मानवता पर छाए इस गंभीर संकट के दौरान सभी युद्धों को रोक देना चाहिए
आज जब हम Covid-19 रूपी एक ऐसे दौर में जी रहे हैं जिसमें क़रीब 2 अरब की संख्या में लोग पूर्ण लॉकडाउन की हालत में जीने को विवश हैं। संकट इतने व्यापक पैमाने पर छाया हुआ है कि आने वाले लंबे समय तक इसके चौंका देने वाले परिणाम हममें से हर एक पर पड़ने अवश्यम्भावी हैं। ये बदलाव तो होकर रहेंगे, लेकिन अभी ये तय नहीं कि ये बेहतर होने जा रहे हैं या बदतर के लिए। यही वह सटीक पल है जब हमें गहनतापूर्वक मनन करने की आवश्यकता है कि क्या इस आपदा में फँसे होने के बावजूद भी युद्ध, सशस्त्र संघर्ष और सैन्य हमलों के जरिये हिसाब-किताब निपटाने जैसे कृत्यों को जारी रखा जाना चाहिए?
हो सकता है एक ऐसे समय में जब हम सभी एक तबाही के दौर से गुजर रहे हैं, यह सुनना एक खाम-ख्याली भले ही न लगे लेकिन असंगत महसूस हो। लेकिन युद्ध अस्तित्व की स्थाई शर्त नहीं है। और ना ही एक महामारी से ग्रसित लोगों के लिए यह वांछनीय ही है। कृपया गौर कीजिए कि इस महामारी के चलते ज्यादातर नव-उदारवादी अर्थव्यवस्थाएँ जो आजतक जोर-शोर से “मितव्ययता” के प्रचार में मशगूल थीं, आज वही अपनी अर्थव्यस्था में जान फूँकने वाले एक से बढ़कर एक पैकेज के साथ सामने आ रही हैं। इसीलिए जहाँ तक युद्धों का सम्बन्ध है, यह संकट भी इस दिशा में बदलाव के सुनहरे मौके से कम नहीं है।
काफी लम्बे अर्से से हमारे गणतंत्र के नागरिक भी मूक दर्शक बने हुए थे। अपने ही लोगों के सैन्य दमन को उन्होंने बिना किसी सक्रिय प्रतिरोध के मान्यता देने का काम किया। इसकी मुख्य वजह थी हमारी सरकारों के पास न तो इस चुनौती से निपटने की राजनीतिक इच्छाशक्ति थी और ना ही समस्या के मूल कारणों से मुखातिब होने के प्रति उनमें कोई दिलचस्पी ही बची थी। इसके बजाय हर समस्या के लोकतान्त्रिक समाधान की माँग पर खुद को केन्द्रित रखने के बजाय उन्होंने कठोर कदम उठाकर संघर्ष को और फलने-फूलने में अपनी रूचि दिखाई है, जिसके चलते कई मौकों पर वृहत पैमाने पर सैन्य दमन का भी सहारा लिया गया।
इन युद्धों में विभाजन के दोनों किनारों पर खड़े हमारे सबसे बेहतरीन नौजवानों को हमने खोया है। इन बेमतलब के प्रयोजनों ने हमारे दुर्लभतम संसाधनों की बर्बादी कर डाली है, जिनमें से कुछ तो आज भी सुलग रहे हैं। जिसके चलते हमारे देश की अहम मानवीय एवं भौतिक संपदा तबाहो-बर्बाद और लुट रही है।
इस बेहद सामयिक मौके पर संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने हमारा ध्यान इस ओर आकर्षित किया है कि कैसे "... वायरस का प्रकोप युद्ध की मूर्खता को दर्शा रहा है।” उन्होंने तत्काल प्रभाव से वैश्विक युद्ध-विराम और सशस्त्र संघर्षों के समाप्ति की अपील की है ताकि दुनिया अपना सारा ध्यान Covid-19 से लड़ने पर केंद्रित कर सके। हालाँकि उनकी इस अपील का बहरे हो चुके कानों पर कोई असर नहीं पड़ा, यहाँ तक कि मीडिया तक ने इसे नजरअंदाज किया। कितने अफ़सोस की बात है, क्योंकि हर संकट का क्षण एक अवसर भी है दिशा परिवर्तन का, एक ऐसे साझा हितों के इर्द गिर्द सभी को खड़ा करने का दुर्लभ पल।
विडंबना यह है कि ऐसा कोई एकमात्र प्रयास अगर कहीं चलाया भी जा रहा है तो वह भारत के पड़ोस में स्थित अफगानिस्तान में युद्ध की समाप्ति को लेकर किये जा रहे हैं। और ऐसा भी सिर्फ इसलिये हो पा रहा है क्योंकि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प इस बात को लेकर बैचेन हैं कि अमेरिका में होने जा रहे नवंबर के राष्ट्रपति चुनावों से पहले तक अफ़ग़ानिस्तान से किसी तरह बाहर निकला जा सके। जिसे 2001 के बाद से संयुक्त राज्य अमेरिका और उसके गठबंधन में शामिल मित्रों की ओर से पैदा किये गए एक निरर्थक और लम्बे समय से जारी युद्ध से "लड़कों की घर वापसी" के नायक के तौर पर भुनाया जा सके। हालांकि यहां पर भी काबुल में मौजूद प्रतिद्वंद्वी "राष्ट्रपतियों" ने संयुक्त राज्य अमेरिका के तालिबान के साथ बातचीत के लिए एकताबद्ध हो जाने और एकजुट सरकारों के तौर पर सामने आने के दबाव को अनसुना कर दिया है।
इसने अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पिओ को यह कहने के लिए उकसा डाला है कि काबुल में प्रतिद्वंदी जोर आजमाइश में लगे गुटों की वजह से "अमेरिकी राष्ट्रीय हितों के लिए ख़तरा" पैदा हो गया है। परिणामस्वरूप पोम्पेओ ने चालू वित्त-वर्ष और 2021 के लिए सैन्य सहायता में $ 1 बिलियन की कटौती की घोषणा तक कर डाली। इसके बाद वे चेताते हैं कि “हमने नेतृत्व को स्पष्ट कर दिया है” कि वे अपने सैन्य अभियान वाली हरकतों से बाज आ जायें, क्योंकि इससे तालिबान के साथ जारी शांति प्रक्रिया को धक्का पहुँचता है।
उन्होंने इस बात को भी एक बार फिर से दोहराया कि संयुक्त राज्य अमेरिका "ऐसे सुरक्षा अभियानों के साथ नहीं खड़ा रहने वाला जो राजनीति से प्रेरित हों और न ही ऐसे अभियानों को निर्देशित करने वाले राजनीतिक नेतृत्व को अपना समर्थन देने जा रहा है।" इन सबके बीच इस युद्धग्रस्त देश में Covid-19 महामारी की शक्ल में एक और भारी आपदा मुहँ बाए खड़ी है।
अब इसके पीछे अमेरिका का मकसद चाहे जो हो, लेकिन हकीकत तो यह है उनके अफगानिस्तान से लौट जाने की आकांक्षा की वजह को अफगानी लोगों के लिए एक आशा की किरण के रूप में देखा जाना चाहिए। युद्ध से बिखरे पड़े इस अफगान राज्य को आज तत्काल बाहरी मदद की जरूरत पड़ने वाली है जिससे कि वह इस वायरस से होने वाले नए संकट से निपटने में सक्षम हो सके। इसके पड़ोस में स्थित किसी भी दक्षिण एशियाई देश की हालत ऐसी नहीं कि वह कुछ खास मदद कर पाए। पाकिस्तान पहले से ही Covid-19 संक्रमणों और मौतों की बढ़ती घटनाओं के बीच गुजर रहा है। वहीँ भारत इस विपदा में अपनेआप में उलझा पड़ा है।
वास्तविकता में अफगानिस्तान में कोई भी प्रयास बिना संघर्ष-विराम के कामयाब होने नहीं जा रहे हैं।
वहीँ अफगानिस्तान के विपरीत लीबिया में हालात पर नजर डालें तो यहाँ स्थिति बिलकुल उलट है। जिस यूरोपीय संघ और नाटो देशों ने पहले-पहल इस युद्ध को छेड़ रखा था और बाद में छद्म युद्ध के रास्ते खोल दिए, आज इस देश को पूरी तरह से बर्बाद करने के बाद खामोश बैठ चुके हैं। अब लीबिया के इस गृहयुद्ध में कुछ नई बाहरी शक्तियों की घुसपैठ हो चुकी है। ये अपने-अपने अबूझ हितों की पूर्ति के लिए विभिन्न प्रतिद्वन्दी युद्ध सरदारों के साथ गठजोड़ कर यहाँ पर अपनी जडें जमा रहे हैं। लीबियाई जनता आज पूरी तरह से इनकी दया की मोहताज़ है।
जहाँ तक फिलिस्तीनियों का प्रश्न है तो इस महामारी के दौर में भी वे उपेक्षित पड़े हैं और कब्जा किये गए क्षेत्र में कष्ट भोगते हुए जीवित रहने की दोहरी मार को झेलने को अभिशप्त हैं।
अब देश के भीतर नजर दौडाएं तो ना ही कश्मीर में और न ही जंगलों से घिरे मध्य भारत में ही सशस्त्र संघर्ष-विराम हो पाया है। जबकि इस बात के लिए कई बेहतर तर्क मौजूद हैं कि क्यों भारत को आज संयुक्त राष्ट्र महासचिव की अपील पर ध्यान देने की जरूरत है। खासकर तब जब इस विभाजन के दोनों ओर हमारे अपने ही लोग खड़े हैं।
चलिए एक बार के लिए यह भी भुला देते हैं कि भारत के भीतर चल रहे युद्धों में क्या सही और क्या गलत है। आज ध्यान देने वाली महत्वपूर्ण बात ये है कि आज सभी मान रहे हैं कि सामाजिक दूरी/अलगाव बनाये रखे जाने की अनिवार्यता इस नॉवेल कोरोनावायरस जैसी महामारी से लड़ने का सबसे उत्तम जरिया है। तो ऐसे में सैन्य अभियान जारी रखने के लिए भारी संख्या में इन सुरक्षा बलों की तैनाती तो सर्वथा अनुचित है। Covid-19 से मुकाबले के लिए जिन हालात में खुद को बनाए रखने की जरूरत बताई जा रही है, वो इन सैन्य बलों के पास मयस्सर नहीं।
सैनिकों को अक्सर भीड़ भरे शिविरों में गाल से गाल सटाकर रहने वाली स्थिति में रहना पड़ता है, न तो उनके पास ताजे साफ़ पानी की व्यवस्था है, और ना ही उचित साफ़-सफाई और स्वच्छता की स्थिति बन पानी सम्भव है। वाकई में यदि कल को हालात बेकाबू हो जाते हैं जिसकी संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता, तो ऐसी स्थिति में बीमार और जरुरतमंदों के लिए मेडिकल सुविधा और स्वास्थ्यकर्मियों को तत्काल बुलाने की जरूरत पड़ सकती है। सोचिये ऐसी स्थिति कितनी विकट होगी?
यदि भारत सरकार ने फ़िलहाल के लिए इस महामारी के खतरे को देखते हुए वन क्षेत्रों सम्बन्धी विषयांतर पर रोक लगाने की घोषणा कर दी होती तो इससे भी काफी मदद मिल सकती थी। लेकिन असल में सरकार ने क्या किया? 50 दिन से अधिक समय से प्राप्त इस महामारी की अग्रिम सूचना के बावजूद सरकार ने इस सम्बन्ध में जहाँ ढिलाई दिखाने में कोई कमी नहीं छोड़ी, वहीँ पर्यावरणीय प्रभाव के आकलन के लिए एक नया मसौदा जारी करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी और इसे जारी कर दिया है। यह मसौदा वन भूमि के ’विविधीकरण’ की प्रक्रिया को आसान बनाने पर कहीं अधिक ध्यान केंद्रित करता है, और पहले से अधिक निवेश आकर्षित करने के लिए सार्वजनिक सुनवाई की प्रक्रिया को कुंद करने का प्रस्ताव पेश करता है।
दूसरे शब्दों में कहें तो सरकार को न तो वनवासियों की ही रत्तीभर चिंता है और न ही उसे सैनिकों की ही कोई परवाह है।
इस वैश्विक महामारी के प्रति ऐसी उदासीनता का भाव मध्य भारत में रह रहे माओवादियों जैसे विद्रोहियों के लिए भी कहना सही होगा। आज दुनियाभर में क्या हो रहा है इससे बेपरवाह, वे मध्य भारत के इन वनाच्छादित प्रदेशों में अपनी जवाबी-अभियानों में जुटे हुए हैं। यदि उन्हें भारतीय जन और उनके कल्याण की वाकई चिंता होती तो वे अपनी और से संघर्ष विराम की घोषणा कर सकते थे या कम से कम इस प्रकार की अपील ही कर सकते थे। इसके बजाय उन्होंने भयानक जवाबी हमले को अंजाम दिया है, जिससे उन्होंने जता दिया है कि जिस जनता के नाम पर वे इस युद्ध को लड़ने का दावा करते हैं, उनके प्रति वे कितने संवेदित बचे रह गए हैं। जहाँ सारी मानवता Covid-19 से जूझ रही है, उनके लिए यह कोई चिंता का विषय नहीं है, तो ऐसे में कहा जा सकता है कि वे आज उसी स्थिति को प्राप्त हो चुके हैं, जैसा कि सत्ता उनका चरित्रचित्रण करती आ रही है।
जबकि कश्मीर के हालात इस सबसे कहीं बदतर हैं। तीस साल से चल रहे उग्रवाद और जवाबी आतंकवाद विरोधी मुहिम ने इसे दुनिया के सबसे अधिक सैन्यीकृत क्षेत्रों में तब्दील करने के साथ जितने प्रतिबंध लगाए जा सकते थे, वे यहाँ पर पहले से ही लागू कर रखे हैं। असामान्य हालात यहाँ के लिए आम बात है। स्वास्थ्य सेवाओं के सामान्य परिचालन की व्यवस्था यहाँ पूरे तौर पर नदारद है क्योंकि पिछले तीन दशकों से यहाँ के मेडिकल और स्वास्थ्यकर्मी एक के बाद एक आपातकालीन स्थिति से निपटने में ही खुद को खपाए हुए हैं। कॉइन ऑपरेशन को अभी भी अंजाम दिया जा रहा है, जिसके चलते भारी संख्या में सैनिकों के बीच शारीरिक नजदीकियां का बने रहना आम है। वैसे भी शिविरों के भीतर सामाजिक-दूरी को बनाकर रखना कहाँ तक संभव है?
इन अभियानों पर अपनी ओर से रोक लगाकर लोगों तक अपनी पहुँच बनाने और उनसे मुट्ठी भर उग्रवादियों पर अपनी गतिविधियों पर रोक लगाने का दबाव बनाने के मामले में भारत सरकार ने कोई राजनीतिक कल्पनाशीलता नहीं दिखाई है।
वहीँ दूसरी ओर इस राज्य के तक़रीबन 500 पुरुष और महिलायें उत्तर प्रदेश और दिल्ली की भीड़भाड़ वाली जेलों में रखे गए हैं। यहाँ पर मौका था कि इन बंदियों की रिहाई के जरिये कश्मीरियों के समक्ष यह दर्शाया जा सकता था कि सरकार को उनकी परवाह है। इन बंदियों के परिवार वालों और रिश्तेदारों के लंबी दूरी तय कर इनसे भेंट कर पाने के असहनीय कष्टों से निजात दिलाई जा सकती थी। आज उस पर भी विराम लग चुका है जो उनके लिए और कष्टकर स्थिति है। या सरकार चाहती तो बंदियों को कश्मीर की जेलों में भी स्थानांतरित कर सकती थी, लेकिन अभी तक सरकार ने इस बारे में अपनी जरा भी चिंता नहीं दिखाई है।
कुलमिलाकर यही कहा जा सकता है कि यह एक सुनहरा पल है जिसमें पटरी बदल पुराने रवैये और हठधर्मिता को त्याग हर नागरिक तक अपनी पहुंच बनाने और परिवर्तन में लाया जा सकता है। ऐसा करने की जरूरत क्यों है? क्योंकि महामारी के बाद की दुनिया को अपने घाव भरने की बेहद जरूरत पड़ने वाली है। बीजेपी सरकार ने जिन अलगावों और दरारों को अपने शासनकाल में पैदा किया है और/या जानबूझकर या अनजाने में अपने कृत्यों के माध्यम से उसे गहराने दिया, उनकी मरहमपट्टी की आज जरूरत पड़ने वाली है। तो क्या आज वह सबसे बेहतर समय नहीं आ गया है कि इस पाठ्यक्रम में बदलाव किया जाये?
यदि वास्तव में हमारे पास एक मजबूत नेतृत्व हो तो यह मौका उसे अपने नेतृत्व कौशल को दिखाने का है। सभी पुरानी और नई हठधर्मिता का परित्याग कर और हमारी सामूहिक उर्जा के बेहतर उपयोग में लाने के लिए अपनी दिशा बदलने का यह एक मौका है। या क्या इसकी जगह खून-खराबे की राजनीति को आगे बढ़ते रहने दिया जाने वाला है?
लेखक मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।
अंग्रेजी में लिखे गए मूल आलेख को आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।