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गुंडागीरी और लोकतंत्रः समाज को कैसे गुंडे चाहिए

अगर अपराधी अपनी जाति का है तो वह साधु संत है और अगर दूसरी जाति और धर्म का है तो वह गुंडा है, माफिया है!!
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प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार: गूगल

उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की ओर से गुंडागीरी को मुद्दा बनाने की कोशिश देखकर जयशंकर प्रसाद की कहानी `गुंडा’  बरबस याद आ गई। कहानी में प्रसाद जी नन्हकू सिंह नाम के एक गुंडे का चरित्र चित्रण करते हैं। वे लिखते हैं, `` ईसा की अठारहवीं शताब्दी के अंतिम भाग में वही काशी नहीं रही, जिसमें उपनिषद के अजातशत्रु की परिषद में ब्रह्मविद्या सीखने के लिए विद्वान ब्रह्मचारी आते थे।.................समस्त न्याय और बुद्धिवाद को शस्त्र बल के सामने झुकते देखकर काशी के विछिन्न और निराश नागरिक जीवन ने एक नवीन संप्रदाय की सृष्टि की। वीरता जिसका धर्म था। अपनी बात पर मिटना, सिंह वृत्ति पर शस्त्र न उठाना, सताए निर्बलों की सहायता देना प्रत्येक क्षण प्राणों को हथेली पर लिए घूमना उसका बाना था। उन्हें लोग काशी में गुंडा कहते थे।.....नन्हकू सिंह गुंडा हो गया था। दोनों हाथों से संपत्ति लुटाई। .....पर कोठे पर नहीं जाता था।’’

प्रेम में धोखा खाया नन्हकू सिंह जमींदार परिवार का बेटा है और गुंडा बन गया है। वह जुआ खेलता है लेकिन उस संपत्ति को संग्रहित नहीं करता। बल्कि लुटा देता है। वह गंडासा लेकर घूमता है लेकिन उसी से भिड़ता है जो किसी से गुंडई कर रहा होता है। उसके भीतर एक बलिदानी भाव है और बाद में अंग्रेजों के हमले से बनारस की महारानी को बचाने के लिए अपने प्राण दे देता है।

सवाल उठता है क्या भारतीय लोकतंत्र आज सचमुच वैसी स्थिति में पहुंच गया है जहां राज्य ने संविधान के आधार पर निर्धारित अपनी निष्पक्ष भूमिका त्याग दी है, समाज के अलग अलग तबकों में पारस्परिक अविश्वास गहरा हो गया है और उन्होंने अपनी सुरक्षा के लिए गुंडे तैयार कर लिए हैं। वे अपने गुंडों को संरक्षण देने के लिए राजसत्ता पर कब्जा करके दूसरे तबके के गुडों का दमन करते हैं। यानी न्याय प्रक्रिया गुंडों को सजा दिलाने की बजाय गुंडागीरी की राजनीति के बीच फंस गई लगती है। गुंडों को कानून के तहत सजा देने और सुधारने की बजाय कानून के माध्यम से किसी को भी गुंडा घोषित किया जा रहा है। जाति और धर्म देखकर गुंडों को चिह्नित किया जा रहा है और `ठोक दो नीति’ से उनके साथ `न्याय’ किया जा रहा है।

प्रसाद की अठारहवीं सदी की कहानी के बरक्स इक्कीसवीं सदी में सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक न्याय और कानून के राज पर आधारित लोकतंत्र की यह नई परिभाषा रोचक और विडंबनापूर्ण है।

 एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफार्मस (एडीआर) ने नामांकन पत्रों के साथ दायर हलफनामे के आधार पर जो विश्लेषण किया है उसके अनुसार पहले चरण में समाजवादी पार्टी के 75 प्रतिशत उम्मीदवार ऐसे हैं जिन पर आपराधिक मुकदमे दर्ज हैं। दूसरे नंबर पर राष्ट्रीय लोकदल है जिसके 59 प्रतिशत उम्मीदवारों पर आपराधिक मुकदमे दर्ज हैं। उसके बाद भारतीय जनता पार्टी है जिसके 51 प्रतिशत उम्मीदवारों पर आपराधिक मुकदमे दर्ज हैं। इसी तरह दूसरे चरण में जिन उम्मीदवारों ने नामांकन भरा है उनमें समाजवादी पार्टी के 67 प्रतिशत उम्मीदवारों पर आपराधिक मुकदमे दर्ज हैं। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 43 प्रतिशत उम्मीदवारों पर आपराधिक मुकदमे दर्ज हैं तो बहुजन समाज पार्टी के 36 प्रतिशत और भारतीय जनता पार्टी के 34 प्रतिशत उम्मीदवारों पर आपराधिक मुकदमे हैं।

लेकिन क्या हम सिर्फ इन्हीं हलफनामों के आधार पर यह कह सकते हैं कि समाजवादी पार्टी गुंडों की पार्टी है और भारतीय जनता पार्टी शरीफ और सज्जन लोगों का दल है? संभव है भारतीय जनता पार्टी के इन पांच सालों के शासन में उसके कार्यकर्ताओं पर लगे मुकदमे हटा लिए गए हों या फिर उन पर बहुत कम मामले दर्ज हुए हों। जबकि समाजवादी पार्टी, कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी और रालोद के कार्यकर्ताओं को प्रताड़ित करने के लिए उन पर ज्यादा मामले दर्ज किए गए हों। आखिर समाजवादी पार्टी को `तमंचावादी’ कहने वाले बाबा योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बनने से पहले पूर्वांचल में क्या किया करते थे। हिंदू युवा वाहिनी का यह नारा कोई कैसे भूल सकता है कि `पूर्वांचल में रहना है तो योगी योगी कहना है’। उसी के साथ उनके मंच से मुस्लिम समुदाय से बदला लेने और ताजिया न उठने देने की अपीलें और हिंदू राष्ट्र बनाकर मुसलमानों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाने का आह्वान किया जाता रहा है। रिहाई मंच ने तकरीबन एक घंटे की जो फिल्म बनाई है उसमें ऐसे कई वीडियो को प्रदर्शित भी किया गया है।

आखिर वे कौन सी स्थितियां हैं जिनके नाते समाज में गुंडों का सम्मान बढ़ता है और राजनीति में अपराधियों की स्वीकार्यता बढ़ती है? वे कौन से कारक हैं जिनके कारण बिना गुंडा हुए आप चुनाव जीत नहीं सकते और इसीलिए ज्यादातर दल टिकट भी वैसे ही लोगों को देते हैं। वे कौन से हालात हैं जिनके कारण किसी समाज का नेतृत्व पढ़े लिखे बौद्धिक लोगों और समर्पित संघर्षशील लोगों के हाथों से खिसक कर गुंडों के हाथों में चला जाता है?

जिन स्थितियों में समाज में गुंडागीरी बढ़ती है उनमें कुछ प्रमुख कारक इस प्रकार हैं। अगर समाज में कोई व्यक्ति या समूह स्थापित नियमों और मान्यताओं को दरकिनार कर अपनी योग्यता और क्षमता से अधिक धन और सत्ता हासिल चाहता है तो वह हिंसा और अन्य अनुचित साधनों का सहारा लेता है। इस तरह से गुंडों और माफिया का समूह पैदा होता है। दूसरी स्थिति तब निर्मित होती है जब समाज और प्रशासन व्यक्तियों और समुदायों के जायज अधिकारों को प्रदान नहीं करता। ऐसे में वे लोग विद्रोही बनते हैं और आपराधिक रास्ता अपनाते हैं। तब प्रशासन उन्हें गुंडा कहता है।

यह अपने में एक रोचक तथ्य है कि बस्तर में 1910 के आदिवासी विद्रोह के नायक गुंडा धुर आज आजादी के सेनानी माने जाते हैं। वहां के आदिवासी कहते हैं कि बस्तर के जंगलों में गुंडा धुर आज भी घूम रहा है। उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के राजपूतों के एक गांव ने जब 1857 में महारानी तलाश कुंवर के साथ अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया तो अंग्रेजों ने उस गांव का नाम ही गुंडाकुंवर रख दिया। विडंबना देखिए कि आजादी के 75 साल बाद आज तक उस गांव का नाम बदला नहीं जा सका है।

लेकिन दो और स्थितियां हैं जिनके कारण गुंडई और अपराध बढ़ते हैं। वे हैं जातिगत शोषण और सांप्रदायिक वैमनस्यता। जातिगत विषमता और शोषण के कारण समाज में बार बार विद्रोह हुए हैं और कई जातियां तो उसी के कारण आपराधिक श्रेणी में डाल दी गई हैं। डकैतों के गिरोह और राबिन हुड की परिघटनाएं उसी रूप में देखी जाती हैं। कई व्यक्ति व्यक्तिगत सम्मान और समुदाय के सम्मान के लिए हथियार उठाते हैं और अपराध के मार्ग पर बढ़ जाते हैं।

सब आल्टर्न इतिहासकारों ने इसी के चलते बेड़िया जाति के सुल्ताना डाकू जैसों को विद्रोही माना है। फूलन देवी का चरित्र भी इसी श्रेणी में आता है। जातिगत अत्याचार के कारण कई बार जातियों के ऐसे संगठन बनते हैं जो कि अर्धसैनिक बलों की तरह से होते हैं। बिहार में तो ऐसी सेनाओं की बहुतायत रही है। इनकी लोकतांत्रिक समाज में कोई जगह नहीं होनी चाहिए। लेकिन जब समाज लोकतांत्रिक बन नहीं पाता तो वैसा होना स्वाभाविक है।

सांप्रदायिक वैमनस्यता की स्थितियां भी बाकायदा ऐसे संगठन तैयार करती हैं जो निरंतर नफरत फैलाने, समय पड़ने पर हिंसा करने, हमला करने और दंगा करने का काम करते हैं। भारत में विभाजन के समय से ही ऐसे संगठन पैदा होने लगे थे और दुर्भाग्य से खत्म होने की बजाय आजादी के 75 साल बाद वे बढ़ रहे हैं।

अगर जातिगत संगठनों की हिंसा एक समता मूलक न्यायप्रिय समाज न बन पाने के कारण होती है तो सांप्रदायिक संगठनों की हिंसा राष्ट्र निर्माण के अपूर्ण होने के कारण होती है। यहां पर उन लोगों से भी सवाल बनता है जो भारत को एक प्राचीन राष्ट्र बताते हैं। अगर भारत हजारों साल से एक राष्ट्र है तो इस तरह की हिंसा और तनाव क्यों?  कहा जा सकता है कि यह सब संक्रमण कालीन स्थितियां हैं। लेकिन यह एक हास्यास्पद दावा लगता है और प्रश्न यही उठता है कि आखिर में संक्रमण काल कब तक चलेगा?

पिछले दिनों अति वामपंथी पृष्ठभूमि से आए एक राजनीतिक कार्यकर्ता यह भविष्यवाणी कर रहे थे कि आने वाले समय में इस देश में गृह युद्ध अवश्यंभावी है। इसलिए अभी से अलग अलग जातियों को अपनी सेनाएं बनानी होंगी। विभिन्न विचारधाराओं के लोगों को अपना संगठन बनाने होंगे।  वे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की हिंसा से लड़ने के लिए सनातनियों की सेना की बात करते हैं। वास्तव में हमारा समाज विचित्र किस्म के पाखंड में जीने वाला है। वह पहले जाति छोड़कर मार्क्सवादी बनता है और फिर जातिगत संगठनों को सक्रिय करके चुनावी राजनीति का तानाबाना बुनता है और एक हिंसक गोलबंदी की बात करता है।

किसान आंदोलन के दौरान राकेश टिकैत को डकैत कहने वाले एक सज्जन पिछले कुछ दिनों से एक ऐसे व्यक्ति के प्रचार में प्राण प्रण से लगे हैं जो तमाम आपराधिक गतिविधियों में लिप्त है। यानी अगर अपराधी अपनी जाति का है तो वह साधु संत है और अगर दूसरी जाति और धर्म का है तो वह गुंडा है, माफिया है।

बाहुबली बनाम बजरंग बली के जुमले में रचा गया राजनीति के अपराधीकरण और अपराधियों के राजनीतिकरण का यह नया आख्यान है। दुनिया को अपनी आजादी की लड़ाई से नया सबक सिखाने वाले विश्व गुरु भारत का यह नया विवेक है जिस पर सभ्य समाज हैरान है।

वास्तव में मौजूदा चुनाव प्रक्रिया के दौरान गुंडागीरी को मुद्दा बनाने के पीछे अपनी गुंडई चलाने और उसे सही ठहराने की रणनीति है। यह बड़े समुद्री डाकू द्वारा अपने को ईमानदार और छोटे वाले को अपराधी बताने का अभियान है। विनोबा भावे और दादा धर्माधिकारी ने ठीक ही कहा था कि राजनीतिक दल गिरोह बनते जा रहे हैं। उनका सारा उद्देश्य चुनाव जीतना और सत्ता पर कब्जा करना है। वे तर्कपूर्ण और न्यायपूर्ण बातें नहीं करते। वे किसी आदर्श मूल्य व्यवस्था की स्थापना नहीं करना चाहते। अपने बेल के बराबर दोष भी नहीं देखते लेकिन दूसरों का राई समान दोष बढ़ा चढ़ाकर बताते हैं। उन्होंने संगठित धर्म और राजनीति के प्रति आगाह करते हुए कहा था इन्होंने लोकतंत्र को अपनी मुट्ठी में कैद कर रखा है। इसीलिए संगठित दलों और धार्मिक संस्थाओं की बजाय व्यक्ति की आजादी और आध्यात्मिक उन्नति पर जोर दिया जाना चाहिए। विनोबा ने कहा था कि आखिर में विज्ञान और अध्यात्म को ही बचना चाहिए।

सवाल उठता है कि जब भारत ने संवैधानिक लोकतंत्र का मार्ग चुना तो बीच में गुंडागीरी का काफिला कैसे इसमें प्रवेश कर गया? हमारी आजादी की लड़ाई का बड़ा हिस्सा अहिंसक रहा। जिन्होंने आजादी के लिए हिंसा का मार्ग चुना वे भी बहुत नैतिक थे और चाहते थे कि आजाद भारत में हिंसा की जगह नहीं होनी चाहिए और वहां समर्पण और तर्क बुद्धि के आधार पर देश और समाज का विकास किया जाएगा। आजादी के अहिंसक आंदोलन का नेतृत्व करने वाले महात्मा गांधी ने निरंतर साधन की पवित्रता पर जोर दिया था। इसलिए जब विदेशियों के शासन के विरुद्ध हम लंबी अहिंसक लड़ाई लड़ सकते हैं और विजय पा सकते हैं तो अपने मुल्क में सरकारें चुनने और बदलने के लिए गुंडागीरी की क्या जरूरत है।

वास्तव में स्थिति जितनी सरल और शांत दिखती है उतनी है नहीं। लोगों ने मतदान के माध्यम से सुरक्षा बलों के घेरे में सरकार और शासक चुनने का अभ्यास तो कर लिया है लेकिन उस जनमत निर्माण और चयन प्रक्रिया के पहले और बाद में हिंसा और दमन का एक घना वातावरण सृजित हो रहा है। कभी बहन मायावती ने भी नारा दिया था कि  `चढ़ गुंडों की छाती पर मुहर लगेगी हाथी पर’। तब उन्हें सत्ता भी मिली लेकिन बाद में उनकी पार्टी और सरकार तमाम तरह की आपराधिक प्रवृत्तियों की शिकार हो गई। आज गुंडागीरी को मुद्दा बनाने वाले तर्क, बहस, अनुसंधान और विवेक से ज्ञान का निर्धारण करने की बजाय मीडिया की सनसनीखेज खबरों और फिर गुंडागीरी के आधार पर विश्वविद्यालयों का परिवेश बना रहे हैं। जब गुंडागीरी ज्ञान के क्षेत्र में भी घुसने लगे तो समझ लीजिए कि प्रसाद की कहानी कितनी सार्थक हो रही है। 

विभिन्न धर्मों और जातियों के बीच बने तनावपूर्ण रिश्ते हमारे लोकतंत्र पर काली छाया की तरह मंडरा रहे हैं। लोग भले ही ईवीएम की बटन दबाकर सरकारें बदलते हों लेकिन उनके मानस में वही नेता आदर्श बन रहा है जो सत्ता में रहने पर सुरक्षा बलों से बुलेट चलवा सके और सत्ता से बाहर होने पर अपनी निजी सेनाओं से। यानी लोग दूसरों को करंट लगाने के अंदाज में बटन दबाते हैं। सामाजिक व्यवहार में निरंतर हिंसा की ओर बढ़ रहे इस भारत के दिमाग को बहुसंख्यकवाद का कीड़ा बेचैन कर उसे फासीवाद की ओर ले जा रहा है। दूसरी ओर वे लोग हैं जो किसी भी तरह से सत्ता पर काबिज होना चाहते हैं या अपनी समर्थक शक्तियों को बिठाना चाहते हैं वे ताकि देश के संसाधनों को अच्छी तरह लूट सकें।

यह सही है कि संवैधानिक लोकतंत्र में बल प्रयोग करने और दंड देने का अधिकार सरकारों के पास दिया गया है। सरकारें अपने उन अधिकारों का प्रयोग विधि सम्मत तरीके से निष्पक्ष रूप से करती हैं। इसी को न्याय कहा जाता है। लेकिन सरकारों की निष्पक्षता और न्यायप्रियता उसे चलाने वाले लोगों पर निर्भर करती है न कि किताबों में दिए गए मूल्यों और आदर्शों पर। आखिरकार सरकारें नागरिकों की गरिमा की बजाय शासकों की गरिमा का ज्यादा खयाल करने लगती हैं। हम उन सरकारों के बारे में क्या कहेंगे जो असहमत रहने वालों और राजनीतिक विरोध करने वालों पर प्रशासन को दमन की छूट देती हैं और जहां वैसा संभव नहीं होता वहां निजी सेनाओं से हिंसा और अत्याचार का काम करवाती हैं। क्योंकि वे उन्हीं की सगी होती हैं। यह वास्तविक गुंडागीरी है। इस स्थिति भयावह है। ऐसे में हमारे पास दो ही मार्ग हैं। या तो देश महात्मा गांधी की उस सत्याग्रही व्यवस्था और प्रक्रिया को स्वीकार करे जहां पर अच्छे नागरिकों और अहिंसक पुलिस के निर्माण की कल्पना की गई है। या फिर मुल्क में बढ़ती साजिशों और स्वार्थ की प्रवृत्तियों के चलते निजी सेनाओं की संख्या बढ़ने दें, समस्त न्याय और बुद्धिवाद को शस्त्र बल के आगे झुकते हुए देखें फिर अपने अपने समाज के लिए नन्हकू सिंह तैयार करें और आखिर में अराजकता और गृह युद्ध की ओर जाएं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)   

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