ओलंपिक में महिला खिलाड़ी: वर्तमान और भविष्य की चुनौतियां
जापान की राजधानी टोक्यो में हो रहे ओलिंपिक गेम्स में इस बार भारत से 56 महिलाएं भाग ले रही हैं। जब 2016 ओलंपिक रियो में हुआ था उसमें 63 पुरुष खिलाड़ी और 54 महिला खिलाड़ियों ने भाग लिया था। यद्यपि भारत से महिला खिलाड़ियों की संख्या पहले की अपेक्षा बेहतर हुई है, रफ्तार धीमी है और जहां तक पदक जीतने की बात है सबसे बेहतर खिलाड़ियों के होते हुए भी हम 10 पदक की संख्या तक महिलाओं को पहुंचाने में और स्वर्ण लाने में अभी सालों पीछे हैं। इसके कई कारण हमें स्पष्ट नज़र आते हैं।
एक तो हमारे देश में आज भी पितृसत्तात्मक मूल्यों के चलते गिने-चुने परिवार लड़कियों को स्पोर्ट्स में कैरियर बनाने देते हैं। एक तरफ जहां संगीत और नृत्य को प्रोत्साहित करने और फिल्म तारिकाओं को प्रमोट करने के लिए मीडिया एड़ी-चोटी का दम लगाता है और क्षेत्रीय व राष्ट्रीय टीवी पर दर्जनों रियलिटी शो प्रसारित किये जाते हैं, महिला खिलाड़ियों के साक्षात्कार व उनके बारे में बच्चों को परिचित कराने के लिए और खेलों के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए कार्यक्रम बिरले ही देखने को मिलते हैं।
हमारे पाठ्यक्रम में भी इनके बारे में कुछ खास नहीं दिया जाता। महिला खिलाड़ियों के लिए महिला कोच, क्लब व प्रशिक्षण केंद्रों की सर्वथा कमी देखी जाती है और इस दिशा में प्रयास अधूरे हैं। तब हम कैसे अपना टार्गेट बना पाएंगे कि पुरुषों के बराबर महिला खिलाड़ी अगले ओलंपिक में पहुंच सकें और अधिक पदक भी जीतें?
बहुत सारे और कारक हैं जो अंतर्राष्टीय स्तर पर भी महिला खिलाड़ियों को बाधित करते रहे हैं। महिला खिलाड़ियों को वेतन पुरुषों की अपेक्षा बहुत कम मिलता रहा है-कई बार 10 गुना कम और उनके लिए ‘प्राइज़ मनी’ भी कम होती है। स्क्वाश खिलाड़ी दीपिका पल्लिकल ने 2012-2015 तक राष्ट्रीय खेलों को बाॅयकाॅट किया था क्योंकि महिलाओं को इनाम की राशि पुरुषों की 40 प्रतिशत दी गई थी। राजीव गांधी खेल रत्न अवार्ड की बात करें तो महिलाओं के लिए 41.40 प्रतिशत अवार्ड हैं, अर्जुन अवार्ड महिलाओं के लिए 26.70 प्रतिशत हैं और केवल 11.4 प्रतिशत ध्यानचंद्र अवार्ड महिलाओं के लिए हैं।
महिलाओं के लिए द्रोणाचार्य अवार्ड 4.60 प्रतिशत ही हैं क्योंकि महिला कोच तो नहीं के बराबर हैं या हैं भी तो उन्हें केवल यौन उत्पीड़न के केस हल करने के लिए रखा गया है। आईओसी (IOC) ने पता किया था कि राष्ट्रीय ओलंपिक समितियों में केवल 20 प्रतिशत महिलाएं हैं। 10 देश तो ऐसे हैं जहां महिलाएं समिति में नहीं है।
कुछ ऐसे खेल हैं जहां महिला श्रेणी होते हुए भी उन्हें काफी कम तवज्जो दी जाती है-खासकर महिला क्रिकेट और महिला हाॅकी में। आप किसी से महिला क्रिकेट या हाॅकी टीम की कप्तान का नाम पूछें तो शायद ही कोई बता पाए। लगभग सभी महिला खिलाड़ी बताती हैं कि उन्हें खेल जगत में अपवाद-स्वरूप बर्दाश्त कर लिया जाता है पर बराबरी का दर्जा नहीं मिलता।
आइये हम इस दिशा एक प्रयास करें। इस बार के ओलंपिक गेम्स में महिला खिलाड़ियों से पाठकों को परिचित कराएं और उनकी अब तक की मेडल टैली भी देख लें। वे आधी आबादी का प्रतिनिधित्व कर रही हैं और बहुत सारी बाधाओं को लांघकर ओलंपिक तक पहुंची हैं। वहां वे देश का नाम रौशन कर रही हैं।
तेलंगाना की पी वी सिंधु से देश को हमेशा ही काफी उम्मीदें रहीं। इन्होंने रियो के 2016 ओलंपिक में रजद पदक जीता था, इस बार वह रजत न जीत सकीं पर चीन के हे बिंग जिआओ को हराकर कांस्य पदक जीतीं हैं। वह भारत की दूसरी महिला खिलाड़ी हैं जिन्होंने बैडमिंटन के महिला सिंग्लस में लगातार दो ओलंपिक पदक जीते हैं।
मीराबाई चानु वेटलिफ्टिंग, 49 किलो में इस बार कांस्य पदक जीत कर लाई हैं। मणिपुर की यह महिला बहुत ही साधारण परिवार से आती हैं और बताया जाता है कि लकड़ी के भारी बोझ उठाकर जलावन के लिए घर लाती थी, सो उसे बचपन से बोझ ढोने की आदत हो गई।
दीपिका कुमारी तीरंदाज़ी में भारत का प्रतिनिधित्व कर रही थीं, पर दुर्भाग्यवश वह दक्षिण कोरिया की ऑन सैन से हार गईं। उनका मानना है कि यदि फेडरेशन एक प्रदर्शन को आधार न बनाकर जाधव की जगह अतनु को उनका पार्टनर बनाई होती तो परिणाम कुछ और ही होता।
कमलप्रीत कौर और सीमा पुनिया ने महिला डिस्कस थ्रो में हिस्सा लिया। कमलप्रीत कौर ने फाइनल में छठा स्थान प्राप्त किया। पिछली बार से उनका प्रदर्शन भी बेहतर रहा। उनकी कोच राखी त्यागी, जो पटियाला से हैं, काफी अनुभवी ट्रेनर मानी जाती हैं।
दुत्ती चंद भी महिला 200मी के सेमिफाइनल तक नहीं पहुंच पाईं और आर्टिस्टिक जिमनासिटक्स में पश्चिम बंगाल की 26 वर्षीय प्रणति नायक ने पहली बार हिस्सा लिया पर वह फाइनल तक पहुचने से चूक गईं। कारण उन्होंने दूसरे पोल वाॅल्ट में हिस्सा नहीं लिया। प्रणति को देश में बहुत सारी असहिष्णु टिप्पणियां सुननी पड़ीं जबकि उनके कोच का कहना था कि वह बुरी तरह जख़्मी होने का खतरा नहीं उठा सकती थी, जिसके कारण यह फैसला लेना पड़ा।
भारत की महिला हाॅकी टीम ने रानी रामपाल के नेतृत्व में शानदार प्रदर्शन दिया और ऑस्ट्रेलिया को 1-0 से हराकर सेमीफाइनल में प्रवेश किया। आगे भी भारत को रानी रामपाल से भारी उम्मीदें हैं।
भारत से ऐथलेटिक्स में भाग लेने वाली महिलाएं भावना जाट और प्रियंका गोस्वामी हैं, जो महिला 20 किमी रेस वाॅकिंग में भाग ले रही हैं। अन्नू रानी महिला जैवलिन थ्रो में भाग ले रही हैं जबकि जहां तक बाॅक्सिंग की बात है, हममें से अधिकतर लोग मेरी काॅम, (51 किलो) के नाम से परिचित हैं, जो 5 बार विश्व चैंपियन रह चुकी हैं। उनके अलावा लवलीना बोरगोहांय, महिला बाॅक्सिंग, (69 किलो), पूजा रानी, (75 किलो) और सिमरनजीत कौर (60 किलो) बाॅक्सिंग में हिस्सा ले रही हैं। उधर भवानी देवी फेंसिंग में भारत से पहली बार हिस्सा लेंगी।
गोल्फ में अदिति अशोक भाग ले रही हैं और सुशीला देवी लिकमाबाम मणिपुर से हैं और जूडो में हिस्सा ले रही हैं।
अब यदि हम भारतीय महिला शूटर्स का नाम लें तो इनमें प्रमुख हैं अंजुम मोडगिल और अपूर्वी चन्देला, (10 मी विमेन्स एयर राइफल) और इलावेनिल वलरिवन इसी श्रेणी में हैं। तमिलनाडु की यह महिला आईएसएसएफ वर्ल्ड कप में दो बार स्वर्ण जीत चुकी हैं। मनु भाकर विमन्स एयर पिस्टल 10 मी. की प्रतियोगी हैं। तेजस्विनी सावंत और यशस्विनी देसवाल 50 मी विमन्स राइफल 3 पोसिशन के लिए, राही सर्नोबात विमेंस 25 मी. ऐयर पिस्टल और चिंकी यादव 25 मी पिस्टल में अपनी किस्मत आज़मा रही हैं।
कुश्ती में सीमा बिस्ला, फ्रीस्टाइल 50 किलो, विनेश फोगाट, (फ्रीस्टाइल 53 किलो), अंशु मलिक, (फ्रीस्टाइल 57 किलो) और सोनम मलिक (62 किलो) के लिए प्रतियोगी हैं।
मनिका बत्रा टेबिल टेनिस में हिस्सा ले रही हैं और सानिया मिर्ज़ा और अंकिता रैना टेनिस, विमेन्स डब्लस में भाग लेंगी। नेथरा कुमानन सेलिंग के लिए प्रतियोगी हैं। इसके अलावा भारतीय महिला 16-सदस्यीय हाॅकी टीम 41 वर्षों के बाद पहली बार सेमी फाइनल में पहुंचीं है।
ओलंपिक इतिहासः 1900 से पहले ओलंपिक में महिलाओं का प्रवेश नहीं
पहले ओलंपिक गेम्स 1896 में एथेन्स में सम्पन्न हुए थे, परंतु उसमें महिलाओं को प्रवेश नहीं मिला था। उस समय विश्व भर में महिलाओं को घरेलू या हल्के-फुल्के कामों के लायक ही समझा जाता था। इसलिए स्पोर्ट्स भी महिलाओं के दायरे से बाहर रहा; उसमें तथाकथित रूप से अधिक शारीरिक क्षमता रखने वालों, यानी मर्दों को ही हिस्सा लेने का मौका दिया जाता था।
महिलाओं को बराबरी का दर्जा कैसे मिले?
यूनेस्को के इंटरनैश्नल चार्टर ऑफ फिज़िकल एजुकेशन ऐण्ड स्पोर्ट (International Charter of Physical Education and Sport) की पहली धारा में कहा गया है कि शारीरिक प्रशिक्षण और खेल हर किसी के लिए मौलिक अधिकार है पर यह चार्टर 1978 से पहले नहीं अपनाया गया था। 1979 में महिलाओं के खेल में भाग लेने के अधिकार को औपचारिक रूप से सीडाॅ में जोड़ लिया था। ओलंपिक चार्टर के नियम 2.8 के तहत महिलाओं को हर खेल में पुरुषों के साथ बराबरी का दर्जा दिया जाना अनिवार्य माना गया। इसी चार्टर की मदद से सन् 1900 में पैरिस ओलंपिक में 22 महिलाओं को प्रवेश मिला जबकि कुल खिलाड़ी 997 थे। महिलाओं ने टेनिस, गोल्फ, सेलिंग, क्रोकेट (Croquet) और एक्वेस्ट्रियनिज़्म (Equestrianism) में हिस्सा लिया। आईओसी ने अंतर्राष्ट्रीय स्पोर्ट्स फेडरेशन और ओलंपिक गेम्स की संगठक समिति के साथ मिलकर प्रयास किये कि महिला कार्यक्रम को विस्तार दिया जाए। फलस्वरूप 1981 में महिलाओं को नेतृत्व के स्तर तक लाने के प्रयास शुरू हुए। इसके बाद से आईओसी में महिला सदस्यों को लिया जाने लगा। इस पूरे प्रयास में आईओसी के सातवें अध्यक्ष जुआन एन्टोनियो सामराख की बहुत बड़ी भूमिका रही। आज आईओसी में एक-तिहाई से अधिक, यानी 100 में 36 महिलाएं आ गई हैं जबकि 1990 में एक ही महिला कार्यकारिणी बोर्ड में थीं-फ्लोर इसावा फाॅनेका। फिर 1994 में महिला और स्पोर्ट्स पर बने अंतर्राष्ट्रीय कार्यकारी ग्रुप ने टार्गेट बना लिया कि सन् 2000 तक वे 10 प्रतिशत महिलाओं को निर्णयकारी स्थानों में ले आएगा और 2005 तक 20 प्रतिशत महिलाएं आ जाएंगी। 1996 में उन्होंने ओलंपिक चार्टर में संशोधन भी किया और महिलाओं को प्रोत्साहित करने के लिए हर संभव कदम उठाने का प्रण किया। यहां बता दें कि 1995 में जब बीजिंग सम्मेलन हुआ था तो यह घोषणा हुई कि खेल महिलाओं की बराबरी और सशक्तिकरण का एक महत्वपूर्ण औजार है। इसका प्रभाव निश्चित ही आईओसी के ऐजेण्डा पर पड़ा होगा। 2014 आते-आते आईओसी ने फैसला ले लिया कि 2020 तक 50 प्रतिशत महिलाएं ओलंपिक में भाग लेंगी और उन्हें हर किस्म का प्रोत्साहन व अवसर मुहय्या कराए जाएंगे। साथ ही ऐसे मिक्स्ड इवेंट तैयार किये जाएंगे जिसमें महिला व पुरुष दोनों एक साथ खेलें।
1991 से यह तय हो चुका था कि यदि कोई नया खेल ओलंपिक गेम्स में जोड़ा जाएगा, तो उसमें महिला प्रतियोगियों को अवश्य जगह दी जाएगी। पर बाॅक्सिंग को 2012 में लंदन ओलंपिक में ही जोड़ा गया था। आज हम बाक्सिंग में मैरी काॅम को भारत के एक स्पोर्ट्स सितारे के रूप में देख रहे हैं। ये अलग बात है कि इस बार वह कोई पदक नहीं जीत पाईं। कई ऐसे खेलों में महिलाएं भाग ले रही हैं जिन्हें पुरुषों का एकाधिकार माना जाता था, मस्लन वेटलिफटिंग, कुश्ती, शूटिंग, हाॅकी आदि। पर इन महिला खिलाडियों को तभी राष्ट्रीय पहचान मिलती है जब बाॅलीवुड इनपर फिल्में बनाता है।
कितना प्रोत्साहन मिला
श्रीकाकुलम में जन्मी करनम मल्लेश्वरी ने जब सिडनी ओलंपिक में 54 किलो श्रेणी में कांस्य पदक जीता, यह पहली बार हुआ था कि किसी महिला खिलाड़ी को ओलंपिक पदक मिला हो। यह ऐतिहासिक घटना थी। उन्हें अर्जुन एवार्ड और पद्मश्री से भी नवाज़ा गया, पर क्या कारण है कि आज वह खेल से रिटायर होकर फूड काॅर्पोरेशन ऑफ इंडिया की अधिकारी बन गईं? राजीव गांधी खेल रत्न अवार्ड और विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय इवेंट्स में 11 स्वर्ण पदक जीतने वाली करनम कहती हैं कि यदि उनके कोच ने उन्हें सही राय दी होती तो वह स्वर्ण पदक जीत सकती थीं पर उन्होंने गलत आंकलन किया। ‘‘कांस्य पदक तो एक तरह का डिमोशन था मेरे लिए’’ वह कहती हैं। उन्हें इस बात का भी अफसोस रहता है कि काफी समय बाद अब मीराबाई चानु पदक जीती हैं और शायद इनके बाद कोई नहीं होगा, क्योंकि इस खेल में गरीब घरों के बच्चे आते हैं, उन्हें उतना तवज्जो नहीं दिया जाता; उन्हें बहुत चोटें आती हैं इसलिए कोई आना भी नहीं चाहता। शायद यह व्यक्तिगत गम अधिक वस्तुगत स्थितियों पर एक टिप्पणी है।
यदि हम सानिया मिर्जा का खेल कैरियर देखें तो विश्व टेनिस में ऐसे कम ही खिलाड़ी मिलेंगे जिनको स्पोर्ट्स के सर्वोच्च अवार्ड मिले हों-अर्जुन अवार्ड, खेल रत्न अवार्ड और पद्मश्री व पद्म भूषण। फिर एक समय मिर्जा को क्यों कहना पड़ा था कि वह भारत में होने वाले इवेंट्स में नहीं खेलना चाहतीं क्योंकि उनको लेकर तमाम विवाद खड़े किये जाते हैं? उनके पोशाक तक को लेकर विवाद खड़ा हुआ। शादी से पहले एक बार राजदीप सरदेसाई ने उनके ‘सेट्ल’ होने की बात पूछ दी तब सानिया ने ठीक सवाल किया था कि क्या यह पुरुषों से भी पूछा जाता है। वह तो टेनिस में सेट्ल हो चुकी हैं, पर औरतों को शादी के बाद ही ‘सेट्ल्ड’ क्यों माना जाता है? विवाह के बाद मीडिया द्वारा सानिया को पूछा जाता रहा कि यदि भारत और पाकिस्तान का मैच हो तो वह किस तरफ होंगी? उन्हें लगातार ‘‘पाकिस्तान की बहू’’ कहा गया और यह भी पूछा जाता रहा कि पाकिस्तानी क्रिकेटर शोएब की जगह उन्हें भारतीय पति नहीं क्यों नहीं मिला? मिर्जा को कट्टरपंथी मुस्लिमों और हिन्दुत्ववादियों दोनों की ओर से कठोरतम हमलों का शिकार बनना पड़ा। सरकारें मूक दर्शक बनी रही।
इसी तरह दक्षिण कोरिया की आन सान ने दो स्वर्ण पदक जीतने के बाद भी ढेरों ट्रोल झेले जो उन्हें नारीवादी होने और छोटे बाल रखने पर नाराजगी जाहिर कर रहे थे। उनके लिए यहां तक कह दिया कि उनके पदक छीन लिए जाने चाहिये। कई महिला खिलाड़ियों से उनके व्यक्तिगत जीवन, मातृत्व, बच्चों की परवरिश संबंधी प्रश्न भी पूछे जाते हैं।
आगे बढ़ीं तों कैसे?
कठिनाइयां अनेक हैं पर अधिकतर महिला खिलाड़ी अपने दम पर ही आगे बढ़ीं या अपने परिवार के किसी सदस्य द्वारा प्रोत्साहित की गईं। उन्हें कांटों पर चलकर ही मंज़िल की ओर कूच करना पड़ा। भारत की पी वी सिंधु, सानिया मिर्जा और बबिता को तो उनके पिता से ट्रेनिंग मिली। पर क्या ऐसा नहीं लगता कि क्षमता के अनुरूप यदि हमारी महिला खिलाड़ियों को बचपन, यानी स्कूल से आर्थिक सहयोग, विशेष स्पोर्ट्स स्कूलों में प्रशिक्षण, पारितोषक, बेहतर पोषण, सलाह और खेल में प्रतियोगिता के अवसर दिये जाते तो उनमें से कई और उंचाइयों तक जातीं? यदि उनके वेतन और इनाम की राशि और मिलने वाले अवार्ड पुरुषों के बराबर होते तो शायद वे पुरुषों को तक मात दे सकती थीं। पर उन्हें दोयम दर्जे का खिलाड़ी माना जाता है, मानो खेल उनका पेशा नहीं हो सकता।
इस स्थिति से अंतर्राष्ट्रीय महिला खिलाड़ी भी जूझ रही हैं। मस्लन सबसे अधिक कमाने वाले खिलाड़ियों की सूची में सेरेना विलियम्स 40वें स्थान पर और मारिया शारापोवा 88वें स्थान पर थीं।
यदि हम साइखोम मीराबाई चानु को ही देखें कि वह मणिपुर के एक बहुत ही साधारण परिवार से आती है। रजत पदक दिलाने वाली इस महिला जिस उत्तर पूर्वी राज्य से आती है, उसका नाम लेने वाले कम हैं। अधिकतर भारतीय इन्हें मेनस्ट्रीम भारत से अलग मानते हैं। उत्तर पूर्वी राज्यों की लड़कियों के साथ न जाने कितने अत्याचार हुए हैं, क्योंकि उन्हें सुन्दरता के चलते ‘सेक्स ऑब्जेक्ट’ के रूप में देखा जाता रहा है। उनपर तरह-तरह की फब्तियां कसी जाती हैं और मोहल्लों व शहरों से भगाया तक जाता है। पर जब पदक मिलता है तो वह जरूर पूरे भारत का हो जाता है।
महिला खेलों को टीवी पर कम समय दिया जाता है और उन्हें देखने वाले दर्शक भी कम होते हैं। उन्हें सिर्फ 6-8 प्रतिशत् मीडिया कवरेज मिलती है। फोटोग्राफ में अक्सर उनके पोशाक और शरीर के अंगों पर फोकस किया जाता है क्योंकि इससे टीआरपी बढ़ती है। मस्लन सानिया की सबसे अधिक फोटो फैशन संबंधित होते हैं। खेल अधिकारियों और कोच कई बार महिला खिलाड़ियों को यौन उत्पीड़न का शिकार भी बनाते हैं पर उनकी शिकायतों को गंभीरता से नहीं लिया जाता। तमिलनाडु के पी नागराजन के विरुद्ध जब एक 13 वर्षीय खिलाड़ी ने 7 साल बाद शिकायत की तो 7 और खिलाड़ियों ने बताया कि इस व्यक्ति ने 2005 से उनके साथ भी ऐसी हरकतें की थीं। महिलाएं डर के मारे चुप ही रहीं; आखिर क्यों?
स्पोर्ट्स में पारदर्शिता लाने और खिलाड़ियों के लिए बेहतर स्थितियां प्रदान करने के लिए जरूरी है कि नेशनल स्पोर्ट्स डेवलपमेंट बिल 2013 को तत्काल पारित किया जाए और महिलाओं को पुरुषों के बराबर ही नहीं, बल्कि अधिक प्रोत्साहन दिया जाय। सर्वोच्च न्यायालय ने जब विधेयक पर सवाल किया था, भारत सरकार का जवाब था कि वह विचाराधीन है। आज 8 वर्ष बीत गए हैं। कोई बोलने वाला है?
(लेखिका एक एक्टिविस्ट हैं और महिला अधिकारों पर लिखती रही हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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