मोदी के नेतृत्व में संघीय अधिकारों पर बढ़ते हमले
गैर-भाजपा मुख्यमंत्रियों के प्रस्तावित सम्मेलन ने विषम केंद्र-राज्य संबंधों के तहत संघीय न्याय के मुद्दे को एक लंबे अंतराल के बाद फिर से राष्ट्रीय एजेंडे पर लाया है। 2 फरवरी 2022 को संसद में राहुल गांधी के तल्ख भाषण, जिसमें राज्यों के संघीय अधिकारों पर मोदी सरकार के नए हमलों पर ध्यान केंद्रित किया गया था, ने सम्मेलन का तेवर निर्धारित कर दिया। हालांकि ममता बनर्जी की क्षुद्र मानसिकता वाली संकीर्णता के चलते कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों को सम्मेलन से बाहर रखा गया।
भारतीय राज्य संरचना की अत्यधिक विषम एकात्मक संवैधानिक व्यवस्था की वजह से केंद्र-राज्य संघर्ष का एक चिरस्थायी मुद्दा बने रहना तय है। मोदी सरकार द्वारा महामारी प्रबंधन के दौरान अनुच्छेद 370 का निर्मम हनन, साथ में राज्यों के अधिकारों का घोर उल्लंघन-चाहे वह एकतरफा पूर्ण तालाबंदी की घोषणा हो या महामारी के शुरुआती चरणों में अत्यधिक विकृत वैक्सीन नीति का सवाल हो, दोनों ने मोदी के "सहकारी संघवाद" का सही अर्थ दिखा दिया है। इनके बाद संघीय व्यवस्था पर नए हमले हुए हैं।
संघीय अधिकारों के इन समकालीन मुद्दों के बारे में विचार करें तो गुणात्मक रूप से कुछ नया भी है। जबकि ‘राज्यों को अधिक शक्ति’ (more power to states) की मांग पहले राज्यों की ओर से उठाई जाती थी, जो आक्रामक भी थे, अब आक्रामक केंद्र के खिलाफ रक्षात्मक राज्य अपनी मौजूदा कम की गई शक्तियों को और अधिक क्षरण से बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
हाल ही में, भाजपा के नेतृत्व वाले केंद्र द्वारा नियुक्त राज्यपालों की भूमिका अत्यधिक विवादास्पद हो गई है। सच है, संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार, राज्यपाल राज्यों की तुलना में केंद्र के प्रतिनिधि होते हैं, जिन्हें यह सुनिश्चित करने के लिए नामित किया जाता है कि राज्य केंद्र के समग्र आधिपत्य के तहत संवैधानिक शासन के दायरे में रहें। यह भी सच है कि हमेशा से ही राज्यपाल के पद का इस्तेमाल केंद्र में रहे सभी किस्म के शासक दलों द्वारा राज्य के मामलों में हस्तक्षेप करने के लिए हुआ है। यही नहीं, राज्य सरकारों के अधिकार को कमजोर करने के लिए भी इनका इस्तेमाल किया गया, यहां तक कि अनुच्छेद 356 का प्रयोग करते हुए उन्हें गिराने की चरम सीमा तक किया गया। जहां सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग पर अंकुश लगाया है, वहीं संवैधानिक मानदंडों के उल्लंघन के अन्य निर्लज्ज रूप जारी हैं।
हाल के दिनों में सबसे बुरा उदाहरण तमिलनाडु के राज्यपाल के रूप में नियुक्त आरएसएस के व्यक्ति सीएन रवि का मामला है, जिन्होंने नीट पर विधेयक को राष्ट्रपति की सहमति के लिए प्रेषित किये बिना वापस कर दिया था। तमिलनाडु में स्टालिन सरकार ने इसे स्वीकार करने से इनकार कर दिया। उन्होंने राज्यपाल को फिर से विधेयक पारित करके इसे दोबारा राज्यपाल को प्रेषित कर उन्हें चुनौती दी है, क्योंकि वह संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राष्ट्रपति की सहमति के लिए विधेयक को प्रेषित करने के लिए बाध्य है।
अधिक नौकरशाही केंद्रीकरण, पीएमओ का ओवर-रीच
मोदी के नेतृत्व में, भारत में अवर सचिव स्तर के अधिकारी अपने मंत्रालय में सचिवों को रिपोर्ट न करके पीएमओ के अधिकारियों को रिपोर्ट करते हैं। कभी-कभी किसी मंत्रालय के प्रभारी मंत्री को इस बात की जानकारी नहीं होती है कि उनके अधीन अधिकारी पीएमओ के निर्देश पर काम कर रहे हैं। पीएमओ मोदी के नेतृत्व में " सूपर कैबिनेट" बन गया है। आईएएस नौकरशाही, जिसे भारतीय राज्य के 'लौह फ्रेम' के रूप में जाना जाता है, अपनी तमाम सम्स्याओं के बावजूद, भारतीय राज्य को सफलतापूर्वक एक कार्यात्मक राज्य बनाए रखने में कामयाब रहा है। लेकिन अब नौकरशाही के शासन को एक मंडली शासन द्वारा प्रतिस्थापित किया जा रहा है - प्रधान मंत्री और उनके पीएमओ के इर्द-गिर्द चुने हुए लोगों की एक छोटी सी मंडली।
आईएएस (संवर्ग) नियम 1954 के नियम 6 में संशोधन
नौकरशाही को नियंत्रित करने को लेकर संघीय राजनीति में एक विरोधाभासी विडंबना है। नौकरशाही का सार तो सत्ता का पदानुक्रम (hierarchy) है। भारतीय नौकरशाही अखिल भारतीय सेवाओं और केंद्रीय सेवाओं के बंटी होती है। अखिल भारतीय सेवाएं आईएएस, आईपीएस और आईएफएस हैं, जो मूल रूप से राज्य संवर्गों के बीच वितरित होती हैं। यदि वे इच्छुक हों तो उन्हें केंद्र में सेवा के लिए प्रतिनियुक्ति पर भेजा जाता है और राज्य सरकार सहमती देती है।
केंद्रीय सेवाएं भारतीय विदेश सेवा (IFS), भारतीय राजस्व सेवा (IRS), भारतीय लेखा परीक्षा और लेखा सेवा (IAAS) आदि जैसी हैं, जो केंद्र के अनन्य नियंत्रण में हैं।
शक्तियों और कार्यों के संदर्भ में, सामान्य रूप से केंद्रीय नौकरशाह राज्य स्तर के नौकरशाहों की तुलना में अधिक शक्तिशाली होते हैं, भले ही वे एक ही अखिल भारतीय सेवा का हिस्सा हों।
नौकरशाही में कोई भी अधिकारी सत्ता पदानुक्रम में आगे बढ़ने हेतु महत्वाकांक्षी होता है। लेकिन, मोदी जी के तहत, हम एक विरोधाभास देखते हैं। कई आईएएस अधिकारी केंद्र में जाने और सेवा करने से इनकार करते हैं क्योंकि वे केंद्रीय स्तर पर शक्ति संकेंद्रण के बावजूद वहां कार्यात्मक स्वतंत्रता के अभाव से त्रस्त हो चुके हैं।
इसलिए, केंद्र सरकार के स्तर पर सक्षम आईएएस अधिकारियों की कमी के नाम पर, मोदी सरकार ने अखिल भारतीय सेवा (कैडर) नियम 1954 में संशोधन करने का प्रस्ताव दिया है। यह इसलिए ताकि वह शक्ति हासिल कर ले कि किसी भी राज्य कैडर से अपनी पसंद के किसी भी नौकरशाह को बुला सकें। और, यह केंद्र में काम करने की उसकी अनिच्छा को नज़रंदाज़ करते हुए, यहां तक कि राज्य सरकार की सहमति के बगैर भी किया जा सकता है। एक झटके में, यह राज्य कैडर के सभी IAS-IPS-IFS अधिकारी केंद्र की मनमानी की मार झेलने के लिए मजबूर कर देंगे, जैसे केरल कैडर के किसी भी अधिकारी को राज्य में विपक्षी नेताओं के करीबी होने के चलते उसे किसी भी सुदूर इलाके में भेजा जा सकता है।
लेकिन केंद्र में आईएएस कैडर की कमी महज एक बहाना है। दरअसल, संघर्ष तब शुरू हुआ जब केंद्र ने पिछले साल पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिव अलपन बद्योपाध्याय को केंद्र में वापस बुलाना चाहा क्योंकि वह ममता बनर्जी के काफी करीब आ गए थे और उनके वफादार और नज़दीकी सलाहकार बन गए थे। ममता अड़ गईं और मुख्य सचिव भी केंद्र में प्रतिनियुक्ति पर नहीं गए। इसलिए, अखिल भारतीय सेवा (कैडर) नियमों में संशोधन करने के लिए इस साल जनवरी में यह नया कदम उठाया गया। इस प्रस्तावित बदलाव के खिलाफ कम से कम दस मुख्यमंत्रियों ने मोदी को पत्र लिखा है, जैसे कि वे सब साथ मिलकर काम कर रहे हों।
नौकरशाही नियुक्तियों में पीएमओ का वर्चस्व
यदि चेन्नई में अचानक आई बाढ़ की समस्या को हल करने के लिए एक समिति बनाई जाती है ताकि वह तमिलनाडु सरकार की मदद करे, तो पीएमओ से एक व्यक्ति को इसका प्रमुख क्यों नियुक्त किया जाना चाहिए? और, विडंबना यह है कि जब केंद्र में कैबिनेट सचिव को पीएमओ के इशारे पर काम करने वाला डमी बना दिया गया है , तो केंद्र ने तिरुप्पुगज़ के भाई इरैयानबु को मुख्य सचिव नियुक्त करने की चाल चली है, क्योंकि वह गुजरात कैडर से मोदी के सहयोगी थे। उन्हें तमिलनाडु के विपक्षी द्रमुक सरकार पर नजर रखने के लिए भेजा गया, हालांकि मुख्य सचिवों को मुख्यमंत्रियों की पसंद माना जाता है। केजरीवाल को दिल्ली के लिए मुख्य सचिव चुनने से वंचित कर दिया गया और केंद्र ने मिजोरम के मुख्य सचिव की नियुक्ति को भी प्रभावित किया गया है।
राजकोषीय संघवाद
2021-22 में केंद्र से राज्यों और विधायिकाओं वाले केंद्र शासित प्रदेशों को वित्तीय संसाधनों का कुल हस्तांतरण 8,58,570.59 करोड़ रुपये (संशोधित अनुमान) था। 2022-23 के केंद्रीय बजट में, कुल हस्तांतरण के लिए बजट अनुमान को घटाकर 7,95,131.03 रु करोड़ किया गया।
इसमें से कुल वित्त आयोग द्वारा निर्धारित अनुदान रु. 2022-23 (बजट अनुमान) में 2,11,065.00 था, जबकि 2021-22 में यह 2,20,843.00 करोड़ रुपये से अधिक था। 2020-21 के चरम महामारी वर्ष में भी यह 1,84,062.50 करोड़ रुपये था। मुश्किल से अब 27,000 करोड़ रुपये की वृद्धि हुई है, हालांकि मोदी सरकार यह दावा कर रही है कि अर्थव्यवस्था महामारी के प्रभाव से पुनर्जीवित हो गई है और 2012-22 में राजस्व संग्रह में 40% की वृद्धि हुई है, जो कि पूर्व-महामारी वर्ष 2019-20 से अधिक है। राजकोषीय संघवाद में राज्यों के खिलाफ सरासर पूर्वाग्रह के अलावा राज्यों को कुल हस्तांतरण में इस कमी की कोई व्याख्या नहीं कर सकता।
राज्यों में भी कुछ भेदभाव है। वित्तीय वर्ष 2021-22 (RE) और 2022-23 (BE) के लिए संघ करों और शुल्कों की शुद्ध आय का राज्य-वार वितरण दर्शाता है कि तमिलनाडु को शुद्ध हस्तांतरण 2021-22 (RE) में 30,355.63 करोड़ रुपये से मामूली रूप से बढ़कर 2022-23 में 33,311.14 करोड़ रुपये हो गया (BE)। पश्चिम बंगाल के लिए, पिछले वर्ष के 55,940.29 करोड़ रुपये से आने वाले वित्तीय वर्ष में 61,436.54 करोड़ रुपये हुई, केरल के लिए 14,332.12 करोड़ रुपये से मामूली वृद्धि 15,720.50 करोड़ रुपये थी; महाराष्ट्र के लिए 2022-23 में यह वृद्धि 2021-22 में 46,921.14 करोड़ रुपये (RE) से रु .51,587.75 करोड़ (BE) हुई। जबकि विपक्ष शासित राज्यों में वृद्धि काफी मामूली है, 2022-23 में भाजपा शासित मध्य प्रदेश के मामले में वृद्धि 2021-22 में 58,378.02 करोड़ रुपये (RE) से 64,106.99 करोड़ रुपये (BE) है और उत्तर प्रदेश के लिए वहाँ 2022-23 में 1,33,984.26 करोड़ रुपये 2021-22 से बढ़कर 1,46,498.76 करोड़ रुपये हो गया। यह भाजपा नेता एनके सिंह के तहत पंद्रहवें वित्त आयोग द्वारा विकसित फार्मूले के अनुसार था। इसके विपरीत, बड़े भारतीय कॉरपोरेट घरानों को कर छूट और अन्य राजस्व परित्याग उपायों के माध्यम से कर बोनस में औसत वृद्धि प्रत्येक वर्ष लगभग 4-5 लाख करोड़ रुपये होगी, जिसमें महामारी वर्ष भी शामिल है। मोदी के लिए राज्य सरकारें अम्बानी और अडानी की तुलना में ‘डोरमैट’ की तरह हैं!
केंद्र-राज्य संबंधों में अन्य विवादास्पद मुद्दे
देश ने हाल ही में रेलवे भर्ती बोर्ड के फैसलों में विसंगतियों पर छात्रों और युवाओं द्वारा प्रतिरोध देखा। इसी तरह का एक और मुद्दा है, जिसने तमिलनाडु में बहुत नाराज़गी पैदा की थी, जब अगस्त 2020 में तिरुचि में पोनमलाई (गोल्डन रॉक्स) में रेलवे कार्यशाला में भर्ती की गई थी। भर्ती किए गए 658 ग्रेड 3 लोगों में से केवल 12 तमिलनाडु के थे।
हालांकि केंद्र को केंद्रीय परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहण का भी अधिकार है, लेकिन केंद्र द्वारा बिजली प्रेषण लाइनों, राष्ट्रीय राजमार्गों और ईस्ट कोस्ट कॉरिडोर जैसी केंद्रीय परियोजनाओं के लिए राज्यों में भूमि का अंधाधुंध अधिग्रहण बड़े पैमाने पर भारी विरोध पैदारहा है।
केंद्र-राज्य संबंध केवल शासन का मामला नहीं है। जहां भाषाई राज्य हैं और राज्य मुख्य रूप से राष्ट्रीयताओं पर आधारित हैं, यह एक पहचान का प्रश्न बन जाता है और राष्ट्रीयता अधिकारों के प्रश्न के रूप में एक प्रमुख राजनीतिक मुद्दा बन जाता है। ऐसी पृष्ठभूमि में, सूचना और संचार मंत्रालय ने जब वह सुश्री स्मृति ईरानी के अधीन था, एक नियम पारित किया, कि आधिकारिक संचार और विज्ञापनों में सभी सरकारी योजनाओं के केवल हिंदी नामों का उपयोग किया जाना चाहिए। यदि तमिलनाडु या आंध्र प्रदेश में लक्षित लाभार्थी साक्षरता अभियान जैसे संस्कृतकृत हिंदी नामों से सिर-पैर नहीं समझ सकते, तो वे इनका लाभ कैसे उठा सकेंगे? संस्कृत के उपयोग पर मानव संसाधन विकास मंत्रालय जैसे केंद्रीय मंत्रालयों के निर्देशों और नए संस्कृत विश्वविद्यालय आदि के लिए अधिक धनराशि के आवंटन से तमिलों में काफी रोष है।
यद्यपि शिक्षा और स्वास्थ्य संविधान की समवर्ती सूची के अंतर्गत आते हैं, केंद्र ने नई शिक्षा नीति तैयार करते समय राज्यों से परामर्श नहीं किया। इसलिए, एनईईटी (NEET) के अलावा, एनईपी (NEP) की कुछ अन्य विशेषताओं का भी राज्यों ने विरोध किया है। डिजिटल युग में, केंद्र द्वारा नियंत्रित और उपयोग किए जाने वाले एग्रीस्टैक या हेल्थस्टैक जैसे बड़े पैमाने पर अखिल भारतीय डेटाबेस के लिए डेटा के संग्रह और संकलन का बोझ राज्यों पर पड़ा है और डेटा सेंटर पॉलिसी 2020 भी डेटा धन पर केंद्र के एकाधिकार का पक्षधर है।
गणतंत्र दिवस पर पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और केरल जैसे विपक्षी राज्यों द्वारा भेजी गई ब्रिटिश विरोधी लड़ाके वेलू नचियार या वीओ चिदंबरम पिल्लई, भारतीया या सुभाषचंद्र बोस जैसे गैर-विवादास्पद महान व्यक्तित्वों की मूर्तियों वाली झांकियां बिना कोई सफाई दिये वापस क्यों भेजी गईं? एकतावादी केंद्र का इस तरह का अतिवादी सत्तावाद अलगाववादी प्रवृत्तियों को ही मजबूत करता है और राष्ट्रीयताएं नेशन्स-इन-द-वेटिंग भी बन सकती हैं।
अपनी वैश्विक छवि को बदलने के लिए, मोदी ने शुद्ध शून्य कार्बन उत्सर्जन प्राप्त करने के महत्वाकांक्षी लक्ष्यों की घोषणा की है। इसके हिस्से के रूप में, नितिन गडकरी ने पेट्रोल और डीजल पर चलने वाले सभी ऑटोमोबाइल और इलेक्ट्रिक वाहनों के लिए कुल स्विचओवर करने के लिए लक्ष्य वर्ष 2030 तय किया है। यदि यह निर्णय दस वर्षों के भीतर लागू किया जाता है, तो तमिलनाडु में लाखों ऑटोमोबाइल कर्मचारी अपनी नौकरी खो देंगे और केंद्र ने उनके पुनर्वास के लिए कोई नीति घोषित नहीं की है। इसका असर तमिलनाडु में पहले से ही देखा जा रहा है, जहां पेट्रोल वाहनों का उत्पादन करने वाली फोर्ड कार इकाई को पहले ही बंद कर दिया गया और साथ ही फोर्ड मोटर्स ने गुजरात में इलेक्ट्रिक वाहनों की फैक्टरी शुरू करने की घोषणा की है।
मोदी-शाह शासन में, गुजरात ने इलेक्ट्रिक वाहनों में आठ अन्य प्रमुख निवेश हासिल किए हैं और भारत की उदार वाहन राजधानी के रूप में उभरेगा, जबकि वर्तमान ऑटोमोबाइल राजधानी तमिलनाडु, वर्तमान डेट्रॉइट की तरह एक औद्योगिक रेगिस्तान बन जाएगा। अंबानी और अडानी के गुजराती पूंजी शासित भारत में संघवाद का क्या अंजाम होगा, इसका अंदाजा कोई भी लगा सकता है।
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने एक अखिल भारतीय सामाजिक न्याय मोर्चा बनाने की पहल की है और सामाजिक न्याय के मुद्दे को भी संघीय न्याय के साथ-साथ उठाया जा रहा है। काउ-बेल्ट के ब्राह्मणवादी सामंती सवर्ण, स्वयं के बीमारू क्षेत्र को विकसित करने की जगह, अपेक्षाकृत विकसित पश्चिमी और दक्षिणी भारत पर संवेदनहीता के साथ अपने मनमानी वित्तीय निर्णयों को थोप रहे हैं -जैसे मनरेगा या पीएम आवास योजना में भारी कटौती। ये अधिकारों के मसलों (rights issues) को नया आयाम दे रही है।
मोदी को उम्मीद हो सकती है कि शरद पवार और ममता बनर्जी आदि द्वारा बनाए गए विपक्षी खेमे में विभाजन से भाजपा को मदद मिल सकती है। यदि कांग्रेस आला कमान संसद में राहुल के भाषण का फॉलो-अप करने में पर्याप्त बुद्धिमानी दिखाए और उसी भावना से अपने नए लोकतांत्रिक संघीय एजेंडे के साथ आएं, तो कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों के बीच अभिसरण संभव हो सकता है। और, वर्तमान विधानसभा चुनावों में भाजपा के नुकसान से 2024 के आम चुनाव की पूर्वबेला में विपक्षी एकता की संभावना को मजबूती मिल सकती है।
मजदूर वर्ग भी संघीय अधिकारों पर हमले के खिलाफ सड़कों पर उतर पड़ा है
असंगठित श्रमिक संघ ने केंद्रीय श्रम संहिता और केंद्रीय श्रम मंत्रालय द्वारा ई-श्रम पंजीकरण प्रक्रिया के खिलाफ 7 फरवरी से शुरू एक सप्ताह के दैनिक प्रदर्शन का आयोजन किया, जो उनके अनुसार तमिलनाडु में जारी अधिक उन्नत श्रम कल्याण कोष को खारिज कर देगा और असंगठित श्रमिकों को अपेक्षाकृत बेहतर लाभ से वंचित कर देगा । निर्माण श्रमिक, ड्राइवर, नाई और सफाई कर्मचारी संघवाद पर इस हमले का विरोध कर रहे हैं।
(लेखक श्रम मामलों के जानकार हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।)
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