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कोरोना काल में ऑटो से गांव लौटने वाले ऑटो ड्राइवर्स आखिर क्यों मुंबई नहीं लौट पा रहे हैं?

कोविड लॉकडाउन के 2 साल बाद भी मुंबई से लौटे प्रवासी ऑटो ड्राइवर्स अपने गांव में रुकने को मजबूर। ऑटो रिक्शा लोन, किराये का कमरा और लॉकडाउन का भय बन रहा है रुकावट।
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कोरोना के दौरान भदोही का इकलौता सीएनजी स्टेशन. इमेज: सुशील कुमार

काली-पीली रंग की ऑटो रिक्शा मुंबई की लाइफलाईन में से एक मानी जाती है। इन 'लाइफलाइन्स' की स्टीयरिंग जिनके हाथों में होती है, उनमें से कई ऑटो ड्राइवर उत्तर प्रदेश के भदोही जिले के भी होते हैं।  पिछली कुछ पीढ़ियों से इस इलाके से बड़े पैमाने पर मुंबई पलायन हुआ है। मुंबई पहुंचकर यहां के अधिकतर लोग आपसी संपर्क के जरिए ऑटो रिक्शा के पेशे से जुड़ गये हैं। लेकिन अब ऐसे ऑटो रिक्शा उत्तर प्रदेश के भदोही जिले के कई इलाकों में दिखाई देते हैं। कोरोना के बाद पैदा हुए कई प्रकार के संकटों ने मुंबई में भदोही के ऑटो रिक्शा ड्राइवर्स को अपने गांव लौटने को  मजबूर कर दिया। मुंबई से गांव लौटते समय ये अपनी ऑटो रिक्शा में सवार होकर चले आये। लेकिन इनमें से कई दोबारा मुंबई अपनी ऑटो समेत लौट गये लेकिन कुछ आज भी अपने गांव में ही रुके हुए हैं।  

मुंबई के पड़ोस में स्थित ठाणे जिले में पैदा हुए भदोही के रामबाबू पहले लॉकडाउन से ही अपनी ऑटो समेत गांव आ गए थे। अब वे अपने गांव बसवापुर बाजार के चौराहे पर मुंबई ऑटो वालों की तरह हमेशा खाकी वर्दी में अपनी ऑटो लिए खड़े रहते हैं। मुंबई से लौटने के बारे में उन्होंने बताया, "मैंने मुंबई में कई महीनों तक लॉकडाउन हटने का इंतज़ार किया लेकिन यह बढ़ता ही चला जा रहा था। मेरे पास जो भी जमा पूंजी थी, सब धीरे-धीरे खत्म हो गई। किसी तरह उधार लेकर कुछ दिन और चलाया लेकिन जब मैंने देखा कि कई ऑटो वाले अपनी ऑटो लेकर गांव जा रहे हैं तो मैं घबरा गया। फिर अपने एक दोस्त से दस हजार रुपये उधार लेकर अपनी ऑटो समेत मई 2020 को मुंबई छोड़कर गांव चला आया।’

भदोही के जगतपुर गांव के देवी प्रसाद पिछले 20 सालों से मुंबई के कांदिवली इलाके में रहकर ऑटो चलाते थे। उन्होंने बताया, "पहली लॉकडाउन के दौरान मुंबई में जीवन बहुत कठिन हो गया था। हमें लग रहा था कि जल्द ही कोरोना समाप्त हो जाएगा। शुरुआत के कुछ हफ्ते मैंने जमा पूंजी के सहारे गुजारे लेकिन जैसे-जैसे दिन बीत रहा था हमारी हिम्मत जवाब दे रही थी। मैंने कई ऑटो वालों को अपनी ऑटो मुंबई से गांव ले जाते देखा था। हिम्मत करके एक दिन मैं भी अकेले ही अपनी ऑटो मुंबई से यूपी की ओर लेकर निकल पड़ा।"

मुंबई से लाये अपनी काली-पीली ऑटो के साथ बैठे देवी प्रसाद मिश्रा .  इमेज:  सुशील कुमार

ऐसी ही परेशानी और जद्दोजहद से भरी कहानी जिले के उन दर्जनों ऑटो ड्राइवर्स की है, जो मुंबई से वापस लौटे हैं। मुंबई स्थित स्वाभिमान टैक्सी रिक्शा यूनियन के अध्यक्ष के. के. तिवारी के मुताबिक उनके यूनियन के पास कोरोना के बाद गांव से लौटे ड्राइवरों से संबंधित कोई स्पष्ट आंकड़ा तो नहीं है लेकिन अब भी करीब पांच फीसदी ऑटो ड्राइवर अपनी ऑटो के साथ रुके हुए हैं।  

जबकि मुंबई स्थित गैर सरकारी संगठन युवा के प्रोजेक्ट एसोसिएट मनोज संपत गायकवाड़ ने बताया, "लॉकडाउन के कुछ हफ्ते बाद ही अधिकतर ऑटो वालों के सामने भुखमरी का संकट आ गया।  किराये पर रहने की वजह से उन्हें महाराष्ट्र सरकार की सार्वजनिक वितरण प्रणाली का लाभ भी नहीं मिल पाया।

हालांकि लॉकडाउन के कुछ महीनों बाद महाराष्ट सरकार ने ऑटो रिक्शा ड्राइवर को 1500 रुपये सहायता राशि देने की घोषणा की लेकिन उनकी समस्याओं को देखते हुए यह मामूली रकम थी।"

गांव में भी ऑटो रिक्शा ही रोजी-रोटी का सहारा

अपनी ऑटो के साथ गांव वापस आनेवाले इन ऑटो ड्राइवर्स में से ज्यादातर अब इसी ऑटो रिक्शा के जरिए अपनी रोजी-रोटी कमा रहे हैं।  हालांकि इनमें से कुछ ने अपने पैसेंजर ऑटो को माल ढुलाई वाले ऑटो रिक्शे में बदल लिया है और कुछ सवारी और सामान दोनों की ढुलाई करते हैं। वहीं चंद ऑटो वाले अब खेती से जुड़े काम और दूसरे रोजगार के जरिए भी अपनी आजीविका चलाते हैं, लेकिन इनमें से कोई भी शायद ही उतनी कमाई कर पाता हो जितनी वह मुंबई में कर लेता था और ऐसे में वे आर्थिक तंगी का सामना कर रहे हैं।  

 इस बारे में अभोली ब्लॉक के गंगारामपुर गांव के श्याम नारायण यादव कहते हैं कि यहां कभी कभार ही एक दूसरे के परिचय के माध्यम से सवारी मिल पाती है। बाकी दिनों में अगर कोई माल ढुलाई करना है तो वह भी मैं अपनी ऑटो रिक्शा से कर लेता हूं। ये ऑटो ड्राइवर्स जानते हैं कि मुंबई के परमिट पर यूपी में ऑटो चलाना अपराध है और उन्हें इस बात का डर भी रहता है। हालाँकि अभी तक उन्हें यहां के आरटीओ या किसी पुलिस वाले ने परेशान नहीं किया है। पुलिस तो परेशान नहीं करती लेकिन रामबाबू जैसों का कहना है स्थानीय ऑटो वाले बहुत परेशान करते हैं। वे ऑटो स्टैंड पर हमें गाड़ी खड़ा करने पर मना करते हैं और न ही वहां से कोई सवारी बैठने देते हैं।

मुंबई के ऑटो ड्राइवर की खाकी वर्दी में श्याम बाबू. इमेज: सुशील कुमार

मुंबई वापस जाने की चुनौती

वाराणसी के नागेन्द्र सिंह मुंबई में 20 साल से अधिक समय तक ऑटो रिक्शा चलाने के बाद कोरोना काल के दौरान सितंबर 2020 को अपने गांव पलहीपटी लौट आये। उनकी शिकायत है कि लॉकडाउन के दौरान मकान किराए में छूट देने के सरकार के अपील पर मकान मालिकों ने ध्यान नहीं दिया। वह बताते हैं, "कोरोना के दौरान ऑटो बंद होने के बाद मकान किराया हमारे लिए बड़ी मुसीबत बन गया। सरकार ने मकान मालिकों से किराया न लेने की अपील की थी लेकिन मकान मालिक हर महीने की 30 तारीख को किराया मांगने आ जाते।  उन्होंने किराए में कोई छूट नहीं दी।"

मालूम हो कि महाराष्ट्र सरकार के आवास विभाग ने कोरोना संकट के दौरान मकान मालिकों से 3 महीने तक किराये में छूट देने का निर्देश दिया था। लेकिन अधिकतर मकान मालिकों ने इसे नज़रअंदाज कर दिया। आज मुंबई से लौटने वाले लगभग सारे ऑटो ड्राइवर्स के कई महीने तक गांव में रुकने की वजह से मुंबई में उनका किराए का कमरा या मकान छूट गया है। ये ड्राइवर्स जब किराया नहीं भर पाए तो इनके मकान मालिकों ने इनके कमरों के ताले तोड़ कर उनके समान बेच डाले और किसी दूसरे को कमरा किराये पर दे दिया।  इस तरह वर्षों की मेहनत और प्यार से इन्होंने अपना जो आशियाना बनाया था, अब वह उजड़ गया।  

ऐसे में इनके मुंबई वापस लौटने से जुड़ी चुनौतियां भी बढ़ गई हैं। जैसा कि मनोज संपत गायकवाड़ कहते हैं, "ऑटो ड्राइवर्स के लिए मुंबई लौटकर दोबारा किराये का मकान लेकर अपनी गृहस्थी सजाना अब ज्यादा मुश्किल हो गया है। इसलिए  गांव में थोड़ी कमाई होने पर भी वे किराये की चिंता से मुक्त हैं।"

मुंबई में कोरोना की स्थिति पहले से सामान्य है लेकिन अब भी शहर में हर दिन कोरोना के नए मरीज निकल रहे हैं ऐसे में दोबारा लॉकडाउन का भय ऑटो ड्राइवर्स की मुसीबत बढ़ा देता है।  

नहीं मिली सरकारी मदद

भदोही लौट आए ऑटो ड्राइवर्स को यह शिकायत है कि केंद्र और महाराष्ट्र सरकार दोनों ने अपना वह वादा नहीं निभाया जिसमें रिजर्व बैंक ने कोरोना के दौरान 3 महीनों तक ऑटो लोन का किस्त नहीं वसूले जाने की बात कही थी जिसपर कोई अतिरिक्त शुल्क नहीं भरना था। ऑटो ड्राइवर्स के मुताबिक बैंक उनसे पूरा ब्याज वसूल कर रहे हैं। सरकार का इस ओर कोई ध्यान नहीं गया।

मुंबई से वापस आये अभोली ब्लॉक के मकनपुर गांव के पवन कहते हैं, "बैंक ने हमें कोई छूट नहीं दी है। मैं मुंबई ऑटो यूनियन का मेंबर हूं फिर भी वहां हमारी कोई नहीं सुनता है।  जैसे-तैसे करके मैं यहीं अपने गांव में रहकर ऑटो का लोन भरूंगा। अगर नहीं भर पाया तो बैंक को साफ़-साफ़ कह दूंगा कि वे अपनी ऑटो उठा ले जाएं लेकिन अब मैं कभी कमाने के लिए मुंबई नहीं जाऊंगा। वहीं ऑटो लोन से जुड़ी अपनी परेशानियों की बारे में राम बाबू कहते हैं, "मैंने यह ऑटो रिक्शा 2018 में खरीदी थी जिसका लोन अभी भी भरा जाना है। लेकिन यहां पैसों कि व्यवस्था न होने की वजह से लोन नहीं भर पा रहा हूं।  ऐसे में यहां ऑटो चलाने में भय रहता है। कई बार बैंक का फोन आता है। लेकिन डर से नहीं उठाता हूं।"

वहीं एनजीओ युवा के मनोज संपत गायकवाड़ ने बताया कि ऑटो यूनियन की मांग पर सरकार ने लोन किस्त में छूट की घोषणा की थी। इस बारे में विस्तार से बताते हुए उन्होंने कहा, "लोन में छूट पाने के लिए यह जरुरी था कि ऑटो वाले अपने-अपने संबंधित बैंक या फाइनेंस कंपनी में जाकर इस छूट के लिए आवेदन करते। लेकिन अधिकतर ऑटो वालों को इसके बारे में जानकारी ही नहीं थी।"

ऑटो लोन बना एक बड़ी मुसीबत

भदोही लौटे ऑटो ड्राइवर्स के मुंबई नहीं लौट पाने की सबसे बड़ी वजह है उनका ऑटो लोन। मनोज बताते हैं, "अधिकतर ऑटो रिक्शा प्राइवेट फाइनेंस कंपनियों के लोन पर खरीदे गए हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिकमुंबई की सडकों पर दौडने वाले 80 फ़ीसदी से अधिक ऑटो रिक्शा लोन पर हैं। कोरोना संकट के दौरान कई ऑटो यूनियन ने कुछ महीनों का लोन माफ करने के लिए सरकार और फाइनेंस कंपनियों पर दबाव बनाया था। फाइनेंस कंपनियां कुछ मामूली शर्तों के साथ इसपर राजी भी हो गयी थी लेकिन जैसा की मनोज ने बताया यह प्रक्रिया इतनी जटिल थी कि अधिकतर ऑटो वालों को इसकी जानकारी ही नहीं थी। इस वजह से भी ऑटो ड्राइवर्स को लोन को लेकर भारी परेशानी हुई। ऐसे में ऑटो रिक्शा ड्राइवरों के मन में कहीं-न-कहीं फाइनेंस कंपनी का डर बना हुआ है।  

फाइनेंस कंपनियां या बैंक कैसे लोन लेने वाले ऑटो ड्राइवर्स के सर पर सवार हैं - इसका एक उदाहरण पवन पाल की आपबीती में दिखता हैं। वे बताते हैं, "कभी-कभी मुंबई से बैंक कर्मचारी का ऑटो लोन भरने के लिए फोन आता है। मैंने उसे बताया कि लॉकडाउन के दौरान मैं अपनी ऑटो लेकर गांव आया हूं।  बैंक को इससे मतलब नहीं है कि मेरा ऑटो कहां है, वे बस लोन समय पर चुकाने पर जोर डालते रहते हैं।"वहीं राम बाबू अपने साथ घटी परेशान करने वाले एक वाकये के बारे में बताते हुए कहते हैं, "पिछली जुलाई में मैं एक रिजर्व सवारी लेकर वाराणसी गया था।  वहां एक आदमी ने मेरी ऑटो रुकवा ली और खुद को बैंक कर्मी बताते हुए पैसे मांगने लगा। मुझे लगा मेरी गाड़ी महाराष्ट्र की है इस वजह से शायद यह मुझे बेवकूफ बना रहा है लेकिन उसके फोन में मेरी ऑटो रिक्शा लोन से संबंधित सारा डिटेल था। वह बैंक का एजेंट जो मुझसे लोन का रिकवरी करना चाहता था। किसी तरह कुछ पैसे देकर मैं वहां से छूट पाया।यही वजह है कि अब मैं अपने जिले के अलावा और कहीं ऑटो रिक्शा लेकर नहीं जाता हूं।"

लोन के अलावा भी हैं दूसरे खर्च

लोन चुकाने के अलावा कुछ दूसरे बड़े खर्च भी हैं जिनका इंतजाम भदोही लौट आए ऑटो ड्राइवर्स को मुंबई में फिर से ऑटो रिक्शा चलाने के लिए करना पड़ेगा। जैसा कि जगतपुर गांव के देवी प्रसाद बताते हैं, "यहां से दोबारा ऑटो लेकर जाने में करीब दस हजार रुपये खर्च होंगे।  साथ ही वहां पहुंचने पर करीब पन्द्रह से बीस हजार आरटीओ पासिंग, पीयूसी और इंश्युरेंस के देने पड़ेंगे। इतने रुपयों का एक साथ बंदोबस्त कर पाना मेरे लिए मुश्किल है। इस वजह से मैं करीब दो साल से यहीं गांव में रुका हूं। मुंबई जाकर रहने के लिए घर का व्यवस्था भी करना पड़ेगा।"

इसी तरह 4 बच्चियों के पिता नागेन्द्र सिंह का भी कहना है कि मुंबई में आर्थिक तंगी के दौरान इंडिया बुल्स फाइनेंस कंपनी से लोन लिया था जिसे मैंने गांव में कुछ रिश्तेदारों से कर्ज लेकर चुकाया। यहां किसी तरह की कोई आमदनी नहीं हो पा रही है, इस वजह से उनका कर्ज चुकाना अब मेरे लिए बोझ बन गया है। गांव में कोई बड़ी खेती भी नहीं है जिसके सहारे परिवार पाला जा सके। लेकिन कोरोना काल में मुंबई में परेशानियां झेलने के बाद अब वहां लौटने की हिम्मत नहीं होती है।

गांव के बाज़ार में सवारी से मोलभाव करते पवन पाल.  इमेज: सुशील कुमार

इन चुनौतियों के बीच कुछ ड्राइवर्स ने अब यह तय कर लिया है कि वे मुंबई नहीं लौटेंगे। जैसा कि देवी प्रसाद कहते हैं, "गांव में अगर मुंबई से आधी कमाई भी हो जाये तो मैं मुंबई कभी नहीं जाऊंगा." या फिर पवन पाल जिन्होंने लॉकडाउन के बाद हमेशा के लिए गांव में ही बसने का इरादा कर लिया है।  वे कहते हैं,"यहां भले ही मुंबई की तुलना में कमाई कम है लेकिन परिवार के साथ रह सकते हैं। मैं यहां खेती और दूध बेचकर कुछ पैसे कमा लेता हूं।"

बाज़ार में सड़क किनारे यात्रियों के इंतज़ार में खड़ा ऑटो रिक्शा. इमेज: सुशील कुमार

भदोही और उसके आस-पास के जिलों की सड़कों और बाज़ारों में मुंबई से कोरोना काल में लौटे सैकड़ों ऑटो आज भी देखे जा सकते हैं।  कोरोना संकट में शहरों में मची अफरा-तफरी के बीच मजबूरी में ये किसी तरह अपने गांव लौट तो आये लेकिन इन्हें नहीं मालूम था की ये दोबारा यहां से नहीं जायेंगे।
 
[यह स्टोरी स्वतंत्र पत्रकारों के लिए नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया की मीडिया फेलोशिप के तहत रिपोर्ट की गई है। लेखक इंडियन इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमन सेटलमेंट, बेंगलूरु में अर्बन फेलो रह चुके हैं।]

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