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लोकशाहीर अण्णा भाऊ साठे की याद में…

मैक्सिम गोर्की से वह बेहद प्रभावित थे। गोर्की की तरह ही उन्होंने भी अपने साहित्य में हाशिये के पात्रों को जगह दी। ऐसे लोग जो साहित्य में उपेक्षित थे, उन्हें अपने साहित्य का नायक बनाया। उन्होंने 40 से ज्यादा उपन्यास और क़रीब 300 कहानियां लिखी। 
Annabhau Sathe

अण्णा भाऊ साठे की पहचान पूरे देश में एक लोकशाहीर के तौर पर होती है। दलित, वंचित, शोषितों के बीच उनकी छवि एक लोकप्रिय जनकवि की है। अपने लेखन से उन्होंने हाशिये के समाज को आक्रामक ज़बान दी, चेतना फैलाई, अपने हक़ के लिए जागरूक किया। सोये हुए समाज में सामाजिक क्रांति की अलख जगाई। देश के आज़ादी आंदोलन, संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन और गोवा मुक्ति आंदोलन इन सभी में आंदोलनों में अण्णा भाऊ साठे की सक्रिय भागीदारी थी। 

देशवासियों के अधिकारों और न्याय के वास्ते एक कलाकार के तौर पर वे हर आंदोलन में हमेशा आगे-आगे रहे। उनके लिखे पावड़े, लावणियां मुक्ति आंदोलनों में आज भी एक नई ऊर्जा और जोश पैदा करते हैं। महाराष्ट्र में दलित साहित्य की शुरुआत करने वालों में अण्णा भाऊ साठे का नाम बहुत अहम है। दलित साहित्य संगठन के वह पहले अध्यक्ष रहे। इसके अलावा इप्टा से मिली जिम्मेदारियां भी निभाते रहे। लोकनाट्य ‘तमाशा’ के मार्फ़त अण्णा भाऊ ने दलित आंदोलन के संघर्षों को अपनी आवाज़ दी।

एक अगस्त, 1920 को सांगली के वाटेगांव के मांगबाड़ा में एक दलित परिवार में जन्मे अण्णा भाऊ साठे का पूरा नाम तुकाराम भाऊ साठे था। उनको बचपन से ही छुआछूत, असमानता और भेदभाव का सामना करना पड़ा। जातिगत भेदभाव की वजह से वे स्कूल में पढ़ नहीं सके। उन्होंने जो भी सीखा, जीवन की पाठशाला से सीखा। अण्णा का दिमाग तेज़ था और याददाश्त भी ग़ज़ब की थी। बचपन से ही उन्हें तमाम लोकगीत कंठस्थ थे। ‘भगवान विठ्ठल’ की सेवा में वे अभंग गाया करते थे, जिनमें जातीय ऊंच-नीच को धिक्कारा गया था और बराबरी का पैगाम था। 

आज़ादी के पहले महाराष्ट्र में जब भयंकर सूखा पड़ा, तो रोज़गार की तलाश में उनके पिता भाऊराव साठे मुंबई पहुंच गए। पिता के साथ अण्णा भाऊ ने भी जीवन के संघर्ष के लिए कई छोटे-मोटे कार्य किए। जीवन-संघर्ष के बीच पढ़ना-लिखना सीखा। 

वह ‘तमाशा’ से कैसे जुड़े, इसका किस्सा कुछ यों है कि उनके एक रिश्तेदार बापू साठे ‘तमाशा’ मंडली चलाते थे। गाने-बजाने का शौक अण्णा को उन तक ले गया और वे भी ‘तमाशा’ से जुड़ गए। इस बीच एक ऐसा वाक़या हुआ, जिससे अण्णा भाऊ के सोचने और ज़िंदगी को देखने का पूरा नज़रिया ही बदल गया। 

हुआ यह कि ‘तमाशा’ मंडली का एक गांव में कार्यक्रम करना था। ‘तमाशा’ शुरू होने से पहले मंच पर महाराष्ट्र में ‘क्रांतिसिंह’ के नाम से मशहूर क्रांतिकारी नाना पाटिल पहुंचे। उन्होंने इस मंच से ब्रिटिश सरकार की शोषणकारी नीतियों का खुलासा करने वाला ज़ोरदार भाषण दिया। मिलों-कारख़ानों में मज़दूरों-कामगारों के शोषण पर बात की। सरमायेदारों की पूंजीवादी नीतियों की भर्त्सना की। अण्णा भाऊ के मन पर इन सभी बातों का बहुत प्रभाव पड़ा और जैसे भविष्य के लिए उन्हें एक नई दिशा ही मिल गई थी। कला का उद्देश्य समझ में जैसे उन्हें आ गया था। कला से सिर्फ़ मनोरंजन ही नहीं, समाज को बदला भी जा सकता है, तालीम भी दी जा सकती है। जब एक बार अण्णा भाऊ साठे की यह सोच बनी, तो उनका जीवन भी बदल गया। यह अण्णा के ‘लोकशाहीर’ (लोककवि) बनने की दिशा में पहला कदम था।

अण्णा भाऊ साठे की बुलंद आवाज़, याद करने की अद्भुत क्षमता, हारमोनियम, तबला, ढोलकी, बुलबुल समेत तमाम वाद्ययंत्र बजाने की कुशलता, किसी भी तरह की भूमिका करने की योग्यता और निरंतर सीखने, नए-नए प्रयोग करने की सलाहियत ने उन्हें कुछ समय में ही ‘तमाशा’ नाट्य मंडली का नायक बना दिया। 

1944 में अण्णा भाऊ ने अपने दो साथियों के साथ मिलकर ‘लाल बावटा कलापथक’ (लाल क्रांति कलामंच) नाम की नई तमाशा मंडली की शुरुआत की, जिसके बैनर पर उन्होंने सिर्फ़ महाराष्ट्र में ही नहीं, बल्कि पूरे देश में घूम-घूकर क्रांतिकारी कार्यक्रम पेश किए। उस समय देश में आज़ादी का संघर्ष चरम पर था। अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ लोगों में ग़ुस्सा था। ‘तमाशा’ जनता से संवाद का सीधा माध्यम था। ‘लाल बावटा’ के ज़रिये अण्णा भाऊ साठे किसानों, मज़दूरों के दुख-दर्द को सामने लाने का काम करते थे। लोगों को आज़ादी की अहमियत समझाते और उनमें आज़ादी का सोया हुआ जज़्बा जगाते व इसके साथ ही उन्होंने अधिकारों के लिए संघर्ष को आवाज़ दी। यही वजह है कि किसानों, मजदूरों और कामगारों में उनकी लोकप्रियता बढ़ती चली गई। लोग उन्हें ‘शाहीर अन्ना भाऊ साठे’ और ‘लोकशाहीर’ कहकर पुकारने लगे।

इस बीच वह मुंबई की एक मिल में काम करने लगे। जहां मज़दूरों की समस्याओं से उनका सीधा परिचय हुआ। मिल में मज़दूरी करते हुए, वे कम्युनिस्ट पार्टी के संपर्क में आए और उसके सक्रिय सदस्य बन गए। बाद में पार्टी के आनुषंगिक संगठन इप्टा के भी सरगर्म मेंबर बने। वामपंथी विचारों और जीवन शैली से उनकी सोच में बड़ा बदलाव आया। वैज्ञानिक दृष्टिकोण और समतावादी विचारों ने उनकी शख़्सियत को नए ढंग से गढ़ा। अण्णा भाऊ के ज़िम्मे पार्टी और उसकी विचारधारा को अवाम तक पहुंचाने का महत्वपूर्ण कार्य था। तमाशा में अन्ना भाऊ अकेले गाते थे और जनता से उसी की भाषा में संवाद करते। जिसका असर यह होता था कि उनके गाए लोकगीत जन-जन की ज़बान पर आ गए। इन लोकगीतों में वे मुंबई में बसे कामगारों की ज़िंदगी की परेशानियों और दुःख का चित्रण करते, जो लोगों को अपना सा लगता। इप्टा में अदाकार बलराज साहनी के संपर्क में आने के बाद देश-दुनिया के मुद्दों पर उनकी जो समझ बनी, उसका इस्तेमाल बाद में उन्होंने ‘तमाशा’ और ‘पौवाड़ा’ में किया। 

पीसी जोशी ने उनके और बलराज साहनी के रिश्तों के बारे में अपने एक लेख में लिखा है,‘‘अण्णा भाऊ, बलराज की हर बात को उत्सुकता से ग्रहण करते थे और अन्य महाराष्ट्रीय साथियों, बुद्धिजीवियों, कामगारों के साथ भी विचार-विमर्श करते थे। दिमाग़ में नये-नये विचार लेकर वह एक के बाद एक ‘तमाशा’ रचने लगे।’’ एक वक्त ऐसा भी आया कि अण्णा भाऊ साठे की सांस्कृतिक टोली में कई प्रतिभाशाली कलाकार अमर शेख, गावनकार आदि साथ-साथ थे। इस ग्रुप की प्रस्तुतियां मज़दूर वर्ग से लेकर उच्च वर्ग तक को प्रभावित करती थीं।

मराठी ज़बान में ‘पवाड़ा’ लंबे अरसे से प्रचलित रहा है, जो एक तरह से लंबी कविता या शौर्यगीत होता है। जिसे कई आदमी एक साथ मिलकर त्योहारों और दीगर मौक़ों पर गाया करते हैं। पहले इनके विषय ऐतिहासिक या धार्मिक होते थे। अण्णा भाऊ साठे ने इन पवाडे़ के विषयों में आधारभूत बदलाव किया और इनमें देश की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक समस्याओं को समाहित किया। उनमें मज़दूरों की हालत, उनकी सियासत और जद्दोजहद, अंतरराष्ट्रीय मज़दूर आंदोलन और रूस की साम्यवादी हुकूमत के कारनामे शब्दबद्ध किए। अंजुमन तरक़्क़ीपसंद मुसन्निफीन के बानी सज्जाद ज़हीर ने अपनी किताब ‘रौशनाई : तरक़्क़ीपसंद तहरीक की यादें’ में अण्णा भाऊ साठे के कारनामों को याद करते हुए लिखा है,‘‘अण्णा भाऊ साठे ने इस ज़माने में कई पवाड़े लिखे। ये मज़दूरों के हज़ारों के मज़मे में गाए जाते थे और बेहद मक़बूल थे। स्तालिनग्राद की जंग और उसमें हिटलरी फौजों की हार पर जो पवाड़ा था, उसे ख़ास तौर पर मक़बूलियत हासिल हुई।’’ अण्णा भाऊ ने यह पवाड़ा साल 1943 के आसपास लिखा था। जिसका अनुवाद रूसी भाषा में भी हुआ। इसके बाद उनके प्रसिद्धि दुनिया भर में फैल गई। 

साल 1945 में अण्णा भाऊ साठे साम्यवादी विचारधारा को समर्पित साप्ताहिक ‘लोकयुद्ध’ से जुड़ गए। अख़बार में काम करने के दौरान ही उन्होंने ‘अक्लेची गोष्ट’, ‘खार्प्या चोर’, ‘मजही मुंबई’ जैसे नाटक लिखे। अपनी बातों-विचारों को लोगों तक पहुंचाने के लिए साहित्य की सभी विधाओं का सहारा लिया। उन्होंने चालीस से ज्यादा उपन्यास लिखे और क़रीब तीन सौ कहानियां भी। ‘चिराग नगर के भूत’, ‘कृष्णा किनारे की कथा’, ‘जेल में’, ‘पागल मनुष्य की फरारी’, ‘निखारा’, ‘भानामती’, और ‘आबी’ समेत अण्णा भाऊ के कुल 14 कहानी संग्रह हैं। ‘इनामदार’, ‘पेग्यां की शादी’ और ‘सुलतान’ उनके मशहूर नाटक हैं। अण्णा भाऊ साठे ने ‘तमाशा’ के लिए कई लोकनाट्य मसलन ‘दिमाग की काहणी’, ‘देशभक्ते घोटाले’, ‘नेता मिल गया’, ‘बिलंदर पैसे खाने वाले’, ‘मेरी मुंबई’ और ‘मौन मोर्चा’ आदि भी लिखे। उनके कई काव्य-संग्रह छपे, उन्होंने क़रीब 250 लावणियां लिखीं, यात्रा वृतांत लिखा, कई फ़िल्मों की पटकथाएं भी लिखीं।

साल 1959 में आया उनका उपन्यास ‘फ़कीरा’ 1910 में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ बगावत करने वाले ‘मांग’ जाति के क्रांतिवीर ‘फ़कीरा’ के संघर्ष पर आधारित है। ‘फ़कीरा’ मराठी में तो लोकप्रिय हुआ ही, बाद में इसका 27 देशी-विदेशी भाषाओं में अनुवाद भी हुआ। 1961 में महाराष्ट्र सरकार ने इस उपन्यास को अपने शीर्ष पुरस्कार से सम्मानित किया। अण्णा भाऊ साठे के लेखन की शोहरत जब फैली, तो उनकी रचनाओं का अनुवाद हिन्दी, गुजराती, बंगाली, तमिल, मलयालम, उड़िया के साथ ही अंग्रेज़ी, फ़्रेंच, रूसी, चेक, जर्मन आदि भाषाओं में भी हुआ। 

'इंडो-सोवियत कल्चर सोसायटी’ के बुलावे पर उन्होंने रूस की यात्रा से लौटने के बाद एक सफ़रनामा ’माझा रशियाचा प्रवास’ लिखा। रूस यात्रा की उन्हें बड़ी चाहत थी। इस सफ़रनामे में उन्होंने इसकी वजह बयान की है, ‘‘मेरी अंतःप्रेरणा थी कि अपने जीवन में मैं एक दिन सोवियत संघ की अवश्य यात्रा करूंगा। यह इच्छा लगातार बढ़ती ही जा रही थी। मेरा मस्तिष्क यह कल्पना करते हुए सिहर उठता था कि मज़दूर क्रांति के बाद का रूस कैसा होगा? लेनिन क्रांति और उनके द्वारा मार्क्स के सपने को ज़मीन पर उतारने की हक़ीक़त कैसी होगी! कैसी होगी वहां की नई दुनिया, संस्कृति और नए समाज की चमक-दमक! मैं 1935 में ही कई ज़ब्तशुदा पुस्तकें पढ़ चुका था। उनमें से ‘रूसी क्रांति का इतिहास’ और ‘लेनिन की जीवनी’ ने मुझे बेहद प्रभावित किया था। इसलिए मैं रूस के दर्शन का उतावला था।’’ यों उनके जाने से पहले रूसी में अनूदित उनके नाटक-उपन्यास-कहानियां रूस पहुंचकर चर्चित हो चुके थे। लिहाज़ा रूस में उनका भरपूर स्वागत हुआ। रूसी अवाम ने उन्हें भरपूर प्यार और सम्मान दिया। अण्णा भाऊ की चालीस दिनों की रूस यात्रा तमाम तजुर्बों से भरी थी। समानता पर आधारित समाज का सपना रूस में उन्होंने हक़ीक़त में बदलते हुए देखा।

देश की आज़ादी के बाद भी अण्णा भाऊ साठे का संघर्ष ख़त्म नहीं हुआ। जिस समतावादी समाज का उन्होंने ख़्वाब देखा था, वह पूरा नहीं हुआ। लिहाज़ा उन्होंने ‘लाल बावटा’ के माध्यम से लोगों को जागरूक करने का काम जारी रखा। सरकार ने उनके इस संगठन और ‘तमाशा’ पर कुछ समय के लिए पाबंदी लगा दी। इस पाबंदी से पार पाने और अपनी बात लोगों तक पहुंचाने के लिए उन्होंने ‘तमाशा’ को लोक गीतों में ढाल दिया। 

वे अपने लेखन में जितने बेबाक थे, उतने ही सार्वजनिक जीवन में भी थे। वे उस वर्णवादी व्यवस्था और पूंजीवाद के घोर विरोधी थे, जो इंसान को इंसान समझने से इनकार करती है। 1958 में बंबई में आयोजित पहले ‘दलित साहित्य शिखर सम्मेलन’ में उद्घाटन भाषण में जब उन्होंने यह बात कही ‘‘यह पृथ्वी शेषनाग के मस्तक पर नहीं टिकी है। अपितु वह दलितों, काश्तकारों और मजदूरों के हाथों में सुरक्षित है।’’ तो कई यथास्थितिवादियों की भृकुटी टेढ़ी हो गई। लेकिन वे कभी अपने विचारों से नहीं डिगे। 

मैक्सिम गोर्की से वह बेहद प्रभावित थे। गोर्की की तरह ही उन्होंने भी अपने साहित्य में हाशिये के पात्रों को जगह दी। ऐसे लोग जो साहित्य में उपेक्षित थे, उन्हें अपने साहित्य का नायक बनाया। वे ख़ुद कहते थे, ‘‘मेरे सभी पात्र, जीते-जागते समाज का हिस्सा हैं।’’ उनके साहित्य में महार, मांग, रामोशी, बालुतेदार और चमड़े का काम करने वाली निम्न जातियों के किरदार बार-बार आते हैं। इन अछूत जातियों की समस्याओं और उनके संघर्ष को वे अपनी आवाज़ देते हैं। उनकी एक मशहूर कहानी ‘खुलांवादी’ का एक किरदार बगावती अंदाज में कहता है,‘‘ये मुर्दा नहीं, हाड़-मांस के ज़िंदा इंसान हैं। बिगड़ैल घोड़े पर सवारी करने की कूबत इनमें है। इन्हें तलवार से जीत पाना नामुमकिन है।’’ ऐसे विद्रोही किरदारों से उनका साहित्य भरा पड़ा है। 

अण्णा भाऊ साठे मार्क्सवादी विचारधारा से तो प्रेरित थे ही, दलित समाज के दीगर लेखक, कवि और नाटककारों की तरह वे आम्बेडकर और उनकी विचारधारा को भी पसंद करते थे। उनका विश्वास दोनों ही विचारधाराओं में था। वे इन विचारधाराओं को एक-दूसरे के पूरक समझते थे। दोनों विचारधाराओं को अपनी ढाल बना के उन्होंने अपनी आखरी सांस तक संघर्ष किया। 18 जुलाई, 1969 को 49 वर्ष की छोटी सी उम्र में यह लाड़ला लोकशाहीर हमेशा के लिए हमसे जुदा हो गया।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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