Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

कांग्रेस का संकट लोगों से जुड़ाव का नुक़सान भर नहीं, संगठनात्मक भी है

कांग्रेस पार्टी ख़ुद को भाजपा के वास्तविक विकल्प के तौर पर देखती है, लेकिन ज़्यादातर मोर्चे के नीतिगत स्तर पर यह सत्तासीन पार्टी की तरह ही है। यही वजह है कि इसका आधार सिकुड़ता जा रहा है या उसमें गिरावट आ रही है।
congress

कांग्रेस पार्टी के हालिया चिंतन शिविर में इसके पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने अपनी पार्टी का लोगों के साथ "जुड़ाव को हुए नुक़सान" को लेकर कुछ उपयोगी टिप्पणियां कीं। उन्होंने जो कुछ कहा, वह संगठनात्मक स्तर पर उनके अपने ईमानदार विचार के रूप में सामने भले ही आया हो, लेकिन पार्टी में जो मौजूदा संकट है,उसका एकलौता या सबसे अहम कारण नहीं हो सकता। राहुल गांधी की इन टिप्पणियों से यह पता चलता है कि कांग्रेस अपनी ज़िम्मेदारी को सामूहिक तौर पर एक साथ नहीं समझ पायी है और न ही अभी तक उस संकट की गहराई को महसूस कर पायी है, जिससे वह इस समय जूझ रही है।

हालांकि, ऐसा महज़ 50 साल से कम उम्र के उन नेताओं को शामिल कर लेने ही नहीं होगा, जो कांग्रेस के पक्ष में जनसांख्यिकीय जादू पैदा करे दे, बल्कि एक नयी अवधारणा को लेकर भी सोचना होगा। एक ऐसी अवधारणा, जो न सिर्फ़ भाजपा-आरएसएस का मुक़ाबला कर सके, बल्कि उस नयी हक़ीक़त के साथ भी तालमेल बिठा पाये, जिसका हम सब हिस्सा हैं।

दुनिया भर में सामाजिक लोकतंत्र और सामाजिक लोकतांत्रिक दल इस समय संकट में हैं। जिन्हें वैचारिक संकट कहा जाता है,उनमें से ज़्यादतर संकट सही मायने में बड़े पैमाने पर सामाजिक भेदभाव के प्रसार का संकट है। छोटी-छोटी सामाजिक इकाइयां ज़्यादा से ज़्यादा और अविलंब सामाजिक गतिशीलता की मांग कर रही हैं। भारत के सिलसिले में तो यह वैश्विक बदलाव "श्रेणीगत ग़ैर-बराबरी" की व्यापकता के चलते कई गुना बढ़ गया है।

आम लोगों को आकर्षित करने वाले वे नेता ही हैं, जो इस नयी हक़ीक़त को उन बहु-आयामी अवधारणाओं, मुद्दों और एजेंडा के ज़रिये सामने ला रहे हैं, जो एक दूसरे के विरोधी तो हो सकते हैं, लेकिन इसके बावजूद वे ज़मीन पर काम करते हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि वे इनमें से प्रत्येक समूह की ज़रूरतों को वे निजी तौर पर पूरा करते हैं। इसके बाद खंडित और कई टुकड़ों में बंटे सामाजिक हक़ीक़त और हितों को समुदाय, धर्म और राष्ट्र की एक व्यापक अमूर्त धारणा से जोड़ दिया जाता है। इसके अलावा, भाजपा-आरएसएस सक्रिय रूप से पूर्वाग्रहों को लामबंद कर रहे हैं और नवउदारवाद में "पतन के डर" की चिंताओं को हवा दे रहे हैं। उन्हें दूसरे की क़ीमत पर अपने विशेषाधिकारों को बनाये रखने के लिहाज़ से भी इन समूहों को प्रोत्साहित करने में कोई झिझक नहीं है। आख़िरकार, इसमें सभी लोग तो समायोजित नहीं किये जा सकते, लेकिन ऐसा तबतक होता रहेगा, जब तक हम इस प्रक्रिया के आख़िरी चरण तक नहीं पहुंच जाते।

भाजपा ने धार्मिक समूहों के भीतर मौजूद उप-जातियों, उप-क्षेत्रीय पहचान और संप्रदायों के स्तर पर भी अपनी रणनीति बनायी है। यह उप-भाषाई समूहों को भी लामबंद कर सकती है। यह एक वैकल्पिक या विरोधाभासी अवधारणा को भी लामबंद करती है। यह उप-जातियों के ख़िलाफ़ "जाति और पंथ" से ऊपर उठने की अवधारणा को लामबंद करती है और अन्य सभी तरह की सूक्ष्म-पहचान के ख़िलाफ़ अखंड हिंदू धर्म, हिंदी को राष्ट्रीय भाषा के रूप में पहचान आदि के लिए भी आवाज़ उठाती है।

अमूर्त और एकीकृत पहचान सामाजिक विखंडन को वैध बनाने का काम करती है; वे बढ़ते सामाजिक तनावों को दूर करते हैं और विपक्षी दलों को प्रासंगिक और अहम मुद्दों से भटकाने के रूप में में भी काम करते हैं। ऐसे परिदृश्य में इन छोटे-छोटे समूहों की सहूलियत के लिहाज़ से कांग्रेस जैसी पार्टियां और उनकी "विविधता में एकता" की अवधारणा ऐसी लगती है, जैसे कि वे खाली बयानबाज़ी में उलझे हुए हों। जब ऐसी पार्टियां वर्गीय हितों को लामबंद करती हैं, तो भाजपा-आरएसएस गठबंधन इसे राष्ट्र, धर्म और समुदाय के ख़िलाफ़ होने के रूप में पेश कर देते हैं।

कांग्रेस इस चौतरफ़ा हमले में फ़ंस जाती है और किसी मूक दर्शक की तरह शिकार हो जाती है। भाजपा की तरह यह न तो एक अखंड हिंदू पहचान का दावा कर पाने में सक्षम है और न ही यह दलितों, मुसलमानों और उच्च जातियों जैसे तबक़ों से बुने अपने पुराने मॉडल को देखते हुए इन छोटे-छोटे समूहों तक पहुंच बनाने में ही सक्षम है। उप-जातियों और उप-क्षेत्रीय पहचानों के बीच सामाजिक पूर्वाग्रह का जिस तरह से खेल खेला जाता है, उसमें कांग्रेस फंस जाती है। यह न तो उन्हें हवा दे पाती है और न ही उन्हें कम कर पाती है। ऐसे में यह क्षेत्र जंग-ए-मैदान की तरह रह जाता है,जहां लड़ा ही नहीं जा सकता, और इसीलिए लोगों के साथ "नहीं जुड़ पाने का नुक़सान" होता है और सामाजिक आधार सिकुड़ता चला जाता है।

विकास पर हो रहे विमर्श के आर्थिक मोर्चे पर भी कांग्रेस पार्टी इसी तरह की दुविधा में फंसी हुई है। यह भाजपा की नीतियों की आलोचना इसलिए नहीं कर पाती, क्योंकि इसका इरादा भी तो जीएसटी, कृषि क़ानून, चार वर्षीय शिक्षा पाठ्यक्रम, निजी विश्वविद्यालय, ठेके वाले रोज़गार और पेंशन जैसे सामाजिक सुरक्षा उपायों को वापस लेने सहित उनमें से ज़्यादातर को लागू करना ही रहा है। ऐसे में कांग्रेस पार्टी क्या कह सकती है ? यह ज़्यादा से ज़्यादा जीएसटी को जिस तरह से लागू किया जा रहा है,उसे लेकर शिकायत कर सकती है।

इसके अलावा कांग्रेस पार्टी नवंबर 2016 में भाजपा सरकार के नोटबंदी के फ़ैसले पर भी ध्यान केंद्रित कर सकती है। हालांकि, विकास के मॉडल को लेकर कांग्रेस और भाजपा के बीच किसी तरह का कोई मतभेद नहीं है। पूर्व पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी की अगुवाई में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की बदौलत कांग्रेस ने अपना कल्याणकारी चेहरा बरक़रार रख पाया था। अगर मनमोहन-मोंटेक-चिदंबरम तिकड़ी पर छोड़ दिया गया होता, तो तय था कि इस मॉडल का कार्यान्वयन और गति भाजपा से अलग नहीं होते। चिदंबरम आज भले ही लोक कल्याण, ग़रीबी और मानवाधिकारों को लेकर बात करते हों, लेकिन वे ग़ैर-क़ानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम, 1969 को तैयार करने और दूसरे इसी तरह के असाधारण क़ानूनों को लागू करने वालों में सबसे आगे थे, जिनमें मनमाने ढंग से राजद्रोह का इस्तेमाल करने के ख़तरे भी शामिल हैं। वह तो 2050 तक 80% भारत को शहरी क्षेत्रों में बदलने और मध्य भारत के आदिवासियों के ख़िलाफ़ ताक़त का इस्तेमाल करते हुए "निजी संपत्ति को अधिग्रहित करने और उसे सरकारी इस्तेमाल में बदल देने की सरकार की सर्वोपरी शक्ति" का उपयोग करने वाले पर्याप्त रूप से "राष्ट्रवादी" होने के मुखर समर्थक थे। भाजपा इन्हीं चीज़ों को बस ज़्यादा केंद्रीकृत तरीक़े से ही तो अंजाम दे रही है और वह कांग्रेस को एक "कमज़ोर भाजपा" की छवि में बदल पाने में कामयाब रही है।

नीतिगत ढांचे को लेकर निश्चित रूप से कुछ भी कह पाने में कांग्रेस पार्टी की अक्षमता ही उसे बुरी तरह से चोट पहुंचा रही है। यह अब भी कुछ नया सोच पाने को लेकर इसलिए तैयार नहीं है, क्योंकि अर्थव्यवस्था के सवाल पर और "क़ानून और व्यवस्था" के मोर्चे पर चिदंबरम जैसे लोगों का दबदबा अब भी बना हुआ है। कांग्रेस के शासन काल में इस तरह की अवधारणायें निष्क्रिया थीं, वे ही भाजपा के शासन काल में ज़्यादा तीव्र और जीवंत हो गयी हैं। यही वजह है कि चाहे दलित हों या मुसलमान, वे कुछ भी अलग देख पाने या महसूस कर पाने से इनकार करते हैं, और इसलिए कांग्रेस के सत्ता में लौट आने की कोई बड़ी उम्मीद नहीं दिखायी देती है।

संगठनात्मक स्तर पर कांग्रेस पार्टी को आम लोगों से जुड़े  होने का फ़ायदा तो है, लेकिन कांग्रेस उन्हें संगठित नहीं कर पा रही है। इसने बहुत समय पहले संसाधनों के आधार पर टिकटों को आउटसोर्स करना शुरू कर दिया था। इसकी संगठनात्मक नैतिकता में लाभ और पदों की तलाश सबसे पहले आते है,इसके बाद ही काम और योगदान की अहमियत है। इसके उलट,भाजपा के पास एक ऐसा केंद्रीकृत नेतृत्व है, जो संरक्षण तो देता है, लेकिन यह संरक्षण बिना काम के नहीं मिलता। इसके पीछे उस आरएसएस का योगदान है, जिसका कार्यकर्ता ज़्यादातर अपने आदर्शवाद और परिकल्पनाओं से भी बड़े हो चुके अपने ब्रांड से प्रेरित है। आरएसएस आज अपने पास 50 लाख प्रचारक होने का दावा करता है। कई भाजपा नेता दशकों तक बिना किसी लाभ की उम्मीद से काम करते रहे हैं,इसके बाद ही उनका उत्थान हुआ है।

सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग के लिए भाजपा की छवि एक "बाहरी" की ही बनी हुई है, लेकिन कांग्रेस के सत्ता से बाहर होने के बावजूद वह सत्तारूढ़ दल की तरह व्यवहार करती है। यह साफ़ तौर पर भाजपा नेताओं की सत्ता को बचाये रखने की बेचैनी और जिस तरह वे अथक परिश्रम करते हैं,उसमें परिलक्षित होता है, जबकि विपक्ष में सत्ता में लौटने की कोई जल्दीबाज़ी नहीं दिखायी पड़ती, क्योंकि इससे एक ठोस और रोजमर्रा के स्तर पर उनके पास मौजूद सामाजिक पूंजी पर बहुत कम फ़र्क़ पड़ता है। वे ख़ुद को वास्तविक विकल्प के रूप में कल्पना करते हैं।

कांग्रेस को अपने इस संकट को महज़ संगठनात्मक नहीं, बल्कि संरचनात्मक संकट के तौर पर देखने की ज़रूरत है। वैचारिक लड़ाई के रूप में जो कुछ चल रहा है, उसे लेकर सोचने के लिहाज़ से यह एक ऐसा बिंदु है,जहां से एक अच्छी शुरुआत हो सकती है, लेकिन इसे लेकर लगातार आगे बढ़ने और नयी स्थिति के साथ तालमेल बिठाने की ज़रूरत है, न कि नेहरू और गांधी की ओर लौटने की ज़रूरत है, हालांकि उस भावना और आदर्शवाद को बरक़रार रखने की ज़रूरत बिल्कुल है, जिनका वे प्रतिनिधित्व करते थे।

लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फ़ॉर पॉलिटिकल स्टडीज़ में एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं। उनकी किताब-पॉलिटिक्स, एथिक्स एंड इमोशंस इन 'न्यू इंडिया', 2022 में रूटलेज, लंदन से प्रकाशित होने वाली है। इनके व्यक्त विचार निजी हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Congress has a Structural Crisis, Not Just Loss of Connect

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest