उत्तर प्रदेश : इमरजेंसी के कुछ शहीदों को बहुत दिन बाद याद किया गया
संविधान और संसद की मदद लेकर संवैधानिक अधिकारों पर कुठाराघात करना; न्यायालय की मदद से तमाम मानव अधिकारों और बुनियादी अधिकारों यहाँ तक की जीवित रहने के अधिकार तक से समस्त जनता को वंचित कर देना; जेलों मे तमाम विपक्ष के शीर्षस्थ नेताओं को बिना मुक़द्दमा चलाये ठूंस देना; प्रसार के माध्यमों को सरकारी प्रचारक बना देना; जनता के अंदर भय व्याप्त करके उसे गूंगा बना देना। लगता है कि यह सब अभी हाल की ही घटनाएँ हैं। लेकिन यह सब कुछ जून 1975 के बाद हुआ था जब प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने देश पर इमरजेंसी लागू कर दी थी।
उस वक्त डॉ आंबेडकर की चेतावनी को बहुत कम लोगों ने याद किया था। उन्होंने संविधान के पारित होने के तुरंत बाद ही कहा था कि भारत मे जनवाद की बुनियादें बहुत कमजोर हैं। उसकी जड़ें ज़मीन की ऊपरी सतह तक ही पहुंची हैं। इसका कारण उनके अनुसार यह था कि जिस समाज मे भाईचारा और समानता के प्रति किसी प्रकार का लगाव ही नहीं है वहाँ प्रजातन्त्र के कमजोर प्यादे को बहुत मेहनत और निष्ठा के साथ पालना और पोसना पड़ेगा।
उनकी यह बातें कितने पते की थीं इसको 1975 में जिस तरह से याद करने की आवश्यकता थी, वह उस समय देखने को नहीं मिली। और उन्हीं के द्वारा निर्मित संविधान की आत्मा को रौंदते हुए, उसकी की कुछ धाराओं का इस्तेमाल करते हुए इमरजेंसी को समस्त नागरिकों पर लाद दिया गया।
इमरजेंसी के दौरान सरकार द्वारा ढाये गए तमाम अत्याचारों की कहानी अनदेखी और अनसुनी ही रहीं। बड़ी बड़ी घटनाओं को ही संज्ञान में लिया गया। किशोर कुमार के गानों पर आल इंडिया रेडियो की पाबंदी; बड़े नेताओं की गिरफ्तारी, तुर्कमान गेट पर असहाय भीड़ पर बुलडोजर और गोलियों द्वारा किया गया हमला तो छिपाना मुश्किल था लेकिन कस्बों और ग्रामीण इलाकों मे होने वाली तमाम बर्बर हमलों की सुध बड़े पैमाने पर लोगों को नहीं हो पायी; मारे जाने वालों के नाम भी अज्ञात रहे। जहां यह घटनाएँ घटी, वहाँ के लोगों के लिए भी इनके नाम और उन घटनाओं की याद धूमिल होने लगी।
आज जब इमरजेंसी की यादें ताज़ा हो गयी हैं, जब डॉ आंबेडकर की चेतावनी कानों मे गूंजने लगी है; जब संविधान के हर पन्ने पर हमला हो रहा है और प्रजातन्त्र को बचाने और मजबूत करने वाली संस्थाएं एक बार फिर चरमराने लगी है और प्रसार के माध्यम खामोश नहीं बल्कि सरकार की वाहवाही की चीखें लगाने लगे हैं तो एक बार पलटकर इमरजेंसी और उसके शहीदों को याद करना बहुत आवश्यक हो गया है।
सुल्तानपुर शहर से पहले निजामपुर का इलाका पड़ता है। यहाँ एक मैदान है जिसे शहीदी मैदान तो कहा जाता है लेकिन यहाँ कौन शहीद हुआ था इसका पता आस-पास रहने वाले 1975 के बाद पैदा होने वाले तमाम लोगों को शायद कुछ दिन पहले ही पता चला होगा।
सुल्तानपुर ज़िला की सीपीआई (एम) की इकाई ने कुछ हफ्ते पहले तय किया कि उस मैदान मे 27 अगस्त 1976 को शहीद हुए लोगों को याद करने, उनके घरवालों और उस हादसे के बाद जेल भेज दिये जाने वालों को सम्मानित करने के लिए उसी मैदान मे बड़ा आयोजन किया जाये। शहीदी मैदान मे उस दिन एकत्रित लोग आस-पास के तमाम गांवों से आए थे। उन गांवों के प्रधानों से संपर्क किया गया, उन गांवों मे पर्चे बांटे गए और आयोजन की तैयारियां इस तरह से की गयी कि इस इलाके मे उसकी अपनी तमाम भूली-बिसरी यादें ताज़ा हो जाएँ।
10 फरवरी के दिन वह ऊबड़-खाबड़ शहीदी मैदान उस वक्त खिल उठा जब मंच और मंच के सामने तमाम लोग– महिलाएं, बहुत सारे नौजवान और बुजुर्ग वहाँ एकठ्ठा हो गए। लाल झंडे भी लहरा-लहरकर शहीदों की कुर्बानी को सलाम कर रहे थे। मंच पर सपा विधायक अबरार अहमद सभा के शुरू होने से लेकर खात्मे तक मौजूद थे।
वह 26 अगस्त को भी इसी मैदान मे थे जब जबरदस्ती होने वाली नसबंदी के खिलाफ हजारों लोगों ने विशाल प्रदर्शन किया था। इसके बाद ही लाठी और गोली चली और अबरार भाई का हाथ भी टूट गया।
गोलियों से कितने लोग मारे उनका सही अनुमान नहीं लगाया गया है क्योंकि बहुत सारे लोग घायल हुए थे। इसका पता है कि 10 लोग मैदान मे ही खत्म हो गए। इनमे से शबबीर ग्राम अझई, हरीराम ग्राम बन्केपुर, मो आली ग्राम चका को श्रद्धांजलि देकर उनके परिवारजन को सम्मानित किया गया। जेल जाने वालों मे जव्वाद, शहजाद, अलताफ़, तौहीद, सत्तार, रवि वर्मा, खालील और इस्लामुद्दीन को मंच पर सम्मानित किया गया और जेल जाने वाली एक बहादुर महिला, शमसुनिसा के बेटे को माँ की बहादुरी के लिए भी सम्मानित किया गया।
मेरे लिए यह गर्व का विषय था कि मुझे इस कार्यक्रम का मुख्य अतिथि के रूप मे बुलाया गया। शहीदों और लाठी-गोली खाने वालों और जेल जाने वालों ने हमे जो प्रेरणा दी है आज की लड़ाई को लड़ने के लिए उसको सराहने का मौका मिला। उस संविधान के बारे मे बताने का मौका मिला जिसे तब भी नष्ट करने का प्रयास किया गया था और आज भी किया जा रहा है।
समानता के सिद्धान्त से तानाशाह कितना डरते हैं और उसे बचाए रखने की कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है, बात को सुनने वालों ने महसूस किया। आज की सरकार मे बैठे लोग खुलकर संविधान का विरोध करने और उसकी जगह मनुस्मृति को लागू करने वाले हैं इस बात से लोगों ने सहमति जतायी।
सभा के अंत में शहीदों को श्रद्धांजलि देते हुए इस बात की दुहाई दी गयी कि जब हमारे देश के लोग अपने अधिकारों को बचाने के लिए एक साथ अपना खून बहाने के लिए तैयार रहे हैं तो आज भी उन्हे एक दूसरे से अलग करने के षड्यंत्र को कभी सफल नहीं होने दिया जाएगा।
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