विचार: मोदी सरकार देश को बड़ी उथल-पुथल और टकराव के रास्ते पर ले जा रही है
देश एक बड़ी उथल-पुथल और टकराव की ओर बढ़ रहा है। राहुल गांधी की कोर टीम के अहम सदस्य, कांग्रेस के मीडिया प्रभारी पवन खेड़ा की अवैधानिक ढंग से गिरफ्तारी, जब वे अन्य नेताओं के साथ रायपुर महाधिवेशन के लिए जहाज पर सवार थे, और अब दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया की गिरफ्तारी और जेल इसके एक खतरनाक स्टेज पर पहुंचने का संकेत है।
सामाजिक व जनांदोलनों के कार्यकर्ताओं, असहमत बुद्धिजीवियों, अल्पसंख्यक समुदाय की चुनिंदा शख्सियतों से होते हुए गिरफ्तारी का फंदा अब सीधे विपक्ष के शीर्ष नेताओं तक पहुंच गया है। अगला पूरा एक वर्ष हमारे लोकतन्त्र के लिए अशुभ आशंकाओं से भरा हुआ है। जुगलबंदी में काम करते फासीवादी निज़ाम के दोनों घटक- अधिनायकवादी state और नॉन-स्टेट फ़ासिस्ट vigilante गिरोह, जिनके पीछे देशी कारपोरेट और ग्लोबल पूँजी की पूरी बैकिंग है- इस दौरान अभी और क्या क्या गुल खिलाएंगे, कोई नहीं जानता !
मौजूदा निज़ाम फासीवाद के बारे में उसी निष्कर्ष ( age-old wisdom ) की पुष्टि करता प्रतीत हो रहा है कि फासीवाद सत्ता में आता है चुनाव के माध्यम से, लेकिन जाता चुनाव के माध्यम से नहीं है।
ऐसा प्रतीत हो रहा है कि फासीवादी घुड़साल ( stable ) के सारे घोड़े एक साथ खोल दिये गए हैं और एक बहु-आयामी रणनीति पर काम हो रहा है।
दरअसल सत्ता-संरक्षित कॉरपोरेट घोटालों के सामने आने और एक व्यक्ति विशेष का साम्राज्य ढहने के साथ मोदी पहली बार गम्भीर संकट से घिर गए हैं। सुप्रसिद्ध राजनीतिक विश्लेषक सुहास पलशीकर ने अडानी पर हिंडनबर्ग रिपोर्ट आने के बाद के हालात पर Indian Express में एक महत्वपूर्ण टिप्पणी में नोट किया है, " अपनी अर्थपूर्ण चुप्पी के बावजूद मोदी इससे किनारा नहीं कर पाएंगे। सरकार अडानी को न disown कर सकती है, न उनका बचाव कर सकती है। इस पूरे प्रकरण पर तमाम आलोचनाओं और सवालों पर जवाब न देकर प्रधानमंत्री पहली बार vulnerable दिखने लगे हैं। दूसरों के खिलाफ नफरत फैलाकर, बढ़ा चढ़ा कर गढ़ी गयी छवि तथा प्रोपेगंडा के बल पर खड़े साम्राज्य को दमन के बल पर तथा सवालों को दरकिनार करके defend नहीं किया जा सकता। न ही राजनीतिक कौशल उन्हें सार्वजनिक scrutiny से बचा सकता है। अडानी प्रकरण में प्रधानमंत्री के desperation में उस क्षण की आहट है जब मोदी और भाजपा द्वारा बनाये गए वर्चस्वशाली साम्राज्य में पहली टूटन ( cracks ) शुरू हो गयी है। "
मोदी की यह बढ़ती हुई vulnerabity और desperation, उनके अंदर बढ़ता हुआ असुरक्षा बोध आने वाले दिनों में उनके शासन को और आक्रामक तथा दमनकारी बनाएगा।
बेशक अडानी प्रकरण जिस तरह गले की फांस बनता जा रहा है, उससे तथा जनता के अन्य ज्वलंत मुद्दों से diversion तो एक उद्देश्य है ही, पर यह उतना ही नहीं है। यह एक फ़ासिस्ट स्टेट के दमनचक्र के गहराने और अधिक तीखे होते जाने का संकेत है।
सत्ता अपनी आलोचना से किस कदर खौफजदा है, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि राजनीतिक दलों और आंदोलनों को तो छोड़िए, साहित्यकारों-संस्कृतिकर्मियों-कवियों-गायकों तक को नहीं बख्शा जा रहा है। कानपुर के बर्बर बुलडोजर प्रकरण में जल मरीं मां-बेटी की दिल दहला देने वाली त्रासदी पर गीत के लिए हाल ही में जिस तरह लोकगायिका नेहा सिंह राठौर को पुलिस द्वारा नोटिस थमा दिया गया और बदले की कार्रवाई में उनके पति की नौकरी छीन ली गयी, वह सरकार के डर को ही दिखाता है।
सरकार किस कदर पैरानॉयड मानसिकता से ग्रस्त है, इसका सबूत है कि अब कार्यक्रमों में पहले से ही यह 'आदेश ' देकर वक्ताओं को बुलाया जा रहा है कि वे सरकार की कोई आलोचना नहीं करेंगे। हाल ही में अर्थ और रेख्ता के कार्यक्रम का बहिष्कार करने का ऐलान करते हुए वरिष्ठ कवि अशोक वाजपेयी ने बयान जारी किया है, " मैं आज अर्थ और रेख्ता द्वारा आयोजित कल्चर फेस्ट में भाग नहीं ले रहा हूँ क्योंकि मुझसे कहा गया कि मैं ऐसी ही कविताएं पढूं जिनमें राजनीति या सरकार की सीधी आलोचना न हो। इस तरह का सेंसर अस्वीकार्य है। "
2024 चुनाव की ओर बढ़ते देश के लिए सबसे खौफनाक साजिश के संकेत पंजाब से आ रहे हैं। पंजाब में आज जो हो रहा है, वह एक बेहद खतरनाक game-plan की ओर इशारा कर रहा है। इंदिरा गांधी की तत्कालीन सत्ता की शातिर पंजाब पालिसी से पैदा हुई 80 दशक की विराट त्रासदी को देश अभी भूला नहीं है। आज वहाँ फिर एक नासूर पाला जा रहा है। जो एजेंसियां असहमत पत्रकारों, बुद्धिजीवियों, संस्कृति कर्मियों तक को सबक सिखाने में अभूतपूर्व तत्परता दिखाती हैं, वे पंजाब में खुले आम हो रहे विष- वमन तथा राज्य को चुनौती देते हुए थाने पर हमला करके आरोपियों को छुड़ाए जाने तक के मामलों में बिल्कुल खामोश हैं !
क्या संवेदनशील, सीमावर्ती राज्य पंजाब के बहाने एक बार फिर समूचे देश को साम्प्रदायिक अंधराष्ट्रवाद की आग में झोंकने की साजिश रची जा रही है, जैसी किसान आंदोलन के दौरान 26 जनवरी को भी रची गयी थी ? क्या यह किसान-आंदोलन के पुनर्जीवन की जो कोशिशें चल रही हैं, 10 मार्च को उनका जो संसद घेराव का ऐलान है, उसकी पेशबंदी है ?
यह तय है कि किसान आंदोलन के गढ़ पंजाब में साम्प्रदायिक उन्माद का तांडव एक बार शुरू हो गया, तब फिर किसान आंदोलन के पुनः उभार की सारी कोशिशें बेमानी हो जाएंगी। ऐसा लगता है कि पंजाब को लेकर केंद्र की कुटिल चालों के निशाने पर पंजाब फतह ही नहीं, किसान आंदोलन का ध्वंस और 2024 का चुनाव भी है।
ऐसा लगता है कि हिंदुत्व ब्रिगेड के अंदर भावी नेतृत्व को लेकर चल रही जबर्दस्त प्रतिस्पर्धा उसे और दमनकारी बना रही है, नए मॉडल और " नायक " गढ़े जा रहे हैं। उसने जो चरम नफरती और बर्बर eco-system तैयार किया है, उसमें योगी के बुलडोजर वाले UP मॉडल की लोकप्रियता बढ़ती जा रही है और उसके आगे " गुजरात मॉडल " की भी चमक फीकी पड़ चुकी है।
पिछले दिनों स्वयं कर्नाटक के मुख्यमंत्री ने कहा कि वहाँ भी जरूरत पड़ने पर " योगी मॉडल " लागू किया जाएगा। इधर ताजा मांग हरियाणा में उठी है जहां राजस्थान से दो मुस्लिम युवाओं का अपहरण कर उनकी हत्या करने वाले आरोपियों के समर्थन में हुई पंचायत में यह मांग उठी कि खट्टर जी एक दिन के लिये योगी बन जायं और बुलडोज़र राज लागू कर दें तो सारी समस्या हल हो जाय !
बर्बरता में UP मॉडल को टक्कर दे रहा है असम मॉडल। पूर्व कांग्रेसी हेमंत विश्वशर्मा असम की बागडोर मिलने के बाद से अपने को " more loyal than the King " साबित करने में लगे हैं और लोकतान्त्रिक अधिकारों को रौंदने और बर्बर दमन में योगी से भी आगे निकल जाने की प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं-कांग्रेस प्रवक्ता पवन खेड़ा की असम पुलिस द्वारा गिरफ्तारी हो या गुजरात चुनाव के समय चर्चित दलित नेता जिग्नेश मेवानी की असम पुलिस द्वारा गिरफ्तारी और जेल हो, यहां तक कि उनके खिलाफ कस्टडी में महिला कांस्टेबिल के साथ molestation का फ़र्ज़ी आरोप तक लगा दिया गया।
हाल ही में वहाँ बाल विवाह पर एक draconian कानून के द्वारा कई वर्षों से settled वैवाहिक/पारिवारिक जीवन जी रहे मुस्लिम नौजवानों के ऊपर POCSO के तहत मुकदमे दर्ज किए गए और जुल्म ढाया गया।
सत्ता की पूरी तरह कठपुतली बन चुकी संवैधानिक संस्थाओं की गिरावट चरम पर पहुंच गई है, उनकी स्वायत्तता पूरी तरह खत्म हो चुकी है और सरकार से उनका भेद मिट सा गया है। उनकी साख इस कदर तलहटी छू रही है कि अब लोगों ने उनसे निष्पक्षता की उम्मीद भी छोड़ दिया है और मान लिया है कि वे बस सत्ता के औजार हैं। संस्थाएं मौजूदा निज़ाम के हाथों किस कदर बंधक बन गई हैं, इसका सबसे ताजा उदाहरण केंद्रीय चुनाव आयोग द्वारा महाराष्ट्र में दलतोड़क शिंदे गुट को सारी मर्यादा ताक पर रखकर शिवसेना का चुनाव चिह्न आबंटित करने की घटना है।
आज यक्ष प्रश्न यही है कि क्या एकताबद्ध विपक्ष सड़क पर उतर कर मोदानी मॉडल को जनता के बीच पूरी तरह बेपर्दा करते हुए, सत्ता की साजिशों की काट तथा उसके दमन का मुकाबला करते हुए राष्ट्रनिर्माण और जन- कल्याण के वैकल्पिक मॉडल के साथ अपने अभियान को इस ऊंचाई तक ले जा सकता है जहां कारपोरेट और बहुसंख्यकवादी राज्य के गठजोड़ ( merger ) पर टिके फ़ासिस्ट साम्राज्य का शीराज़ा बिखर जाय और उसकी कब्र पर हमारा गणतंत्र एक बार फिर लहलहा उठे ?
हालात खौफनाक हैं लेकिन यही वह समय है जब तन कर खड़े होने की जरूरत है। लोकतन्त्र की रक्षा के लिए यह जीवन मरण संग्राम है-इस पार या उस पर !
(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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