NFHS- 5: ‘विकसित' गुजरात के शहरों में भी बच्चों में कुपोषण का स्तर चिंताजनक, बौनापन भी बढ़ा
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 (NFHS-5) के 2022 में आए परिणाम ने संकेत दिया था कि राज्य में पांच साल से कम उम्र के 39.7 प्रतिशत बच्चे कम वजन वाले हैं। जबकि स्टंटिंग (उम्र की तुलना में कम ऊंचाई) और वेस्टिंग (उम्र की तुलना में कम वजन) में, राज्य प्रमुख राज्यों में चौथे और दूसरे सबसे खराब स्थान पर है।
एक हालिया अध्ययन ने एनएफएचएस सर्वेक्षण (NFHS survey) के दो दौर के बीच हुए परिवर्तनों को समझने के लिए जिला स्तर पर घटना का विश्लेषण किया और पाया कि शहरी आबादी वाले चार प्रमुख जिलों– अहमदाबाद, सूरत, वडोदरा और राजकोट– में भी इन अवधियों (2015-16 और 2020-21) के बीच कुछ आदिवासी जिलों की तुलना में स्टंटिंग, वेस्टिंग, गंभीर कुपोषण और कम वजन की श्रेणियों में भारी वृद्धि दर्ज की गई थी। अध्ययन से सामने आया कि पूरे गुजरात में पांच साल में बच्चों में एनीमिया की व्यापकता 17% और किशोर लड़कियों में 12% बढ़ी है।
नेक्स्टिअस डॉट कॉम की रिपोर्ट के भी अनुसार, गुजरात सहित असम, दादरा और नगर हवेली, झारखंड, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में बौने बच्चों की संख्या राष्ट्रीय औसत 35.5% से अधिक है। प्रमुख राज्यों में गुजरात बौनेपन (उम्र की तुलना में कम लंबाई) के मामले में चौथे स्थान पर और कमजोरी (शरीर लगातार कमजोर होता जाना) में दूसरे स्थान पर है तो आदिवासी इलाकों में भी बच्चों के कुपोषण में बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। यही नहीं, पिछले साल भी राज्य सरकार ने विधानसभा को सूचित किया था कि गुजरात के 30 जिलों में 1,25,707 बच्चे कुपोषित हैं और स्थिति में सुधार के लिए कदम उठाए जाएंगे, लेकिन जैसा कि गुजरात के कुपोषण के हालिया आंकड़ों से पता चलता है, जमीन पर बदलाव दिख नहीं रहा है।
‘गुजरात के पोषण संबंधी संकेतक, इसके निर्धारक और सिफारिशें
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 और राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5’ का एक तुलनात्मक अध्ययन हाल ही में क्यूरियस पत्रिका में प्रकाशित हुआ। यह अध्ययन भारतीय सार्वजनिक स्वास्थ्य संस्थान (आईआईपीएच) गांधीनगर के जिमीत सोनी, फैसल शेख, सोमेन साहा और दीपक सक्सेना और वर्धा के जवाहरलाल नेहरू मेडिकल कॉलेज के मयूर वंजारी द्वारा आयोजित किया गया था। आईआईपीएच-जी के प्रोफेसर सोमेन साहा ने कहा कि इसका उद्देश्य मुद्दे को प्रभावी ढंग से संबोधित करने के लिए रचनात्मक सुझाव प्रदान करना है। “हमने एनीमिया घोषित करने और सार्वजनिक स्वास्थ्य चुनौतियों के रूप में कुपोषण, गैर-आयरन की कमी वाले एनीमिया पर ध्यान केंद्रित करना, गहन डेटा और विश्लेषण के आधार पर पोषण खुफिया संघ विकसित करना, उच्च प्राथमिकता वाले तालुकाओं को सूचीबद्ध करना, उप-जिला कार्य योजना और लक्षित रणनीति तैयार करना और पूर्वानुमानित मॉडलिंग करने सहित कुछ उपाय सुझाए हैं।”
आदिवासी इलाकों में भी कुपोषित बच्चों की संख्या में बढ़ोतरी
‘विकसित राज्य’ के रूप में प्रचारित गुजरात में कोविड-19 महामारी के दौरान कुपोषित बच्चों की संख्या में चौंकाने वाली वृद्धि दर्ज की गई है। इसमें आदिवासी और ग्रामीण क्षेत्रों की स्थिति भी कम बदतर नहीं है।
पिछले दिनों कांग्रेस विधायक जिग्नेश मेवाणी द्वारा विधानसभा में उठाए गए एक सवाल के जवाब में महिला और बाल कल्याण मंत्री, विभावरीबेन दवे ने विधानसभा में बताया था कि अहमदाबाद जिले में 2,236 के मुकाबले आदिवासी जिले दाहोद में 18,326 कुपोषित बच्चे हैं। न्यूज पोर्टल एमबीबी की रिपोर्ट के अनुसार, दाहोद में 18,326 कुपोषित बच्चे 0-6 वर्ष की आयु के हैं। दाहोद में कुपोषित बच्चों की संख्या अहमदाबाद से 8 गुना अधिक है। इसके अलावा डांग जिले में पिछले दो वर्षों में 575 कुपोषित बच्चे मिले हैं जबकि नर्मदा जिले में कुल 2,443 कुपोषित बच्चे हैं। दशोद, नर्मदा और डांग जिलों में बहुसंख्यक आदिवासी आबादी है।
वहीं सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, अहमदाबाद में ‘कम वजन’ के 1,739 बच्चे हैं, जबकि 497 बच्चे ‘गंभीर रूप से कम वजन’ के हैं। वहीं दाहोद में 13,225 बच्चे ‘कम वजन’ और 5,101 ‘गंभीर रूप से कम वजन’ के हैं। हालांकि सरकार ने कुपोषित बच्चों में वृद्धि के लिए कोविड-19 को जिम्मेदार ठहराया है और कहा कि “क्योंकि ज्यादातर आंगनवाड़ी केंद्र (भारत सरकार द्वारा शुरू किया गया एक प्रकार का ग्रामीण बाल देखभाल केंद्र) मार्च 2020 को बंद कर दिया गया था और फिर दोबारा फरवरी 2022 से खोला गया। महामारी के कारण वर्तमान में यह पता लगाना असंभव है कि कुपोषित बच्चों की संख्या बढ़ी है या घटी है।” लेकिन दाहोद और बाकी आदिवासी क्षेत्रों में काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता सरकार से असहमत हैं।
खाद्य सुरक्षा अभियान की गुजरात संयोजक नीता हार्डिकर के मुताबिक, “सरकार को यह समझना चाहिए कि भौगोलिक कारकों का जनजातीय क्षेत्रों में महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। आंगनबाड़ी केंद्र चाहे खुले हों या बंद, आदिवासी इलाकों के लोगों को आंगनबाड़ी केंद्रों तक पहुंचने में दिक्कत होती है। विशेष रूप से जब परिवार के अधिकांश सदस्य दिहाड़ी मजदूर हों, काम पर जाते हों तो बच्चों को देखने के लिए छोड़ दिया गया एक व्यक्ति उन्हें आंगनवाड़ी केंद्रों तक नहीं ले जा पाएगा।” उन्होंने आगे कहा, “कोविड-19 के बाद लोगों को सबसे ज्यादा नुकसान उनके रोजगार का हुआ है। ज्यादातर लोगों की नौकरी चली गई है और जिनके पास नौकरी है उनकी सैलरी काटकर मिल रही है। इसका सीधा असर खान-पान पर पड़ा है। यह चक्र लगातार गंभीर होता जा रहा है। यह गंभीर स्थिति है। क्योंकि कुपोषण कार्य क्षमता को कम करता है और कार्य क्षमता कम होने से आजीविका प्रभावित होती है। सरकार को इस मुद्दे को गंभीरता से लेना चाहिए।”
साभार : सबरंग
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