क्या चोर रास्ते से फिर लाए जाएंगे कृषि क़ानून!
19 नवम्बर की भाषणजीवी प्रधानमंत्री के तीनो कानूनों को वापस लेने की मौखिक घोषणा पर कैबिनेट ने 5 दिन बाद 24 नवम्बर को मोहर लगाई और संसद में बिना कोई चर्चा कराये 29 नवम्बर को उन्हें संसद के दोनों सदनों से भी रिपील कराने का बिल पारित करा लिया गया। यह देश ही नहीं दुनिया के एक अनूठे, असाधारण और ऐतिहासिक आंदोलन की जीत है।
किसानों ने अपने धैर्य, संकल्प और एकजुटता से हठ, अहंकार और घमण्ड को चूर किया है। इस बारे में काफी कुछ लिखा और कहा जा चुका है। लड़ाई अब एमएसपी की लीगल गारंटी दिलाने जैसे महत्वपूर्ण सवालों तक पहुंच चुकी है। किसान को पूरा यकीन है कि इस बार भी वे ही जीतेंगे।
बहरहाल यहां मुद्दा दूसरा है। वह यह है कि गाँव बसने से पहले ही उठाईगीरे आ पहुंचे हैं। यह भी कि चोर महज चोरी से चूका है, ज़रा सी फुर्सत मिलते ही ठगी और डकैती करने का इरादा उसने अभी नहीं छोड़ा है।
यूपी चुनावों में आसन्न दुर्गति के भय से फिलहाल क़ानून वापसी का क़ानून ले आया गया है। मगर चुनाव निपटते ही उनकी दोबारा वापसी का इरादा छोड़ा नहीं गया है और जैसा कि आरएसएस नियंत्रित भाजपा की ख़ास बात - एक साथ दो मुंही बाते करने की है, वही इस क़ानून वापसी के साथ भी हुआ है।
खुद प्रधानमंत्री ने अपने 19 नवम्बर के भाषण में भी इस बार बार कहा। संसद में पारित वापसी के बिल में भी इसे लिखापढ़ी को दोहराया गया है।
19 नवम्बर को अपनी 18 मिनट की स्पीच में नरेंद्र मोदी ने खुद को "तपस्वी" और "पवित्र हृदय" वाला बताते हुए कहा था कि ; "मैं देशवासियों से क्षमा मांगते हुए, सच्चे मन से और पवित्र हृदय से कहना चाहता हूं कि शायद हमारी तपस्या में ही कोई कमी रह गई होगी, जिसके कारण दिए के प्रकाश जैसा सत्य, कुछ किसान भाइयों को हम समझा नहीं पाए ........आज मैं आपको, पूरे देश को ये बताने आया हूं कि हमने तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने का, रिपील करने का निर्णय लिया है।"
वे आगे कहते हैं कि "हमारी सरकार देश के हित में, किसानों के हित में, कृषि के हित में, किसानों के प्रति पूर्ण समर्पण भाव से ये कानून लेकर आई थी। लेकिन इतनी पवित्र बात, पूर्ण रूप से किसानों के हित की बात, हम अपने प्रयासों के बावजूद "कुछ" किसानों को समझा नहीं पाए। कृषि अर्थशास्त्रियों ने किसानों को कृषि कानूनों को समझाने का पूरा प्रयास किया। हमने भी किसानों को समझाने की कोशिश की। हर माध्यम से बातचीत भी लगातार होती रही। किसानों को कानून के जिन प्रावधानों पर दिक्कत थी , उसे सरकार बदलने को भी तैयार हो गई। दो साल तक सरकार इस कानून को रोकने पर तैयार हो गई।" वगैरा वगैरा वगैरा !! यही बातें यही सरकार कभी गाली गलौज की भाषा में तो कभी किसान संगठनो से हुयी चर्चा में साल भर से कहती आ रही है। गरज ये है कि चुनावों के डर से क़ानून वापस भले ले लिए हों उन्हें गलत अभी भी नहीं माना है।
कमाल की बात यह है कि ठीक यही धोखेबाजी संसद में पारित किये गए क़ानून वापसी के क़ानून में भी है। कोई 1495 शब्दों के इस रिपील बिल में कानूनों के नाम और अन्य तकनीकी शब्द हटा दिए जाएँ तो आधे से कहीं ज्यादा (743) शब्द इन तीनो कानूनों को सही और इन्हे किसानों का कल्याण करने का महान काम बताने के लिए खर्च किये गए हैं। दुनिया के संसदीय लोकतंत्र में शायद ही कहीं ऐसा हुआ हो कि जब कानूनों को वापस लिया जा रहा हो तब भी उनकी इतनी भूरि-भूरि प्रशंसा की जा रही हो । इसके लिए जो "तर्क और फायदे" गिनाये गए हैं उन पर चर्चा करने में समय खर्च करने की कोई आवश्यकता नहीं। साल भर चला किसान आंदोलन इनकी बखिया पहले ही उधेड़ चुका है।
ठीक यही दोहरापन था जिसे छुपाने के लिए संसद के दोनों सदनों में इन पर बहस कराने से बचा गया। वापसी के लिए जैसे शर्मिन्दा हो रहे हों, उस अंदाज में तकरीबन 169 शब्दों का एक पूरा पैराग्राफ "किसानों के एक समूह" के आंदोलन को कोसने के लिए अर्पित किया गया है।
यही वे चोर रास्ते हैं, जिनसे दोबारा इन कानूनों को लागू किये जाने की मंशा साफ़ दिखाई देती है। इसी मंशा को साफ़ साफ़ शब्दों में बयान करता है मध्यप्रदेश के कृषिमंत्री का वह बयान जिसमे वे कहते हैं कि "कृषि क़ानून दोबारा लाये जायेंगे।"
यह मंत्री अकेला नहीं है। यूपी वाले कलराज मिश्र की "दोबारा यही क़ानून लाने" और साक्षी महाराज नाम के भाजपा नेता के इन कानूनों के "कभी भी फिर से ले आने" की बयानबाजी उनका निजी मत नहीं है - वह कुनबे की राय है।
जो बात प्रधानमंत्री के नाते नरेंद्र मोदी ने 19 को कही थी, वही बात 29 के क़ानून वापसी की प्रस्तावना में है। मोदी ने कहा था कि उन्होंने "जो किया किसानों के लिए किया। आप सभी के लिए मैंने मेहनत में कोई कमी नहीं की। मैं और ज्यादा मेहनत करूंगा ताकि आपके सपने साकार हों।" मतलब साफ़ था कि जिस तरह 2015 में रद्द कराये गए भूमि अधिग्रहण क़ानून के बाद किया था वैसी ही अथवा उससे बड़ी तिकड़म अभी की जाना बाकी है। जिस यूपी और उत्तराखंड को गद्दी और बकाया राज्यों में अपनी लाज बचाने के लिए यह वापसी हुयी है, यह अंतरिम झांसेबाज़ी है। भाई जी अबकी बार ज्यादा कड़ी तपस्या करने के इरादे के साथ आने वाले हैं।
किसान आंदोलन भी इस बात को जानता और समझता है। उसे पता है कि 2015 में भूमि अधिग्रहण के कुख्यात क़ानून को वापस लेने के बाद भाजपा ने अपनी प्रदेश सरकारों के मार्फ़त क़ानून बनवाकर, नोटिफिकेशन निकलवाकर किस तरह धूर्तता दिखाई थी और किसानो की जीत को उनसे छीन लिया था। इसी श्रृंखला में हाल ही में एक करतब भूमि अधिग्रहण कानूनों में संशोधन लाकर हरियाणा सरकार और सौदा पत्रक के नाम पर मंडियों के बाहर खरीदी को मान्यता देने का तरीका निकाल कर मध्यप्रदेश सरकार ने दिखाया है। इन तीन कानूनों के बाद भी यही तिकड़म आजमाई जा सकती है। इसीलिये किसान आंदोलन सचेत है और सन्नद्ध है।
किसान और हिन्दुस्तान का अवाम काले और पीले के बीच फर्क करना समझता है। वह पंक्तियों के बीच लिखे को पढ़ना और कहे के बीच अनकहे को सुनना-समझना जानता है। उसके नेतृत्व, संयुक्त किसान मोर्चे, ने प्रधानमंत्री के नाम एक खुली चिट्ठी लिखकर और लखनऊ की किसान महापंचायत और 26 नवम्बर को देश भर में हुयी कार्यवाहियों के जरिये तथा बाकी सवालों सहित साम्प्रदायिक विभाजन की साजिशों के खिलाफ अपनी लड़ाई जारी रखने का संकल्प दोहरा कर एक तरह से क़ैफ़ भोपाली साब के मिसरे में दोहरा दिया है कि ;
"ये दाढ़ियां ये तिलक धारियां नहीं चलतीं
हमारे अहद में मक्कारियां नहीं चलतीं।
कबीले वालों के सर जोड़िये मिरे सरदार
सरों को काट के सरदारियाँ नहीं चलतीं। "
(लेखक अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं और लोकजतन पत्रिका के संपादक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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