‘गणतंत्र’ की हिफ़ाज़त करने वाले महान योद्धा
वैसे तो देश में ‘गणतंत्र’ को शुरू से ही भीतर और बाहर से गंभीर चुनौतियां मिलती रही हैं। शायद दिल्ली में काबिज शासन-व्यवस्था के पैरोकार इसलिए 26 जनवरी के दिन भरपूर प्रदर्शन-उत्सव के साथ राष्ट्रीय स्तर का समारोह कर के बताते हैं कि हमारा 'गण' भी महफूज व मजबूत है तथा 'तंत्र' भी! अक्सर अवामी तवारीख में दर्ज उन पन्नों को बिसरा दिया जाता है, जिनसे पता चलता है कि एक वक्त ऐसा था जब सरहदी सूबे पंजाब से गणतंत्र को गंभीर और हिंसक चुनौती मिली थी और मुकाबले के लिए वे लोग आगे आए थे जो गणतंत्र को बचाने की जंग में मारे गए और आज सत्ताधीशों को उनका नाम लेने तक से गुरेज है। जो मारे गए वे यकीनन सही मायनों में 'शहीद' थे और जो उस लड़ाई में बच गए वे 'जिंदा शहीद' कहलाए। वे तमाम लोग 'युग के योद्धा' थे, जिन्होंने पंजाब की सरजमीं पर बाकायदा हथियारबंद फिरकापरस्त आतंकवाद और व्यवस्था के खिलाफ अपने तईं लड़ाई लड़ी। देश बहत्तरवां गणतंत्र दिवस मना रहा है ऐसे में गणतंत्र की हिफाजत में सिर पर कफन बांधने वाले पंजाब के उन योद्धाओं को याद करना प्रासंगिक होगा। संयोगवश बसंत भी 26 जनवरी को मनाया जा रहा है। बसंत और इसका प्रतीक रंग जंग-ए-आजादी में शहीद हुए क्रांतिकारी भगत सिंह का भी प्रिय रहा है। गणतंत्र की हिफाजत के लिए जिन लोगों ने पंजाब में एक खास दौर के दौरान 'बीच का रास्ता' हरगिज़ नहीं चुना, वे बहुधा शहीद भगत सिंह और उनके साथियों के ही सच्चे अनुयायी थे। 1978 के बाद पंजाब में शिखर सियासत और धर्म की कोख से आतंकवाद ने जन्म लिया और फला- फूला। केंद्रीय शासन व्यवस्था और पंजाब में मौजूद उसके सूबेदारों ने अपनी टुच्ची राजनीति के लिए चिंगारी सुलगा दी जो देखते-देखते एक बड़ी आग में तब्दील हो गई और यह आग तब किसी भी घर की दहलीज पर आकर ठहर जाती थी। सत्ता-व्यवस्था की कोख ने एक (ऐसे नीले चोले वाले) 'संत' को जन्म दिया जो बाद में बेकाबू (छुट्टा लिखना ज्यादा मुनासिब होगा) हो गया और नतीजतन पहले आम लोग मारे गए, फिर 'समाधान' के नाम पर ऑपरेशन ब्लूस्टार हुआ, प्रतिशोध में इंदिरा गांधी की हत्या और उसके बाद सिखों को मिले एकतरफा हिंसा के देशव्यापी ऐसे जख्म, जो आज भी रिस रहे हैं। बात हो रही है उस दौर के पंजाब और खतरे में पड़े गणतंत्र की हिफाजत करने वाले अवामी सूरमाओं की- जिन्हें फासीवाद की आसन्न आहटों के बीच याद करना एक कर्ज का उधार-सा चुकाना है। बेशक तकनीकी सीमाओं के चलते उस पूरी फेहरिस्त में शुमार नाम नहीं लिए जा सकते लेकिन वे यहां जिक्र किए बगैर भी हमेशा लोकमानस में रहेंगे। जब-तब गणतंत्र और स्वतंत्रता दिवस मनाया जाएगा; तब उन्हें भी शिद्दत से अकीदत के साथ याद किया जाएगा।
भगत सिंग बिलगा
पंजाब सदियों से बहारों और धाराओं की सरजमीं रहा है। 1977 से ऐन पहले यहां हरित क्रांति के बाद, नक्सल लहर चली थी और 1979 आते-आते धर्मांध आतंकवादी लहर का आगाज हो गया। करने वालों ने सोचा कि उनके अंधे हथियारों के आगे खिलाफत में कौन आएगा? वे गणतंत्र को खुली चुनौती देने वाले लोग थे और कहीं न कहीं; तब की शासन-व्यवस्था ने उनका पोषण किया था लेकिन संत जरनैल सिंह भिंडरांवाले की अगुवाई में उन्होंने खुद की समानांतर सत्ता पंजाब में कायम कर ली। अपनी पोषक व्यवस्था से किनारा करते हुए। निशाने पर 'गणतंत्र' आ गया लेकिन बचाव में लोगों का काफिला भी सिर पर कफन बांध कर आया। वे अवामी नुमाइंदे थे और विचार तथा लड़ने का जज्बा ही उनके हथियार थे। लंबी-चौड़ी फेहरिस्त में से चंद नाम हैं जिन्हें गणतंत्र दिवस के मौके पर जरूर याद किया जाना चाहिए: दीपक कुमार धवन, सुमित सिंह प्रीतलड़ी, पाश, चन्नण सिंह धूत, गुरनाम सिंह उप्पल, बलदेव सिंह मान, बंत सिंह रायपुरी, दर्शन सिंह कैनेडियन, डॉ विश्वनाथ तिवारी, डॉ रविंद्र सिंह रवि, चौधरी जगत राम, चौधरी बलबीर सिंह, जोगेंद्र पाल पांडे, डॉ हरनाम सिंह, जयमल सिंह पड्डा, कॉमरेड अश्वनी कुमार, चंचल सिंह, सुखदेव सिंह उमरानंगल... इत्यादि। इन्होंने धर्मांध आतंकवाद से मुकाबिल होते हुए शहादत हासिल की। 'जिंदा शहीद' थे: गदर लहर के नायक बाबा भगत सिंह बिलगा, कॉमरेड सतपाल डांग, कॉमरेड विमला डांग, संस्कृतिकर्मी गुरशरण सिंह, जगजीत सिंह आनंद, कॉमरेड सोहेल सिंह, सरदारा सिंह पागल, कॉमरेड अमोलक सिंह और पत्रकार जतिंदर पन्नू... इत्यादि।
कॉमरेड अमोलक सिंह
दीपक कुमार धवन अमृतसर के तरनतारण इलाके की सीपीएम इकाई के नौजवान नेता थे। अमृतसर में आतंकवाद जड़ें जमाने लगा था कि दीपक उन सिरमौर लोगों में से एक थे जो जान हथेली पर रखकर निकले और कट्टरपंथियों के खिलाफ आम लोगों को जागरूक करने की मुहिम छेड़ दी। पहले-पहल उन्हें मौखिक और फिर लिखित धमकियां मिलनी शुरू हुईं लेकिन वह अडिग रहे। मई की एक भरी दोपहरी में उन्हें घर से बाहर बुलाया गया। सामने था हथियारबंद जुनूनियों का जत्था। उन्हें घेरकर कहा गया कि वह अपनी मुहिम बंद कर दें और इसी वक्त 'खालिस्तान जिंदाबाद' का नारा लगाएं तो उन्हें छोड़ दिया जाएगा लेकिन जवाब में दीपक कुमार धवन ने 'इंकलाब जिंदाबाद' का नारा लगाया तो उन्हें उसी वक्त शहीद कर दिया गया। मरने से पहले उन्होंने 'लाल सलाम' भी अपनी बुलंद आवाज में कहा। दीपक कुमार धवन की बहन इंदु इस घटना की चश्मदीद गवाह थीं और बाकायदा इस प्रकरण की पुष्टि की थी। उन्होंने बाद में वाम राहों पर चलते हुए, उनकी मुहिम को कायम रखा। दीपक ने हिंदू-सिख एकता बनाए रखने तथा धार्मिक कट्टरपंथ के खिलाफ बलिदान दिया था। जगप्रसिद्ध क्रांतिकारी शहीद कवि अवतार पाश को कौन नहीं जानता? उनकी लिखी एक काव्य पंक्ति, "सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना" लाखों लोगों के मन पर अंकित है। उन्हें खालिस्तानी आतंकियों से धमकियां मिलने का सिलसिला बहुत पहले शुरू हो गया था। उनकी बेबाक कलम चरमपंथियों को चिढ़ाती ही नहीं, ललकारती भी थी। पाश पहले व्यवस्था की 'हिटलिस्ट' में थे और बाद में खिलाफती तीखे तेवरों के चलते खालिस्तानियों की हत्यारी हिटलिस्ट में उनका नाम पहली पंक्ति में आ गया। वह अमेरिका गए तो वहां 'एंटी-47' नामक हस्तलिखित पत्रिका निकाली। नाम से ही इसका मतलब समझ आ गया होगा। इस पत्रिका की किताबत पाश खुद करते थे और बाद में साइक्लोस्टाइल करा कर उसे दुनिया भर में भेजते थे। इस पत्रिका में लिखा गया एक-एक शब्द कट्टरपंथियों और उनकी पालनहार रही व्यवस्था को खुली चुनौती देता था। नतीजतन पाश को जानलेवा धमकियों का सिलसिला सुदूर विदेश से पंजाब तक शुरू हुआ और थमा 23 मार्च 1988 को। 23 मार्च शहीद-ए-आजम भगत सिंह का भी शहादत दिवस है। ठीक इसी दिन आतंकवादियों ने जालंधर के नकोदर के पास स्थित उनके गांव में उन्हें गोलियों से भून दिया। उन पर शूट फायरिंग करने से पहले कहा गया कि वह अगर अपनी मुहिम रोक दें तो उनकी जान बख्श दी जाएगी लेकिन पाश ने शहादत लेना मंजूर किया। गांव आने से पहले उन्हें उनके कुछ पुराने साथियों ने आगाह किया था कि वह पंजाब न जाएं, आतंकवादी उनकी एक-एक गतिविधि पर निगाह रखे हुए हैं और इंतजार में हैं कि कब वह अपने गांव आते हैं ताकि उन्हें आसानी से मारा जा सके। 'बीच का रास्ता नहीं होता' की धारा पर चलने वाले पाश का हर किसी को जवाब होता था कि कलम की वजह से उन्होंने पुलिस की मार खाई, जेल यात्रा की और जलावतनी को मजबूर हुए और अब अगर कलम के लिए शहादत का जाम अपनी जमीन पर जाकर पीना पड़े तो वह बाखुशी इसके लिए तैयार हैं। और इस मानिंद भारतीय जुझारू कविता का एक सशक्त क्रांतिकारी शब्द शिल्पी अपने विचारों की राह न छोड़ने की जिद में शहीद हो गया। पाश की शहादत बखूबी यह भी साबित करती है कि बेखौफ कविता फिरकापरस्तों और स्टेट को खौफजदा कर सकती है!
पंजाबी कवि पाश और उनकी मशहूर नज्म सबसे खतरनाक होता है ...
पंजाबी यूनिवर्सिटी पटियाला के रीडर और मार्क्सवादी विचारों के लिए मशहूर चिंतक डॉ रविंदर रवि को भी अपने बोले और लिखे गए लफ्जों की कीमत जान देकर अदा करनी पड़ी। पाश की शहादत के बाद वह पहले ऐसे पंजाबी आलोचक थे जिन्होंने शहीद कवि की कविता के नए आयाम एवं प्रतिमान सामने रखे। विश्वविद्यालय में सीपीएम से वाबस्ता एसएफआई ने पाश के कत्ल के बाद खालिस्तानी अलगाववादी बुद्धिजीवियों और वामपंथियों के बीच एक अहम चर्चा आयोजित की। वामपंथियों की ओर से प्रतिनिधित्व डॉ रविंदर रवि ने किया। उसी दिन से उन्हें बाकायदा हत्यारी 'हिटलिस्ट' पर ले लिया गया। उन्हें घर से बाहर बुलाया गया और बारूदी गोलियां उनके सीने में उतार दी गईं। यह पाश की हत्या के चंद हफ्तों के बाद हुआ। समूचे पंजाब का बौद्धिक जगत सन्नाटे में आ गया और लंबे अरसे तक यह सन्नाटा नहीं टूटा। इसे तोड़ा क्रांतिकारी नुक्कड़ नाटककार गुरशरण सिंह ने।
गुरशरण सिंह अपनी वामपंथी प्रतिबद्धता के लिए जाने जाते थे और उन्होंने चीफ इंजीनियर की नौकरी से इसलिए इस्तीफा दे दिया था कि भाखड़ा मैनेजमेंट बोर्ड नहीं चाहता था कि वह मजदूर दिवस यानी एक मई को कामगारों के बीच अपना नाटक प्रस्तुत करें। इसके बाद गुरशरण देश-विदेश में नुक्कड़ नाटक के अहम हस्ताक्षर बन गए। आतंकवादियों के गढ़ अमृतसर में उन्होंने अपना ठिकाना बनाया। जब संत जरनैल सिंह भिंडरांवाला स्वर्ण मंदिर परिसर से अपने 'खेल'; खेल रहा था तो गोल्डन टेंपल के ऐन सामने सैकड़ों लोगों के बीच गुरशरण सिंह ने नुक्कड़ नाटक किया, 'हिटलिस्ट'! भिंडरांवाला बाकायदा इसका एक पात्र था और चलते नाटक के बीच गुरशरणजी को नाटक बंद करने का 'फरमान' भीतर से आया लेकिन उन्होंने यह कहकर नाटक जारी रखा कि कतिपय कट्टरपंथी समझते हैं की 'हिटलिस्ट' बनाना और उस पर अमल के लिए हथियार चलाना वही जानते हैं तो यह उनकी भूल है। हथियार चलाने हमें भी आते हैं और एक 'हिटलिस्ट' अवाम के दिलों में भी बनी हुई है। ऐसा कहने और करने वाले गुरशरण सिंह ने डॉ रविंदर रवि की हत्या के बाद पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला में लड़ीवार नुक्कड़ नाटक किए। पुलिस ने उन्हें सावधान किया लेकिन वह बेपरवाह-बेखौफ रहे। इन पंक्तियों के लेखक को दिए एक इंटरव्यू में गुरशरण जी ने कहा था कि, "हमारा 'गणतंत्र' भी कुर्बानियां मांगता है! ताकि जनपक्षीय गणतंत्र अपने मूल आधारों को बचा और पुख्ता कर पाए।" गुरशरण सिंह को 'जिंदा शहीदों' में शुमार किया जाता था।
असली गणतंत्र की हिफाजत के लिए अमृतसर में ही बस गए डांग दंपति, वामपंथी नेता सतपाल डांग और कॉमरेड विमला डांग का शुमार भी 'जिंदा शहीदों' के मुहावरे की पहली कतार में होता है। आतंकवाद चरम पर था तो डांग दंपति ने अतिरिक्त साहस के साथ उसका मुकाबला किया। कॉमरेड डांग ने रोज शेव करने की बजाय दाढ़ी इसलिए बढ़ा ली कि उन्हें फुर्सत ही नहीं मिलती थी। हर आतंकी कार्रवाई के बाद वह पीड़ितों के घर तक जाते। दिन हो या रात। यह वो वक्त था जब आतंकवादी किसी भी सूरत में डांग दंपति को खेत (हत्या) करना चाहते थे। पंजाब में हिंदू-सिख एकता कायम रखने में सतपाल डांग और विमला डांग का सक्रिय योगदान अतुलनीय है। दोनों का फलसफा था कि गणतंत्र की हिफाजत के लिए अमन और सद्भाव का कायम रहना अपरिहार्य है। यही गणतंत्र की बुनियाद है। कॉमरेड डांग ने जहां कट्टरपंथी आतंकवाद का विरोध किया वहीं सरकारी आतंकवाद के खिलाफ भी आवाज बुलंद की और लोगों को लामबंद किया।
कॉमरेड सतपाल सिंह डांग
कभी कॉमरेड सतपाल डांग के कंधे से कंधा मिलाकर काम करने वाले उनके सबसे निकट सहयोगी रहे जतिंदर पन्नू आज पंजाब की पत्रकारिता में सिरमौर नाम हैं। लंबे समय तक वह वामपंथी पंजाबी दैनिक 'नवां ज़माना' के संपादक रहे और अब वैकल्पिक पंजाबी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के विभिन्न मंचों से बेबाक एवं तार्किक होकर अपनी बात रखते हैं। जालंधर में 'न्यूज़क्लिक' से बातचीत में उन्होंने कहा, "हमने वह दौर देखा है जब सूरज उगता ही लाशों की गिनती करने के लिए था। बेमानी खोखले गणतंत्र को हमारे साथियों ने अपना लहू देकर बचाया। अब भी हम फासीवाद और गणतंत्र की असली परिभाषा के लिए अपने तौर पर लड़ रहे हैं तथा हमारे बाद यह मशाल आने वाली पीढ़ियों के हाथों में होगी।"
कॉमरेड विमल डांग
जालंधर में ही स्थित है विश्व विख्यात गदर लहर का मुख्यालय, 'देश भगत यादगार हॉल'। कॉमरेड अमोलक सिंह इसके ट्रस्टी हैं और लोक मोर्चा पंजाब के अध्यक्ष। बीते चौदह सालों से वह यहां लगने वाले तीन दिवसीय वार्षिक मेले, 'मेला गदरी बाबेयां दा' का थीम सॉन्ग लिखते हैं। आतंकवाद के काले दिनों में वह खुद हथियारबंद होकर आतंकवादियों से भिड़ने को तत्पर रहते थे। उनका संगठन हिंदू-सिख एकता के लिए और सरकारी तथा गैरसरकारी आतंकवाद के खिलाफ काम करता था। गदर पार्टी के मुख्यालय में उनसे मुलाकात होती है। कॉमरेड अमोलक सिंह कहते हैं, "पंजाब में कई बार ऐसा दौर आया जब गणतंत्र की अवधारणा को भोथरा किया गया। खालिस्तानी आतंकवाद का दौर सबसे खतरनाक था। हमने अपने कई अनमोल नायक उस अंधेरी आंधी में खो दिए। आज फिर गणतंत्र की मूल अवधारणा को दक्षिणपंथी ताकतें खत्म करने में लगी हैं और हम 'अवामी गणतंत्र' के लिए अपनी कुर्बानी देने को तैयार हैं। दिल्ली बॉर्डर पर लगा किसान मोर्चा भी तो गणतंत्र की हिफाजत के लिए एक बड़ा कदम ही था।" कहना होगा कि पंजाब में गणतंत्र की हिफाजत के लिए जिन लोगों ने मुतवातिर बेशुमार काम किया, उनमें कॉमरेड अमोलक सिंह भी एक प्रमुख शख्सियत हैं। आतंकवादियों से लोहा लेने के लिए कभी उन्हें भी 'जिंदा शहीद' कहा जाता था।
प्रोफेसर विश्वनाथ तिवारी विचारधारात्मक स्तर पर वाम-कांग्रेसी थे। सांझा पंजाबियत के शैदाई! हिंदू- सिख एकता के लिए सक्रिय काम करने वाले प्रोफेसर तिवारी ने प्रथम विश्व पंजाबी कॉन्फ्रेंस करवाई थी और कभी प्रधानमंत्री रहीं इंदिरा गांधी को अपने खून से चिट्ठी लिखी थी कि पंजाब को भाषा के आधार पर न विभाजित किया जाए। 1980 के बाद प्रोफेसर विश्वानाथ तिवारी ने पंजाब में अमन और सद्भाव कायम रखने के लिए बहुत काम किया। वह राज्यसभा के सदस्य थे, जब उन्हें चंडीगढ़ में पंजाब विश्वविद्यालय के करीब और पीजीआई के सामने सरेआम कत्ल कर दिया गया। उनका कत्ल जून 1984 से ऐन पहले हुआ और उन्होंने कत्ल से कुछ महीने पहले एक राष्ट्रीय अंग्रेजी अखबार में लेख लिखा था कि पंजाब में गणतंत्र खतरे में है और बचाव के लिए बलिदान मांगता है। प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय महासचिव डॉ सुखदेव सिंह सिरसा के मुताबिक (उन्होंने प्रोफेसर तिवारी को करीब से जाना-देखा है), "प्रोफेसर विश्वनाथ तिवारी को भनक लगी कि श्रीमती गांधी अमृतसर के स्वर्ण मंदिर साहिब में फ़ौज भेजना चाहती हैं। वह खुद दिल्ली जाकर तत्कालीन प्रधानमंत्री से मिले और उन्हें जोर देकर सलाह दी कि ऐसा हरगिज़ न किया जाए। लेकिन ऑपरेशन ब्लू स्टार हुआ और उससे पहले खालीस्तानियों की आंख की किरकिरी बने विश्वनाथ तिवारी को मार दिया गया। उनकी हत्या पंजाबियत के एक अति महत्वपूर्ण अंग की हत्या थी।"
तो यह थी पंजाब में आतंकवाद के दिनों में गणतंत्र की हिफाजत के लिए काम करने वाले चंद लोगों की मुख्तसर सच्ची कहानियां। पंजाब की नई पीढ़ी सिर्फ अमृतपाल सिंह सरीखे कट्टरपंथियों को ही नहीं सुनती बल्कि अमन और सद्भाव कायम रखने के लिए तथा गणतंत्र की मूल अवधारणा के लिए जान तक देने वाले शहीदों से भी बखूबी वाकिफ है। यह अच्छे से जानना हो तो कभी गदर लहर के शहीदों की याद में लगने वाले सालाना मेले में आइए। जहां हर दूसरे युवा की कमीज पर शहीद-ए-आजम भगत सिंह, करतार सिंह सराभा, सुखदेव, राजगुरु और हाल के सालों के शहीद पाश आदि की तस्वीरों वाले बिल्ले टंगे होते हैं। हाथों में वे किताबें जो यकीनन उन्हें सबक देती हैं कि गणतंत्र की हिफाजत किसने, कैसे की और वे कैसे करें?
(ये लेखक के निजी विचार हैं।)
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