जिसे सरकार ‘विकास’ कहती है वह घातक विनाश है : वैज्ञानिक एसपी सती
चमोली जिले, उत्तराखंड में शनिवार, 14 जनवरी, 2023 को असुरक्षित चिह्नित किए गए होटल मलारी-इन को गिराने की तैयारी में लगी एनडीआरएफ और एसडीआरएफ की टीमें। चित्र सौजन्य: पीटीआई
वीर चंद्र सिंह गढ़वाली उत्तराखंड यूनिवर्सिटी ऑफ हॉर्टिकल्चर एंड फॉरेस्ट्री के कॉलेज ऑफ फॉरेस्ट्री में अग्रणी भूवैज्ञानिक डॉ. एसपी सती बुनियादी और सामाजिक विज्ञान विभाग के प्रमुख हैं। न्यूज़क्लिक के साथ एक साक्षात्कार में, उनका कहना है कि उत्तराखंड की सरकारों ने जोशीमठ और पूरे ऊपरी हिमालयी क्षेत्र में भारी निर्माण के कारण होने वाले पर्यावरणीय नुकसान के बारे में वैज्ञानिक चेतावनियों को नज़रअंदाज़ किया। यही वह उपेक्षा है, जिसमें नेशनल थर्मल पावर कॉरपोरेशन (NTPC) की भी भूमिका शामिल है, जिसकी भारी कीमत आज यहां के लोग चुका रहे हैं। पेश हैं साक्षात्कार के संपादित अंश।
रश्मि सहगल : जोशीमठ शहर को दरकने/डूबने क्यों दिया जा रहा है?
एस पी सती: जोशीमठ गंभीर भूकंप वाले इलाके में आता है। 2006 में तपोवन विष्णुगढ़ जलविद्युत संयंत्र के लिए बनाई गई सुरंग से इसके धंसने की समस्या और बढ़ गई है। इसकी आबादी, जिनमें से कई को अपने असुरक्षित घरों को खाली करने पर मजबूर किया गया है, ने शहरों को तबाह करने का दोष राष्ट्रीय ताप विद्युत निगम (NTPC) पर मढ़ा है जिससे उनके घर और आजीविका का स्रोत दोनों खतरे में पड़ गए हैं।
रश्मि सहगल: जोशीमठ के नज़दीक, तपोवन विष्णुगढ़ जलविद्युत परियोजना के लिए एनटीपीसी की भूमिगत सुरंग का निर्माण किस हद तक वर्तमान स्थिति के लिए जिम्मेदार है? क्या संभावित संदर्भ की कोई जांच की गई है?
एसपी सती: 24 दिसंबर, 2009 को एक टनल बोरिंग मशीन (टीबीएम) ने फॉल्ट जोन में स्थित लगभग 900 मीटर की गहराई पर एक जलभृत को पंचर कर दिया था। यह जोशीमठ से 5 किलोमीटर पहले सेलंग गांव के पास हुआ था। इसके परिणामस्वरूप लगभग 700 लीटर प्रति सेकंड की दर से उच्च दबाव वाली उप-सतही पानी की बड़े पैमाने पर निकासी हुई - जो प्रति दिन 20-30 लाख लोगों के लिए पर्याप्त पानी था। टीबीएम चट्टानों में फंस गया, और इस परियोजना पर काम कर रहे एनटीपीसी के इंजीनियरों ने इसे निकालने का कोई प्रयास नहीं किया।
फिर फरवरी और अक्टूबर 2012 में इसी पैमाने की दो समान ट्रैपिंग घटनाएं हुईं [जिसमें दो अन्य टीबीएम मशीने फंस गईं थी]। टीबीएम के सामने वाला हिसा और टेलीस्कोपिक ढाल सुरंग के भीतर एक कील/पच्चर के विफल होने से जाम हो गए थे। इन दुर्घटनाओं के कारण उच्च दबाव वाली उप-सतह के पानी की भारी मात्रा में वृद्धि हुई, जिसमें चूरा हुई सामग्री सतह पर आ गई। जहां तक मुझे पता है, बाद में जाम होने वाली दोनों घटनाओं की रिपोर्ट नहीं की गई है।
पहली दुर्घटना के बाद से जोशीमठ के निवासियों ने शिकायत की थी कि उनके क्षेत्र में भूजल के झरने सूख रहे हैं और उनके घरों में दरारें आ गई हैं। इसकी सूचना स्थानीय अधिकारियों को दी गई। हमारे सामने अहम सवाल यह है कि जलभृत से पानी के बहाव को रोकने के लिए एनटीपीसी ने क्या कदम उठाए? जैसे-जैसे पानी का बहाव बढ़ा, वैसे-वैसे पानी का रिसाव भी हुआ। चट्टानों में गुहा/खाई बस बड़ी और गहरी हो गई।
रश्मि सहगल: ऐसी स्थिति में वैज्ञानिकों ने एनटीपीसी को क्या कदम उठाने की सिफारिश की होगी?
एसपी सती: पहले कदम के रूप में, उन्हें व्यापक ग्राउटिंग करनी चाहिए थी और सुरंग के खंडीय अस्तर को अधिक मजबूत अस्तर प्रदान करना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं किया गया था। क्या आप एनटीपीसी से इस किस्म की उपेक्षा की भयावहता की कल्पना कर सकते हैं? एनटीपीसी के इंजीनियर सुरंग में फंसी मशीनों को छोड़कर भाग गए। यह जानकारी मेरी रिपोर्ट पर आधारित नहीं है। विदेशों के वैज्ञानिकों के एक समूह ने इसकी जाँच की थी, जिसके परिणाम वैज्ञानिक रपट के जरिए पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई। मैं वही दोहरा रहा हूं जो उन्होंने उस वक़्त पाया था।
इससे भी बदतर बात यह है कि, सुरंग को गलत इलाके में खोदा गया था। एक दोष यह है जहाँ चट्टान टूट गई है और उखड़ने लगती है। क्या टनल का काम शुरू करने से पहले इस पूरे इलाके का फिजिकल सर्वे किया गया था? एनटीपीसी को ऐसी स्थिति का अनुमान लगाना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं किया गया। मेरी समझ यह है कि ऐसा कोई सर्वे नहीं किया गया था, और जो उनकी ओर से एक सरासर लापरवाही थी।
फॉल्ट लाइन पर काम शुरू करने से पहले एनटीपीसी संस्थान ने सुरक्षा के क्या उपाय किए थे? जिम्मेदारी तय की गई है? क्या इन अधिकारियों को यह समझ में नहीं आया कि जब जलभृत को रोकने का कोई प्रयास नहीं किया गया, तो इसका परिणाम जल रिसाव में वृद्धि होगी, जो किसी भी दिशा में जा सकता है? इस सब के परिणामस्वरूप हाइड्रोलिक गुणों में बड़े बदलाव हुए हैं, विशेष रूप से कई मीटर के भीतर और शायद सुरंग की दीवारों के दसियों मीटर के भीतर रॉक मास की पारगम्यता में वृद्धि हुई है। इसलिए, जैसा कि एनटीपीसी के प्रवक्ता ने कहा है कि सुरंग जोशीमठ से कुछ दूरी पर है, इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। क्योंकि पानी किसी भी दिशा में रिस सकता है। यह पता लगाने के लिए परीक्षण किए जाने की जरूरत है कि यह पानी कितना रिसता है और किन इलाकों में रिसता है, खासकर जब से इस सुरंग से पानी की निकासी आज तक नहीं रुकी है।
रश्मि सहगल: क्या जोशीमठ में अन्य चिंताएं भी हैं जो समस्या को बढ़ा रही हैं?
एसपी सती: मुझे इस बात पर प्रकाश डालना चाहिए कि तपोवन विष्णुगढ़ परियोजना की निर्माणाधीन सुरंग में प्रवेश करने वाली ऋषिगंगा और धौलीगंगा नदियों में 7 फरवरी, 2021 की बाढ़ से भी शहर में कीचड़ भरा पानी बह रहा है। इस रस्साकशी ने भी जोशीमठ में हालात खराब कर दिए हैं।
वहीं, इससे चार धाम सड़क विस्तार परियोजना के अंतर्गत आने वाले हेलंग-मारवाड़ी बाइपास मार्ग की भी हालत खराब हो गई है। भूविज्ञानी नवीन जुयाल ने उत्तराखंड सरकार से सड़क पर काम शुरू करने से पहले भू-तकनीकी व्यवहार्यता अध्ययन करने के लिए कहा था, लेकिन उन्होंने उनके इस सुझाव को अनदेखा कर दिया था। इस बाइपास सड़क को बनाने में विस्फोटकों का इस्तेमाल किया जा रहा है, जिसने पहाड़ी ढलानों को और कमजोर करने का काम किया है।
रश्मि सहगल: हमें अक्सर बताया जाता है कि यह अत्यधिक भूकंप वाला इलाके में हो रहा है-इस भारी निर्माण से जोखिम की सटीक प्रकृति क्या है?
एसपी सती: यह सबसे अधिक जोखिम वाले इलाके है, जो कि जोन 5 है। जोशीमठ शहर की निचली सीमा मेन सेंट्रल थ्रस्ट में है, और इसकी ऊपरी सीमा वैकृता थ्रस्ट में है। शहर ढीली हिमनदी सामग्री की अत्यधिक अस्थिर नींव पर बनाया गया था जो भारी बारिश या झटके के मामले में रास्ता दे सकता है। और शहर की वहन क्षमता से कहीं अधिक अनियंत्रित निर्माण के कारण धंसाव भी हो रहा है, जो इन समस्याओं को और बढ़ा दे रहा है। नुकसान का सर्वेक्षण करने के लिए वर्तमान में वैज्ञानिकों की एक केंद्रीय टीम जोशीमठ में है, लेकिन मैं 2021 में दो अन्य भूवैज्ञानिकों के साथ वहां गया था, और हमने उभरते संकट की चेतावनी दी थी। हमारी चेतावनियों पर ध्यान नहीं दिया गया।
रश्मि सहगल: ऊपरी हिमालय में बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं के निर्माण के संबंध में चिंता के मुद्दे क्या हैं?
एसपी सती: 2013 में केदारनाथ बाढ़ के बाद, जिसने 10 बांधों को क्षतिग्रस्त कर दिया था, मैंने ऊपरी हिमालय में बांधों के निर्माण के खिलाफ चेतावनी दी थी, जो अत्यधिक भूकंपीय इलाके हैं और बहुत कमजोर भी हैं। दुनिया भर के वैज्ञानिक उच्च हिमालय में बांधों के निर्माण के खिलाफ बात करते रहे हैं।
2013 की आपदा में विष्णुप्रयाग जलविद्युत संयंत्र के हिस्से के रूप में निर्मित बांध का विनाश देखा जा चुका है। तपोवन विष्णुगढ़ परियोजना भी तीन बार अचानक आयी बाढ़ से क्षतिग्रस्त हो चुकी है। जब इस पर काम शुरू हुआ तो मैंने सरकार को चेताया था कि वह इस प्रोजेक्ट को कभी पूरा नहीं कर पाएगी। धौलीगंगा एक अनियंत्रित नदी है, जिसे वश में करना असंभव है।
मैं जो कह रहा हूं वह मुझसे पहले कई वैज्ञानिकों ने बार-बार कहा है। एमसी मिश्रा समिति ने 1976 में इस क्षेत्र में बड़ी परियोजनाओं के निर्माण के खिलाफ सिफारिश की थी। इन सभी सिफारिशों की अवहेलना की गई है और हम जो देख रहे हैं वह घातक विकास है जिसे सरकार 'विकास' बताती है।
रश्मि सहगल: केंद्र ने एक जांच दल बनाया है। क्या आपकी एक विशेषज्ञ के रूप में इसमें कोई भूमिका है जिसने बड़ी परियोजनाओं के निर्माण में समस्याओं को देखा और अध्ययन किया है?
एसपी सती: सरकार की नीति के खिलाफ बोलने वाले वैज्ञानिक शायद ही कभी ऐसी समितियों में जगह पाते हैं। सरकार को जोशीमठ और ऊपरी हिमालय में उनकी विनाशकारी नीतियों के बारे में बार-बार चेतावनी मिली है। वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी और डॉक्टर रवि चोपड़ा की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त समिति के वैज्ञानिकों ने इन दोनों बिजली परियोजनाओं और अंधाधुंध निर्माण के खिलाफ चेतावनी जारी की थी। इन सब पर कोई ध्यान नहीं दिया गया है।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल ख़बर को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें :
We are Witnessing Malignant Growth, Dubbed by Govt as ‘Vikas’: Scientist SP Sati
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