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किसान आंदोलन ने मोदी-राज के लोकतंत्र-विरोधी चेहरे को तार-तार कर दिया है!

जाहिर है, यह आरपार की लड़ाई है। यह न सिर्फ़ इस बात का फ़ैसला करेगी कि भारतीय कृषि का भविष्य क्या होगा, बल्कि यह भी तय करेगी कि भारत में लोकतंत्र का भविष्य क्या होगा।
किसान आंदोलन

मोदी सरकार के लिए आज सबसे बड़ा परेशानी का सबब यह है कि किसान आंदोलन ने इनके लोकतंत्र-विरोधी चेहरे को तार-तार कर दिया है! यह इस मायने में अलग है कि इसके  पहले के लोकतंत्र विरोधी हमलों को मोदी-शाह जोड़ी राष्ट्रवादी/सांप्रदायिक रंग देने में सफल हो जाती थी, वह चाहे भीमा कोरेगांव हिंसा को लेकर सामाजिक कार्यकर्ताओं व बुद्धिजीवियों की गिरफ्तारी हो या शाहीन बाग आंदोलन के दौरान दिल्ली अल्पसंख्यक विरोधी हिंसा के बहाने दमन हो, पर इस बार वह साजिश बुरी तरह नाकाम हो गयी है, बावजूद इसके कि इस बार भी वह 26 जनवरी को बेहद खतरनाक ढंग से अंजाम दी गयी थी।

अपनी सरकार के खिलाफ कथित षड्यंत्रों की ईजाद, गोदी मीडिया द्वारा उसका सनसनीखेज दुष्प्रचार, उसके नाम पर विरोधियों का दमन और उस दमन को राष्ट्रवादी/सांप्रदायिक रंग दे देना, यह गुजरात से लेकर यूपी और दिल्ली मॉडल तक का सेट पैटर्न रहा है,  किसान आंदोलन ने इसे निर्णायक चुनौती दी है।

स्वाभाविक रूप से संसद के दोनों सदनों में प्रधानमंत्री के हमले के सीधे निशाने पर थीं सिविल-पोलिटिकल सोसाइटी की वे शख़्सियतें और ताकतें जो सभी लोकतांत्रिक आंदोलनों के समर्थन में हमेशा सुसंगत ढंग से खड़ी रहती हैं, उन्हें आंदोलनजीवी कहकर उन्होंने मजाक उड़ाया और तंज किया। दरअसल यह जुमला उदार,  लोकतांत्रिक-वाम सोच के नागरिक समाज (Civil Society ) के खिलाफ गहरी खीझ और नफरत से निकला  है और मोदी-शाह राज की चरम निराशा की अभिव्यक्ति है, क्योंकि इन्हीं कथित आंदोलनजीवियों ने डेमोक्रेसी को बुलडोज़ करने के संघ ब्रिगेड के सारे प्रोजेक्ट को halt कर दिया है। पर जाहिर है, ultimate निशाना तो वह जनता है जिसके लोकतांत्रिक हक के लिए ये  'आंदोलनजीवी' भारी कीमत चुकाते हुए लड़ते रहे हैं; वह संविधान और लोकतंत्र है, जिसे बचाने के लिए वे बिना डरे, अडिग, अविचल खड़े हैं।

प्रधानमंत्री द्वारा "परजीवी" कहे जाने पर किसान आंदोलन में तीखी प्रतिक्रिया हुई है, मोदी जी द्वारा अपने नेताओं को "परजीवी" कहकर अपमानित किये जाने के खिलाफ किसान गुस्से से भरे हुए हैं और यह किसानों की महापंचायतों का सबसे बड़ा मुद्दा बन गया है। बहरहाल, मान-अपमान से इतर इसके गहरे राजनीतिक निहितार्थ हैं। लोग यह देख कर दंग हैं कि मोदी ने यह जुमला सीधे हिटलर से उधार लिया है। हिटलर ने यहूदियों को परजीवी कहा था, और उनके खिलाफ नफरत की आंधी पैदा करके उनका कत्लेआम किया था और पूरे देश पर फासीवादी तानाशाही थोप दी थी। मोदी जी ने वही जुमला आज किसान आंदोलनकारियों और उनके समर्थक लोकतांत्रिक शख्सियतों के लिए प्रयोग किया है। जुबान पर गांधी का जाप करते हुए क्या मोदी की सबसे बड़ी प्रेरणा हिटलर ही है और वे उसी के रास्ते पर बढ़ रहे हैं?

यही है विदेश से, सीधे फासिस्ट जर्मनी से आयातित Foreign destructive ideology-FDI, जिसकी तोहमत वह दूसरों पर मढ़ते हैं और स्वयं को सबसे बड़ा राष्ट्रवादी साबित करते हैं।

राज्यसभा के उसी भाषण में लोकतंत्र की प्राचीन, भारतीय जड़ों की तलाश की उनकी कोरी लफ़्फ़ाज़ी इन्हीं हिटलरी मंसूबों को ढकने की कवायद थी, उसकी आड़ में असली लक्ष्य आधुनिक लोकतंत्र के मूल्यों व संस्थाओं का आखेट है।

किसान आंदोलन ने, विशेषकर 26-28 जनवरी के बीच के युगांतकारी मोड़ ने यह भी साबित कर दिया कि अब गोदी मीडिया और IT cell के बल पर public opinion को नियंत्रित और गुमराह नहीं किया जा सकता, इसलिए सरकार के लिए सबसे बड़ा villain आज सोशल मीडिया, स्वतन्त्र पत्रकार, जनपक्षधर वेब पोर्टल बन गए हैं।

मेनस्ट्रीम मीडिया के बड़े हिस्से को अपना भोंपू बनाने के बाद अब सोशल मीडिया, स्वतन्त्र पत्रकारों, Web Portals को कुचलने की तैयारी है, उसी की ताजा कड़ी न्यूज़क्लिक के कार्यालय और संस्थापक-सम्पादक व संपादक के आवास पर ED की राजनीति प्रेरित वैमनस्यपूर्ण कार्रवाई थी।

अब यह पूरा पैटर्न बनता जा रहा है-The Wire, The Quint, The Carvan, Newsclick...

मृणाल पांडेय, राजदीप सरदेसाई, जफर आगा, सिद्दीकी कप्पन, मनदीप पुनिया....

यहां तक कि मुख्यधारा के NDTV जैसे चैनल जो पूरी तरह गोद में बैठने को तैयार नहीं, वे भी इसका शिकार हुए।

अब साइबर वालंटियर्स के नाम पर डिजिटल मीडिया पर गृहमंत्री के vigilante स्वयंसेवकों का खतरनाक पहरा बैठाने की तैयारी चल रही है।

अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमले का विरोध आज हर देशभक्त और लोकतंत्र- प्रेमी का कर्तव्य बन गया है क्योंकि स्वतंत्र मीडिया जिंदा नहीं रहा तो देश में लोकतंत्र भी नहीं बचेगा।

लोकतंत्र नहीं बचा, तो जनता के जीवन के अधिकार, सम्मानजनक आजीविका और मानवीय  गरिमा के लिए संघर्ष भी बेमानी हो जाएगा।

यह किसान आंदोलन की बढ़ती शक्ति का सबूत है कि फासिस्ट ढर्रे पर चल रही जिस सरकार ने पिछले ढाई महीने में आंदोलन को सत्ता की प्रचंड ताकत के बल पर कुचलने की हर सम्भव कोशिश/साजिश की हो, उसके मुखिया को संसद के फ्लोर पर आंदोलन को पवित्र बताना पड़े।

यद्यपि यह कहते हुए भी आंदोलन के नेतृत्व को कथित अपवित्र कामों के लिए बदनाम करने से वे बाज नहीं आये।

क्या यह प्रधानमंत्री को शोभा देता है कि जो अभी महज आरोपी हैं, जिनके खिलाफ कोई अपराध साबित नहीं हुआ है, उनकी रिहाई की मांग का पोस्टर लगा देने मात्र पर संसद में जहर उगला जाय और इसके लिए किसान आंदोलन पर अपवित्र कृत्य की तोहमत मढ़ दी जाय?  जाहिर है इसके पीछे एकमात्र उद्देश्य किसान आंदोलन और उसके नेतृत्व को बदनाम करना है। संयोगवश कल ही Washington Post में forensic experts के हवाले से वह रिपोर्ट छपी है कि कैसे रोना विल्सन के कम्प्यूटर में इजरायली मालवेयर के माध्यम से वे कथित पत्र डाले गए जिनके आधार पर वरवर राव, गौतम नवलखा, आनन्द तेलतुंबड़े, सुधा भारद्वाज जैसे तमाम नामचीन प्रतिबद्ध सामाजिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों को मोदी जी की सत्ता उखाड़ फेंकने के षड्यंत्र का आरोपी बना दिया गया।

भाषण के बीच प्रधानमंत्री ने पंजाब के सिख किसानों को बंटवारे और 84 की याद दिलाई। किसान आंदोलन की चर्चा के दौरान, यह शरारतपूर्ण जिक्र क्या Veiled Threat था?

जाहिर है, सत्ता की हवस के लिए इन्हें राष्ट्रीय एकता से खतरनाक खिलवाड़ करने में भी कोई गुरेज़ नहीं।

बहरहाल, अब आंदोलन 26 जनवरी के साजिशी कुचक्र से निष्कलंक बाहर निकल चुका है, इसे पवित्र बताकर स्वयं प्रधानमंत्री को इस पर मुहर लगानी पड़ी है। अलबत्ता, 26 जनवरी की साजिश के छींटे सरकार के दामन पर हैं- पब्लिक परसेप्शन में,  जिससे मुक्त हो पाना सरकार के लिए आसान नहीं होगा।

इस कठिन अग्नि-परीक्षा से निकलकर आंदोलन अब अधिक आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ रहा है। महापंचायतों में किसान उमड़ रहे हैं। प्रधानमंत्री ने दोनों सदनों के अपने लंबे भाषणों में जो तरह-तरह की पैंतरेबाजी की, उसके जवाब में किसानों ने अपने आंदोलन को और तेज करते हुए 18 फरवरी को पूरे देश मे रेल रोको कार्यक्रम का एलान किया है, वे 14 फरवरी को पुलवामा में जवानों की शहादत को याद करेंगे और 16 फरवरी को APMC मंडी व्यवस्था के जनक किसान नेता सर छोटू राम की याद में कार्यक्रम करेंगे।

इस बीच देश की संसद में किसान आंदोलन का मुद्दा छाया हुआ है,  विपक्ष के कई सांसदों ने जहां सरकार की बखिया उधेड़ कर रख दी, वहीं प्रधानमंत्री द्वारा दोनों सदनों में दिए गए भाषणों से किसान आंदोलन द्वारा खड़े किए गए सवालों का कोई ठोस जवाब नहीं मिला। परन्तु उनके भाषणों में सरकार की दिशा, उसके इरादों,  उसकी दुविधा और निराशा, उसके हमले के targets और लोकतंत्र पर मंडराते गम्भीर खतरों के सूत्र जरूर तलाशे जा सकते हैं।

लोकसभा में प्रधानमंत्री द्वारा किसान आंदोलन को पवित्र और कृषि- कानूनों को ऐच्छिक बताने की घोषणा में कुछ विश्लेषक सरकार के पीछे हटने के संकेत भी तलाश रहे  हैं, शेखर गुप्ता जैसे कृषि-कानूनों के समर्थकों का तो मानना है कि सरकार द्वारा डेढ़ से दो साल hold पर रखने के प्रस्ताव के बाद कानून पहले ही dead हो चुके हैं, क्योंकि आज के 2 साल बाद लोकसभा चुनाव महज 1 साल रह जाएंगे और राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ के महत्वपूर्ण विधान-सभा चुनाव सामने होंगे। जाहिर है तब ऐसे अलोकप्रिय कानूनों को लागू करने के बारे में सरकार सोच भी नहीं सकती।

मोदी जी की कॉरपोरेट के बीच साख और जनता के बीच कभी न झुकने वाले Iron Man की छवि बचाने के लिए तरह तरह के face-saving machanism सुझाये जा रहे हैं। कोई डेढ़-दो साल की बजाय, 3 साल अर्थात मोदी जी के कार्यकाल के अंत तक होल्ड पर रखने का सुझाव दे रहा है तो कोई राज्यों के हवाले छोड़ देने का, कोई Select Committee को सौंप देने का।

बहरहाल, एक केंद्रीय कानून के ऐच्छिक होने के मोदी जी के दावे का क्या अर्थ हो सकता है? आवश्यक वस्तु अधिनियम के दायरे से खाद्यान्न क्षेत्र को बाहर कर कॉरपोरेट घरानों को असीमित जमाखोरी की छूट का नियम लागू होने के बाद उसके प्रभाव से बचना क्या किसी के लिए ऐच्छिक रह जायेगा? सर्वोपरि, तीनों कानून अपने आंतरिक तर्क में एक दूसरे से अन्तरसम्बन्धित हैं और समग्रता में भारत के समग्र कृषि क्षेत्र-जमीन, उत्पादन, विपणन-के कॉरपोरेटीकरण की ओर निर्देशित हैं। किसी individual किसान के अपनी इच्छा से इससे अलग-थलग पुरानी व्यवस्था में रहने की बात ही बेतुकी (Absurd) है और नामुमकिन है।

जाहिर है, प्रधानमंत्री का यह कहना कि ये कानून ऐच्छिक हैं, जो पुरानी व्यवस्था में रहना चाहे वह उस में रहने के लिए आज़ाद है,  किसानों के साथ एक और छल है।

राज्यसभा मे प्रधानमंत्री ने कृषि-कानूनों को प्रगतिशील सुधार और छोटे किसानों के हित में बताते हुए ढाई महीनों से चल रहे किसान-आंदोलन को प्रकारांतर से बड़े किसानों का आंदोलन बताकर खारिज कर दिया। बड़े और छोटे किसानों के अंतर्विरोध को उभारने और उन्हें एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करने में उन्होंने एड़ी चोटी का जोर लगा दिया, पर वे एक भी ऐसी ठोस बात नहीं बता सके जिससे साबित हो कि नए कानून छोटे किसानों के पक्ष में हैं ।

कॉरपोरेट का नाम लिए बिना भी, wealth creators की तारीफ और Jeo towers की प्रधानमंत्री की चिंता लोगों की नज़रों से छिपी नहीं रही।

कांग्रेस समेत विपक्षी सरकारों व नेताओं को 'आन्दोलनजीवियों ' के खिलाफ सावधान करते हुए संसदीय विपक्ष के शीर्ष नेताओं को उद्धृत करते हुए, उनका नाम ले लेकर, पिछली सरकार ही नहीं, "आगे भी जो इस कुर्सी पर आएगा, उसे भी यही करना होगा"- इसका भी हवाला देकर वे कृषि-कानूनों को justify करते रहे।

मजेदार यह था कि वहां मौजूद महारथियों में से किसी ने कोई प्रतिवाद नहीं किया।

बहरहाल, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान में हो रही विराट महापंचायतों से बनते नए सामाजिक समीकरणों और राजनीतिक सम्भावनाओं ने सरकार के होश उड़ा दिए हैं। आंदोलन ने राष्ट्रीय स्वरूप ग्रहण कर लिया है मजदूर आंदोलन, नागरिक समाज, राजनैतिक ताकतें किसान आंदोलन के पक्ष में उतरती जा रही हैं। दुनिया की तमाम लोकतांत्रिक ताकतों का दबाव सरकार पर बढ़ता जा रहा है।

जाहिर है, यह आरपार की लड़ाई है। यह न सिर्फ इस बात का फैसला करेगी कि भारतीय कृषि का भविष्य क्या होगा, बल्कि यह भी तय करेगी कि भारत में लोकतंत्र का भविष्य क्या होगा।

74 के बिहार आंदोलन/जेपी आंदोलन को कुचलने के लिए देश में आपातकाल लगा था।

क्या 50 साल बाद, इतिहास अपने को दुहराने जा रहा? क्या किसान-आंदोलन का दमन देश को दूसरे आपातकाल की ओर ले जाएगा?

या यह आंदोलन लोकतांत्रिक दिशा के साथ सच्चे राष्ट्रीय पुनर्निर्माण की जमीन तैयार करेगा ?

इसका फैसला आने वाले दिनों में भारतीय जनगण की सक्रिय हस्तक्षेपकारी भूमिका से होगा।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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