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विपक्ष की पटना शिखर बैठक की ओर पूरे देश की निगाह

बैठक में मोदी-राज के ख़िलाफ़ क्या एक विश्वसनीय विकल्प की आधारशिला रखी जायेगी
Opposition
फाइल फोटो

 

पूरे देश की निगाहें 23 जून को पटना में हो रही विपक्षी दलों की बैठक की ओर लगी हुई हैं। मोदी जी स्वयं तो विदेश में हैं, पर शीर्ष भाजपा नेताओं के बयानों से साफ है कि संघ-भाजपा की चिंता और चर्चा में भी यह बैठक ही छाई हुई है। यहां तक कि "सांस्कृतिक संगठन " आरएसएस के मुखपत्र ऑर्गनाइजर में भी इस पर लिखा जा रहा है।

बैठक के ऐन पहले जीतन राम मांझी का पाला बदल करवाकर यह नैरेटिव बनाने की कोशिश की गई कि महागठबंधन को बिहार में ही झटका लग गया। बहरहाल खौफ ऐसा कि विपक्षी बैठक के तुरंत बाद जे पी नड्डा 24 जून को झंझारपुर और अमित शाह 29 जून को मुंगेर में रैली करने पहुंच रहे हैं।

मोदी जी ने मन की बात prepone कर 18 जून को ही देश से विशेषकर युवा पीढ़ी से इंदिरा गांधी के आपातकाल को याद रखने का आह्वान जारी कर दिया। हालाँकि इसके माध्यम से उन्होंने बरबस ही अपने 9 साल के घोर लोकतन्त्र विरोधी " अघोषित आपातकाल" की यातना की ओर भी लोगों का ध्यान आकर्षित कर दिया।

मोदी जब कहते हैं, " लोकतंत्र के समर्थकों पर उस दौरान इतना अत्याचार किया गया, इतनी यातनाएं दी गईं कि आज भी मन सिहर उठता है" तो मोदी-शाह-योगी राज में फादर स्टेन स्वामी, सुधा भारद्वाज, गौतम नवलखा, आनन्द तेलतुंबड़े, उमर खालिद जैसी तमाम लोकतान्त्रिक शख्सियतों को दी गयी भीषण यातनाएं, किसान आंदोलन समेत तमाम न्यायपूर्ण संघर्षों पर ढाए गए बेइंतहा जुल्म, अल्पसंख्यकों, दलितों, गरीबों पर बेरहमी से चलता बुलडोजर, selective ढंग से एजेंसियों द्वारा विपक्षी दलों के नेताओं का लगातार पीछा और ब्लैकमेलिंग भला याद आये बिना कैसे रह सकती है !

देश को उस तानाशाही की याद दिलाते हुए मोदी जी को यह भी जरूर याद आ रहा होगा कि आपातकाल के खिलाफ अंततः पूरा देश खड़ा हुआ था, सारी पार्टियां एकजुट होने को मजबूर हुईं और इंदिराशाही का अंत हुआ तथा लोकतन्त्र की पुनर्स्थापना हुई थी। क्या आधी सदी बाद इतिहास फिर दुहराने जा रहा है ?

Political class पर जिस तरह कारपोरेट शिकंजा मजबूत हुआ है, राजनीतिक दलों/नेताओं में विचारधारविहीन pragmatism, चरम अवसरवाद, भ्रष्टाचार का बोलबाला बढ़ा है, उसमें मोदी-शाह के खिलाफ खतरा मोल लेते हुए विपक्ष का एकजुट होना आसान नहीं है।

बहरहाल, दो ऐसे compelling factors हैं, जो विपक्षी दलों को इस दिशा में ठेल रहे हैं। सर्वप्रमुख तो यह कि चौतरफा बदहाली, जुल्म और अन्याय से ऊबी जनता मोदी-भाजपा राज से निजात चाहती है। भाजपा के विरुद्ध एकजुट होने के लिए दलों पर नीचे से उनके जनाधार का दबाव बन रहा है। कर्नाटक ने यह भी दिखाया कि जो दल इस जनभावना के खिलाफ जाएगा, वह जनता की निगाह में villain बनेगा और चुनाव में हाशिये पर धकेल दिया जाएगा।

दूसरा उतना ही या शायद अधिक महत्वपूर्ण कारक विभिन्न दलों/नेताओं का इस अनुभूति पर पहुंचना है कि संघ-भाजपा का जो totalitarian project है, उसमें आने वाले दिनों में सब का अस्तित्व मिट जाएगा और वे जेल में होंगे अथवा surrender कर उनकी कृपा मिली तो बेल पर होंगे, 2024 में मोदी की वापसी हुई तो संविधान, संसदीय लोकतंत्र और चुनाव आदि शायद बस दिखावे के रह जाएंगे और देश एक पार्टी तानाशाही के शिकंजे में जकड़ जाएगा।

इसीलिए बिखरे विपक्ष और गैर- कांग्रेस फेडरल फ्रंट, नेशनल फ्रंट आदि की चर्चाओं से आगे बढ़ते हुए अब यह तय हो गया है कि भाजपा के विरुद्ध कांग्रेस समेत अनेक अहम विपक्षी दलों की एक बड़ी राष्ट्रीय एकता बनेगी, जिसका आगाज़ 23 जून को पटना में हो जाएगा।

जाहिर है पटना में 23 जून के विराट समागम और एकजुटता की भावना के इजहार के बाद भी विपक्षी एकता और सीटों के तालमेल की राह निष्कंटक नहीं होने जा रही है। यह भी सम्भव है कि बैठक में कुछ दल जनदबाव में महज भाजपा विरोध की posturing के लिए शामिल हो रहे हों और वे ऐसी असम्भव शर्तें रख दें कि विपक्षी गठबंधन से अपने बाहर रहने को justify कर सकें।

AAP पार्टी दिल्ली और पंजाब (जहां अभी हाल तक कांग्रेस सरकार थी) की सभी सीटों पर जिस तरह अपना दावा ठोंक रही है, और दिल्ली सरकार के सम्बंध में केंद्र के अध्यादेश पर stand को विपक्षी एकता की कसौटी बनाते हुए कांग्रेस की घेराबंदी कर रही है, वह इसी का नमूना है। यह बात कुछ और दलों के लिए भी सच हो सकती है, जिसका खुलासा आने वाले दिनों में हो सकता है।

कुछ अन्य दल 23 जून की बैठक और विपक्षी एकता में शामिल न होने के बावजूद भाजपा विरोधी दिशा के साथ ही मैदान में उतरेंगे और चुनाव के अंतिम दौर में प्रत्यक्ष/परोक्ष रूप से विपक्ष के साथ किसी तालमेल में जा सकते हैं या चुनाव बाद इस प्रक्रिया में शामिल हो सकते हैं।

बहरहाल शत-प्रतिशत विपक्षी एकता सम्भव नहीं है, बल्कि खास राजनीतिक समीकरणों के कारण कुछ राज्यों में, कई सीटों पर शायद अवांछित /counter-productive भी है।

कर्नाटक ने भाजपा की अपराजेयता ( invincibility ) के मिथक को तो पहले ही ध्वस्त कर दिया है, और मोदी मैजिक तथा हिंदुत्व की सीमाबद्धता पर स्वयं RSS मुहर लगा चुका है, अब 23 जून की महाबैठक के बाद परसेप्शन के खेल में विपक्ष को मनोवैज्ञानिक बढ़त मिलने जा रही है, विपक्षी एकता की हलचलें, उनकी पहलकदमियां आने वाले दिनों में राष्ट्रीय राजनीति का dominant discourse बनती जायेंगी। गोदी मीडिया लाख नुख्स निकालते हुए भी विपक्षी गठबंधन पर चर्चा के लिए मजबूर होगी।

नीतीश कुमार जैसे नेताओं का दावा तो 450 से ऊपर सीटों का है, जहाँ भाजपा को विपक्षी गठबंधन के एक संयुक्त उम्मीदवार से मुकाबला करना होगा, बहरहाल अगर यह 350-400 सीटों पर भी हो गया, तो मोदी की पुनर्वापसी असम्भव हो जाएगी।

बहरहाल यह arithmetic जरूरी होते हुए भी पर्याप्त नहीं है। विपक्ष के पासComplacency की कोई जगह नहीं है। आखिर कर्नाटक में भी सरकार गंवाने के बावजूद भाजपा का वोट प्रतिशत टिका ही रहा। ऊपर से मोदी मैजिक में लाख छीजन के बावजूद लोकसभा चुनावों में उनके चेहरे का शायद कुछ traction बचा ही रहेगा।

इसे काउंटर करने के लिए arithmetic के साथ साथ जनता के बीच जिस केमिस्ट्री की जरूरत है, उसके लिए विपक्ष को एकता के साथ ही राष्ट्रीय पुनर्निर्माण और जन कल्याण के अपने एजेंडा और कार्यक्रम द्वारा एक लोकप्रिय नैरेटिव गढ़ना होगा। इसे ताकतवर राष्ट्रीय अभियान द्वारा जनता की अनुभूति का हिस्सा बनाना होगा और चुनावों को जनान्दोलन में तब्दील करना होगा, यही किसी तिकड़म द्वारा जनादेश को पलटने और हर हाल में सत्ता में बने रहने की सम्भावित साजिश को नाकाम करेगा।

बताया जा रहा है कि इस बैठक में धर्मनिरपेक्ष लोकतन्त्र की रक्षा के लिए विपक्ष के सामूहिक संकल्प( Declaration of Intent ) की घोषणा की जाएगी। इसके साथ ही आने वाले दिनों में विपक्ष को देश के समक्ष मूलभूत प्रश्नों पर नीतिगत बदलाव का सुस्पष्ट रोड-मैप पेश करना होगा, तभी वह लगातार छली जा रही जनता के अंदर नई उम्मीद और विश्वास पैदा कर पायेगा।

क्या 23 जून को पटना में फासीवादी मोदी-राज के खिलाफ एक विश्वसनीय विकल्प की आधारशिला रखी जायेगी, देश उत्सुकता के साथ प्रतीक्षा कर रहा है।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
 

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