आख़िर लोग नौकरीपेशा लड़कियों से शादी क्यों नहीं करना चाहते?
"पूरी व्यवस्था यदि आपको सुविधा देने को तैयार हो तो आप बहाव के विरूद्ध बहने का कष्ट क्यों करें समझ नहीं आता।''
बेट्टी फ्रीडन की ये लाइनें हमारे पितृसत्ता की व्यवस्था पर एकदम सटीक बैठती हैं। क्योंकि इस सिस्टम के खत्म होने मात्र का ही डर आपको नारीवादी यानी फेमिनिस्म विरोधी बना देता है। मर्द जहां शान और शौकत से नौकरी कर अपनी औरत पर धौंस जमाता है, वहीं औरत पूरे दिन घर का काम संभालने के बाद भी उसी मर्द के पैर की जूती समझी जाती है। वह अपनी मर्जी से कहीं आ जा नहीं सकती, अपने हुनर के दम पर कुछ कमा नहीं सकती क्योंकि इस व्यवस्था में औरतों का कमाऊ न होना उनकी मर्जी या पिछड़ेपन की निशानी नहीं बल्कि उनका संस्कारी होना समझा जाता है।
आपने अनेक घरों में अक्सर सुना होगा घर संभालना औरतों का काम है और बाहर से पैसे कमाकर लाना मर्दों का। ये महज एक वाक्य नहीं औरत के लिए बनाई वो चार दिवारी और बेड़ी है, जो उसे उसकी आज़ादी को साथ-साथ ही स्वाभीमान से जीने के हक़ से भी दूर कर देती है। आज के बदलते दौर में भी कई लोगों को बहुएं पढ़ी लिखी तो चाहिए, लेकिन नौकरीपेशा नहीं। हाल में जारी एक स्टडी में यह बात सामने आई है कि भारत के शादी के वक़्त नौकरी करने वाली लड़कियों को नापसंद कर घरेलू लड़कियां ज्यादा पसंद की जाती हैं। इस तरह देखने को मिलता है कि अगर लड़की नौकरी और करियर में आगे बढ़ने की आकांक्षाएं रखती हैं तो उस शादी का रिश्ता पाने में भी भेदभाव का सामना करना पड़ता है।
बता दें कि यूनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड के ब्लावात्निक स्कूल ऑफ गवर्नमेंट से डॉक्टरेट कर रही दिवा धर के शोध के मुताबिक भारतीय लोगों में शादी के लिए कामकाजी, नौकरीपेशा लड़कियों की मांग बहुत कम हैं। उनके मुताबिक जो लड़कियां काम नहीं करती हैं उन्हें नौकरीपेशा लड़कियाें के मुकाबले 15-22 प्रतिशत अधिक पसंद किया गया। सामान्य रूप से हर सौ आदमी ने उस महिला को रिस्पांस दिया जिसने कभी काम नहीं किया है। वहीं, कामकाजी महिलाओं की प्रोफाइल पर केवल 78-85 प्रतिशत ही रिस्पांस दिया गया।
क्या है इस शोध में खास?
टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित ख़बर के मुताबिक़ एक अध्ययन के अनुसार कामकाजी महिलाओं को मैट्रिमोनियल साइट्स पर कम पसंद किया जाता है। जो महिलाएं काम करती हैं, उन्हें मैट्रिमोनियल वेबसाइट्स पर मैच मिलने की संभावना कम होती है। इस नतीजे पर पहुंचने के लिए दिवा ने एक्सपेरिमेंट का सहारा लिए। उन्होंने मैट्रिमोनियल वेबसाइट पर 20 फेक प्रोफाइल बनाई। सभी की प्रोफाइल्स में उम्र, लाइफस्टाइल, कल्चर, डाइट, खाना और धार्मिक रुझान जैसी चीजें बिलकुल एक सी लिखी। फर्क बस नौकरी का था। नौकरी करती हैं, करना चाहती हैं, कितना कमाती है इन फैक्टर्स को अलग अलग रखा। दिवा ने अलग-अलग कास्ट ग्रुप के लिए ये प्रोफाइल्स बनाई।
अब इस सैंपल को स्टडी कर के दिवा ने पाया कि जो लड़कियां नौकरी नहीं करतीं उन्हें शादी के लिए सबसे ज़्यादा प्रेफर किया गया। दूसरे नंबर पर वो लड़कियां थी जो शादी के बाद नौकरी छोड़ने तैयार हैं। इसके अलावा जो लड़कियां शादी के बाद भी नौकरी करना चाहती हैं उनकी प्रोफाइल्स को कम पसंद किया गया।
इस पूरे मामले में एक और इंटरेस्टिंग फैक्ट सामने आया। यहां सैलरी भी एक फैक्टर दिखा। नौकरी करने वाली लड़कियों में जिनकी सैलरी ज़्यादा थी उनको कम सैलरी वालों की तुलना में ज़्यादा पसंद किया गया। लड़के से ज़्यादा सैलरी वाली लड़कियों को 10% कम पसंद किया गया। वहीं जिन लड़कियों की सैलरी लड़कों से कम थी उनको 15% ज़्यादा पसंद किया गया।
लेबर फ़ोर्स में महिलाओं की भागीदारी
मालूम हो कि लेबर फ़ोर्स में महिलाओं की भागीदारी वैसे ही देश में बहुत कम है। हाल ही में जारी नेशनल स्टैटिस्टिकल ऑफिस (एनएसओ) के लेबर फोर्स सर्वे में बताया गया कि 15 वर्ष से ऊपर की कामकाजी जनसंख्या में महिलाओं की भागीदारी 28.7 प्रतिशत है, जबकि पुरुषों की भागीदारी 73 प्रतिशत है। वहीं नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के अनुसार देश में केवल 32 प्रतिशत शादीशुदा महिलाएं नौकरी करती हैं। वर्ल्ड बैंक के डेटा के अनुसार भी भारत में लेबर फोर्स में लगातार गिरावट देखी जा रही है। साल 2005 के बाद से इसमें लगातार गिरावट देखने को मिल रही है। 2005 में भारत में लेबर फोर्स में 26.7 प्रतिशत महिलाएं थीं। साल 2021 में गिरावट के साथ केवल 20.3 प्रतिशत महिलाएं लेबर फोर्स में हैं।
बिजनेस स्टैडर्ड में प्रकाशित ख़बर के अनुसार भारत में पुरुषों में यह आंकड़ा 98 प्रतिशत है। 15 से 49 साल की शादीशुदा महिलाओं में से मात्र 32 प्रतिशत महिलाएं घर से बाहर जाकर नौकरी करती हैं। दूसरी ओर सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनामिक के डेटा के मुताबिक 21 मिलियन महिलाएं कार्यक्षेत्र से घट गई। एक और चौंकानेवाला तथ्य यह है कि भारत में 15 प्रतिशत कामकाजी महिलाओं को उनके काम का वेतन नहीं मिल पाता है। वहीं पुरुषों में काम के बदले वेतन न मिलने का प्रतिशत 4 फीसदी है। कामकाजी महिलाओं के लिए असमानता यही खत्म नहीं होती है। ख़बर के अनुसार 85 प्रतिशत कैश के तौर पर सैलरी पानेवाली महिलाएं खुद या पति के साथ मिलकर तय करती हैं कि पैसा कैसे खर्च किया जाएगा। भारतीय महिलाओं में यह बहुत सामान्य है कि महिलाएं अपनी कमाई खर्च करने का फैसला पति के साथ मिलकर लेती हैं।
गौरतलब है कि भारत में 99 प्रतिशत महिलाएं 40 की उम्र तक पहुंचने से पहले शादी कर लेती हैं। स्टडी में दिवा ने बताया है कि जब महिलाओं को लगता है की नौकरीपेशा होने पर उन्हें शादी में परेशानी होगी तो वो अपने करियर के प्रति लापरवाह हो जाती हैं। शादी से पहले करियर बनाने या शादी के बाद नौकरी में रहने के विचार को एक तरह से त्याग देती हैं। यह एक महत्वपूर्ण कारण है जिसकी वजह से भारत में कामकाजी महिलाओं की संख्या कम है।
शादी एक बड़ा मुद्दा है नौकरी नहीं
वैसे आज भी हमारे देश में शादी एक बड़ा मुद्दा है नौकरी नहीं। लड़कियों को पढ़ना-लिखना तक तो ठीक है लेकिन ज्यादातर लोगों को वर्किंग वुमन नहीं चाहिए। कई परिवार पढ़ी लिखी बहू लाना तो चाहते हैं पर वो शादी के बाद उनके नौकरी करने के पक्ष में नहीं होते। तर्क दिया जाता है कि उनका परिवार संपन्न है, नौकरी की क्या ज़रूरत है। ये भी समझा जाता है कि नौकरी करने वाली लड़की को घर संभालने का कम वक़्त मिलेगा, जिससे घर के कामों में दिक्कत आएगी। क्यूंकि भारत के ज़्यादातर हिस्सों में आम धारणा यही है कि घर संभालना महिलाओं का काम है।
पितृसत्ता के गुलाम लोगों को लगता है कि नौकरी करने अगर बहू घर के बाहर जाएगी, उसके हाथ में पैसे होंगे तो वो घर वालों को कुछ समझेगी नहीं। इसके पीछे की भावना होती है कि लड़की इंडिपेंडेंट होगी। वो अपने लिए खुद फैसले लेंगी और इससे उसपर उनका अधिकार कम होगा। लड़कियों और बहुओं को घर की इज्ज़त का नाम देकर घर में उनका जमकर शोषण किया जाता है। कई पुरुषों में यह सोच हावी है कि महिलाएं नौकरी करेंगी तो उनकी मोबिलिटी अधिक होगी, संपर्क अधिक बढ़ेगा। घर से बाहर निकल कर बाहर के पुरुषों से बात करेंगी। यह उन्हें बर्दाश्त नहीं होता है। पुरुषों को लगता है कि नौकरी करने पर महिलाएं उन पर आश्रित नहीं रहेंगी। वो खुद फैसले ले सकेंगी, उनकी चलेगी नहीं। इसलिए वो नौकरीपेशा महिलाओं को नहीं पसंद करते।
बहरहाल, कारण कोई भी हो हक़ीकत यही है कि आज़ादी के अमृत महोत्सव के बीच भी महिलाओं को अब तक पितृसत्ता से आज़ादी नहीं मिल पाई है। सुबह उठते ही उनके दिमाग़ में घंटी बज जाती है, तेज़ी से घड़ी चलने लगती है, ढेर सारे कामों की लिस्ट बन जाती है और वो इधर-उधर दौड़कर रोबोट की तरह झटपट काम निपटाने लगती हैं। इसके चलते उन्हें रोज़ मानसिक और शारीरिक थकान का अनुभव होता है, लेकिन उसके बावजूद उन्हें दूसरों के पैसों पर रोटी तोड़ने वाला करार दे दिया जाता है। कुल मिलाकर देखें तो लड़की को कब क्या करना है यह उसके अलावा सब तय करते हैं। इस पुरूष प्रधान समाज में महिलाओं को घर के अंदर समेटने का तरीका है उन्हें नौकरी न करने देना।
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