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वर्किंग टाइम एंड वर्क-लाइफ बैलेंस ज़रूरी

आईएलओ की रिपोर्ट के अनुसार कामकाजी लोगों के लिए कम काम के घंटे और अधिक फ्लेक्सीवर्क बेहतर कार्य-जीवन संतुलन को बढ़ावा दे सकते हैं।
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प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार: Indian Express

6 जनवरी 2023 को अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) ने वर्किंग टाइम एंड वर्क-लाइफ बैलेंस अराउंड द वर्ल्ड (Working time and Work-life Balance around the World) शीर्षक से 171 पन्नों की एक रिपोर्ट जारी की है।

यह रिपोर्ट एक ऐसी पृष्ठभूमि में आई है जब ILO के सर्वेक्षण के अनुसार, समस्त श्रमिकों में एक तिहाई से अधिक नियमित रूप से प्रति सप्ताह 48 घंटे (या प्रति दिन 8 घंटे से अधिक) से अधिक काम कर रहे हैं, जबकि वैश्विक कार्यबल का पाँचवे हिस्से को प्रति सप्ताह 35 घंटे से कम समय अनिश्चित रूप से (अंशकालिक) काम करना होता है।

क्या 8 घंटे का दिन बीते वक़्त की बात रह गई है?

संकल्पनात्मक रूप से, श्रमिक आंदोलन ने 19वीं शताब्दी के बाद से आदर्श संतुलन के रूप में '8-घंटे-काम-8-घंटे-विश्राम-और-8-घंटे-अवकाश' के विचार को विकसित किया था। भारत सहित कई देशों ने मानक के रूप में 8 घंटे के काम को निर्धारित करने वाले कानून पारित किए। फिर भी, कई देशों में इस सिद्धांत का व्यापक उल्लंघन होता है, और ऐसा दुनिया के एक तिहाई कार्यबल को कवर करने वाले कई कार्य क्षेत्रों में होता है।

चाहे वह हाई-टेक आईटी का काम हो या ई-कॉमर्स में गिग वर्क, अनौपचारिक काम- जैसे निर्माण या घरेलू काम- श्रमिक प्रति दिन 10 से 12 घंटे श्रम करते हैं। 8 घंटे के नियम का शायद ही कभी पालन किया जाता है, चाहे वह मजदूरी का काम हो या स्वरोजगार का काम।

ILO वैश्विक रिपोर्ट काम के घंटों की वास्तविक संख्या, कार्य-समय की व्यवस्था, और कार्य-जीवन संतुलन के लिए उनके निहितार्थ पर अब तक अनदेखे आँकड़े प्रस्तुत करती है; दोनों स्थितियों को कवर करती है- COVID-19 महामारी से ठीक पहले और महामारी के दौरान।

रिपोर्ट के निष्कर्ष

रिपोर्ट इस बात के साथ शुरू होती है: "काम किए गए घंटों की संख्या, जिस तरह वे व्यवस्थित होते हैं, और आराम की अवधि की उपलब्धता न केवल काम की गुणवत्ता, बल्कि कार्यस्थल के बाहर भी जीवन को प्रभावित कर सकती है। काम के घंटे और काम और आराम की अवधि के नियोजन का श्रमिकों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य और कल्याण, काम पर उनके घरों से आवागमन के दौरान सुरक्षा और और उनकी कमाई पर गहरा प्रभाव पड़ सकता है। उद्यमों के प्रदर्शन, उत्पादकता और प्रतिस्पर्धात्मकता के मामले में भी कार्य समय का महत्वपूर्ण प्रभाव है। कार्य समय संबंधित मुद्दों पर निर्णयों का अर्थव्यवस्था के व्यापक स्वास्थ्य, उद्योग की प्रतिस्पर्धात्मकता, रोजगार और बेरोजगारी के स्तर, परिवहन और अन्य सुविधाओं की आवश्यकता और सार्वजनिक सेवाओं के नियोजन पर भी प्रभाव पड़ सकता है।

विभिन्न क्षेत्रों और सेक्टरों में काम के प्रचलित घंटे

रिपोर्ट का अध्याय 2.3 काम के घंटों के सर्वेक्षण और विभिन्न देशों और विभिन्न क्षेत्रों में कई अलग-अलग दृष्टिकोणों से उसकी जांच से शुरू होता है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि दक्षिण एशिया में श्रमिकों के काम करने के घंटे दुनिया में सबसे लंबे हैं।

विश्व औसत कार्य-सप्ताह 43.9 घंटे का है। दक्षिण एशिया में प्रति सप्ताह औसतन 49 घंटे काम होता है।

भारत में 1970 के दशक से काम के घंटे लगातार बढ़ रहे हैं।

क्षेत्रवार, दुनिया में, 2019 में, थोक और खुदरा व्यापार में प्रति सप्ताह 49.1 घंटे काम करने का सबसे लंबा समय था। परिवहन और संचार क्षेत्र में काम के घंटे 48.2 घंटे और विनिर्माण क्षेत्र में 47.6 घंटे थे। कृषि में सबसे कम काम के घंटे- 37.9 घंटे, शिक्षा क्षेत्र में 39.3 घंटे और स्वास्थ्य सेवाओं में 39.8 घंटे रहे।

लेकिन हमने देखा है कि कोविड-19 संकट में स्वास्थ्य क्षेत्र के कर्मचारियों के काम के घंटों में तेजी से वृद्धि हुई, भारत में कई लोग प्रति सप्ताह 72 घंटे या उससे अधिक काम कर रहे थे। डिलीवरी वर्कर्स का भी यही हाल था। कई स्वास्थ्य संस्थानों में काम के घंटे 2019 के स्तर पर वापस नहीं पहुंच पाए। महामारी के चरम पर पहुंचने के दो साल बाद आने वाली रिपोर्ट में इसपर पर्याप्त रूप से प्रकाश नहीं डाला गया है।

काम के 48 घंटों से अधिक के काम को ILO द्वारा ‘लंबे समय तक काम करने के घंटों’ के रूप में परिभाषित किया गया है और यह खंड उन देशों और क्षेत्रों का विहंगम दृश्य प्रस्तुत करता है जहां लंबे समय तक काम किया जाता है।

समय संबंधित बेरोजगारी

‘ओवरवर्किंग’ (या अत्यधिक काम) काम के समय से संबंधित एकमात्र समस्या नहीं है। श्रमिकों के कुछ वर्ग स्वेच्छा से या मजबूर होकर दिन में 8 घंटे से भी कम काम कर रहे हैं। कम घंटे कार्य करना ILO द्वारा ‘अल्प-रोजगार’ के रूप में परिभाषित किया गया है।

ILO प्रति सप्ताह 20 घंटे से कम काम करने को ‘बहुत कम घंटे काम’ के रूप में और प्रति सप्ताह 35 घंटे से कम काम को ‘कम घंटे काम’ के रूप में परिभाषित करता है।

ILO सर्वेक्षण से पता चलता है कि 26.9% स्व-नियोजित श्रमिक और 15% नियमित वेतनभोगी कर्मचारी प्रति सप्ताह 35 घंटे से कम काम करते हैं। रिपोर्ट इसका श्रेय विकसित देशों में अंशकालिक कार्य (part-time work) के विस्तार को देती है। समस्त श्रमिकों का 39.5% और कृषि क्षेत्र में आधे से अधिक महिला श्रमिकों के खाते में कम घंटे हैं। अन्य क्षेत्रों जैसे व्यक्तिगत सेवाओं में कम घंटे काम आम है, जहां 25.5% कर्मचारी कम घंटे काम करते हैं।

केवल कुछ देशों के लिए महामारी अवधि का डेटा उपलब्ध है। उस डेटा के आधार पर रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि महामारी की पहली दो तिमाहियों के दौरान कम घंटे काम करने वाले कर्मचारियों के अनुपात में काफी वृद्धि हुई है।

यदि हम काम के समय की अवधि और नौकरी छूटने के बीच संबंध के बारे में रिपोर्ट के निष्कर्ष को देखते हैं तो पता चलता है है कि कम घंटे काम करने वाले कर्मचारी नौकरी के नुकसान अधिक झेलते हैं।

औपचारिक और अनौपचारिक क्षेत्रों के बीच कार्य समय का अंतर

अब हम देखें औपचारिक और अनौपचारिक क्षेत्रों के बीच काम के समय के अंतर को। विश्व स्तर पर बहुत कम घंटे (सप्ताह में 20 घंटे से कम) काम करने वाले श्रमिकों की हिस्सेदारी औपचारिक श्रमिकों की तुलना में अनौपचारिक श्रमिकों के बीच तीन गुना अधिक है। अनौपचारिक क्षेत्र की महिलाओं में से करीब 15% सप्ताह में 20 घंटे से कम काम करती हैं। पर काम के कम घंटे सामाजिक सुरक्षा के अभाव से भी जुड़े होते हैं। कुल मिलाकर, एक तिहाई से अधिक कर्मचारी सप्ताह में 48 घंटे या दिन में 8 घंटे से अधिक काम करते हैं।

कार्य-समय की व्यवस्था और कार्य-जीवन संतुलन

जिस तरह से कार्य-समय को व्यवस्थित किया जाता है उसे ‘कार्य-समय की व्यवस्था’ कहा जाता है और इसे कार्य अनुसूचियां (work schedules) भी कहा जाता है। कार्यदिवस को कई तरीकों से व्यवस्थित किया जा सकता है और वे विभिन्न तरीकों से कार्य-जीवन संतुलन को प्रभावित कर सकते हैं। रिपोर्ट का अध्याय 3 विभिन्न कार्य-समय व्यवस्थाओं का विश्लेषण करता है- जैसे क्लासिक स्टैंडर्ड वर्कवीक (cassic standard workweek); पाली में काम (shift work); अंशकालिक काम (part-time work); फ्लेक्सटाइम (flexitime)और टाइम-बैंकिंग व्यवस्था (time-banking arrangements); संकुचित कार्य सप्ताह (compressed work week); और काम के औसत घंटों के लिए योजनाएँ, जिसमें काम के वार्षिक घंटे भी शामिल हैं।

1919 के ILO कार्य घंटे सम्मेलन के बाद से 8 घंटे के कार्यदिवस का पारंपरिक कार्यदिवस- सुबह 9.00 बजे से शाम 5 बजे- (या इसके वेरिएंट) औपचारिक अर्थव्यवस्थाओं का आदर्श बन गया। रिपोर्ट का तर्क है-इस तरह का एक स्थिर वर्क शिड्यिूल श्रमिकों को अपने व्यक्तिगत जीवन को अपने कार्य प्रतिबद्धताओं के इर्द-गिर्द व्यवस्थित करने में मददगार होता है। उसके अनुसार इस तरह की कार्य व्यवस्था में कर्मचारी ‘बर्नआउट’ और भावनात्मक थकावट की कम घटनाएं रिपोर्ट की जाती हैं। पर आलोचकों का कहना है कि यह कामकाजी महिलाओं के लिए अनुकूल नहीं है, और फ्लेक्सीटाइम काम (भागों में विभाजित काम के घंटे) उन्हें बच्चों की देखभाल और घरेलू कामों को पेशेवर काम के साथ जोड़ने में मदद करता है।

अगला है शिफ्ट का काम, जिसमें रात का काम और सप्ताह-अंत (weekend) का काम शामिल है। यह कंपनियों को चौबीसों घंटे काम करने में सक्षम बनाता है। इससे रात की पाली में काम करने से कर्मचारी पूरे दिन आराम कर सकता है। पर वह उसे नींद से वंचित कर देता है, जो कार्य-जीवन संतुलन का एक महत्वपूर्ण घटक है और जो कर्मचारी के बेहतर स्वास्थ्य की गारंटी करता है।

अगला है अंशकालिक काम, जिसे ILO सप्ताह में 35 घंटे से कम काम के रूप में परिभाषित करता है। अंशकालिक काम पारिवारिक और अन्य गैर-कार्य प्रतिबद्धताओं के साथ काम के घंटों की अनुकूलता (compatibility) की सुविधा देता है। रिपोर्ट में स्वीकार किया गया है कि अगर काम के कार्यक्रम तय करने पर कर्मचारियों का कोई नियंत्रण नहीं रहता, तो केवल कम घंटे काम करने से कार्य-जीवन के द्वन्द्वों (work-life conflicts) का समाधान नहीं होता। विशेष रूप से जटिल चाइल्डकेअर की जिम्मेदारियों वाली महिलाओं के मामले में। अंशकालिक काम स्वैच्छिक है या पूर्णकालिक नौकरी की उपलब्धता की कमी के कारण एक विवश विकल्प, इससे भी फर्क पड़ सकता है।

अगली श्रेणी है काम के बहुत कम घंटे और "ऑन-कॉल" कार्य समय की व्यवस्था, जिसे गिग वर्क भी कहा जाता है। इन श्रमिकों को प्रतीक्षा समय (waiting time) के लिए कोई पैसा नहीं मिलता। वे पूरे दिन इंतजार करते रह सकते हैं और बिना किसी काम या कमाई के घर वापस भी जा सकते हैं। इस तरह के काम में प्रति सप्ताह काम के न्यूनतम गारंटीशुदा घंटे शामिल हो भी सकते हैं और नहीं भी। रिपोर्ट में इन गिग वर्कर्स पर सटीक डेटा की कमी और उनके लिए कानूनी और नियामक ढांचे के अभाव की ओर इशारा किया गया है। इन कर्मचारियों की अपनी समय-सारणी तय करने में कोई भूमिका नहीं होती है और इसलिए वे बेहतर कार्य-जीवन संतुलन के लिए अपने कार्यक्रम की योजना बनाने की स्थिति में नहीं होते। अप्रत्याशित कार्य शेड्यूल उनके स्वास्थ्य पर भारी पड़ता है। हालांकि, ऐसी कार्य व्यवस्था छात्रों और वरिष्ठ नागरिकों के लिए अधिक श्रम बाजार अवसर (labour market opportunities) प्रदान कर सकती है।

अगला है फ़्लेक्सटाइम की श्रेणी, जो श्रमिकों को यह चुनने की अनुमति देती है कि वे कब काम शुरू करें और कब समाप्त। वे यह भी तय कर सकते हैं कि वे एक सप्ताह में कितने घंटे काम करना चाहते हैं। अपने कार्य शेड्यूल पर नियंत्रण रखने से वे बेहतर कार्य-जीवन संतुलन बनाए रख पाते हैं।

अंत में, संकुचित (compressed) कार्य सप्ताह या 40-घंटे का कार्य सप्ताह (8 घंटे का पांच-दिवसीय सप्ताह या दस घंटे का चार-दिवसीय सप्ताह) कर्मचारियों द्वारा सबसे अधिक पसंद किया जाता है, लेकिन दुर्भाग्य से इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर अंतर्राष्ट्रीय डेटा ILO के पास उपलब्ध नहीं है।

रिपोर्ट में एक अध्ययन का हवाला दिया गया है (ब्राउन, केरी ए., एट आल. 2011. " आराम के लिए श्रम? संकुचित कार्य सप्ताहों के माध्यम से कार्य-जीवन संतुलन प्राप्त करना (“Labouring for Leisure? Achieving Work-Life Balance through Compressed Working Weeks” Annals of Leisure Research (1): 43-59), जो दिखाता है कि कंप्रेस्ड वर्कवीक्स के चलते बच रहे अतिरिक्त दिन से कई लाभ मिलते हैं, जिसमें श्रमिकों को परिवारों के साथ अधिक समय बिताने, एक साथ सप्ताहांत यात्राएं करने, बच्चों को उनकी गतिविधियों में ले जाने, दोस्तों के साथ मिलने.जुलने (socialization) और व्यक्तिगत गतिविधियों के लिए अपना समय बढ़ाना शामिल है।“

अध्याय 4 काम के कम घंटों को श्रमिकों द्वारा दी जा रही वरीयता और विभिन्न संदर्भों में अधिक घंटे काम करने के लिए मजबूर किए जाने के बीच विरोधाभास पर प्रकाश डालता है- एक बेमेल स्थिति या विरोधाभास जिसका, रिपोर्ट के अनुसार, श्रमिकों के कार्य-जीवन संतुलन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इस अध्याय ने कार्य और समय में असंतुलन की मात्रा निर्धारित करने के अद्वितीय मॉडल विकसित किए हैं, और कम-रोजगार (underemployment) और अधिक-रोजगार (overemployment) की मात्रा निर्धारित करने के लिए वस्तुनिष्ठ उपाय बताए हैं।

अध्याय 5 महामारी के दौरान विभिन्न देशों में अपनाए गए समय-संबंधित संकट प्रतिक्रिया उपायों (response measures) के अनुभव पर आधारित है और सुझाव देता है कि उनमें से कुछ को सामान्य समय के दौरान भी कैसे अपनाया जा सकता है।

अध्याय 6 निष्कर्ष पेश करता है और नीति के निहितार्थों की रूपरेखा तैयार करता है। यह रिपोर्ट के प्रमुख निष्कर्षों का सार प्रस्तुत करती है और व्यापक रूप से कम किए गए काम के घंटों और अन्य लचीली कार्य समय व्यवस्थाओं, जैसे फ्लेक्सीटाइम और टेलीवर्क आदि को बढ़ावा देने की आवश्यकता पर ज़ोर देती है। रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि ऐसी नीतियां कार्य-जीवन संतुलन को बेहतर बनाने में मदद करेंगी और इस तरह श्रमिकों और नियोक्ताओं दोनों को लाभ होगा।

रिपोर्ट में कुछ महत्वपूर्ण डेटा गायब हैं। यदि उन्होंने कंपनी लाभ का डेटा और काम के घंटों के डेटा को सहसंबद्ध (correlate) किया होता और श्रम उत्पादकता (labour productivity) डेटा व कुल कारक उत्पादकता (total factor productivity) पर डेटा को भी संक्षेप में प्रस्तुत किया होता, तो इससे अधिक बड़ी सच्चाई को सामने लाने में मदद मिलती। कार्ल मार्क्स ने श्रम समय में 'आवश्यक श्रम समय ' (“necessary labour time”) और 'अधिशेष श्रम समय' (“surplus labour time”) के रूप में अंतर किया है। पहला घटक श्रम शक्ति को खरीदने के लिए पूंजीपति द्वारा पेश किए गए धन के बराबर मूल्य (या श्रम शक्ति को पुन: उत्पन्न करने के लिए उपभोग की वस्तुओं के उत्पादन हेतु जो आवश्यक है) पैदा करता है। दूसरा घटक अधिशेष मूल्य पैदा करता है जो पूंजीपति को लाभ के रूप में जाता है। मार्क्स के अनुसार, पूंजीपति अतिरिक्त मूल्य को या तो काम के घंटों में समग्र रूप से वृद्धि कर या प्रौद्योगिकी व उत्पादकता बढ़ाकर उन्हीं काम के घंटों में अधिक उत्पादन प्राप्त करके सापेक्ष अधिशेष मूल्य में वृद्धि करता है। चूंकि ILO एक उदार फ्रेमवर्क के भीतर काम करता है, इसलिए हम उससे इस सच्चाई को उजागर करने की उम्मीद नहीं करते। यह रिपोर्ट की एक प्रमुख विश्लेषणात्मक कमजोरी है।

बड़े पैमाने पर कॉर्पोरेट अपराध

माना जाता है कि भारत हाई-टेक महाशक्ति के रूप में उभर रहा है। लेकिन यह उद्भव सामूहिक अपराध पर आधारित है। उद्योगों पर लागू होने वाले फ़ैक्टरी अधिनियम के समान, आईटी उद्योगों और अन्य उच्च-तकनीकी उद्योगों को कवर करने वाले दुकान और प्रतिष्ठान अधिनियम कानूनी रूप से निर्धारित करते हैं कि किसी भी कर्मचारी को सप्ताह में 48 घंटे से अधिक काम करने को नहीं कहा जाएगा। लेकिन सभी आईटी उद्योग- टीसीएस या इंफोसिस, विप्रो या किसी अन्य बड़े या छोटे आईटी प्रमुख हों- कर्मचारियों को 60 घंटे या उससे अधिक काम करने के लिए मजबूर करते हैं। यहां तक कि घर से काम करने के दौरान भी, वे लड़कियों का क्रूर शोषण करते थे और उन्हें सप्ताह में 72 घंटे या उससे अधिक काम करने पर मजबूर करते थे। पर संविधान और कानूनों को लागू करने के लिए बाध्य राज्य क्यों मूक दर्शक बना रहता है या सक्रिय रूप से समर्थन करता है? अफसोस की बात है कि भारतीय आधुनिकता ऐसे सामूहिक कॉर्पोरेट अपराध पर आधारित है।

यद्यपि 'कार्य समय और कार्य-जीवन संतुलन' संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी ILO के शीर्ष एजेंडे में से एक बन गया है, हम यह नहीं मान सकते हैं कि यह सदस्य देशों की श्रम नीतियों को अपने आप प्रभावित करेगा। इसे अपने एजेंडा बनाने और कामकाजी लोगों के बीच इस मुद्दे पर जागरूकता पैदा करने तथा इस पर संबंधित मांगों को उठाने की जिम्मेदारी श्रम आंदोलन की है। वह श्रमिकों को गोलबंद करे कि वे नियोक्ताओं द्वारा अत्यधिक काम करवाने को एक संज्ञेय अपराध बनाने की मांग सरकार से करें। साथ ही पांच-दिवसीय सप्ताह कानून आदि लागू कराने के लिए दबाव भी डालें।

(लेखक श्रम और आर्थिक मामलों के जानकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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