जब तक भारत समावेशी रास्ता नहीं अपनाएगा तब तक आर्थिक रिकवरी एक मिथक बनी रहेगी
सवाल यह है कि, क्या भारत की अर्थव्यवस्था मजबूत रिकवरी की राह पर है? सरकार ऐसा मानती है, भले ही यूक्रेन युद्ध के प्रसार और ईंधन की बढ़ती कीमतों से पैदा हुई बाधाओं के बाद पहले से विश्वास कुछ कम हो गया हो। लेकिन आधिकारिक बयानबाज़ी सरल है - अर्थव्यवस्था अच्छी है, लेकिन महामारी और संबंधित प्रतिबंधात्मक उपायों के कारण कुछ बाधाएं पैदा हुई हैं। जैसे-जैसे यह सामी बीतेगा, अर्थव्यवस्था मजबूती के साथ उच्च विकास के रूप में सामने आएगी। क्या यह कहानी सही है?
नहीं, बिलकुल गलत है। दुर्भाग्य से, इस तरह का तर्क बहुत सरल है और कई गंभीर समस्याओं की उपेक्षा करता है, जिनमें से कई समस्याएं भारत के मामले में विशिष्ट हैं। ये समस्याएं महामारी के आने से पहले भी मौजूद थीं और सरकार की ओर से पर्याप्त कदम न उठाने की वजह से बदतर होती चली गईं।
उदाहरण के लिए, नवंबर 2016 में अर्थव्यवस्था के कई रोजगार-केंद्रित क्षेत्रों में बड़ा झटका तब लगा था जब भारत ने 500 और 1,000 रुपये के मुद्रा नोट बंद कर दिए थे। एक बड़े झटके में 86 प्रतिशत मुद्रा वापस ले ली गई, जिसे हम नोटबंदी के रूप में जानते हैं, जिसके कारण आपूर्ति और मांग महीनों तक सदमे में रही थी। नियमित आर्थिक गतिविधियों में भारी गिरावट आई, और नौकरी के नुकसान में तेजी आई, खासकर असंगठित और छोटे पैमाने के क्षेत्र में स्थिति काफी खराब हो गई थी। विशेष रूप से, विनिर्माण और खुदरा क्षेत्रों को झटका लगा, लेकिन यहां तक कि कृषि भी प्रभावित हुई, क्योंकि नकदी से स्रोत इनपुट पर निर्भरता और दैनिक लेनदेन का संचालन किया गया था।
नवंबर-दिसंबर 2016 में कंज्यूमर ड्यूरेबल्स और उपकरणों की बिक्री में 40 प्रतिशत की गिरावट आई थी, क्योंकि नोटबंदी के बाद उपभोक्ताओं की क्रय क्षमता गिर गई थी। नोटबंदी का और भी खराब असर पड़ा था क्योंकि सरकार की कम सहायता वाली नीतियों के कारण लघु-स्तरीय क्षेत्र क्रेडिट-संबंधी संकट का सामना कर रहा था।
तीन साल बाद भी, 2019 के एक सर्वेक्षण में पाया गया कि 66 प्रतिशत लोगों ने नोटबंदी के कारण नकारात्मक प्रभाव पड़ने का हवाला दिया था। सर्वे में 33 फीसदी ने अर्थव्यवस्था में मंदी के लिए नोटबंदी को जिम्मेदार ठहराया, 66 फीसदी ने इसे नकारात्मक कारक बताया था।
सरकार ने असंगठित और अनौपचारिक क्षेत्रों को हुए नुकसान को कम करने के लिए पर्याप्त उपाय करने के बजाय, बिना उचित तैयारी के अचानक जीएसटी लागू करके दूसरा झटका दे दिया। वस्तु एवं सेवा कर व्यवस्था का वर्तमान स्वरूप भारतीय परिस्थितियों के लिए अनुपयुक्त है। भारत में, अधिकांश रोजगार असंगठित क्षेत्र और छोटे पैमाने के क्षेत्र में उत्पन्न होता है। छोटे खिलाड़ियों के लिए इस तरह के कराधान का सामना करना कठिन था।
2018 के मध्य में, भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) के एक अध्ययन में पाया गया है कि सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों (MSME), जो विनिर्माण का 45 प्रतिशत, निर्यात का 40 प्रतिशत और सकल घरेलू उत्पाद का 30 प्रतिशत है, ने हाल में दो प्रमुख झटके झेले हैं। ये झटके नोटबंदी और जीएसटी की शुरूआत से लगे थे। इस अध्ययन में कहा गया है कि जीएसटी निज़ाम ने एमएसएमई के लिए अनुपालन और परिचालन की लागत को बढ़ा दिया था और जिसका आज भी इन पर भारी असर है।
हम यह भी जानते हैं कि कई अनौपचारिक क्षेत्र की इकाइयाँ बंद हो गई हैं, और उनके द्वारा खाली किए गए व्यावसायिक स्थान पर बड़े व्यवसायों का कब्जा हो रहा है, जो कम लोगों को रोजगार देते हैं और स्वचालन और प्रौद्योगिकी पर अधिक भरोसा करते हैं।
ये रुझान तब भी सामने आ रहे थे जब दो साल पहले महामारी आई थी, और भारतीय अधिकारियों ने कुछ सबसे कड़े लॉकडाउन का सहारा लिया था, जिसे अभी भी एक विवादास्पद नीति प्रतिक्रिया माना जाता है। इस प्रतिक्रिया का प्रभाव बेरोजगारी के खतरनाक रूप यानी उच्च बेरोज़गारी में परिलक्षित हुआ था। आवधिक श्रम बल सर्वेक्षणों के अनुसार, 2020 की अप्रैल-जून तिमाही में युवा बेरोजगारी 34.7 प्रतिशत तक पहुंच गई थी। यहां तक कि जब स्थिति कुछ हद तक कम हुई, तब भी बेरोजगारी सामान्य से अधिक रही, और जब 2021 में कोविड-19 मामले फिर से बढ़े, तो फिर से लगे लॉकडाउन ने बेरोजगारी को फिर से बढ़ा दिया था। पूरे भारत में, शहरी क्षेत्रों में युवा बेरोजगारी 2021 की अप्रैल-जून तिमाही में बढ़कर 25.5 फीसदी हो गई थी। उसके बाद भी काफी लंबे समय तक यह दोहरे अंकों में रही।
2020 के मध्य में, सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी ने यह भी बताया कि कैसे आर्थिक रिकवरी में वेतनभोगी नौकरियां शामिल नहीं थीं। इसके अलावा, उसी वर्ष सेंटर फॉर सस्टेनेबल एम्प्लॉयमेंट द्वारा जून 2020 में एक अध्ययन में पाया गया कि लॉकडाउन ने 66 प्रतिशत श्रमिकों को बेरोजगार कर दिया था। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि लॉकडाउन तेजी से बढ़ती बेरोजगारी और आय में हानि का कारण बना, लेकिन नोटबंदी और जीएसटी की पहले की तबाही ने भी संकट में योगदान दिया था। लघु उद्योग क्षेत्र 2015 से लगभग निरंतर उथल-पुथल में रहा है। महामारी ने इसकी समस्याओं को और अधिक बढ़ा दिया है।
एक अन्य कारक- जो इस दशक या दशक के आखिरी समय से पहले मौजूद रहा है- वह है भारत में बढ़ती असमानता है। यह शायद भारत की रिकवरी में सबसे बड़ी बाधा है। ऑक्सफैम की हाल की विश्व असमानता रिपोर्ट इस बात पर प्रकाश डालती है कि औपनिवेशिक शासन के दौरान भारत में आर्थिक विषमताएं कितनी असहनीय थीं। आजादी के बाद, कई वर्षों तक असमानताओं में काफी कमी आई थी। लेकिन 1990 के दशक में आर्थिक सुधारों के नाम पर एक नया दौर शुरू हुआ था। इस प्रणाली के तहत, सुधार और असमानताएं केवल तेज हुई हैं, और हम असमानताओं के संबंध में औपनिवेशिक काल के करीब हैं। निचली 50 प्रतिशत आबादी के पास देश की कुल संपत्ति का केवल 6 प्रतिशत और कुल आय का 13 प्रतिशत हिस्सा है। भारत अब दुनिया में सबसे अधिक असमानता वाले देशों में शुमार हो गया है।
असमानता केवल आय और धन का मामला नहीं है बल्कि इसमें कई प्रकार के मेट्रिक्स शामिल हैं जो हर स्तर पर जीवन को प्रभावित करते हैं। उच्च असमानता का अर्थ है कि अधिकांश आबादी के पास अपनी क्षमता को आज़माने के लिए आवश्यक मूलभूत संपत्ति का अभाव है। मुख्य रूप से, यह शिक्षा या कौशल तक पहुंच की कमी को भी इंगित करता है। क्रय शक्ति का अभाव आर्थिक प्रगति को भी रोकता है। दूसरे शब्दों में, भारत में सतत विकास के लिए एक स्थिर और व्यापक आधार मौजूद नहीं है। यदि सरकार उन क्षेत्रों को नुकसान पहुँचाने वाली नीतियों को अपनाती है जहाँ निचले आधे काम करने वाले अधिकांश श्रमिक या अपेक्षाकृत कम संसाधन वाले उद्यमी ऊपर की ओर गतिशीलता चाहते हैं, तो यह आधार और भी संकरा हो जाता है।
कृषि में, जब सरकार तेजी से कॉर्पोरेट संचालित एजेंडा अपनाती है, तो किसान अधिक महंगी तकनीकों और इनपुट के बोझ तले दब जाते हैं, जबकि बड़ी कंपनियां बड़ी हो जाती हैं और आर्थिक तरक्की का एक बढ़ता हुआ हिस्सा हासिल कर लेती हैं। आर्थिक रिकवरी पर किसी भी बहस को इस संदर्भ में देखा जाना चाहिए कि क्या हम संकट कम कर रहे हैं, रोजगार सुनिश्चित कर रहे हैं और आर्थिक रिकवरी के लिए एक स्थिर और मजबूत आधार बना रहे हैं। सबसे महत्वपूर्ण सवाल अल्पकालिक विकास दर या यहां तक कि रिकवरी की गति नहीं है। इन सबसे ऊपर, विकास समावेशी है या नहीं और गरीब और कमजोर वर्गों के लिए पर्याप्त अवसर प्रदान करता है या नहीं, यही सबसे ज्यादा मायने रखता है। भारतीय अर्थव्यवस्था इस संदर्भ में गंभीर कमजोरियों से ग्रस्त है, जो स्थिर और सतत विकास के मार्ग में बाधक है।
थोड़े समय के लिए ही सही लेकिन भारत को यूक्रेन युद्ध के कारण उत्पन्न तात्कालिक आर्थिक व्यवधानों का भी सामना करना पड़ रहा है। लेकिन किसी भी कठिनाई के समय भारत समावेशी विकास के पक्ष में निर्णय ले सकता है। यदि सरकार, एक साहसिक और नए गरीब समर्थक एजेंडे की तत्काल जरूरत का जवाब देने में विफल रहती है, तो इसके बजाय विपक्षी दलों को एक गरीब समर्थक एजेंडे के प्रस्ताव तैयार करने के लिए एकजुट हो जाना चाहिए।
लेखक, कैंपेन टू सेव अर्थ नाउ के मानद संयोजक हैं। उनकी हालिया किताबों में 'मैन ओवर मशीन' और 'इंडियाज क्वेस्ट फॉर सस्टेनेबल फार्मिंग एंड हेल्दी फूड' शामिल हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें
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