जातीय जनगणना के पीछे कौन से प्रभावी तर्क हैं?
बिहार में जातीय जनगणना का मुद्दा फिर से प्रकाश में है जिससे सामाजिक परतों, राजनीति और भारत सरकार के बीच फैले विवाद में नए पेंच पैदा हुए हैं. बिहार सरकार द्वारा जारी ये सर्वे राज्य की आबादी के जातीय और सामाजिक-आर्थिक आधार पर आंकड़ा जुटाने के लिए प्रतिबद्ध है. इस सर्वे का नीति निर्माण, प्रतिनिधित्व और जातिगत भेद की लड़ाई पर बड़ा असर होगा. हालांकि इस भेदभाव के विरोध का भी एक पक्ष है जिससे इसकी ज़रूरत के बारे में क़ानूनी चुनौतियां, परिणाम और ज़रूरत के प्रश्न पर बहसें तेज़ हुई हैं.
जातीय आंकड़ों का ऐतिहासिक प्रसंग और महत्व
भारत में जातीय जनगणना की शुरूआत 1931 में अंग्रेज़ों के शासनकाल में हुई थी. इस जातीय जनगणना का मक़सद जातीय पहचान के ज़रिए भारत के सामाजिक ताने-बाने को मज़बूत बनाना था, लेकिन तब से ही जातीय जनगणना का आंकडे के सामने अनेक चुनौतियां पेश आई हैं, जिससे निजता, भेदभाव और राजनीतिक मैनीपुलेशन को लेकर चिंताएं गहरी हुई हैं.
समय गुज़रने और भारतीय समाज के विकास के बावजूद जाति का प्रश्न सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक पृष्ठभूमि से गहरा जुड़ा हुआ है. जाति-व्यवस्था का परिणाम शिक्षा तक पहुंच, रोज़गार के अवसर और राजनीतिक प्रतिनिधित्व में देखा जा सकता है. इन असामानताओं के एवज कार्यवाही के स्वरूप में जाति आधारित आरक्षण की शुरूआत हुई है.
आरक्षण व्यवस्था को ऐतिहासिक नाइंसाफ़ी पर लगाम लगाने के लिए लाया गया था जिसका मक़सद ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर कर खड़े वंचित तबक़े को नए अवसर प्रदान कर उन्हें बेहतर बनाना था. फिर भी इस व्यवस्था के लिए उचित अप टू डेट डाटा का होना ज़रूरी माना जाता है. विश्वसनीय जातीय आंकड़ों के बिना सदियों से चले आ रहे आर्थिक-सामाजिक भेदभाव के लिए किसी लक्षित नीति का पालन कठिन बन जाता है.
इस प्रसंग मे जाति आधारित जनगणना सिर्फ़ एक सांख्यकिय काम भर नहीं है वरन इसमें सामाजिक-आर्थिक और नीति लागू करने के पक्ष भी शामिल हैं. अलग अलग समुदायों की चुनौतियों और ज़रूरतों के अनुसार नीति लागू करने के लिए एक ताज़ा और सटीक जातीय आंकड़ा बेहद ज़रूरी है. इससे सरकार को संसाधनों के सही इस्तेमाल, शैक्षिक प्रोग्राम और असमानता घटाने के लिए कार्यवाही को बल मिलता है.
आरक्षण व्यवस्था भी सिर्फ़ तभी समाजिक न्याय का मक़सद हासिल कर सकती है जब जातीय आंकड़ा सटीक हो. वंचित समुदायों में सुविधाओं और लाभ के समान और न्यायपूर्ण वितरण के ज़रिए ही ये व्यवस्था ऐतिहासिक पूर्वाग्रहों और पीढ़ियों से जारी असमानता के ख़िलाफ़ खड़ी हो सकती है.
जातीय जनगणना को पारदर्शिता और विचारपूर्ण ढ़ंग से लागू करने के बाद भारत सरकार के पास सटीक आंकड़ों को शक्तिशाली ढंग से सामाजिक बदलाव के लिए इस्तेमाल किया जा सकेगा. ये बदलाव सिर्फ़ आंकडों और श्रेणियों का नहीं है वरन इससे ऐतिहासिक भूलें सुधार कर सामाजिक स्थायित्व और बहुल समाज की नींव रखी जा सकती है जहां हर नागरिक किसी भी जातिय बैकग्रांउड से नाता रखने के बावजूद एक बहुल समाज में अपना योगदान देगा.
भारतीय लोकतंत्र में जाति एक मूलभूत पैमाना
जाति जन्म पर आधारित एक सामाजिक तमग़ा है जो भारतीय समाज के मूल में है. अगर हम पिछले रिकार्डस देखें तो सामाजिक संबंधों की शक्ल तय करने से लेकर पेशा और धार्मिक अभ्यासों तक सबकुछ जाति से तय किया जाता था. भारत के लोकतंत्र में बदलने बाद भी इसका सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में काफ़ी महत्व है, इससे नियम, प्रतिबंध और पैमाने तय किए जाते हैं.
भारतीय लोकतंत्र में जाति के अनेक अर्थ हैं
1.सामाजिक पहचान- भारतीय लोकतंत्र में जाति लोगों के सामाजिक रूतबे, संसाधनों तक पहुंच और अवसरों के लिए मानक है. समानता और समाजिक न्याय के लिए संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद ये विभाजन मौजूद है.
2. राजनीतिक प्रतिनिधित्व- जाति लोगों के राजनीतिक समीकरण को बिगाड़ती है. राजनीतिक दल अक्सर अपने वोट को सुरक्षित करने के लिए जातीय समूहों से जुड़े होते हैं जिससे कि समूचा मतदान व्यवहार प्रभावित होता है. जातियां चुनावी नतीजों और व्यवस्थापिका की बुनावट को आकार देती हैं.
3. आर्थिक असमानताएं- कुछ जातियां ऐतिहासिक तौर पर सारे आर्थिक वर्ग में शासन कर रही हैं. जिससे कि संपदा के असमान वितरण को बल मिलता है और सामाजिक आर्थिक विभाजन की खाई गहरी होती है.
4. शिक्षा के अवसर- जाति से शिक्षा तक पहुंच भी प्रभावित होती है. वंचित तबक़ों के लिए हमेशा शिक्षा के अवसर कम होते हैं. जिससे कि असमान शैक्षिक योग्यता के कारण सामाजिक विभाजनकारी ढांचा मज़बूत होता है.
सामाजिक और राजनीतिक ज़मीन पर अर्थ
भारतीय समाज की बुनावट में जाति का गहरा प्रभाव है. इसे इस तरह समझा जा सकता है-
1.सामाजिक असमानता- जाति आधारित भेदभाव और छूआछूत से वंचित तबक़ों पर बुरा असर पड़ता है और उन्हें सम्मान, अधिकार और अवसरों से बेदख़ल रह जाते हैं. इससे सामाजिक बहिष्कार को बल मिलता है और सामाजिक नुक़सान का एक ख़तरनाक चक्र तैयार होता है.
2. समाजिक स्थिरता की कमी- इससे सामाजिक सक्रियता का अच्छा ख़ासा नुक़सान होता है और वंचित समुदायों के लोगों को शिक्षा, रोज़गार और अन्य अवसरों के लिए परेशानी पैदा होती है जिससे उनकी सामाजिक- आर्थिक दशा नहीं सुधर पाती है.
3. राजनीति के प्रभाव- जाति आधारित बंटवारे से पहचान की राजनीति के बल मिलता है. जिससे एक तरफ़ कुछ समुदाय मज़बूत बनते हैं वहीं दूसरी तरफ़ समान राष्ट्रीय लक्ष्य को नुक़सान पहुंचता है. इससे निजात पाने के लिए प्रभावी जातियों के मौजूदा विशेषाधिकारों का संज्ञान बेहद ज़रूरी है.
4. नीति लागू करना- सटीक डाटा के अभाव में सामाजिक आर्थिक असामानता को मिटाने के लिए लक्षित नीतियों का प्रभावी इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है.
राष्ट्र निर्माताओं के इरादे और आज़ादी के बाद के संघर्ष
भारत के संविधान निर्माताओं ने एक आधुनिक और समतावादी देश के निर्माण के लिए जाति व्यवस्था के समाजिक समरसता पर पड़ने वाले प्रभावो को आंक लिया था. जाति आधारित भेदभाव और असमानता को हटाने के मक़सद से ही उन्होंने सामाजिक न्याय, आरक्षण और नागरिकों के सामान अधिकारों के इर्द-गिर्द प्रावधान किए. लेकिन जातीय भेदभाव का उन्मूलन चुनौती से भरा काम था. भारत के सामने एक जातिविहीन समाज का आदर्श होने के बावजूद जातिव्यवस्था के लिए कड़े क़ानूनी सुधारों की ज़रूरत थी. बाद में राजनीतिक नेताओं ने भी पहचाना कि जाति की अवहेलना नहीं की जा सकती है जिससे कि वंचित तबक़ों का उदय हुआ.
इस समय भारत के आगे बढ़ने के बावजूद जाति व्यवस्था बिल्कुल वैसी ही है. गहरी रोपी जातीय पहचानों के साथ एक आधुनिक और सरस समाज का निर्माण आज भी एक चुनौती है. जाति आधारित असामानता को पहलू को सुलझाना भारत जैसे लोकतांत्रिक देश के लिए बेहद ज़रूरी है जहां हर नागरिक का अवसर, सम्मान और अधिकारों का बराबर हिस्सेदार है.
हालिया तस्वीर- बिहार में जातीय जनगणना
बिहार सरकार की जाति आधारित जनगणना अलग अलग जाति समूहों के सामाजिक-आर्थिक हालात का आंकड़ा है जिससमें ऐतिहासिक तौर पर वंचित और पिछड़े समुदायों को ख़ास ध्यान में रखा गया है. इसके सर्वे में अनेक उद्देश्य निहित हैं.
1. सटीक प्रतिनिधित्व- इस सर्वे का मक़सद राज्य में अलग अलग जातीय समूहों का सटीक और ताज़ा विवरण पेश करना है. इससे लक्षित नीति निर्माण और असमानताओं से मुक़ाबला करके समग्र विकास को बढ़ावा देने को बल मिलेगा.
2. नीति निर्माण- उचित नीति के निर्माण के लिए सटीक डाटा बेहद ज़रूरी है. इस सर्वे से नीतिनिर्माताओं को हाशिए पर बसर कर रहे वर्ग के लिए नीति बनाना कहीं आसान होगा और इससे यह भी तय होगा कि जिन्हें संसाधनों की सबसे ज़रूरत है वो उन तक पहुंच पा रहा है.
3. संसाधनों की बराबर खपत– इस ज़रिए हम उन वर्गों और समुदायों को पहचान सकते हैं जिनपर ख़ास ध्यान देने की ज़रूरत है. इस सर्वे से संसाधनों, अवसरों और मौक़ों के बराबर बंटवारे में काफ़ी योगदान मिल सकता है.
4. सामाजिक न्याय- ये सर्वे ऐतिहासिक रूप से पिछड़े समुदायों की स्थिति पर रौश्नी डालकर जाति आधारित असमानता की परतें खोलता है जिससे उन्हें बराबरी का दर्जा मिल सके.
5. पारदर्शिता और जवाबदेही- ये सर्वे जातीय ज़मीनी असमानताओं को घेरे में रखकर सरकारी पारदर्शिता और उत्तरादायित्व की क़लई खोलता है. इससे सरकार को वंचित तबक़ों के लिए क़दम उठाने और निर्णय लेने में भी मदद मिलती है.
अनेक समुदायों और कार्यकर्ताओं ने कहा है कि ये सर्वे इस तरह से तैयार किया गया है जिससे सभी व्यक्तियों के अधिकार और पहचान का सम्मान किया जा सके और साथ ही प्रभावशाली नीतिनिर्माण लिए समाजिक-आर्थिक आंकड़ो को सटीक ढंग से जमा किया जा सके.
पटना हाईकोर्ट के मद्देनज़र
पटना हाईकोर्ट एक हालिया फ़ैसले में बिहार सरकार को जाति आधारित सर्वे रोकने के लिए निर्देश जारी किया है. कोर्ट ने ये फ़ैसला अनेक समूहों और कार्यकर्ताओं की याचिका पर जारी किया है. इसमें डाटा सुरक्षा,सर्वे के लिए फंड्स जमा करने से जुड़े मुद्दे उठाए गए थे. याचिकाकर्ताओं का कहना था कि सर्वे का एप्रोच वंचित तबक़ों, ट्रांसजेंडर लोगों और अत्यधिक पिछड़ा वर्ग की समस्याओं को ठीक ढंग से संबोधित नहीं करता है.
रेशमा प्रसाद एक ट्रांसजेंडर कार्यकर्ता हैं जिन्होंने ट्रांसजेंडर समुदाय को जनगणना में एक अलग जाति की तरह रखे जाने पर आपत्ति जताई है. उन्होंने कहा है कि इसने उनकी पहचान को ग़लत तरीक़े से पेश किया है और एक पहले से ही हाशिए पर बसर कर रही आबादी को और कमज़ोर बनाया है. लोहार समुदाय के कुछ समूहों ने औऱ अत्यधिक पिछड़ा वर्ग ने भी इस सर्वे की प्रक्रिया औऱ नतीजे पर गहरी फ़िक्र ज़ाहिर की है.
कोर्ट द्वारा सर्वे को फ़ौरन रोकने के आदेश से इस मामले की पेचीदगी का पता चलता है. कोर्ट के फ़ैसले ने बिहार सरकार को अनेक समुदायों और एक्टिविस्ट्स की चिंताओं की तरफ़ ध्यान खींचा है जिससे सर्वे और आंकड़ा जमा करने के एप्रोच में सुधार मुमकिन हो.
जातिआधारित जनगणना के फ़ायदे
असमानता के लिए काम और प्रभावी पॉलिसी बनाना
जातीय डाटा भारतीय समाज में गहरी पैठी असमानता के संज्ञान के लिए ज़रूरी है. जाति व्यवस्था ने ऐतिहासिक तौर पर अवसर और संसाधनों से वंचित समुदायों के लिए ज़रूरी है. एक जाति आधारित जनगणना अनेक जातीय समूहों के सामाजिक आर्थिक हालात की सही अक्कासी करेगा जिससे नीतिनिर्माताओं के लिए उपयोगी नीति बनाना मुमकिन होगा.
शिक्षा, रोज़गार, स्वास्थ्य, राजनीतिक प्रतिनिधित्व और जीवन के हर हिस्से में जाति आधारित असमानता का गहरा प्रभाव होता है. सटीक आंकड़ों के बिना इन असमानताओं को सुलझाने के प्रयासों का प्रभाव कम होता है. जबकि एक जाति आधारित गणना से एक सभ्य और समतावादी समाज के लिए रास्ता प्रशस्त होता है.
समृद्धि, शिक्षा और प्रतिनिधित्व में गहरी नज़र
एक जातिआधारित जनगणना से समृद्धि के बंटवारे, शैक्षणिक प्रगति और अलग अलग जाति समूहों के प्रतिनिधित्व पर गहरी नज़र पड़ती है. इस आंकड़े से ऊंची जातियों और हमेशा से वंचित समुदायों के बीच आर्थिक असमानता का पता चलता है. भारतीय समाज को समझने और इस बढ़ती आर्थिक खाई को पटने के लिए ये सूचना बेहद ज़रूरी है.
इसके अलावा इस गणना से जातियों के बीच शैक्षणिक असमानता का भी पता चलता है. इससे पता चलता है कि कौन से समुदायों को गुणवत्ता वाली शिक्षा मुहैय्या है. ये डाटा लक्षित शैक्षणिक सुधारों की ज़रूरत पर बल देता है जिससे जाति की दीवारों से परे हर बच्चे तक शिक्षा की पहुंच आसान बनाई जा सके.
जातीय जनगणना के बाद राजनीतिक संस्थानों में प्रतिनिधित्व की तस्वीर भी साफ़ होगी. इससे पता चलेगा की शक्ति और निर्णय लेने वाले पदों पर किन जाति समूहों को ठीक प्रतिनिधित्व नहीं मिला है. इस सूचना से ऐतिहासिक रूप से पिछड़े समूहों की राजनीतिक भागीदारी बढ़ेगी जिससे एक प्रतिनिधित्व वाले लोकतंत्र की जड़ें मज़बूत होंगी.
इससे ये तय होता है कि जाति आधारित जनगणना भारतीय समाज की बहुल असमानताओं को पहचानने और समझने के लिए एक ज़रूरी टूल साबित होगा. इससे असमानताओं को मिटाने के लिए नीति के निर्माण से लेकर समूचे विकास और देश की तरक़्क़ी को योगदान मिलेगा.
जातिआधारित जनगणना का विपक्ष-
प्रविलेज की सटीक व्याख्या का ख़ौफ़ और आरक्षण मिटाने के प्रय़ास
ऊंची जाति के हिंदुत्व समूह इस जातीय जनगणना का विरोध कर रहे हैं क्योंकि इससे उनके सामाजिक और आर्थिक प्रिविलेज का बहीखता सामने आ सकता है जिसका वो सदियों से उपभोग कर रहे हैं. इस तरह की जनगणना से समृद्दि, शिक्षा और शक्ति के केंद्रीकरण का पक्ष उजागर होगा जो कि समान अवसर के दावे के ख़िलाफ़ है. इससे मेरिट आधारित सफलता के बारे में मौजूदा ख़्यालों के लिए ख़तरा पैदा होता है जिससे उनके पद और प्रभाव पर सवाल खड़े हो सकते हैं.
राजनीतिक गठजोड़ और एजेंडा पर प्रभाव
उच्च जाति के हिंदुत्ववादी समूह जातीय जनगणना का राजनीतिक दलों के गठजोड़ पर पड़ने वाले प्रभावों को भी आंकते हैं. ये समूह अक्सर हिंदू एकता के नाम पर कम प्रभावशाली OBC समूहों से सहयोग हासिल करते हैं ऐसे में जनगणना से उनके वोट बैंक और गठबंधन पर असर पड़ सकता है.
इस जनगणना से ऐतिहासिक रूप से वंचित तबक़ों को अपनी आवाज़ मिल जाएगी जिससे उच्च जाति के हिंदुत्व समूह डरते हैं.
OBC जनगणना का महत्व
असमानता को कम करने और ऐतिहासिक न्याय की ज़रूरत
एक जाति आधारित सर्वे भारतीय समाज में ऐतिहासिक अन्याय को सुधारने का एक अवसर है. ख़ास तौर से OBC समुदाय पीढ़ियों से सामाजिक आर्थिक भेदभाव का शिकार रहा है. अभी तक ये तबका सामाजिक स्तर पर व्यवस्थित नुक़सान और अवसरों की कमी से जूझता रहा है लेकिन इस जनगणना से अलग अलग क्षेत्रों में उनके हालात और चुनौतियों का पता चल पाएगा जिससे कि नीतिनिर्माताओं को बेहतर नीतियां बनाने और इन चुनौतियों का सामना करने में मदद मिलेगी.
राज्य सरकारों के प्रयास
बिहार और मध्य प्रदेश सरकार सहित अनेक सरकारों ने OBC समुदाय और उनकी सामाजिक आर्थिक दशा के बारे में डाटा इकट्ठा करने की अहमियत को पहचाना है. इन सरकारों का मानना है कि सटीक डाटा के बिना वंचित तबक़ों की विशेष ज़रूरतों को पहचानकर प्रभावशाली नीतियां नहीं बनाई जा सकती हैं. जातीय जनगणना से सामाजिक न्याय और समान विकास के लिए राज्य सरकारों की प्रतिबद्धता तय होगी.
सरकार का रवैय्या और इरादा -
जातीय जनगणना में बदलाव-
जातीय जनगणना पर भारत सरकार के बदलते रूख़ से इस मामले में राजनीतिक, सामाजिक तत्वों के दख़ल का संज्ञान होता है. सामाजिक आर्थिक डाटा को अपडेट करने की ज़रूरत के बावजूद सरकार द्वारा इसे लेकर उदासीनता से इसकी ज़रूरत, मक़सद और प्राथमिकता पर सवाल खड़ा होता है.
पहले सरकार ने असमानताओं का संज्ञान लेने और प्रभावी नीति बनाने के लिए जातीय जनगणना की ज़रूरत पर बल दिया लेकिन फिर वक़्त के साथ सरकार का रवैय्या बदल गया. सरकार ने अनावश्यक देरी और ठोस कारवाई में कमी का परिचय दिया. इससे उच्च जातियों के प्रिविलेज का ख़ुलासा होने और राजनीतिक गठबंधनों पर प्रभाव पड़ने के अलावा सरकार के एजेंडा के बारे में भी पता चलता है.
जातिगत मुद्दो पर सरकार का ढीला रवैय्या
पिछले कुछ सालों में सरकार ने क़ानूनी प्रक्रिया तय करने में तेज़ी दिखाई है. आर्थिक सुधार, राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रश्न से लेकर नागरिकता क़ानून तक सरकार ने अनेक मोर्चों पर प्रक्रिया में तेज़ी का परिचय दिया है लेकिन जातीय जनगणना के मामले में सरकार का रवैय्या ढीला है.
सरकार ने इसे टालने का प्रयास किया है जिससे प्रतिबद्धता पर सवाल खड़ा होना लाज़मी है.
निष्क्रियता के राजनीतिक कारण-
अनेक समुदायों पर ऐतिहासिक रूप से जारी भेदभाव के ख़ुलासे से आरक्षण और नीति निर्माण पर भी प्रभाव पड़ सकता है. इससे उच्च जातियों के हिंदू एकता के सियासी सिद्दांत और राजनीतिक गठबंधन प्रभावित हो सकते हैं. किसी तबक़े में आरक्षण को लेकर नई मांगे भी खड़ी हो सकती हैं और सियासी हथकड़ों का ख़ुलासा हो सकता है.
कुल मिलाकर जातीय जनगणना को लेकर सरकार की निष्क्रियता ने राजनीतिक, जाति व्यवस्था से जुड़ी सामाजिक-आर्थिक असमानता और ऐतिहासिक अन्याय को लेकर नज़रिए की तस्वीर साफ़ की है.
निष्कर्ष –
अनेक विवादों और क़ानूनी चुनौतियों के बाद भी ये पहल सामाजिक न्याय, विकास और समग्र समाज के लिए बड़े बदलावों का ज़रिया बन सकती है. जातीय जनगणना का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य राजनीतिक चालों और निजता के बारे में उपनिवेशवादी जाति आधारित जटिलताओं की तस्वीर खींचता है. कुल मिलाकर जातीय आंकड़े भारतीय समाज में एक बेहतर भविष्य के लिए अथाह महत्व रखते हैं.
पारदर्शिता, संवेदनशीलता और इंसाफ़ के लिए प्रतिबद्धता के साथ इसे एक टूल की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है जिससे जातीय बैकग्राउंड से विलग सदियों के भेदभाव को सुधार कर सभी नागरिकों के लिए समान अवसर और सम्मान तय किया जा सके.
साभार : सबरंग
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।