फ्रांस के न्यू पॉपूलर फ्रंट का कार्यक्रम नवउदारवाद की सीमाओं से आगे जाता है
यूरोपीय संसदीय चुनाव में धुर-दक्षिणपंथ के प्रभावशाली प्रदर्शन की पृष्ठïभूमि में, राष्ट्रपति एमेनुअल मैक्रां द्वारा कराए जा रहे फ्रांसीसी संसद के चुनावों के लिए चार वामपंथी पार्टियों--कम्युनिस्ट, सोशलिस्ट, ग्रीन और ज्यां लक मेलेंकों की पार्टी फ्रांस अनबाउंड—ने मेरीन ला पेन की फासीवादी चुनौती का मुकाबला करने के लिए, एकजुट होकर एक न्यू पॉपूलर फ्रंट (एनपीएफ)का गठन किया है। इस ऐतिहासिक महत्व है। न्यू पॉपूलर फ्रंट, 1930 के दशक में फ्रांस में बने पॉपूलर फ्रंट की याद दिलाता है, जिसका गठन यूरोप में फासीवाद के उभार और खासतौर पर जर्मनी में नाजियों द्वारा सत्ता संभाले जाने की पृष्ठïभूमि में किया गया था। और जहां मैक्रां एक सीधा-सादा नवउदारवादी है, जिसकी चुनावी लोकप्रियता फिलहाल बहुत ही घट चुकी है और दक्षिणपंथ, अपने चरित्र के प्रति सच्चा रहते हुए, आर्थिक व्यवस्था के मामलों पर गोलमोल है और आधे मने से बड़ी पूंजी का ही साथ देता है (यह तब तक के लिए है जब तक कि सही मौके पर वह इजारेदार पूंजी के साथ खुलकर जुड़ नहीं जाता है), वहीं एनपीएफ ने स्पष्ट आर्थिक कार्यक्रम पेश किया है। हालांकि, सोशलिस्टों को साथ रखने के लिए एनपीएफ को यूक्रेन युद्घ के मुद्दे पर अमेरिकी लाइन का अनुमोदन करना पड़ा है और गज़ा में नरसंहार के मुद्दे पर अपने रुख के मामलेे में, मेलेंकों के जाने-माने विचारों के साथ भी समझौते करने पड़े हैं, फिर भी उसने जो आर्थिक कार्यक्रम अपनाया है, स्पष्ट रूप से नवउदारवाद के खिलाफ है।
नवउदारवाद विरोधी आर्थिक कार्यक्रम
यह कार्यक्रम इसका तकाजा करता है कि मासिक न्यूनतम मजदूरी बढ़ायी जाए; आवश्यक खाद्य सामग्री, बिजली, गैस तथा पेट्रोल पर मूल्य नियंत्रण लागू किया जाए; रिटायरमेंट की आयु बढ़ाकर 64 साल करने के मैक्रां के निर्णय को निरस्त किया जाए, जिससे शासन की पेंशन की देनदारियां बढ़ जाएंगी; और हरित अर्थव्यवस्था की ओर संक्रमण तथा सार्वजनिक सेवाओं में बड़े पैमाने पर निवेश किए जाए। एनपीएफ ने इस कार्यक्रम को लागू करने के खर्चों की सावधानी से गणनाएं की हैं और इसकी पेशकश की है कि इसके लिए वित्त व्यवस्था, राजकोषीय घाटे को यूरोपीय समुदाय द्वारा निर्धारित राजकोषीय घाटे की सीमाओं से ऊपर ले जाए बिना ही की जाए। यह कंपनियों के अधिक मुनाफों पर कर लगाने, जिस संपदा कर को मैक्रों ने खत्म कर दिया था उसे दोबारा लाने, कराधान के विभिन्न रास्तों को बंद करने और यह सुनिश्चित करने के जरिए किया जाएगा कि विरासत में प्राप्त की जा सकने वाली राशि की एक अधिकतम सीमा हो, जिससे फालतू राशि राज्य द्वारा ले ली जाएगी।
यह सब उस सबसे ठीक उल्टा है, जो कुछ नवउदारवाद पिछले तमाम वर्षों से पढ़ाता आ रहा है और जिस सब को मीडिया के मेनस्ट्रीम द्वारा और सिर्फ फ्रांस में ही नहीं बल्कि भारत समेत दुनिया भर में प्रचारित किया जाता रहा है। जब यह सुझाव दिया गया कि देशों के बीच 25 फीसद की न्यूनतम कॉरपोरेट कर दर पर सहमति होनी चाहिए, जिससे पूंजी के कर की दरों की भिन्नता का फायदा उठाने के लिए, इस देश से उस देश में घूमने पर रोक लगे, वैश्वीकृत वित्तीय पूंजी के अंगूठे के तले, ज्यादातर सरकारों ने इस पर झिझक दिखाई। आखिरकार, 15 फीसद की कर की दर पर ही समझौता हुआ, जो कि वैसे ही अधिकांश देशों में चल रही कॉरपोरेट कर की वर्तमान दरों से कम है। इस संदर्भ में, अधिक मुनाफों पर कर लगाने का एनपीएफ के कार्यक्रम का प्रस्ताव, विशेष रूप से महत्वपूर्ण हो जाता है।
संपदा का प्रस्ताव
इसी प्रकार, संपदा कर को इस आधार पर खत्म कर देने की आम प्रवृत्ति रही है कि इसे लागू करना मुश्किल होता है और इससे हासिल होने वाला राजस्व, इसे लागू कराने से जुड़ी लागतों से भी कम होता है। भारत में भी पहले रहे संपदा कर को, इसी दलील से खत्म किया गया है। अव्वल तो संपदा कर को लागू ही ढीले-ढाले तरीके से किया जाता है और इसके चलतेे इससे बहुत कम राजस्व मिलने का, इसे खत्म ही कर देने के बहाने के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। एनपीएफ का कार्यक्रम इस धोखाधड़ी का पर्दाफाश करता है और दोबारा संपदा कर लगाने की मांग करता है।
बेशक, हाल के वर्षों में अन्य राजनीतिक ताकतों ने भी, राजस्व के एक उल्लेखनीय स्रोत के रूप में, संपदा कर को पुनर्जीवित किए जाने की बात सुझायी है। अमेरिका के पिछले चुनाव में, डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रत्याशी बनने के दो दावेदारों, बर्नी सेंडर्स तथा एलिजाबेथ वारेन ने, एक ग्रेडेड संपदा कर के प्रस्ताव पेश किए थे। लेकिन, अमेरिकी राजनीतिक प्रतिष्ठान ने उन दोनों को ही डोनाल्ड ट्रंप के मुकाबले डेमोक्रेटिक पार्टी का प्रत्याशी बनने का मौका नहीं दिया और इस तरह उनके प्रस्ताव, सिर्फ प्राइमरी स्टेज तक ही रह गए। अभी पिछले ही दिनों, फ्रांसीसी अर्थशास्त्री थॉमस पिकेट्टी ने, जो विश्व असमानता डॉटा बेस से जुड़े हुए हैं, भारत में संपदा असमानता में भारी बढ़ोतरी की पृष्ठभूमि में इसका प्रस्ताव किया था कि, देश में अति-धनिकों पर संपदा कर फिर से लगाया जाए। यह प्रस्ताव, इस देश में वामपंथ द्वारा लंबे समय से की जाती रही मांग को ही दोहराता है।
विरासत कर का मुद्दा
इसी प्रकार, एनपीएफ द्वारा विरासत कर को चुस्त-दुरुस्त करने का जो प्रस्ताव किया गया है, किसी भी जनतांत्रिक समाज के लिए एक आवश्यक कदम है। वास्तव में इस तरह का कर, पूंजीवाद के दर्शन से भी पूरी तरह से मेल खाता है, जो मुनाफों का औचित्य पूंजीपतियों के कुछ खास गुणों के पुरस्कार के रूप में साबित करता है, न कि मां-बाप से बच्चों को मिलने वाले विरसे के रूप में। इसके अलावा विरासत कर स्वत:संपूर्ण तो होता ही है, इसके अतिरिक्त यह संपदा कर का एक आवश्यक पूरक भी होता है। इसके बावजूद, पिछले ही दिनों जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एक प्रमुख सदस्य ने विरासत कर का सुझाव दिया था (वामपंथ तो लंबे अर्से से यह विचार पेश करता आ रहा था), प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का तो जिक्र ही क्या करना, पूरा का पूरा भारतीय मीडिया उन पर ऐसे बरस पड़ा जैसे ईंटों का पूरा का पूरा चट्टा ही भरभरा कर गिर पड़ा हो। प्रधानमंत्री ने तो इस प्रस्ताव को एक घोर शैतानी सांप्रदायिक-फासीवादी ट्विस्ट ही दे दिया और यह दावा करना शुरू कर दिया कि कांग्रेस, हिंदू महिलाओं के गहने छीनकर मुसलमानों को दे देगी! एनपीएफ का सुझाव वास्तव में सिर्फ विरासत कर का नहीं है बल्कि इस तरह की विरासत की सीमाबंदी का है, जो इस संदर्भ में खासतौर पर उल्लेखनीय हो जाता है।
अन्य प्रमुख प्रस्ताव
यही बात सार्वजनिक सेवाओं पर खर्चे बढ़ाने के प्रस्ताव के संबंध में भी सच है। हमने अपने देश में शिक्षा तथा स्वास्थ्य रक्षा जैसी सेवाओं के निजीकरण के नुकसानदेह प्रभावों को देखा है। इन सेवाओं का निजीकरण, नवउदारवादी पूंजीवाद के तकाजों के अनुरूप है और इसने इस सेवाओं को बहुत ही महंगा बना दिया है। वास्तव में किसानों के कर्ज में फंस जाने, जिसे वे चुकाने में असमर्थ होते हैं और बहुत बार इसके चलते अपनी जान भी ले लेते हैं, के पीछे एक बड़ी वजह अचानक इलाज का खर्चा आ पड़ने की रहती है और इस तरह के खर्चे की जरूरत हमेशा अप्रत्याशित तरीके से आ पड़ती है।
इसी प्रकार, लोगों को मुद्रास्फीति की मार से बचाने के लिए, मूल्य नियंत्रण का प्रस्ताव उस पूंजीवादी पुराणपंथ से पूरी तरह से नाता तोड़ता है, जो सिर्फ मुद्रा तथा राजकोषीय नीति के औजारों का इस्तेमाल करने का आग्रह करता है। ये दोनों ही ऐसे नीतिगत औजार हैं, जो अर्थव्यवस्था में गतिविधि और इसलिए रोजगार के भी स्तर को घटाने का ही काम करते हैं। वास्तव में पूंजीवाद के अंतर्गत मुद्रास्फीति की एक ही काट है, और ज्यादा बेरोजगारी पैदा करना। मुद्रास्फीति की काट करने के लिए, बेरोजगारी बढ़ाने के बजाए, मूल्य नियंत्रण लागू किए जाने की, भारत में तो वामपंथ पहले से ही पैरवी करता आ रहा था, बहरहाल अब इसे एक विकसित अर्थव्यवस्था की एक प्रमुख राजनीतिक कतारबंदी के कार्यक्रम में स्थान मिल गया है।
एनपीएफ का कार्यक्रम: एक नयी शुरूआत
वैश्वीकृत पूंजी के प्रवक्ताओं द्वारा कूड़ा फैलाए जाने के और यह दावा किए जाने के कि इस कूड़े के अलावा कोई विकल्प ही नहीं है (तथाकथित टीना फैक्टर), संदर्भ में एनपीएफ का कार्यक्रम ताजा हवा के एक झोंके की तरह आया है। हैरानी की बात नहीं है कि फ्रांसीसी पूंजीवादी प्रेस ने और अनेक राजनीतिज्ञों ने, जिनमें नव-उदारवाद के पैरोकारों से लेकर धुर-दक्षिणपंथ के पैरोकार तक शामिल हैं, एनपीएफ के आर्थिक कार्यक्रम पर भारी हमला बोला है और लोगों को इसकी कहानियां सुनाकर डराने की कोशिश की है कि अगर इस कार्यक्रम को लागू कर दिया गया, तो फ्रांसीसी अर्थव्यवस्था तो बैठ ही जाएगी। इसके बावजूद, अब तक तो जनमत सर्वेक्षणों में एनपीएफ अच्छा ही प्रदर्शन कर रहा है। जनमत सर्वेक्षणों में जहां धुर-दक्षिणपंथ को 31 फीसद मतदाताओं का समर्थन मिल रहा है, एनपीएफ का वोट 26 से 28 फीसद के बीच आ रहा है और मैक्रां की पार्टी 20 फीसद से भी कम वोट के साथ तीसरे स्थान पर चल रही है।
फ्रांसीसी वामपंथ का अपने मतभेदों को एक तरफ रखकर, फासीवाद को शिकस्त देने के लिए एकजुट होना, अपने आप में एक स्वागतयोग्य संकेत है। सोशल डेमोक्रेटिक नेता ग्लक्समेन ने ज्यां लग मेलेंकों के प्रति अपनी पुरानी रंजिश को छोड़कर, एनपीएफ के लिए समर्थन का वादा किया है। और बदले में मेलेंकों ने वादा किया है कि अगर एनपीएफ की जीत होती है और गठबंधन के हिस्सेदारों को उसके नाम पर आपत्ति होती है, तो वह प्रधानमंत्री पद के लिए खड़े नहीं होंगे। धुर-दक्षिणपंथ को सत्ता से बाहर रखने के लिए, एनपीएफ के अंदर निजी महत्वाकांक्षाओं को और यहां तक कि विचारधारात्मक मतभेदों तक को उठाकर रखना, काफी महत्वपूर्ण है।
हमारी नजर से इससे भी ज्यादा उल्लेखनीय है, एक ऐसे साझा आर्थिक कार्यक्रम का अपनाया जाना, जिसकी हिमायत गठबंधन के सभी घटक कर रहे हैं और जो कार्यक्रम नव-उदारवाद के खिलाफ है और जो एक बिल्कुल नया तथा दिलचस्प रास्ता बनाता है। इन चुनावों का नतीजा चाहे जो भी हो, यह विचारों के क्षेत्र में एक नयी शुरूआत का इशारा करता है और खासतौर पर इसलिए ऐसा इशारा करता है कि यह सब एक विकसित अर्थव्यवस्था में हो रहा है।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:
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