वरवरा राव जैसी शख़्सियत का बनना: भाग एक
वरवरा राव वह हस्ती हैं जिन्हे मैं तब से जानता हूं जब से मैंने अपने आसपास की दुनिया में अपनी आँखें खोलीं थी। अपने जीवन के 80 वर्षों में वे मुझसे लगभग 21 वर्ष अधिक रहे हैं। मुझे उनके जीवन के बारे में तब पता चला जब मैंने उनकी बातचीत, परिवार की रिवायत,उनके लेखन और उनके भाषणों के माध्यम से उन्हे जाना। शुरू में, वे मेरे लिए सिर्फ एक मामा थे जो मेरे साथ खेलते थे; मेरी माँ के सबसे छोटे भाई बस वही और कुछ नहीं। हालाँकि, तब से 50 वर्ष बीत चुके हैं, मैं उनके विचारों-प्रशंसाओं, वार्तालापों, भाषणों, खंडन, प्रेरणा, क्रोध, सांत्वना और सामंजस्य के बहुरूप दर्शक छाया में बड़ा हुआ हूं।
वरवरा राव के बिना मैं ऐसा नहीं होता जैसा मैं आज हूं, और यह उस पीढ़ी का सच है जिससे मैं हूं और जो इसे मानते हैं। उनके बिना आज का तेलंगाना ऐसा नहीं होता जैसा आज है। मैंने पहले भी उनके और उनकी कविता के बारे में लिखा है और बोला है, लेकिन अब वह मृत्युशय्या पर हैं, एक दूर के अस्पताल में, और सत्ता की प्रतिशोधी यातना के अधीन हैं। अब, मैं बिना किसी विलंब के,जिसकी पहले जरूरत नहीं थी, उनके बारे में बोलना और लिखना चाहता हूं वह भी शब्दों की एक अंतरंग धार के माध्यम से।
यहां, मैं उनकी ज़िंदगी के 80 वर्षों को सात नजरिए से पेश करने की कोशिश करूंगा- सप्तरंगी इंद्रधनुष जो उनकी विशेषता है और उनका फ्यूजन (संलयन) जो उज्ज्वल उजाले की मुस्कान में हाजिर होता है। ये वरवरा राव के व्यक्तित्व के सात पहलू हैं- एक रचनात्मक लेखक, शिक्षक, संपादक, आयोजक, कार्यकर्ता और अंत में, शासन का शिकार, फिर भी एक बेहतर इंसान।
भाग-एक
साहित्यकार के रूप में वरवरा राव का जीवन बहुत कम उम्र में शुरू हो गया था। यह उनका पारिवारिक माहौल ही था जिसने उन्हें 7 या 8 वर्ष की उम्र में पढ़ाई शुरू करने के लिए प्रभावित किया था और शुरूआती किशोरावस्था में लिखना शुरू करने के लिए प्रोत्साहित किया था। उनकी पहली कविता एक तेलुगु पत्रिका, स्वतंत्र में छपी थी, उस वक़्त वे केवल 17 साल के थे। एक प्रतिष्ठित पत्रिका जो सप्ताह में केवल एक कविता प्रकाशित करती थी, उसे उस समय के कवियों और लेखकों से पर्याप्त सम्मान मिलता था। अगले 60 वर्षों तक, एक भी दिन ऐसा नहीं गुजरता जब वे पढ़ते या लिखते न हों; इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे कहाँ हैं- एक भीड़ भरे घर में, अपने शिक्षण व्यवसाय की रोज़मर्रा की हलचल में जो उन्हे एक पल की राहत नहीं देती थी, लगातार यात्रा करने के दौरान, गहन संघर्षों के बीच या जेल के अकेलेपन में, कुछ भी उन्हे लिखने और पढ़ने से नहीं रोक पाता। इसका हासिल था- उनके द्वारा कविता के एक हजार पृष्ठ और अनुवाद के इससे भी अधिक पृष्ठ, गद्य, एक प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका के लगभग 200 अंकों का संपादन। वह एक जोरदार शोधकर्ता थे, जो उन्होंने पढ़ी गई कई पुस्तकों में से प्रत्येक में कुछ पाया था।
1940 के नवंबर महीने में, तेलंगाना (वर्तमान में यह हैदराबाद की रियासत में वारंगल जिले का हिस्सा था) के ज़ंगांव जिले के चिन्ना पेंड्याला गाँव में एक मध्यम वर्ग के ब्राह्मण परिवार में जन्मे, वे 10 भाई-बहनों में से आखिरी थे। आधुनिक राजनीति और साहित्य के विचार उनके परिवार में पनपे थे, क्योंकि उनके चार भाई साहित्य की दुनिया से थे। वे 20वीं सदी की शुरुआत में तेलोजी के आधुनिक काल के कथाकारों, कलोजी बंधुओं, पोटलपल्ली रामा राव और वट्टिकोटा अलवरु स्वामी के मित्र थे। उनके भाइयों ने 1940 के दशक में अपने गाँवों में और पास के घनपुरम में पुस्तकालय और प्रकाशन गृह स्थापित किए थे। राव के पैतृक चचेरे भाई एक कम्युनिस्ट और तेलंगाना किसान सशस्त्र संघर्ष के नेता थे। कम उम्र में, वे माला और मडिगा के "अछूत" समुदायों से लोगों को अक्सर अपने घर साथ लाते, उनके साथ भोजन करते और इसलिए उन्हें घर से निर्वासित होना पड़ता। कांग्रेस पार्टी के नेता के रूप में, उनके दो भाई निज़ाम के खिलाफ लड़े और पुलिस और रजाकरों के हमलों का लगातार निशाना बने रहे। उत्पीड़न से बचने के लिए, उन्हें अपने परिवारों के साथ बेजवाड़ा भागना पड़ा जहाँ वे कुछ महीनों तक रहे। कम उम्र से ही इन सभी घटनाओं का उन पर बहुत गहरा प्रभाव था।
वे 1960 में हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय में एमए के छात्र थे, जब उन्होंने कविता के साथ-साथ साहित्यिक आलोचना लिखना शुरू किया था। उनके एमए के दौरान तेलुगु साहित्य पर उनकी विद्वत्ता खांडवल्ली लक्ष्मीनरंजनम, दिवाकरला वेंकट अवधानी और बीरुदराजू रामाराजू जैसे प्रतिष्ठित शिक्षाविदों के तहत थी। राव कृष्ण शास्त्री, कुंदुरति, गोपीचंद, बुचिंबु, दशरथी और सी. नारायण रेड्डी जैसे तेलुगु साहित्य के दिग्गजों के साथ भी जुड़े हुए थे। वे मद्रास में तिरुवनमलाई और चमाल में श्रीरंगम श्रीनिवास राव (श्री-श्री) से मिले और यहां तक कि 1957 और 1965 के बीच लिखी गई अपनी कविताओं की पुस्तक के लिए श्री श्री से फॉरवर्ड लिखवाने की कोशिश भी की। 1968 में, उन्होंने आकांक्षाओं, सपनों और भावनाओं के एक विस्फोट जो औपनिवेशिक युग के बाद के युवाओं की विशेषता थी, को नेहरूवादी समाजवादी आदर्शों और एक व्यापक लोकतांत्रिक, प्रगतिशील दृष्टि में असीम विश्वास से भरपूर एंथोलॉजी का प्रकाशन किया।
नेहरूवादी समाजवाद के भ्रम को दूर होने के बाद, 1966 के आसपास, उन्होंने खुद को आधुनिक साहित्य के एक मंच, श्रीजाना अधुनिका साहित्य वेदिका के साथ जोड़ना शुरू कर दिया, जो तर्कवाद, वैज्ञानिक स्वभाव और प्रायोगिक उत्साह के आदर्शों पर आधारित था। यह "एंग्री सिक्सटीज़" का दौर था, जब पूरी दुनिया और भारत में क्रोधित युवा का विरोध, चीन में सांस्कृतिक क्रांति, और श्रीकाकुलम में नक्सलबाड़ी और संघर्ष की लहर देखी जा रही थी। इन सभी घटनाओं ने वरवरा राव में रचनात्मक लेखक को पैदा किया। 1966 और 1969 के दौरान उनके लेखन में एक गुणात्मक बदलाव आया, जो उस प्रेरणादायक समय से काफी प्रभावित था। श्रीकाकुलम के क्रांतिकारी आंदोलन के साथ एकजुटता में खड़े होने वाले कवियों को एक साथ लाने में सहायक होने के साथ-साथ उन्होंने 1969 में तिरुगुबाडु (विद्रोही) शीर्षक से अपनी कविता का एक संकलन भी तैयार किया था।
अगले पचास वर्षों तक अन्य गतिविधियों में शामिल होने के साथ, कविता लिखने के लिए खुद को प्रतिबद्ध किया। राव हर चार से पांच साल में कविताओं की एक पुस्तक प्रकाशित करते और हमेशा एक कवि के रूप में पहचाने जाने की इच्छा रखते थे। उनकी यह चिंता एक तरह से उनके राजनीतिक विश्वास पर आधारित थी और यह उनका एक पत्र था जिसमें उन्होंने 1985-89 के दौरान जेल में बिताए कई एकांत रातों के अकेलेपन में लिखा था। इसके जवाब में, मैंने एक कविता लिखी जिसका शीर्षक है पोएट्री इटसेल्फ इज़ पर्सनैलिटी और सुनिश्चित किया कि यह जेल में उनके पास पहुंचे।
राव की कविताओं का लगभग सभी भारतीय भाषाओं में अनुवाद किया गया है। जब पिछले महीने सोशल मीडिया पर उनके बिगड़ते स्वास्थ्य की खबरें आईं, तो उनकी तत्काल रिहाई की मांग करने वाले एक एकजुटता आंदोलन के परिणामस्वरूप उनकी कविता का अनुवाद लगभग 24 भारतीय भाषाओं और इतालवी, स्पेनिश, स्वीडिश, जर्मन और आयरिश में हुआ।
वरवरा राव ने 1960 के दशक की शुरुआत से साहित्यिक आलोचना लिखना शुरू कर दिया था। उन्होंने कई कविताओं और निबंधों का अनुवाद भी किया, और ये कुछ उल्लेखनीय काम जेलों के भीतर भी किए गए थे। 1985-89 में, सिकंदराबाद और रामनगर षडयंत्र मामलों में एक विचारधीन (अंडर-ट्रायल) कैदी के रूप में, राव ने नटुगी वा थिओनगू के द डेविल ऑन द क्रॉस को मत्तिकाल्ला महाआरक्षी (1992) के रूप में और डिटेण्ड-ए राइटर्स प्रिज़न डायरी (1996) को बंदी के रूप में अनुवाद करने में व्यस्त रखा। हाल ही में पुणे के यरवदा जेल में, भीमा कोरेगांव मामले में आरोपी बनाने के बाद, उन्होंने गुलज़ार की सस्पेक्टड पोएम अनुवाद की।
राव हमेशा किसी भी भाषा के साहित्य के बारे में अधिक जानने की चाहत रखते थे और हमेशा नए विचार उन्हे मोहित करते हैं। वे अधिक पढ़ने की लालसा के साथ पढ़ते हैं। अपने जीवन के सात वर्षों के कारावास जिसमें भीमा कोरेगांव मामले में दो साल की कैद भी शामिल है, में उन्होंने अपना सारा समय बड़े पैमाने पर पढ़ने में लगाया है। राव जेल के भीतर उनके दोस्तों द्वारा भेजी गई सैकड़ों किताबें पढ़ रहे हैं।
1983 के आसपास उस्मानिया विश्वविद्यालय में मेरी एमए के दौरान, उन्होंने हैदराबाद का दौरा किया। हम दोनों शहर में किताबों की तलाश में निकले, लेकिन थोड़ी देर के बाद थकावट महसूस हुई और भूख लगने लगी, हमने चाय और बिस्कुट खाने की सोची। तभी हमने प्राचीन भारत पर डीडी कोसंबी द्वारा लिखित संस्कृति और सभ्यता पुस्तक को एक दुकान पर पाया, जिसकी कीमत 29 रुपये थी। यहां भी दिलचस्प किस्सा है- हमारे पास कुल 30 रुपये थे, लेकिन उन्होंने पुस्तक खरीदने पर जोर दिया। उसके बाद, हमने शेष बचे एक रुपए से खाने के लिए चार केले खरीदे। हम पास के एक दोस्त के घर गए, जहाँ हमने वापस कैंपस आने के लिए बस यात्रा के लिए कुछ पैसे उनसे उधार लिए थे।
यह लगभग 37 साल पहले की बात है। अभी हाल ही में, 15 जुलाई को, जब पता चला कि वे अस्पताल में भर्ती हैं तो हमने मुंबई का दौरा किया। जेल अधिकारियों से अनुमति मिलने के बाद, हम उनसे सर जेजे अस्पताल में मिले। अस्पताल के वार्ड की बदबू के बीच वे अकेले पड़े थे, वे लोगों को पहचानने की की स्थिति में नहीं थे। तभी उन्होंने मेरे हाथ में एक नोटबुक देखी। उन्होंने तुरंत पूछा, "आप कौन सी किताब लाए हैं?"। मैंने उत्तर दिया, "यह केवल एक नोटबुक है"। उन्होंने निराशा में आहें भरते हुए पूछा कि मैं कोई दूसरी किताब क्यों नहीं लाया।
लेखक वरवरा राव पर आठ भाग वाली श्रृंखला का यह पहला भाग है।
एन वेणुगोपाल राव एक कवि, साहित्यिक आलोचक और पत्रकार हैं।
Courtesy : Indian Cultural Forum
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें-
The Making of Varavara Rao: Part One
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