प्रबीर की रिहाई पर सुप्रीम कोर्ट का आदेश प्राकृतिक न्याय व स्वतंत्र पत्रकारिता के सिद्धांतों की रक्षा करता है
प्रबीर पुरकायस्थ की गिरफ्तारी को सुप्रीम कोर्ट ने अवैध करार देते हुए रिहा करने का आदेश दिया था।
न्यूज़क्लिक के संस्थापक और प्रधान संपादक प्रबीर पुरकायस्थ की गिरफ़्तारी को अवैध और अनुचित ठहराते हुए उन्हें ज़मानत पर रिहा करने का सुप्रीम कोर्ट का आदेश वास्तव में प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों और स्वतंत्र पत्रकारिता की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण है। पिछले साल 3 अक्टूबर को नरेंद्र मोदी सरकार ने गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के कठोर प्रावधानों के तहत निर्धारित प्रक्रिया का पालन किए बिना उनकी अवैध गिरफ़्तारी ने पत्रकार बिरादरी में खलबली मचा दी थी। उनके जैसे संपादक पर आतंकवाद और भारत की संप्रभुता और अखंडता के ख़िलाफ़ काम करने के अन्य भयानक आरोप लगे थे, जिससे मीडिया जगत में आक्रोश फैल गया था।
संविधान और प्राकृतिक न्याय का उल्लंघन
यह संविधान का मखौल है कि जिस दिन पुरकायस्थ को गिरफ़्तार किया और सात दिनों की पुलिस हिरासत में भेजा गया, न तो उन्हें और न ही उनके वकीलों को उनकी हिरासत और पुलिस रिमांड के आधार बताए गए। अब यह स्पष्ट हो रहा है कि स्वतंत्र पत्रकारिता और असहमति की संस्कृति को बनाए रखने के लिए उन्हें “सबक सिखाने” के इरादे से उनके खिलाफ़ ये सभी बलपूर्वक कार्रवाई की गई थी। पुरकायस्थ को गिरफ़्तार करने और उन्हें पुलिस हिरासत में भेजने की एकतरफा और मनमानी कार्रवाई ने उनके जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन किया है।
प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के अनुसार, राज्य द्वारा की गई कार्रवाई का सामना करने वाले व्यक्ति को उसकी स्वतंत्रता पर गंभीर प्रभाव पड़ने की स्थिति में, उन आधारों के बारे में सूचित किया जाना चाहिए, जिनके आधार पर ऐसी कार्रवाई की गई थी। इस मामले में, पुरकायस्थ और उनके वकीलों को उनकी कैद और उन पर लगाए गए कठोर आरोपों के बारे में अंधेरे में रखा गया था।
कई दिनों तक उन्हें मामले से संबंधित एफआईआर की प्रति भी नहीं मिली और अदालत के आदेश के बाद ही उन्हें और उनके वकीलों को यह प्रति मिली।
पुरकायस्थ और उनके वकीलों से गिरफ्तारी के आधार को छिपाने के लिए राज्य अधिकारियों की कार्रवाई ने संविधान के अनुच्छेद 22(1) का उल्लंघन किया, जिसमें कहा गया है: “किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार किए जाने पर, गिरफ्तारी के आधार के बारे में यथाशीघ्र सूचित किए बिना हिरासत में नहीं रखा जाएगा और न ही उसे अपनी पसंद के कानूनी वकील से परामर्श करने और बचाव करने के अधिकार से वंचित किया जाएगा।”
सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लंघन
उल्लेखनीय बात यह है कि 3 अक्टूबर 2023 को प्रबीर को गिरफ्तार कर पुलिस हिरासत में भेज दिया गया था और साथ ही सौ से अधिक लोगों के घरों पर पुलिस छापे मारे गए थे, जिनमें से कुछ न्यूज़क्लिक के लिए काम करते थे और अन्य जो इसके लिए लेख और वीडियो का योगदान देते थे।
उसी दिन पंकज बंसल बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि, “गिरफ्तार व्यक्ति को गिरफ्तारी के आधारों के बारे में सूचित करने के लिए 2002 के अधिनियम की धारा 19(1) के संवैधानिक और वैधानिक आदेश को सही अर्थ और उद्देश्य देने के लिए, हम मानते हैं कि अब से, यह जरूरी होगा कि गिरफ्तारी के ऐसे लिखित आधारों की एक प्रति गिरफ्तार व्यक्ति को स्वाभाविक रूप से और बिना किसी अपवाद के प्रदान की जाए”। फैसले को सीधे पढ़ने से यह स्पष्ट हो जाता है कि गिरफ्तारी के आधारों के बारे में बताए बिना, पुरकायस्थ की गिरफ्तारी के मामले में उपरोक्त संवैधानिक आदेश का उल्लंघन किया गया था।
संवैधानिक प्रावधानों से यह बात भली-भांति स्थापित हो चुकी है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश देश का कानून है। पुरकायस्थ को गिरफ़्तारी के आधार न बताकर, पंकज बंसल बनाम भारत संघ मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्थापित देश के कानून का उल्लंघन किया गया।
सुप्रीम कोर्ट का आदेश
प्रबीर पुरकायस्थ को रिहा करने के अपने आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि, “विस्तृत विश्लेषण से पता चला कि…अदालत के मन में इस निष्कर्ष पर पहुंचने में कोई हिचकिचाहट नहीं है कि गिरफ्तारी के आधारों के बारे में लिखित रूप से सूचित करने के कथित तरीके में रिमांड आवेदन की प्रति 4 अक्टूबर, 2023 को रिमांड का आदेश पारित करने से पहले आरोपी अपीलकर्ता या उनके वकील को प्रदान नहीं की गई थी, जो अपीलकर्ता की गिरफ्तारी और उसके बाद की रिमांड को अमान्य बनाता है।”
पुरकायस्थ को जमानत पर रिहा करने के अपने आदेश में सुप्रीम कोर्ट द्वारा उठाए गए कानूनी बिंदुओं से स्पष्ट रूप से प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों और किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करने और रिमांड पर लेने के लिए आवश्यक अनिवार्य प्रक्रिया का उल्लंघन सामने आया है। दूसरे शब्दों में, उनकी गिरफ्तारी और हिरासत तथा उसके बाद रिमांड के मामले में संविधान और देश की सर्वोच्च अदालत के आदेशों द्वारा निर्धारित कोई भी कारण मौजूद नहीं था।
इसलिए, उनकी रिहाई उनकी व्यक्तिगत आज़ादी और स्वतंत्र पत्रकारिता की एक बड़ी पुष्टि है, जिसे नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा उठाए गए अनेक प्रयासों के जरिए कुचला गया है।
पंजाब में ब्रिटिश शासकों द्वारा प्रेस पर अंकुश लगाने की घटना की पुनरावृत्ति
पुरकायस्थ की रिहाई के बाद खुशी और उम्मीद की भावना के साथ, हमें 1919 में ब्रिटिश शासन के दौरान पंजाब की स्थिति की याद आती है जब जलियावाला बाग हत्याकांड हुआ था। उस दौरान, कई अखबारों के संपादकों पर मुकदमा चलाकर और उन्हें कारावास की सजा देकर प्रेस को चुप करा दिया गया था। 12 अक्टूबर, 2023 के मेरे न्यूज़क्लिक लेख, “न्यूज़क्लिक के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई 1919 में पंजाब में प्रेस के मुंह बंद करने की प्रतिध्वनि है,” में महात्मा गांधी द्वारा लिखित “पंजाब की अव्यवस्था पर कांग्रेस की रिपोर्ट” का संदर्भ है। उन्होंने कहा, इसमें, स्थानीय प्रेस को चुप कराकर और पंजाब के बाहर के राष्ट्रवादी अखबारों को बंद करके जनमत का दमन किया जा रहा था। उस संदर्भ में, उन्होंने 18 अप्रैल, 1919 को सुबह 7.30 बजे द ट्रिब्यून अखबार के ट्रस्टी मनोहर लाल की गिरफ्तारी का जिक्र किया, बिना उन्हें कोई वारंट दिखाए या उन्हें हिरासत में लिए जाने के कारणों की जानकारी दिए बिना ऐसा किया था। 2023 में पुरुकायस्थ की गिरफ्तारी में मनमानी गिरफ्तारी के उन पहलुओं को सामने लाया गया था।
गांधी ने द ट्रिब्यून के संपादक कालीनाथ रॉय को उनके तथाकथित देशद्रोही लेखन के लिए जेल में डाले जाने और प्रताप के संपादक पर मुकदमा चलाए जाने का भी जिक्र किया था। इसके बाद उन्होंने दुख जताते हुए कहा कि, "मार्शल लॉ के दौर में स्वतंत्र पत्रकारिता का अस्तित्व असंभव हो गया और ट्रिब्यून, पंजाबी और प्रताप ने प्रकाशन बंद कर दिया था।"
स्वतंत्र पत्रकारिता जो 1919 के भारत में कठिनाइयों और परेशानियों के दौर से गुज़री थी, अब मोदी सरकार उस पर हर किस्म के दंडात्मक उपाय थोप रही है। कई पत्रकारों की गिरफ़्तारी और कई अख़बारों और स्वतंत्र डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म जैसे द वायर और न्यूज़क्लिक के दफ़्तरों पर छापे, असहमति की आवाज़ों को दबाने की क्रूर कार्रवाई के औपनिवेशिक युग की याद दिलाते हैं।
प्रेस की आज़ादी की रक्षा, स्वराज की नींव की रक्षा करना है
पुरकायस्थ की गिरफ्तारी उस अशुभ प्रवृत्ति का एक उदाहरण है और सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर उनकी रिहाई से यह उम्मीद जगती है कि यह प्रवृत्ति पलट जाएगी और स्वतंत्र पत्रकारिता तथा प्रेस की स्वतंत्रता के मुद्दे को बरकरार रखा जाएगा, जिसे महात्मा गांधी ने 1941 में 'स्वराज की नींव' के रूप में वर्णित किया था और उस नींव की पूरी ताकत से रक्षा करने की उनकी प्रबल अपील थी।
लेखक, भारत के राष्ट्रपति के आर नारायणन के ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटि रह चुके हैं। यह निजी विचार हैं।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:
SC Order on Prabir’s Release Defends Principles of Natural Justice, Independent Journalism
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