स्पेशल रिपोर्ट: टीबी को हराने के लिए कुपोषण को हराना होगा
ऋषिकेश: दीवार के भीतर तक घुस जाने की कोशिश में, कभी-कभी बेहिसाब खांसती, लक्ष्मी बार-बार सोचती है कि आखिर मुझे टीबी क्यों हुई। किराए के एक कमरे में माता-पिता और तीन भाई और एक बड़ी बहन के साथ रह रही लक्ष्मी के लिए खाने की प्लेट, गिलास, कटोरी, चम्मच अलग कर दिए गए थे। ताकि अन्य सदस्यों को संक्रमण से बचाया जा सके। लेकिन लक्ष्मी की बड़ी बहन भी टीबी संक्रमित हुई।
वह परिवार की पहली लड़की थी जिसने बारहवीं पास की थी। वह ख़ुश होती कि अब वह पहली लड़की बनेगी जो कॉलेज जाएगी। लेकिन इससे पहले टीबी बैक्टीरिया ने अपनी चपेट में ले लिया। 2017 का वो साल लक्ष्मी के लिए बहुत भारी था। दुबली-पतली काया वाली लड़की को सिर्फ टीबी का मुकाबला नहीं करना था बल्कि कुपोषण की बाधा भी पार करनी थी। लेकिन कैसे? परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। एक दुकान में काम करने वाले पिता बमुश्किल इतना कमा पाते कि किसी तरह गुजर-बसर हो सके। लक्ष्मी कहती है- हमें भरपेट भोजन ही बमुश्किल मिलता था।
लक्ष्मी की देखभाल कर रही मां को यह चिंता भी सताती थी कि अब उसकी बेटी से शादी कौन करेगा। पड़ोसियों को इस बीमारी का पता न चले। लोग उनके यहां आना-जाना बंद कर देंगे। जबकि बिस्तर पर बेहोशी की हालत में पड़ी लक्ष्मी एक बार में दवा की 16 गोलियां खाने की मुश्किल से जूझ रही थी।
ऋषिकेश की एक सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता हेमलता बहन ने लक्ष्मी के परिवार से संपर्क किया। हेमलता बहन आर्थिक तौर पर कमजोर परिवार के टीबी संक्रमितों को प्रोटीनयुक्त भोजन उपलब्ध कराती हैं। टीबी में दवाइयों के साथ-साथ पौष्टिक आहार बेहद जरूरी है।
टीबी से जुड़े इस अध्ययन के मुतबिक कुपोषण से जूझ रहे लोगों में टीबी होने के आसार ज्यादा होते हैं और टीबी होने पर कुपोषण की आशंका बढ़ जाती है।
लक्ष्मी अब बतौर टीबी चैंपियन काम कर रही है, वह कहती है कि टीबी संक्रमित के लिए दवा के साथ पौष्टिक आहार और कम्यूनिटी सपोर्ट बेहद जरूरी है।
लक्ष्मी के मां-बाप शुरू-शुरू में हेमलता बहन से बातचीत के लिए तैयार नहीं थे। वे डर गए कि आखिरी किसी को पता कैसे चला कि उनकी बेटी को टीबी है। उन्हें आशंका थी कि कोई मुफ्त में खाना क्यों खिलाएगा। कहीं वे इसके लिए पैसे न मांगें। उन्होंने इलाज के साथ-साथ लक्ष्मी की झाड़-फूंक भी कराई।
हेमलता बहन ने 2005 में डॉट प्रोवाइडर के तौर पर काम करना शुरू किया था। कमजोर आर्थिक परिस्थितियों वाले टीबी मरीजों की मदद के लिए वे भोजन का इंतज़ाम करतीं। 2017 में उन्होंने गैर सरकारी संस्था 'आस' (एक्शन फॉर एडवांसमेंट ऑफ़ सोसाइटी) शुरू किया। वे आम लोगों, कंपनियों, कॉर्पोरेट्स की मदद से टीबी मरीजों के लिए प्रोटीनयुक्त भोजन का इंतजाम करती हैं। टीबी उन्मूलन के लिए कार्य कर रहे स्थानीय अधिकारी भी उनसे प्रभावित थे। अपने क्षेत्र में टीबी संक्रमित मरीज का पता चलने पर हेमलता उनसे सहयोग का प्रस्ताव रखतीं।
लक्ष्मी के माता-पिता को भी उन्होंने पौष्टिक भोजन देने का प्रस्ताव रखा। इस पर माता-पिता आशंकित थे लेकिन लक्ष्मी नहीं। ऋषिकेश के राजकीय चिकित्सालय के बरामदे में रोजाना40 बच्चों को खाना खिलाया जाता। छोले, न्यूट्रीला, दूध, अंडे, फल....। लक्ष्मी कहती है- मेरे माता-पिता मेरे लिए इस तरह का भोजन नहीं जुटा सकते थे। फिर हम पांच भाई-बहन थे। मैंने तय किया कि मैं अस्पताल जाऊंगी।
मेरे घर से अस्पताल 10 मिनट की दूरी पर था। लेकिन मुझे ये दूरी तय करने में डेढ़ घंटा लग जाता। फिर भी मैंने हार नहीं मानी। मैंने तय किया चाहे कुछ हो जाए मैं चलकर जाऊंगी, मुझे ठीक होना है। मैं घर से अपनी प्लेट, कटोरी, चम्मच और गिलास लेकर जाती थी।
धीरे-धीरे मेरे अंदर ताकत आने लगी। अस्पताल की जो दूरी तय करने का समय अब कम होने लगा। पूरी तरह स्वस्थ्य होने में मुझे तीन साल लगे। 2020 में मैंने प्राइवेट बीकॉम में दाखिला लिया। इस समय मेरा सेकेंड ईयर चल रहा है। अब मैं पढ़ाई कर रही हूं, नौकरी कर रही हूं और टीबी चैंपियन के तौर पर उत्तराखंड सरकार के साथ मिलकर काम कर रही हूं।
मुझे डांस का बहुत शौक था। टीबी के दौरान मेरे शरीर का निचला हिस्सा पैरालाइज हो गया था। लेकिन ठीक होने की मेरी सोच ने मुझे बचा लिया। मैंने देहरादून में एक नृत्य प्रतियोगिता में दूसरा और पंजाब में एक नृत्य प्रतियोगिता में तीसरा स्थान हासिल किया। मेरे माता-पिता मानते हैं कि मेरा दूसरा जन्म हुआ है। वे अब मुझे किसी बात के लिए रोकते-टोकते नहीं। अब मैं उनकी ‘हीरो’ हूं।
जब मेरी बड़ी बहन को टीबी हुआ तो हमें पता था कि क्या करना है। लक्ष्मी अब भी बेहद दुबली-पतली है लेकिन आत्मविश्वास से भरपूर है। स्वस्थ्य है।
अपनी बेटी के लिए पोषाहार लेने आई जैनम बीबी (बीच में)
टीबी मुक्त भारत की असली टीबी योद्धा
टीबी संक्रमित मरीजों को दवा के साथ-साथ अच्छा खाना, कम्यूनिटी सपोर्ट, साथ और प्रोत्साहन की भी जरूरत है। टीबी से स्वस्थ हुए युवा इस कार्य को कर रहे हैं।
सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता हेमलता बहन कहती हैं “टीबी में दवा के साथ भोजन का इंतज़ाम और थोड़ी सी संवेदनशीलता के साथ व्यवहार बहुत जरूरी है। मेरे साथ जुड़े कई टीबी संक्रमित लड़के-लड़कियां अब हमारे साथ वालंटियर के तौर पर काम करते हैं। वे हमारे संपर्क में आने वाले टीबी संक्रमितों और उनके परिजनों से बात करते हैं, उन्हें अपने अनुभव बताते हैं और काउंसिलिंग करते हैं”।
हेमलता बहन के पोषाहार वितरण से जुड़े एक कार्यक्रम में लक्ष्मी वालंटियर के तौर पर मौजूद थी। पारुल और मनीष जैसे कुछ अन्य युवा भी थे जो टीबी को हराकर ज़िंदगी में लौटे हैं और टीबी योद्धा के तौर पर कार्य करना चुना है।
वनगुज्जर समुदाय की जैनम बीबी (27 वर्ष) के तीन बच्चे हैं। टीबी की चपेट में आई सबसे बड़ी बेटी, 9 साल की खुर्शीदा के लिए वह राशन लेने आईं थीं। उनके पति मजदूरी करते हैं।
यहां मौजूद लक्ष्मी 9 साल की खुर्शीदा का हाथ पकड़कर बात करती है। उससे उसकी पढ़ाई, दिनचर्या और सेहत के बारे में पूछती है। लक्ष्मी के सवालों का जवाब देते हुए, उदास दिख रही खुर्शीदा के चेहरे पर मुस्कुराहट आती है।
लक्ष्मी कहती है कि जब वह बीमारी के दौरान अस्पताल पोषाहार के लिए जाती थी तो वो एक घंटा उसे सबसे प्यारा लगता था। “अस्पताल के बरामदे में जब मैं पोषाहार लेने जाने लगी तो देखा मेरे जैसी कई लड़कियां हैं जो इस बीमारी से लड़ रही हैं। मैं अकेली नहीं हूं। हम एक-दूसरे से बात करते थे। एक-दूसरे का साथ हमें ताकत देता”। लक्ष्मी आज खुर्शीदा के साथ वही ‘साथ की भावना’ और ताकत बांट रही थी।
हेमलता बहन बताती हैं कि कोरोना से पहले वह टीबी संक्रमितों को भोजन पकाकर खिलाया करती थीं लेकिन लॉकडाउन के बाद एक-एक महीने का राशन देना शुरू किया। यह राशन टीबी मरीज के मुताबिक प्रोटीनयुक्त डायट का होता है। वह 6 महीने के एक बैच में 40 टीबी मरीजों को पोषाहार देती हैं। इस तरह साल में 80 मरीज के खानपान का ज़िम्मा उठाती हैं।
पोषाहार की मदद मिलने पर टीबी संक्रमित बेटे के पिता ख़ुशी जताते हैं।
टीबी का सामाजिक पहलू
40 बच्चों को 6 महीने का राशन उपलब्ध करवाने के बाद अब हेमलता बहन और उनके साथी टीबी योद्धा पारुल, सविता, संजोगिता, आरती, दिनेश और मनीष हाल ही में दर्ज टीबी मरीजों और उनके परिजनों से मिलने जा रहे हैं। इसमें ऋषिकेश का राजकीय अस्पताल उनकी मदद करता है। अस्पताल में दर्ज मरीजों के परिजनों से वे फोन कर बात करते हैं। एक से दूसरे मोहल्ले को जाते हैं। उनकी पृष्ठभूमि जानते हैं। कुछ परिजन अपने घर में टीबी वालंटियर्स से नहीं मिलना चाहते। उन्हें पड़ोसियों के व्यवहार की फिक्र है इसलिए घर से कुछ दूर आकर मिलते हैं। कुछ मिलना ही नहीं चाहते।
कई परिवार हैं जिनके लिए ये टीबी योद्धा बहुत सारी मुश्किलों का हल लेकर आए हैं। ये वे लोग हैं जिनके लिए दो वक्त की रोटी का इंतजाम कर पाना कड़ी मशक्कत का काम होता है। ऋषिकेश की मायाकुंड बंगाली बस्ती में रहने वाले रामदास अपने टीबी संक्रमित बेटे को 6 महीने तक पोषाहार मिलने से ख़ुश नज़र आते हैं।
टीबी से स्वस्थ्य होने वाले कई युवा अब टीबी उन्मूलन के लिए कार्य कर रहे हैं। अपने अनुभव से वह टीबी संक्रमित लोगों के परिजनों की काउंसिलिंग कर रहे हैं।
टीबी योद्धाओं के लिए क्या कर रहे हम?
टीबी योद्धाओं की इस टीम में 24 साल की पारुल सबसे सीनियर है। वह टीबी की घातक मानी जाने वाली तीसरी स्टेज एक्सडीआर से स्वस्थ्य होकर लौटी है। वह कहती है कि कभी-कभी पैरों में बहुत झनझनाहट होती है। कई बार सांस भी फूलती है। लेकिन वह स्वस्थ्य है। वह टीबी संक्रमित छोटे बच्चों से बात करती है। उनके अभिवावकों से बात करती है। संजोगिता और आरती, पारुल से काउंसिलिंग की ट्रेनिंग ले रहे हैं। यह सब स्वैच्छिक स्तर पर है।
टीबी उन्मूलन के लिए राज्य सरकार के साथ कार्य कर रही रीच संस्था के लिए पारुल और लक्ष्मी का चयन बतौर काउंसलर हुआ है। 2024 तक नौकरी के इस कॉन्ट्रैक्ट में उन्हें 8 हजार रुपये महीना वेतन मिलेगा। यह बताते हुए पारुल की आवाज़ में ख़ुशी और अफसोस दोनों है। ख़ुशी इसलिए की दो साल के लिए नौकरी का इंतज़ाम हो गया और अफसोस कि दो साल बाद फिर काम की तलाश करनी होगी।
टीबी संक्रमण के कठिन दौर से गुजर चुके लक्ष्मी और पारुल जैसे युवाओं के अनुभव का इस्तेमाल टीबी उन्मूलन के लिए किया जा रहा है। इन्हें टीबी चैंपियन नाम दिया गया है। लेकिन इन युवाओं के लिए भी क्या कोई ठोस योजना है?
टीबी संक्रमितों के लिए दवा के साथ प्रोटीनयुक्त आहार है जरूरी
टीबी रोगियों की मदद का ‘हेमलता मॉडल’
टीबी उन्मूलन का लक्ष्य हासिल करने के लिए केंद्र और राज्य सरकारें अब हेमलता बहन के मॉडल को ही अपना रही हैं। टीबी मरीजों को पौष्टिक भोजन उपलब्ध कराने के लिए राष्ट्रीय क्षय रोग उन्मूलन कार्यक्रम(एनटीईपी) के तहत भारत सरकार अप्रैल-2018 में निक्षय पोषण योजना लेकर आई। संक्रमित व्यक्ति को पौष्टिक आहार के लिए 6 महीने तक 500 रुपए प्रतिमाह देने का प्रावधान किया गया।
हेमलता बहन कहती हैं कि ये छोटी सी रकम भी मरीजों को समय पर नहीं मिल पाती। कई बार खाते में पैसे आने में कई-कई महीने लग जाते हैं। उत्तराखंड में इस साल करीब 7-8 महीने तक बहुत से लोगों को ये पैसे नहीं मिले, जब बीमारी उनके शरीर को कमजोर बना रही थी।
उत्तराखंड के स्टेट टीबी ऑफिसर डॉ. पंकज सिंह इसकी पुष्टि करते हैं।
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने इस वर्ष सितंबर में टीबी मुक्त भारत अभियान शुरू किया। जिसके तहत निक्षय मित्र योजना शुरू की गई। इस योजना में नेता, अधिकारी, संस्थाएं और आम लोग निक्षय मित्र बनकर टीबी संक्रमित व्यक्ति को 6 महीने के लिए गोद ले सकते हैं। इन 6 महीनों में उन्हें मरीज को पोषणयुक्त भोजन उपलब्ध कराना होगा। वे स्वयं या गैर-सरकारी संस्था की मदद से ऐसा कर सकते हैं।
देहरादून के ज़िला क्षय अधिकारी डॉ. मनोज वर्मा कहते हैं “निक्षय मित्र योजना को शुरू हुए 4 महीने होने वाले हैं। हमने उम्मीद की थी कि टीबी संक्रमितों को पौष्टिक आहार उपलब्ध कराने के लिए लोग आगे आएंगे लेकिन हमें अपेक्षित रिसपॉन्स नहीं मिल पा रहा है। हम खुद नेताओ, अधिकारियों, कॉलेज व अन्य संस्थाओं को टीबी मरीजों को गोद लेने की अपील करते हैं”।
डॉ. वर्मा अपने क्षेत्र में अधिक से अधिक निक्षय मित्र बनाने की कोशिश में जुटे हुए हैं।
टीबी उन्मूलन का वैश्विक लक्ष्य 2030 है। जबकि भारत सरकार ने 2025 तक का लक्ष्य तय किया है। वर्ष 2022 में दिसंबर तक देशभर में टीबी मरीजों की दर्ज संख्या 22,33,907 पहुंच गई है। जबकि उत्तराखंड में 25,639 मरीज हैं।
टीबी को हराने के लिए देश के सामने कुपोषण को हराने की भी चुनौती है।
(लेखिका देहरादून स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
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