मुद्दा: बिखरती हुई सामाजिक न्याय की राजनीति
पिछले आठ साल की भारतीय राजनीति पर विभिन्न तरह के राजनीतिक टिप्पणीकार इसे अलग-अलग तरह से परिभाषित करते हैं। कुछ टिप्पणीकार इसे दक्षिणपंथी राजनीति के उभार का दौर कहता है तो कुछ इसे मजबूत हो रहे लोकतंत्र के रुप में व्याख्यायित करता है। कई टिप्पणीकारों के अनुसार राजनीति का यह ऐसा दौर है जिसमें राष्ट्रवाद आर्थिकी और देश-समाज की बदहाली पर राज करेगा। लेकिन विभिन्न तरह की टिप्पणियों के बीच इतना तो तय है कि वर्तमान दौर की राजनीति ने सामाजिक न्याय की अवधारणा को बहुत पीछे छोड़ दिया है।
सामाजिक न्याय की राजनीति के लिए वर्ष 1990 से लेकर 2014 तक का समय काफी मुफीद रहा है। ऐसा नहीं है कि उन 24 वर्षों में सब कुछ दलितों-पिछ़ड़ों के लिए ही हुआ, लेकिन यह ज़रूर है किइन वर्षों में अपवादों को छोड़कर घोषित तौर पर कोई ऐसे कानून नहीं बने जो दलितो-पिछड़ों और कुछ हद तक अल्पसंख्यकों के पूरी तरह खिलाफ रहे हों। हकीकत तो यह भी है कि इन 24 वर्षों में से छह वर्ष तो सीधे तौर पर अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बीजेपी की सरकार थी, फिर भी भारत के मूल संवैधानिक ढांचे से बहुत हद तक छेड़छाड़ नहीं की गयी।
इसके कारण कई हो सकते हैं, लेकिन जो सबसे प्रमुख कारण थे वह यह कि उस समय लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, कांशीराम, शरद यादव, मायावती, रामविलास पासवान जैसे दलित-पिछड़ों के सशक्त नेता मौजूद थे। दूसरा कारण यह भी था कि अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी आरएसएस का जितना भी बड़ा मुखौटा रहे हों, अंततः उनका पालन-पोषण नेहरु के वैचारिक दौर में हुआ था। चूंकि अपनी जिंदगी के शुरूआती वर्ष उन्होंने नेहरू, गांधी, आंबेडकर, लोहिया, एके गोपालन, नंबूदरीपाद जैसे महापुरुषों के राजनीतिक औरा को देखते हुए गुजारे थे, इसलिए आरएसएस का जितना भी दबाव हो, घनघोर सांप्रदायिक व जातिवादी होने के बावजूद उसी रूप में उसे लागू करना पूरी तरह संभव नहीं था।
तीसरी बात शायद यह भी थी कि दक्षिणपंथी जनसंघ-बीजेपी जितना भी घनघोर सवर्णवादी हो, कल्याण सिंह व उमा भारती जैसे पिछड़े नेताओं के चलते पिछड़ों के खिलाफ कोई कदम उठाने या योजना बनाने से कतराती थी।
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2014 के बाद राजनीतिक समयकाल पूरी तरह बदल गया। कांशीराम का बहुत पहले निधन हो चुका था। लालू यादव भ्रष्टाचार के आरोप में जेल भेज दिए गए हैं। मुलायम सिंह की राजनीतिक व स्वास्थ्य संबंधी ताकतें काफी क्षीण हो गईं हैं, मायावती भ्रष्टाचार के दबाव के चलते कमजोर हुईं और प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से तरह-तरह के दबाव डालकर उन्हें स्पष्ट व कठोर निर्णय लेने से रोक दिया गया। अखिलेश यादव 2012 में भले ही जनता के जोरदार समर्थन से मुख्यमंत्री बन गए हों, उनका राजनीति करने का तरीका पूरी तरह मध्यमवर्गीय है। हांलाकि अखिलेश यादव ने अभी संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में अपनी इस छवि से अलग बहुत कुछ करने की कोशिश की लेकिन यह कोशिश चुनाव से सिर्फ चार महीने पहले हुई, बाकी के साढ़े चार साल वह जनता तो छोड़िए, नेताओं के बीच भी कहीं नहीं दिखे। परिणामस्वरुप मुख्यमंत्री की गद्दी से उतरते और हालिया चुनाव हारते ही वे अभी भी पूरी तरह दिशाहीन दिख रहे हैं।
उदाहरण के लिए, मोदी के दूसरी बार सत्ता मे आने के बाद के दो बड़े फैसलों को लिया जा सकता है। मोदी सरकार ने पिछले साल अनुच्छेद 370 को खत्म किया और सीएए लागू किया। अनुच्छेद 370 सीधे तौर पर कश्मीर से जुड़ा मसला था जिसके तहत कश्मीर को न्यूनतम स्वायत्तता थी या फिर कह लीजिए कि सिर्फ नाम की स्वायत्तता रह गई थी, लेकिन मोदी सरकार ने अनुच्छेद 370 को खत्म करने को इस रूप में पेश किया जैसे कि कश्मीर के मुसलमानों को इसके खात्मे के बाद औकात में ला दिया गया है। इसे इस रूप में भी पेश किया गया था कि अनुच्छेद 370 का एकमात्र मकसद कश्मीर में बाहरी लोगों (खासकर हिन्दुओं को) जमीन खरीदने पर रोक लगायी गयी है। इसी तरह सीएए-एनआरसी का मसला इस देश के हर उस नागरिक को परेशान करने का सबसे खतरनाक कदम था जिनके पास अपना वजूद साबित करने की हैसियत नहीं है। जिसका सबसे बुरा असर न सिर्फ मुसलमानों बल्कि सभी तरह के गरीबों पर पड़ना था। इसके खिलाफ सबसे शालीन लेकिन जबर्दस्त विरोध दिल्ली के शाहीनबाग व पूरे उत्तर प्रदेश में हुआ, लेकिन समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी ने इस मसले पर पूरी तरह चुप्पी साध ली, जबकि 1990 के बाद मुसलमानों का वोट मोटे तौर पर उत्तर प्रदेश में इन्हीं दो पार्टियों को मिलता रहा है।
इतना ही नहीं, समाजवादी पार्टी के संस्थापक सदस्य व सांसद आजम खान (जिन्होंने अभी विधानसभा चुनाव जीतने के बाद लोकसभा से इस्तीफा दे दिया है) को तरह-तरह के आरोपों में योगी सरकार ने जेल में बंद कर रखा था, लेकिन समाजवादी पार्टी ने उनके पक्ष में उतरना भी मुनासिब नहीं समझा। अखिलेश यादव को लग रहा है कि कहीं जनता में यह मैसेज न चला जाए कि वह या उनकी पार्टी मुसलमानों से सहानुभूति रखती है। इसी तरह जितना कहर योगी सरकार ने सीएए-एनआरसी विरोधी आंदोलन के दौरान उत्तर प्रदेश के मुसलमानों और मुखालफ़त कर रहे नागरिकों और नेताओं पर ढहाये हैं, उसके खिलाफ समाजवादी पार्टी ने कुछ नहीं किया है। और तो और, उत्तर प्रदेश का आजमगढ़ भी आंदोलन की जद में था, वहां पर राज्य सरकार ने आंदोलनकारियों के ऊपर इतने बर्बर अत्याचार किए लेकिन अखिलेश यादव आंदोलनकारियों का हाल तक लेने नहीं पहुंचे जबकि महीना भर पहले तक आजमगढ़ उनका संसदीय क्षेत्र था।
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इसी तरह नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा लाए गए तीनों कृषि कानून के खिलाफ पूरे देश के किसान आंदोलनकर रहे थे लेकिन अखिलेश यादव, मायावती और तेजस्वी यादव ने ट्वीट पर खानापूर्ति करके अपना कर्तव्य निभा दिया। हां, अखिलेश यादव ने इस बीच एक प्रेस कांफ्रेंस जरूर की लेकिन इसके अलावा किसानों के समर्थन में सिर्फ ट्विटर पर दिखायी पड़े हैं, जबकि इन तीनों नेताओं का सामाजिक आधार किसान, किसानी पर आश्रित मजदूर ही अधिक हैं, लेकिन वैचारिक मतिभ्रम के कारण कोई फैसला लेने का माद्दा ही नहीं रह गया है। अखिलेश, मायावती या तेजस्वी इस इंतजार में हैं कि जनता जब बीजेपी को खारिज कर देगी तो जनता स्वतः चलकर उनके पास ही आएगी और तख्त पर बैठा देगी!
आज से सौ साल से भी अधिक पहले वर्ष 1909 में यूएन मुखर्जी ने ‘’हिन्दूः डाईंग रेस’’ नामक एक किताब लिखी थी। किताब की हकीकत जो भी हो, लेकिन किताब आरएसएस के पूर्व अवतार हिन्दू महासभा को भा गयी और इसके कई एडिशन छपवाये। आज भी आरएसएस व बीजेपी उसी झूठ को अपने विस्तार में इस्तेमाल कर रहा है, जबकि हर एक तर्क और आंकड़ों से मुखर्जी की बातें बार-बार गलत साबित होती रही हैं। फिर भी सामाजिक न्याय के पैरोकारों की तरफ से उस नैरेटिव के खिलाफ कोई अभियान नहीं चलाया जा रहा है। अन्यथा क्या कारण है कि जिस राम मनोहरलोहिया, जेपी और कर्पूरी ठाकुर के नाम पर वे राजनीति चला (कर) रहे हैं उनके बताये सप्तक्रांति के एक भी बिन्दु पर अखिलेश या तेजस्वी ने आंदोलन की बात तो छोड़ ही दीजिए, प्रदर्शन तक नहीं किया है। न ही मायावती ने डॉ. आंबेडकर के बताये किसी भी रास्ते पर कोई आंदोलन किया है।
आज सामाजिक न्याय की ताकतें पूरी तरह दिशाहीन हो गयी हैं, वे अपनी प्राथमिकता ही नहीं तय करपा रहे हैं कि उन्हें करना क्या है! हां, हमें यह भी याद रखना चाहिए कि विधानसभा या लोकसभा में एससी/एसटी विधायकों या सांसदों की संख्या घटी नहीं है (क्योंकि दोनों सदनों में एससी/एसटी के लिए सीटें आरक्षित हैं), लेकिन उत्तर भारत की राजनीति से दलित-पिछड़ों की आवाज खत्म हो गयी है। इसका कारण यह भी है कि उस समाज में सत्ता को चुनौती देने वाला या अपने सामाजिक हित की मांग करनेवाला नेता नहीं रह गया है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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