साथ संबंध के चलते, जाहिर है कि इसे जुगुप्सापूर्ण (उपेक्षापूर्वक की जानेवाली घृणा) बना देता है।
यह साम्राज्यवाद के लिए और हर जगह के दक्षिणपंथ के लिए बहुत ही सुविधाजनक है, जो इस बात से स्वत:स्पष्ट है कि अब जबकि इजराइली सरकार गज़ा की आबादी पर वहशत बरपा कर रही है, तब भी अधिकांश विकसित देशों में फिलिस्तीन-समर्थक प्रदर्शनों पर पाबंदी लगी हुई है। बेशक, इसके बावजूद प्रदर्शन तो हो रहे हैं, लेकिन अपने-अपने देश की सरकारों के विरोध के बावजूद हो रहे हैं। वास्तव में लंदन में तो ऐसे प्रदर्शनों पर भड़कीं ब्रिटिश गृह सचिव (मंत्री), सुएला ब्रेवरमेन ने (जिन्हें बाद में हटा दिया गया) लंदन पुलिस पर ही, फिलिस्तीन समर्थक पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होने के आरोप लगा दिए!
इथनिक सफाए पर मूक-सहमति
इजराइली सेटलर उपनिवेशवाद के लिए साम्राज्यवादी समर्थन की दूसरी वजह यह है कि ये देश खुद भी अतीत में या तो सेटलर उपनिवेशवाद के जरिए अस्तित्व में आए हैं या उससे लाभान्वित हुए हैं। अमेरिका, कनाडा तथा आस्ट्रेलिया तो सेटलर उपनिवेशवाद की पैदाइश ही हैं। जब वे खुद अपने उदय के साधन के रूप में इथनिक सफाए का सहारा लेते आए हैं, वे अब उसी तरह के इथनिक सफाए का सहारा लिए जाने पर कैसे कोई खास आपत्ति कर सकते हैं और वह भी तब जबकि इजराइल जैसा उनका चहेता देश इसका सहारा ले रहा हो।
बहरहाल, इस समर्थन का सबसे बड़ा कारण इस तथ्य में निहित है कि इजराइल, साम्राज्यवाद का एक प्रबल सहयोगी बनकर, पश्चिम एशिया में उसका स्थानीय छत्रप बनकर सामने आया है। साम्राज्यवाद इस क्षेत्र में अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए अनेक हथियारों का इस्तेमाल करता आया है। इनमें इस क्षेत्र में प्रगतिशील-धर्मनिरपेक्ष, वामपंथी तथा कम्युनिस्ट आंदोलनों को (अरब दुनिया में कम्युनिज्म का बहुत मजबूत आधार रहा था) कमजोर करने के लिए, इस्लामी तत्ववादी ग्रुपों की मदद करने (जिनमें खुद हमास भी शामिल है) से लेकर, सशस्त्र हस्तक्षेप करना तक शामिल हैं। इस सब के अलावा इजराइली सेटलर उपनिवेशवाद को सहायता तथा हथियार देना, उनके शस्त्रागार का बहुत ही ताकतवर हथियार है। हैरानी की बात नहीं है कि गज़ा में जनसंहार के बीच भी अमेरिका ने, संयुक्त राष्ट्र महासभा के उस प्रस्ताव को वीटो कर दिया, जिसमें तत्काल युद्घ विराम की मांग थी। विडंबना यह है कि वह ‘मानवतावादी’ आधार पर, इजराइली हमले में जब-तब ‘अर्ध-विराम’ या पॉज़ की मांग जरूर कर रहा है। इस तरह, उसके मानवतावाद का यही अर्थ लगता है कि इजराइल जी-भर फिलिस्तीनियों को मारता और घायल करता रहे, तो कोई बात नहीं। बस मानवतावाद का तकाजा है कि बीच-बीच में मृतकों और घायलों को मैदान से हटाया भी जाता रहे!
जनसंहार तक जाता है सेटलर उपनिवेशवाद
इजराइली सेटलर उपनिवेशवाद को अगर चलते रहने दिया जाता है, तो उसका अपरिहार्य तार्किक परिणाम फिलिस्तीनी जनता का जनसंहारकारी इथनिक सफाया ही होगा। इसकी वजह यह है कि आबादी को गज़ा की तरह, ‘खुली जेलों’ में बाड़े बंद कर के रखा जाना, जो उन ‘‘रिजर्वेशन्स’’ की याद दिलाता है, जिनमें यूरोप से आए उत्प्रवासियों द्वारा अमरिंडियनों (अमेरिकी-इंडियनों) को बंद कर के रखा गया था, इजराइल की ‘सुरक्षा’ सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त नहीं समझा जाएगा। इस संदर्भ में यह ज्ञानवर्धक है कि इजराइली निर्माण फर्में, फिलिस्तीनी मजदूरों की जगह लेने के लिए, भारतीय मजदूरों को बुलाना चाहती हैं। यह इसी तथ्य को रेखांकित करता है कि तीसरी दुनिया में श्रम की विशाल सुरक्षित सेना की मौजूदगी फिलिस्तीनियों जैसे किसी भी खास जन-समूह को, इजराइली सेटलर उपनिवेशवाद के लिए पूरी तरह से गैर-जरूरी बना सकती है।
सेटलर उपनिवेशवाद को रोका जाना चाहिए और सिर्फ फिलिस्तीनी लोगों के हितों के लिए ही नहीं, पूरी दुनिया के लोगों के हितों के लिए रोका जाना चाहिए क्योंकि यह समकालीन साम्राज्यवाद का सबसे आक्रामक और सबसे निर्मम दस्ता है, जो यहूदी लोगों की सदियों की पीड़ाओं के सहारे, इसे अपना अधिकार मानकर चलता है। इसे रोका जा सकता है, तो केवल विश्व जनमत के दबाव जरिए। कोलंबिया, बोलीविया तथा दक्षिण अफ्रीका जैसे कई देशों ने इजराइल में साथ कूटनीतिक संबंध तोड़ लिए हैं। दुनिया भर में फिलिस्तीनी लोगों को जबर्दस्त समर्थन मिल रहा है और अनेक विकसित देशों में सार्वजनिक प्रदर्शन हुए हैं, जिनमें इतनी बड़ी संख्या में लोगों ने हिस्सा लिया है, जितनी बड़ी संख्या में हाल के वर्षों में इससे पहले लोगों ने नहीं लिया था। इनमें से अनेक प्रदर्शन स्थानीय यहूदी समूहों द्वारा या उनके समर्थन से संगठित किए गए हैं, जिनके जरिए इन यहूदियों ने गज़ा में हो रहे जनसंहार पर भी अपना विरोध जताया और इस जनसंहार के हरेक विरोध को यहूदीविरोध करार दिए जाने के खिलाफ भी विरोध जताया है। दुनिया भर में जो प्रतिरोध फूट रहा है उसकी सफलता पर, सिर्फ फिलिस्तीनी जनमानस का ही नहीं बल्कि दुनिया भर के लोगों का भविष्य महत्वपूर्ण रूप से टिका हुआ है।
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