महात्मा फुले का 'सत्य शोधक समाज' आज भी क्यों है अधिक प्रासंगिक?
24 सितंबर, 2023 को महान समाज सुधारक महात्मा ज्योतिराव फुले द्वारा स्थापित सत्य शोधक समाज के 150 वर्ष पूरे हो गए हैं। आधुनिक भारतीय परिवर्तन विमर्श में क्रांति-प्रतिक्रांति का एक वैचारिक इतिहास है। अन्नदाता किसान समुदाय की मूल्यवर्धित और सशक्त सामाजिक व्यवस्था से लेकर मनुस्मृति के बीजारोपण और अंकुरण तक का इतिहास प्रतिक्रांति का इतिहास है। यह वंचित-बहुजन वर्ग के लिए जीत और हार की लड़ाई है। वंचित-बहुजनों की परिवर्तनकारी क्रांति मुख्यत: बुद्ध के परिवर्तनकारी दर्शन से भी प्रेरित रही है। लेकिन 'बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय' पर बुद्ध की परिवर्तनकारी क्रांति, बदलती सामाजिक परिस्थिति में कहीं लोप होती जा रही है। परिणाम यह हुआ है कि अंधश्रद्धा और पाखंड की बुनियाद पर समाज फिर उस रास्ते पर चल पड़ा है जो वैज्ञानिक चेतना से विमुख है।
ऐसे में महात्मा फुले का वह विचार अंधकार में प्रकाश की तरह हो सकता है जिसके बीज 150 वर्ष पहले पड़े थे और जिसकी विरासत आज भी उतनी ही चमकदार है। क्रांति के जनक महात्मा फुले ने 24 सितंबर, 1873 को सत्यशोधक समाज की स्थापना कर भारतीय समाज को समग्र क्रांति की परिभाषा प्रदान करने वाली क्रांति रची थी और भारतीय समाज को व्यापक परिवर्तन की दिशा दी थी।
"सत्य शोधक समाज" पारंपरिक धार्मिक व्यवस्था को चुनौती देने वाला देश का पहला सामाजिक संगठन कहा जा सकता है। यह सामाजिक जीवन की सोच पर व्यंग्य करने वाला संगठन नहीं है, न ही इसका संबंध केवल शूद्र-अतिशूद्र के सवालों से है, बल्कि यह परिवर्तन के क्षेत्र में कदम रखने और सीधे तौर पर वंचित-बहुजनों की चिंताओं पर काम करने वाला संगठन है। याद रहे कि महात्मा फुले ने सबसे पहले 1853 में "सत्यशोध" और 1854 में "मनुस्मृति धिक्कार" पुस्तिकाओं के माध्यम से सत्यान्वेषी विचारधारा को देश में प्रस्तुत किया था।
सत्य शोधक के मूल में क्या?
महात्मा फुले के सत्यान्वेषी समाज से जुड़े विद्वान मानते हैं कि धर्मपरायणता का उन्माद रखने वाली मनुस्मृति ही वैदिकों का धर्मग्रंथ है। आज से डेढ़ सौ साल पहले 1854 के समय में मनुस्मृति जैसे ग्रंथ के विरुद्ध बोलने और लिखने के लिए जिस साहस की आवश्यकता थी वह वीरता, प्रगतिशीलता और क्रांतिकारिता से प्रेरित थे। यही वजह है कि तत्कालीन सामाजिक परिस्थिति में वैचारिक संघर्ष के साथ-साथ सामाजिक संघर्ष का भी अध्ययन करना आवश्यक होता है क्योंकि जो विचार हम आज कहने में झिझकते और डरते हैं वह विचार डेढ़ सौ साल पहले सार्वजनिक तौर पर जाहिर करना कोई मामूली बात नहीं रही होगी। इस दृष्टिकोण से भी यह विचार अहम साबित हुआ कि सामाजिक कल्याण और सामाजिक परिवर्तन के लिए बनाए गए किसी भी सामाजिक संगठन का लक्ष्य शोषण मुक्त समाज, भय मुक्त समाज, सशक्त समाज और मूल्यों को प्रतिबिंबित और संरक्षित करने वाले समाज के निर्माण की शुरुआत होता है। इस बात का अर्थ आज समझा जा सकता है और यह भी कि परिवर्तन की लड़ाई कितनी लंबी लड़ी जाती है क्योंकि ऐसे परिवर्तनशील विचार के सामने चुनौतियां आज नए सिरे से उजागर हुई हैं।
सत्य शोधक समाज के गठन के मूल में पारंपरिक भारतीय सामाजिक व्यवस्था में मौजूद रूढ़िवादी विचारों का विरोध है। यह भाग्य-विद्या, जाति-वर्ग, कर्मकाण्ड और जादू-टोनों से ग्रसित गुलाम भारतीय समाज को ऐसी बुराइयों से मुक्ति का आह्वान करता है। यह पिछले डेढ़ सौ वर्षों से धर्म के आधार पर एक जाति-विशेष के शासन के चलते लगातार पीड़ित हो रहे शूद्र और अति-पिछड़ी जातियों को यातनाओं और कष्टों से निकालने के लिए उनमें जन-जागरण का अभियान चलाता रहा है। महात्मा फुले के मुताबिक शोषित जातियों को इन बातों पर ध्यान देना चाहिए कि धर्म की आड़ में अन्याय और अत्याचार से कैसे छुटकारा पाया जाए।
जाहिर है कि यह विचार ईश्वर के नाम पर बनाई गई धार्मिक संरचना द्वारा पिछले हजारों सालों से शूद्र-अतिशूद्र और महिलाओं पर कायम दबदबे को चुनौती देता है। यही वजह है कि उस समय महात्मा फुले ने मनुस्मृति की निंदा करके उससे छुटकारा पाना अपना कर्म समझा था। उनका मत था कि ऐसा साहित्य और ऐसे साहित्य के प्रचारक बहुजन मानव समूहों के अधिकार और मानवता को छीन लेते हैं और उन्हें हमेशा के लिए गुलाम बना लेते हैं।
क्यों बनाया सत्य शोधक?
जब महात्मा फुले ने धर्म के आधार पर हर तरह की सत्ता पर काबिज जाति-विशेष के आचरण को उजागर किया तब भी उस जाति-विशेष से जुड़े व्यक्तियों के आचरण में कोई परिवर्तन नहीं आया, उल्टे वैदिक धर्म के प्रतिनिधि के रूप में उन्होंने शूद्र-अतिशूद्र और बहुजन समाज पर स्थायी गुलामी थोपने का प्रयास तेज कर दिया। उन्हें कर्मकांड के जरिए हमेशा के लिए गूंगा, अंधा, पंगु बनाने की गतिविधियां बढ़ा दीं और अमानवीय व्यवहार जारी रखा। तब महात्मा फुले द्वारा इस अमानवीयता का उन्मूलन करने और सत्य को अपनाने के लिए एक मानव समूह का निर्माण किया। यही मानव समूह सत्य शोधक समाज है।
सत्य की खोज करने वाले समाज का मुख्य सिद्धांत यह है कि यह समाज जाति, धर्म, पंथ, वर्ग, नस्ल, भाषा, लिंग और क्षेत्र की किसी भी सीमा से बंधा नहीं है। सत्य शोधक समाज उन सभी चक्रों को तोड़कर सत्य की खोज करने वाले समावेशी समाज के निर्माण के उद्देश्य से उभरा समाज है। इसमें इस बात पर ध्यान दिया जाता है कि सत्य की खोज करने वाले समाज के सदस्य को आत्म-अनुशासित और सत्य की खोज करने वाला व्यक्ति होना चाहिए।
सत्य की खोज करने वाले समाज के सदस्य से यह अपेक्षा रखी जाती है कि वह तर्कसंगत हो और उसमें वैज्ञानिक, सत्य और असत्य की समझ होनी चाहिए। साथ ही उसे एक स्वतंत्र समाज का निर्माण में मदद करनी चाहिए जो धार्मिक की आड़ में लाभ उठाने वाली जाति-विशेष के झूठ और ढोंग का शिकार न हो।
कैसा हो सत्य शोधक का सदस्य?
सत्य शोधक समाज के हर सदस्य से यह अपेक्षा की जाती है कि वह कर्मकाण्ड और पाखंड के नाम पर लूटने वाले मध्यस्थों की गतिविधियों का पर्दाफाश करें। साथ ही वह केवल सत्य अन्वेषी होना चाहिए।
इसी उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए सत्यशोधक समाज से जुड़ने वाले नामों में कृष्ण राव भालेकर, रावजी शिरोले भम्बूर्डेकर जैसे नाम प्रमुख थे जिन्होंने पुणे जिले में सत्यशोधक समाज की स्थापना की अहम भूमिका निभाई। इन्हीं ने लोगों के मन में यह विश्वास जमाया कि सत्यशोधक समाज का उपदेश मानव मूल्य की स्थापना के लिए कैसे उपयोगी और महत्वपूर्ण है। परिणाम यह हुआ कि बहुत तेजी से नए सदस्य जुड़ते चले गए। उसके बाद उस समय राजश्री रामय्या वेंकैया अय्यावरु, नरसिंगराव सैबू वडताला, जया यल्लापा लिंगु और यांकू बालोजी कालेवार और राजश्री गोविंदराव बापूजी भिलारे ने मुंबई और सतारा में बड़ी संख्या तक आम लोगों को सत्य शोधक का सदस्य बनाया।
सत्य शोधक के सदस्य के लिए यह अनिवार्य होता है कि वह विवाह इत्यादि समारोह के दौरान पुरोहित को न बुलाए क्योंकि विवाह जैसे समारोह में गरीब आदमी कई तरह की रस्मों का पालन करते हुए धन खर्च करता है और कर्जदार बन जाता है। सत्य शोधक सदस्य का यह कर्तव्य है कि वह विवाह की अवांछनीय प्रथाओं को रोकने का उपदेश दकर खास तौर पर देहाती और आम भारतीय समाज में जागृति और परिवर्तन लाने का प्रयास करे।
सत्य शोधन के मुख्य कार्य क्या?
सत्यान्वेषी समाज के मूल उद्देश्य के लिए कार्य करने वाले सत्यान्वेषी कार्यकर्ताओं को प्रेरित करना और उनकी रक्षा करना भी सत्य शोधन के मुख्य कार्य का हिस्सा है। इसी तरह, समाज में सत्य शोधक समाज के सत्य शोधक कार्य को पूरा करने के लिए हर संभव सहायता देना और विभिन्न गतिविधियों में धार्मिक शोषण के प्रति जनजागृति पैदा करना भी इसकी अगली कड़ी का भाग है।
अन्य कार्यों में समाज में पुनर्विवाह कराना। सत्य की बुनियाद पर समाज का पुनर्निर्माण करना। प्रगतिशील मूल्यों के लिए समुदाय में सुधार संबंधी गतिविधियां आयोजित कराते रहना। बच्चों को शिक्षा के लिए प्रेरित करना। अशिक्षित समाज में शिक्षा के महत्व को बढ़ाने में मदद करना।
उन्नीसवीं सदी के आठवें दशक की अवधि में सत्यशोधक समाज की ओर से समाज के उन सदस्यों के लिए एक रात्रि विद्यालय स्थापित करने का संकल्प लिया गया, जिन्हें दिन में पढ़ने का अवसर नहीं मिलता था और यह सब कुछ था।
महात्मा फुले के बाद उनकी पत्नी सावित्री बाई फुले ने सत्य शोधक समाज की धुरी को संभाला। उनके बाद महाराष्ट्र और देश के अनेक सत्य-शोधकों ने इस समाज की पताका अपने कंधों पर उठाई। सत्य की खोज करने वाले समाज के निर्माण के आंदोलन के गठन से कई सत्य खोजी लेखकों-विचारकों का जन्म हुआ। लेकिन, यह भी याद रखना जरूरी है कि बदलती परिस्थितियों में इस आंदोलन की उपेक्षा की गई।
आज अधिक प्रासंगिक क्यों?
यह सच है कि कई तरह के भेदभाव से भरे इस देश में बहुजन समाज के आंदोलन का नेतृत्व करने की चुनौती का सामना बहुजन समाज ने मजबूती से किया है और उन्होंने कर्मकांड, अंधविश्वास, मूर्ति पूजा का विरोध किया है बावजूद इसके अब तक अपेक्षित परिवर्तन क्यों नहीं हुआ? ऐसा इसलिए कि धारा के विपरीत बहना हमेशा मुश्किल होता है। कुछ जाति-विशेष के व्यक्तियों द्वारा ईश्वर को ही एकमात्र साधन बनाकर उसका उपयोग शाश्वत सामुदायिक स्वामित्व के भोग या भरण-पोषण के लिए किया जा रहा है। उन्होंने ग्रामीण क्षेत्रों के गरीब-भोले देहातियों को अस्तित्वहीन देव-धर्म का भय और भय दिखाकर नहीं, बल्कि अनेक षडयंत्र रचकर उनका उपयोग अंधश्रद्धा के अनुष्ठानों को बढ़ाने में किया जा रहा है। यही वजह है कि हर समय अपेक्षित परिवर्तन मिलना मुश्किल रहा है और आज यह पहले से ज्यादा जटिल है कि यथार्थवाद का यह स्वरूप मुख्यधारा की राजनीति का अंग बन गया है। यह परिवर्तन के क्षेत्र में कदम रखने और सीधे तौर पर वंचित-बहुजनों की चिंताओं पर काम करने वाला संगठन है।
हालांकि, विकट स्थितियों के बीच आज भी सत्य शोधक समाज अंधश्रद्धा के खिलाफ प्रचार कर रहा है। शिक्षा ज्ञान का हथियार है इस बात को साकार करने के लिए सत्य शोधक समाज के सदस्य खास तौर पर बहुजन समुदाय को शिक्षा की प्रेरणा दे रहा है। वैज्ञानिक चेतना के प्रति जमीनी स्तर पर प्रयास कर रहा है
इससे उम्मीद बंधती है कि शोषणमुक्त और समतामूलक सामाजिक व्यवस्था बनाने के सपने को लेकर आगे बढ़ते रहने पर परिवर्तन होगा। इसके लिए महात्मा फुले जैसे व्यक्तित्व की आदर्श छवि संबल की तरह है।
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