अमेरिका में ऋण सीमा को लेकर क्यों तेज़ हुई बहस?
वैश्वीकृत वित्तीय पूंजी के दबाव में, दुनिया के अधिकांश देश कानून बनाकर, जीडीपी के अनुपात के रूप में अपने राजकोषीय घाटे की सीमा तय कर चुके हैं। आम तौर पर यह सीमा 3 फीसद की रखी गयी है। भारत में यही सीमा, केंद्र के लिए 3 फीसद है और राज्यों के लिए भी 3 फीसद। बहरहाल, अमेरिका में इस तरह का कोई कानून नहीं है। इसके बजाए, वहां कुल सार्वजनिक ऋण के लिए एक सीमा है, जिससे कभी भी इस ऋण को ऊपर नहीं निकलना चाहिए। यह एक बहुत ही बेढंगी सी प्रक्रिया है क्योंकि जैसे-जैसे किसी अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ता है, इस प्रकार की व्यवस्था में इस सीमा का बढ़ाया जाना भी आवश्यक हो जाता है। हैरानी की बात नहीं है कि अमेरिका में 1960 के बाद से, इस ऋण सीमा को 78 बार बदला या बढ़ाया जा चुका है।
क्या है अमेरिका का ऋण सीमा का विवाद?
इस समय यह सीमा 314 खरब डॉलर की है और चूंकि कुल सार्वजनिक ऋण पहले ही इस सीमा तक पहुंच चुके हैं, बाइडेन प्रशासन को इस सीमा को बढ़ाने के लिए अमेरिकी कांग्रेस का दरवाजा खटखटाना पड़ा है। लेकिन, अमेरिकी कांग्रेस ने, जिसमें रिपब्लिकनों का बहुमत है, रस्मी तरीके से इस सीमा को बढ़ाने से इंकार कर दिया है। इसके बजाए उसने पहले कुछ बजट कटौतियां लागू किए जाने की मांग की है। बाइडेन इन बजट कटौतियों पर बातचीत करने के लिए भी तैयार हैं, लेकिन इस सीमा के बढ़ाए जाने के बाद ही। वह इस सीमा को बढ़ाने की शर्त के तौर पर, इस तरह की कटौतियां स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। इसी से फिलहाल गतिरोध पैदा हो गया है। अगर इस गतिरोध का हल नहीं निकलता है तो, बाइडेन प्रशासन का कहना है कि पहले के सार्वजनिक ऋणों के लिए ब्याज के भुगतान में और सरकारी कर्मचारियों की तनख्वाएं देने में, सरकार के नाकाम रहने की नौबत आ जाएगी।
यहां दो अलग-अलग मुद्दे हमारे सामने हैं। इनमें पहले मुद्दे का संबंध, सरकार के ऋण लेने के तर्क से है। जब कोई सरकार अपने खर्चे की भरपाई करने के लिए, टैक्स राजस्व बढ़ाने के बजाए ऋण लेने का सहारा लेती है, तो यह तथ्य उसकी धनवानों पर टैक्स लगाने की अनिच्छा को ही दिखाता है। अमेरिका में और दुनिया में और भी सभी जगहों पर, नवउदारवादी पूंजीवाद के दौर में, आय तथा संपदा की असमानता में उल्लेखनीय बढ़ोतरी हुई है और सरकार के खर्चे की वित्त पूूर्ति के लिए संसाधन जुटाने के लिए, ज़ाहिर है कि अमीरों पर टैक्स बढ़ाने का ही सहारा लेना वांछनीय है, इसके लिए चाहे कारपोरेट टैक्स बढ़ाने का सहारा लिया जाए या फिर संपदा टैक्स लगाने का।
अमीरों पर टैक्स बढ़ाना दोनों पक्षों को नामंज़ूर
सार्वजनिक खर्च को उतने ही कराधान से संतुलित करने से, भले ही यह टैक्स अमीरों से ही क्यों नहीं वसूल किया जा रहा हो, संपदा की असमानता घटेगी नहीं। मेहनतकश चूंकि अपनी पूरी की पूरी आय उपभोग पर खर्च करने के लिए मजबूर होते हैं, ऐसे में अमीर ही हैं जिनके हिस्से में किसी भी अर्थव्यवस्था में अधिकांश बचत आती है। सरकार अगर, मिसाल के तौर पर 100 डॉलर खर्च करे और उसकी भरपाई ऋण लेकर की जा रही हो, तो इस तरह अमीरों के हाथ में 100 डॉलर की अतिरिक्त बचत और जा जाएगी (यहां हम विदेशी लेन-देन को भूलकर चल रहे हैं), जबकि उन्होंने इस फालतू 100 डॉलर को कमाने के लिए कुछ भी अतिरिक्त नहीं किया होगा, जिस राशि को सरकार उनसे ऋण के तौर पर ले रही होगी। इसलिए, ऋण लेकर जो सरकारी खर्चा किया जाता है, वह संपदा की असमानता बढ़ाने का काम करता है, जबकि अगर इस तरह के खर्चे की भरपाई कराधान से की जाती है, उससे संपदा असमानता नहीं बढ़ती है। खर्च की भरपाई उतने ही कराधान से की जाती है तो, संपदा असमानता पर उसका असर नहीं पड़ता है यानी यह असमानता पहले जितनी ही बनी रहती है।
अब अगर न तो बाइडेन प्रशासन इस खाई को पाटने के लिए अमीरों पर टैक्स बढ़ाने की बात सोच रहा है और न ही रिपब्लिकनों के बहुमत वाली अमेरिकी कांग्रेस इस दिशा में सोच रही है, तो यह अमेरिकी राजनीति पर पूंजीवाद के पूरी तरह से हावी होने को ही दिखाता है। ये दोनों ही पक्ष, इस विकल्प को परे रखकर ही बहस कर रहे हैं। बाइडेन, इसकी गंभीर चेतावनियां तो दे रहे हैं कि कर्मचारियों का वेतन देना मुश्किल हो जाएगा, वगैरह-वगैरह, लेकिन वह एक बार भी इस संभावना का ज़िक्र तक नहीं करते हैं कि अमीरों पर टैक्स बढ़ाना भी एक रास्ता हो सकता है। और रिपब्लिकन भी कभी भी अपनी हठधर्मिता को उचित ठहराने के लिए यह नहीं सुझाने वाले हैं कि सरकार ऋण बढ़ाने के बजाए, अमीरों पर टैक्स क्यों नहीं बढ़ा देती है? लेकिन, दुनिया की अग्रणी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में ऐसा सब कुछ होने में, हैरानी की शायद ही कोई बात होगी।
उदारवादी पूंजीवाद बनाम पुरातनपंथी पूंजीवाद
बहरहाल, यहां एक और मुद्दा भी है, जिस पर ध्यान दिया जाना चाहिए। बाइडेन प्रशासन और रिपब्लिकनों के बीच तात्कालिक रूप से जो मतभेद दिखाई दे रहे हैं उनसे आगे, आर्थिक समझ तथा आर्थिक रणनीति का कहीं और गहरा मतभेद भी उनके बीच है। इन दोनों के रुखों को हम क्रमश: ‘उदारवादी पूंजीवादी’ रुख और ‘पुरातनपंथी पूंजीवादी’ रुख कह सकते हैं।
इनमें से पहले रुख को इसका एहसास है कि नव-उदारवादी पूंजीवाद, किस तरह से दूरगामी गतिरोध में प्रवेश कर गया है और इसलिए यह रुख इसके पक्ष में है कि अमेरिका में केन्सवादी नीतियों को पुनर्जीवित किया जाए। यह रुख, राजकोषीय घाटे को बढ़ाने के ख़िलाफ़ नहीं है, जिसके लिए ऋण सीमा को बढ़ाने का प्रस्ताव किया जा रहा है। बेशक, ऋण सीमा बढ़ाने की उसकी मांग फिलहाल सीधे-सीधे या तत्काल आर्थिक विस्तारकारी नीतियां अपनाने की इच्छा से प्रेरित नहीं है। फिर भी इस ऋण सीमा को बढ़ाने की मांग और आर्थिक विस्तारकारी नीतियों को अपनाने की इस रुख को अपनाने वालों की दृष्टि आपस में जुड़ती हैं। यह दूसरी बात है कि अमेरिका में तथा कुल मिलाकर पूरी दुनिया मेंं ही मुद्रास्फीति का जो ज्वार आया हुआ है उसकी वजह से, फिलहाल ऐसी नीतियों को उठाकर पीछे ही रख दिया गया है।
‘उदारवादी पूंजीवादी’ रुख, मुद्रास्फीति नियंत्रण को आर्थिक नीति के एकमात्र या सबसे प्रमुख लक्ष्य की तरह नहीं देखता है। यह रुख, बेरोज़गारी को कम करने और आर्थिक गतिविधियों का स्तर ऊपर उठाने को भी, महत्वपूर्ण नीतिगत लक्ष्यों की तरह देखता है। जैसे ही मुद्रास्फीति को घटाकर, ‘संभालने लायक’ स्तर पर लाया जा सकेगा, उक्त लक्ष्य एजेंडे पर आ जाएंगे। इसका अर्थ यह हुआ कि मुद्रास्फीति नियंत्रण फौरी चिंता का मुद्दा तो बना हुआ है, फिर भी इस उद्देश्य के लिए, सरकारी खर्चे में भारी कटौती के ज़रिए, अर्थव्यवस्था पर तीखी मंदी थोपने से बचने की कोशिश की जा रही है।
क्या है केन्सवाद का सार
इसके विपरीत, ‘पुरातनपंथी पूंजीवादी’ रुख मुद्रास्फीति नियंत्रण को ही सबसे प्रमुख लक्ष्य की तरह देखता है। वह इसके पक्ष में है कि मेहनतकश जनता के हक में ‘हस्तांतरणों’ पर सरकारी खर्चों में और यहां तक कि उनके लिए कल्याणकारी योजनाओं पर खर्चों में भी, कटौतियां कर दी जाएं। यह रुख इन कटौतियों को सिर्फ मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने के लिए ही ज़रूरी नहीं मानता है बल्कि आर्थिक नीति की सदाबहार विशेषता के रूप में भी ज़रूरी मानता है।
खुद केन्स को भी इस ‘पुरातनपंथी पूंजीवादी’ रुख का सामना करना पड़ा था, जिसे उनके ज़माने में लंदन सिटी स्वर देता था, जो ब्रिटेन का वित्तीय केंद्र था। वास्तव में उनके सिद्घांत का तो असली नुक्ता ही यही दिखाना था कि बेरोज़गारी तथा ठाली पड़ी उत्पादन क्षमता की मौजूदगी के हालात में यानी अर्थव्यवस्था के मांग बाधित होने के हालात में, राजकोषीय घाटे से (अगर उसके भुगतान संतुलन पर पड़ सकने वाले प्रभावों को अनदेखा किया जा सकता हो) कोई नुकसान ही नहीं होता है। हां! सरकारी खर्चे के लिए वित्त व्यवस्था, टैक्स बढ़ाने के ज़रिए किए जाने की तुलना में, राजकोषीय घाटे से वित्त व्यवस्था करने की स्थिति में, जैसा कि हम पीछे देख आए हैं, संपदा असमानता ज़रुर बढ़ जाती है। बहरहाल, इतना तो पक्का है कि राजकोषीय घाटे का सहारा लेना, निजी निवेश को ‘धकियाकर बाहर’ नहीं करता है, जिसकी दलील सिटी ऑफ लंदन द्वारा और (सिटी आफ लंदन के प्रभाव में रहने वाली) ब्रिटिश ट्रेजरी द्वारा दी जा रही थी।
केन्स तो खुद ही, पूंजीवादी व्यवस्था के रखवालों में से थे। लेकिन, वह बोल्शेविक क्रांति के साये में अपना सिद्घांत सूत्रबद्घ कर रहे थे और उनका यह मानना था कि अगर पूंजीवादी व्यवस्था और ज़्यादा रोज़गार मुहैया नहीं कराएगी, तो विक्षुब्ध मज़दूर, सोवियत उदाहरण से प्रेरणा लेकर, पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेकेंगे। वास्तव में, ‘पुरातनपंथी पूंजीवादी’ रुख (जो 1930 के दशक में सिटी ऑफ लंदन के रुख की याद दिलाता है) और ‘उदारवादी पूंजीवादी’ रुख (जो केन्स की विरासत से जुड़ता है) में मुख्य अंतर ठीक इस प्रकार है। पुरातनपंथी पूंजीवादी रुख, पूंजीवादी व्यवस्था को बनाए रखने के लिए, उसके पक्ष में मज़दूरों से हामी भरवाने के लिए, उन्हें दबाकर, मजबूर कर के झुकाने में विश्वास करता है, जिसमें बेरोज़गारों की विशाल सेना को बनाए रखकर, उसका हथियार के रूप में इस्तेमाल करना भी शामिल है। लेकिन, ‘उदारपंथी पूंजीवादी’ रुख, बड़े पैमाने पर बेरोज़गारी से बचने और उनके पक्ष में समुचित ‘हस्तांतरणों’ के ज़रिए, मज़दूरों का समर्थन हासिल करने में विश्वास करता है, ताकि पूंजीवादी व्यवस्था को बचाकर रखा जा सके।
केन्सवाद के पुनर्जीवन की गुंजाइश नहीं
यही दो अलग-अलग परिप्रेक्ष्य, ऋण की सीमा को बढ़ाने पर, अमेरिका में इस समय उठी बहस में निहित हैं। ‘उदारवादी पूंजीवादी’ रुख, जो पूंजीवादी व्यवस्था में, राज्य के उल्लेखनीय हस्तक्षेप की मांग करता है, पूंजीवाद की स्वत:स्फूर्त प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ जाता है। इसीलिए तो, नव-उदारवादी निजाम ने केन्सवाद को उखाड़ कर फेंक दिया था। अब जबकि नव-उदारवाद डार्क स्ट्रीट में पहुंच गया है, केन्सवाद को पुनर्जीवित करने की कोशिश भी, तीखे अंतर्विरोधों में फंस जाएगी और शुरू से ही नाकाम रहेगी।
यहां मैं सिर्फ एक खास अंतर्विरोध का ज़िक्र करूंगा। पीछे हमने कुछ चलताऊ तरीके से, राजकोषीय घाटे के भुगतान संतुलन के लिए निहितार्थों का ज़िक्र किया था। अमेरिकी सरकार के बढ़े हुए खर्च से पैदा होने वाली मांग, बढ़ी हुई आयात मांग के रूप में, रिसकर उसकी अपनी अर्थव्यवस्था के दायरे से बाहर चली जाती है। सरकार का ऋण बढ़ाने के ज़रिए, वित्त पोषित खर्चे में से जिस हद तक यह रिसाव होता है, उस हद तक संबंधित अर्थव्यवस्था का भुगतान संतुलन घाटा बढ़ जाता है। इसलिए, सरकारी ऋण में बढ़ोतरी से वित्त पोषित सरकारी खर्च के लिए, यह पहले से मानकर चला जाता है कि दूसरे देशों के लोग, अमेरिका की आयात की इस बढ़ी हुई मांग को पूरा करने के लिए, वे जो अतिरिक्त माल बेचेंगे, उसके बदले में अमेरिकी बांड अपने पास रखने के लिए तैयार होंगे।
बेशक, यह पूर्व-धारणा तब तक काम भी करती है, जब तक कि डॉलर दुनिया की सुरक्षित मुद्रा बना रहता है यानी ऐसी मुद्रा जिसे सार्वभौम रूप से ‘सोने जितना खरा’ माना जाता हो। लेकिन, अगर अमेरिका पाबंदियां लगाता है और सिर्फ इक्का-दुक्का ‘मुखालिफ’ देश पर ही नहीं बल्कि दर्जनों देशों पर पाबंदियां लगाता है, तो डॉलर का यह खरापन छीजने लगेगा। वास्तव में ऐसी सूरत में तीन चीजें होती हैं। पहली यह कि अमेरिका, ऐसे देशों से निर्यात करने का रास्ता बंद कर लेता है, जिसका मतलब होता है, उसकी अपनी उत्पादन लागतों का बढ़ाना और मुद्रास्फीतिकारी दबावों का बने रहना। दूसरे, यह ‘पाबंदीशुदा’ तथा ‘गैर-पाबंदीशुदा’ देशों को इसके लिए प्रोत्साहित करता है कि मिलकर ऐसी द्विपक्षीय व्यापार व्यवस्थाएं कायम करें, जिनमें लेन-देन के माध्यम के रूप में डॉलर की भूमिका खत्म हो जाए और इसलिए, अपनी परिसंपत्तियां डॉलर में रखने की इन सभी देशों की इच्छा भी घट जाती है। तीसरे, चूंकि डॉलर में अपनी परिसंपत्ति रखने वाले किसी भी देश को अचानक इस तरह की पाबंदियों का सामना करना पड़ सकता है, जिससे उसके पास मौजूद इस तरह की परिसंपत्तियां ही जाम की जा सकती हैं और संबंधित देश इन परिसंपत्तियों का उपयोग करने में असमर्थ हो सकता है, यह भी डॉलर में अपनी परिसंपत्तियां रखना, दूसरे देशों के लिए अनाकर्षक बनाता है।
बाइडेन प्रशासन के ‘उदारपंथी पूंजीवादी’ रुख के साथ एक बुनियादी समस्या यह है कि इसका पूंजीवादी उदारतावाद, दुनिया के एक अच्छे-खासे हिस्से के ख़िलाफ़ उसकी लगायी ‘पाबंदियों’ से ठीक उल्टा है और ये पाबंदियां ‘नव-अनुदारपंथी’ (नियो-कॉन) साम्राज्यवादी आक्रामकता का नतीजा हैं। अमेरिका आज की दुनिया में ज़्यादा दिनों तक, केन्सवाद और ‘नव-अनुदारपंथ’ (नियो-कॉन) की दो-दो नावों में, एक साथ सवारी नहीं कर सकता है।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:
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