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झारखंड : नफ़रत और कॉर्पोरेट संस्कृति के विरुद्ध लेखक-कलाकारों का सम्मलेन! 

दो दिवसीय सम्मलेन के विभिन्न सत्रों में आयोजित हुए विमर्शों के माध्यम से कॉर्पोरेट संस्कृति के विरुद्ध जन संस्कृति के हस्तक्षेप को कारगर व धारदार बनाने के साथ-साथ झारखंड की भाषा-संस्कृति व “अखड़ा-संस्कृति” को बचाने के लिए ज़मीनी सामाजिक-सांस्कृतिक अभियान खड़ा करने की रूपरेखा तय की गयी।
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“झारखंड प्रदेश काफी संभावनओं वाला क्षेत्र है। ऐतिहासिक काल से ही यहाँ के आदिवासी व मूलवासी समुदायों ने अपने अस्तित्व-अस्मिता और अधिकारों के लिए अनेकानेक बहादुराना संघर्ष किये हैं। पूर्व के समय में अंग्रेजी हुकुमत वाली ईस्ट इंडिया कंपनी से लेकर वर्तमान में कई कई कॉर्पोरेट कंपनियों द्वारा यहाँ के जल जंगल ज़मीन और प्राकृतिक संसाधनों की लूट और दोहन के विरुद्ध यहाँ के आदिवासी-मूलवासी समुदायों तथा किसान मजदूरों का सशक्त प्रतिरोध निरंतर जारी है। 

वर्तमान केन्द्रीय सत्ता की ‘लूट, झूठ और बूट’ की संस्कृति का मुकाबला यहाँ की विविध भाषा-संस्कृति व समुदायों की व्यापक एकता आधारित जन संघर्षों की जन संस्कृति से ही संभव है....“ उक्त बातें झारखंड जन संस्कृति मंच के चौथे राज्य सम्मलेन में जुटे लेखक-कलाकरों को संबोधित करते हुए समकालीन जनमत पत्रिका के प्रधान संपादक रामजी राय ने कही। 

‘नफ़रत और विभाजन व कॉर्पोरेट संस्कृति के विरुद्ध प्रेम-एकता व जन संस्कृति के हस्तक्षेप’ के लिए 7 एवं 8 मई’ 22 को झारखंड जन संस्कृति मंच के चौथे राज्य सम्मलेन में प्रदेश के विभिन्न भाषाओं के लेखक-कलाकार रांची में जुटे।

झारखंड राज्य गठन आन्दोलन व नवनिर्माण के सांस्कृतिक प्रणेता माने जानेवाले प्रख्यात शिक्षाविद-साहित्यकार तथा झारखंड जसम के संस्थापक अध्यक्ष रहे डा. वीपी केसरी को समर्पित सभागार में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित डा. निर्मल मिंज व चर्चित कार्टूनिस्ट बशीर अहमद मंच पर यह कार्यक्रम हुआ। 

कोरोना महामारी काल में दिवंगत हुए सभी लेखक-कलाकरों की याद में मौन श्रद्धांजली के पश्चात् झारखंड जसम की महिला सांस्कृतिक टीम ‘प्रेरणा’ द्वारा प्रस्तुत- झारखंड कर माटी के रंगा जोहार, जंगल जमीन के करा अपन अधिकार...स्वागत गीत से सम्मलेन के प्रथम दिन की कार्यवाही शुरू हुई।

सम्मलेन का उद्घाटन जाने माने आलोचक एवं जसम के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष डा. रविभूषण ने किया। अपने उद्घाटन वक्तव्य में उन्होंने कहा कि, “वर्तमान का समय केंद्र की सत्ता में काबिज़ शासन द्वारा घृणा-हत्या व लूट-झूठ की संस्कृति को बढ़ावा देनेवाला है। इसमें हर तरफ भूख व मौत की संस्कृति को स्थापित किया जा रहा है। खुद के लोकतांत्रिक होने का दावा करने वाली सत्ता, कैसे आम जन के लिए लोक पक्षधर हो सकती है? जिसने दिन रात कॉर्पोरेट हितों को बढ़ावा देने वाली अपनी तमाम नीतियाँ लागू करने के लिए ही चारों ओर धार्मिक उन्माद व धर्मान्धता को फैला रखा है। भारत की डेमोक्रेसी को ‘कौर्पोरेटोक्रेसी’ में तब्दील कर देने वाली जारी कवायद के तहत ही सभी राजनीतिक दलों व मीडिया को अपने मातहत संचालित कर रही है। चंद कॉर्पोरेट घरानों के हाथों में ही राष्ट्र की पूरी संपत्ति दे दी गयी है।

सभी लोकतांत्रिक संस्थाओं को खोखला बनाकर देश के संविधान व लोकतंत्र को लहुलुहान किया जा रहा है। जिसका कारगर जवाब प्रतिरोध की एक नयी संस्कृति और भाषा से देने की ज़रूरत है। लेकिन विडंबना है कि भाजपा को छोड़कर अन्य किसी भी राजनितिक दल के एजेंडे में संस्कृति कोई मुद्दा नहीं है। जन संस्कृतिकर्मियों के लिए आज जैसी चुनौतियां कभी नहीं रही। कई दिग्गज़ लेखक, कवि-कलाकार और बुद्धिजीवी इतना सबकुछ देखकर भी मौन साधे हुए हैं। ऐसे में इन नकारात्मक यथास्थितियों के विरुद्ध जन संस्कृति को कारगर व धारदार बनाने की नियमित ज़मीनी सक्रियता विकसित करनी होगी। शब्दों से फैलाये जा रहे ज़हर को रोकने व जन समुदायों को आसन्न खतरों से बचने के लिए हर जन संस्कृतिकर्मी को तैयार होना होगा। 

चर्चित आन्दोलनकारी दयामनी बारला ने झारखंड में हावी कॉर्पोरेट-लूट संस्कृति की जानकारी देते हुए बताया कि लम्बे समय से यहाँ के आदिवासी जीवन समाज पर ‘लाठी-बंदूक’ के बल पर थोपी जा रही है\। प्रधानमंत्री स्वामित्व कार्ड योजना की आड़ में पांचवी अनुसूची के इलाकों में जबरन ‘ड्रोन सर्वे’ कराकर आदिवासियों के बचे खुचे जंगल ज़मीन को लूटने की साजिश जारी है। 

वरिष्ठ झारखंडी लोक कलाकार और नागपुरी के प्रगतिशील लोक गायक महाबीर नायक ने झारखंडी कला संस्कृति पर बढ़ रहे बाज़ार-संस्कृति के दुष्परिणामों को रेखांकित किया। साथ ही कहा कि भाजपा हमारे पुरखों की संस्कृति पर अपनी विभाजनकारी संस्कृति थोप रही है। झारखंड की ‘अखड़ा-संस्कृति’ को बचाने पर जोर देते हुए कहा कि आज इसे नहीं बचाया गया तो ज़ल्द ही हम किसी म्यूज़ियम की वस्तु बनकर रह जाएंगे। उक्त मुद्दे पर अपने चर्चित नागपुरी गीत की भी प्रस्तुति की।

वरिष्ठ फिल्मकार एवं जलेस के डा. विनोद कुमार ने कहा कि वाम सांस्कृतिक धारा व जन संस्कृति के सशक्त हस्तक्षेप के लिए ज़रूरी है कि दलित, आदिवासी पिछड़ों समेत बहुजन समाज की व्यापक भागीदारी सुनिश्चित हो।

झारखंड के क्षेत्रीय भाषाविद व खोरठा विद्वान डा. बीएन ओहदार ने कहा कि झारखंड की सामाजिक सांस्कृतिक एकता में ‘जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग’ का बहुत अहम् भूमिका रही है। भाजपा द्वारा नियुक्त राज्यपाल के जरिये अब इसे 9 भाषाओँ में अलग अलग तोड़कर झारखंडी एकता को छिन्न भिन्न करने की साज़िश की जा रही है।

प्रलेस झारखंड के सचिव प्रो. मिथिलेश ने कहा की आज जनता का संकट किसी का मुनाफ़ा है। कॉर्पोरेट संस्कृति बेलगाम ढंग से आगे बढ़ सके, इसके लिए ही व्यापक तयारी के साथ जनता के बीच नफ़रत का नशा बोया जा रहा है। वाम-प्रगतिशील जन सांस्कृतिक धारा पर अस्मितावाद से लेकर सभी किस्म के वादों ने सुनियोजित हमला बोल रखा है। जिससे मुकाबले के लिए व्यापक सांस्कृतिक एकता फौरी ज़रूरत बन गयी है।

जन संस्कृति मंच के राष्ट्रिय महासचिव मनोज सिंह ने कहा कि भारत को किसानों युवाओं का देश कहा जाता है, लेकिन आज देश में सबसे अधिक आत्महत्या इन्हीं तबकों से हो रही है। जो लड़ाई देश के संसाधनों के सामान बंटवारे से शुरू हुई थी, वह पांच किलो अनाज और एक किलो राशन तक सिमट कर रह गयी है। इस सूरत को बदलने के लिए एक एकताबद्ध लड़ाई की ज़रूरत है।

सत्र की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार विद्याभूषण ने कहा कि चिंताओं की साझेदारी से ही हम मंज़िल की ओर बढ़ सकते हैं। झारखंड जो ऐसी भाषाओं का इलाका है जो आज संकट में हैं। हमें इन भाषाओँ को मरने नहीं देना है। सत्र का संचालन जेवियर कुजूर तथा स्वागत वक्तव्य अनिल अंशुमन ने दिया।   

सम्मलेन के केन्द्रीय थीम पर आयोजित आयोजित विमर्श सत्र को मुख्या वक्ता के तौर पर चर्चित आलोचक, इलाहबाद वीवी हिंदी विभागाध्यक्ष व जसम के पूर्व महासचिव प्रणयकृष्ण ने सम्बोधित किया। अपने संबोधन में चर्चित हॉलीवुड फिल्म ‘टाईटेनिक’ का उदाहरण देते हुए कहा कि जैसे पूंजीवादी संस्कृति का प्रतीक टाईटेनिक जहाज मनुष्य और प्रकृति के खिलाफ चला, तो डूब गया, वैसे ही वर्तमान के कौर्पोरेटी जहाज भी डूबना ही है। जो पूंजीवाद की शुरुआत में मनुष्य की मुक्ति का नारा देकर खुद को स्थापित कर रह था, अब बूढ़ा होने के साथ जातिवाद, सम्प्रदायवाद और सामंतवाद को गले लगा रहा है। अभी पूंजीवाद का सबसे दरिंदगी भरा दौर देखा जाना बाकी है, जो समाज में मौजूद सभी विनाशकारी तत्वों का खुलकर इस्तेमाल कर रहा है। ऐसे में जन संस्कृति को अतीत, वर्तमान और भविष्य तीनों को नज़र में रखकर अपने कार्यभार तय करने होंगे। इस सन्दर्भ में झारखंड से जुड़े रचनाकारों की चर्चा करते हुए कहा कि आज जो आदिवासी लेखन हो रहा है, वह पूंजीवाद की समग्र आलोचना है।

सत्र को सम्बोधित करते हुए उपन्यासकार रणेंद्र ने भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में निहित विभिन्न वैचारिक रुझानों की चर्चा करते हुए गाँधी के रामराज्य और दक्षिणपंथ के रामराज्य के बीच के अन्तर की ओर ध्यान आकृष्ट किया। साथ ही जन संस्कृति को अस्मितावाद के जाल में फंसने से आगाह किया।

समकालीन जनमत के प्रधान संपादक रामजी राय ने कहा कि आज वर्तमान की केंद्र सरकार कॉर्पोरेट लूट की नीतियों को लागू करने के लिए ही ‘ लूट झूठ फूट की संस्कृति’ थोप कर ‘ बूट की संस्कृति’ थोप रही है। जिसके तहत आज बुलडोज़र सत्ता का शक्ति प्रतिक बनाया जा रहा है। यह बुलडोज़र किसके खिलाफ है, कहने की ज़रूरत नहीं है। उन्होंने जोर देते हुए यह भी कहा कि इसमें कोई शक नहीं है कि देश में फासीवाद आ चुका है। जिसके खिलाफ हर स्तर पर प्रतिरोध के नए-नए औज़ार तलाशने और गढ़ने होंगे। 

सम्मलेन के दूसरे दिन के सत्र में ‘झारखंड की आदिवासी एवं क्षेत्रीय भाषाओं की रचनाशीलता एवं वैचारिक चुनौतियों’ पर विमर्च किया गया।

दो दिवसीय सम्मलेन के विभिन्न सत्रों में आयोजित हुए विमर्शों के माध्यम से कॉर्पोरेट संस्कृति के विरुद्ध जन संस्कृति के हस्तक्षेप को कारगर व धारदार बनाने के साथ-साथ झारखंड की भाषा-संस्कृति व अखड़ा-संस्कृति को बचाने के लिए ज़मीनी सामाजिक-सांस्कृतिक अभियान खड़ा करने की रूपरेखा तय की गयी।    

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