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शिक्षित बनें, आंदोलन करें और संवाद करें: माइकल होल्डिंग और सूचना युग पर फिर से पुनर्विचार की ज़रूरत

इंग्लैण्ड और वेस्ट इंडीज के मध्य पहले टेस्ट मैच के पहले दिन के दौरान शिक्षा के महत्व को लेकर माइकल होल्डिंग द्वारा दिए गए ओजस्वी भाषण को दुनिया भर में जमकर सराहा गया है। पश्चिम को लेकर उनका जो कहना था, भारतीय समाज के सन्दर्भ में भी वह सटीक बैठता है।
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खेलकूद जो शिक्षा के क्षेत्र में एक आंतरिक विकास की भूमिका निभाने में सक्षम है, उसे भारत के सामाजिक ढाँचे के चलते शायद ही इस्तेमाल में लाया जा रहा है। यदि खेलकूद को लेकर कोई बात की भी जाती है तो उसे प्रतिस्पर्धा पर आधारित गतिविधियों तक ही सीमित कर दिए जाने की परम्परा बनी हुई है। जबकि इस बीच व्यापक शैक्षणिक ढाँचे में भी सडांध के लक्षण दिखने शुरू हो चुके हैं।  (फोटो: एसएल शांत कुमार)।

क्रिकेट की वापसी हो चुकी है, और खेल के बीच में बारिश से बचने के लिए कवर और लंबे-लंबे ब्रेक भी इस्तेमाल में आ रहे हैं। एक कभी न खत्म होने वाले पैकेज डील के तौर पर स्वीकार करें। ख़ुशी की बात यह है कि आज जिस नए को आमतौर पर स्वीकार्यता मिल चुकी है वह इस इंग्लिश 'ग्रीष्मकाल' क्रिकेट की कुछ बेहतरीन परंपराओं को नहीं बदलने जा रही है। बारिश एक उपहार है, इसमें कोई संदेह नहीं है, लेकिन जब इसकी वजह से खेल बाधित होता है तो दर्शकदीर्घा में मुश्किल से ही कुछ लोग नजर आते हैं, जो बारिश की टपकती बूंदों, गीले आउटफील्ड को देखते हुए रूमानियत में खो जाएँ। हालाँकि किसी भी सूरत में एक बार फिर से नई शुरुआत के मौके पर यह कोई उचित तरीका नहीं था।

लॉकडाउन के लगभग चार महीनों बाद साउथेम्प्टन में सैनिटाइज्ड किये हुए ऐजअस ओवल के ओपनिंग टेस्ट के पहले दिन ही बारिश शुरू हो गई। टॉस को स्थगित करना पड़ा, और इसके साथ ही आगे की कार्यवाही भी स्थगित करनी पड़ी और इस प्रकार कोरोना काल में क्रिकेट के ऐतिहासिक छोटे कदम में प्रकृति की अनिवार्यता के चलते एक बार फिर से देरी हुई। हालाँकि बरसात इस बार क्रिकेट और दुनिया के लिए किसी उपहार से कम नहीं रही, और कह सकते हैं कि आने वाले वर्षों में यह ब्रेक और टेलीविजन की यह पेशकश इतिहास में एक मील का पत्थर साबित होने जा रही है।

शायद यह बारिश के चलते मिलने वाला ब्रेक आकस्मिक था, या भाग्य कहें या किस्मत के बड़े खेल का एक छोटा सा मोहरा। चूँकि यह श्रृंखला कोरोनावायरस के साए के बीच खेली जा रही है और इसके लिए पृष्ठभूमि तैयार करने का काम वैश्विक ब्लैक लाइव मैटर आन्दोलन ने मुहैय्या करा दिया है, जो कि आर्थिक गिरावट और इन दोनों टीमों को मिलने वाले टेस्ट चैंपियनशिप रैंकिंग पॉइंट्स की तुलना में हमेशा ही महत्वपूर्ण साबित होने जा रही थी।

दोनों ही समूह के ख़िलाड़ी घुटनों के बल बैठ चुके थे- वहीँ वेस्ट इंडियन खिलाडियों ने एक हाथ में काले दस्ताने पहन रखे थे- टॉमी स्मिथ और जॉन कार्लोस द्वारा 1968 में मेक्सिको सिटी में ओलिंपिक पोडियम बनाने के काम के लिए ऐतिहासिक स्टैंड के तौर पर सम्मानित किये जाने के अवसर पर। लेकिन वह बाद की बात है। सबसे पहले इस बरसात में बात की शुरुआत माइकल होल्डिंग और उनकी ओर से दुनिया भर में मौजूद नस्लवाद पर दिए गए भावपूर्ण भाषण पर चर्चा से होनी चाहिए। यह भाषण सीधा और सरल भाषा में होने के साथ-साथ बेहद वाकपटु एवं विचारोत्तेजक साबित हुआ। वे कुछ बेहतरीन मिनट हमारे लिए नस्लीय भेदभाव और उसके खिलाफ विभिन्न स्वरूपों के आधार पर चल रहे वैश्विक आंदोलनों से साक्षात्कार के साबित हुए।

कैमरे के समक्ष दुनिया में अपने जमाने का सर्वश्रेष्ठ तेज गेंदबाज तकरीबन अश्रुपूरित नेत्रों के साथ अपनी काव्यात्मक, संगीतमय और मधुर लेकिन बेहद स्पष्ट आवाज के साथ लोगों को बेदम और मंत्रमुग्ध किये जा रहा था। एक तरह से देखें तो यह उनकी तेज गेंदबाजी के सत्र जैसा ही प्रतीत हो रहा था। बेहद संक्षिप्त, सटीक लेकिन सुंदर। जिसने न सिर्फ हमारी आत्मा को सीमित अर्थो में झकझोरने का काम किया था बल्कि साथ ही साथ यह हमारे दिलोदिमाग में एक चाहत एवं आशा की भावना को उत्पन्न करने में मददगार साबित हो रहा था।

होल्डिंग एक ऐसी दुनिया के बारे में बताते चले जा रहे थे जो कि उनके समय से परे और शायद हमारे वक्त से भी परे हमें लिए जा रहे थे, जहाँ किसी भी प्रकार के भेदभाव या ऊँचनीच का नामोनिशान न हो और कोई भी इंसान मात्र इस पूर्वाग्रहों के आधार पर न जी रहा हो जिसमें कोई खास रंग, जातीयता या किसी खास धर्म का पालन करते हुए जीवन निर्वाह करने की शर्त न हो। और उन्होंने इस सदियों से जारी इस व्यवस्थित ब्रेनवाशिंग की पुरातन श्रृंखला को मनुष्य द्वारा अब तक के सबसे शक्तिशाली जिस हथियार से तोड़ डालने के बारे में बात की- जिसे हम शिक्षा के नाम से जानते हैं।  

होल्डिंग के अनुसार: “शिक्षा बेहद महत्वपूर्ण है जबतक कि हम वैसी ही जिन्दगी जीना नहीं चाहते, जैसा कि हम जीते चले आ रहे हैं और वैसा ही करते जाने का प्रदर्शन आज और हमेशा के लिए करते रहना चाहते हों और फिर से इसके बारे में कुछ लोग अपने विचारों व्यक्त करने में लगे हुए हों।

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पिछले हफ्ते सौथैम्पटन में नस्लवाद के उपर दिए गए अपने भाषण के दौरान भावुक हो उठे माइकल होल्डिंग।

“जब मैं शिक्षा की बात करता हूँ तो मैं इतिहास में जाने की बात करता हूँ। लोगों को जिस बात को समझने की आवश्यकता है वह यह कि ये चीजें लंबे समय से चली आ रही हैं, जी हाँ सैकड़ों साल पहले से यह सब होता चला आ रहा है।” वे आगे कहते हैं “जहाँ से अश्वेत समुदाय के लोगों के इंसानों से नीचे के जीवन स्तर के निर्धारण की शुरुआत हुई थी। लोगों से बात करने पर वे आपको बता सकते हैं कि यह काफी समय पहले की बात है, जिससे निजात पाने की आवश्यकता है। नहीं, आप चीजों को उस तरह से समाज से परे नहीं हटा सकते, और समाज ने भी उसे यूँ ही स्वीकार नहीं कर लिया था। तो फिर आप किस प्रकार से इसे समाज के चंगुल से इसे छुड़ा सकते हैं? समाज में मौजूद दोनों पक्षों- अश्वेतों और गोरों को शिक्षित करने के माध्यम से ही इसे कर पाना संभव हो सकेगा।

इस बात को लेकर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि मैं उस महान इंसान की बातों को आखिर तक तल्लीनता से सुनता रहा- जो बल्लेबाजों के बीच सनसनाती हुई मौत के नाम से मशहूर था और वे खुद को दुर्भाग्यशाली समझते थे, यदि उसका बार-बार सामना करना पड़ता था। और आइये अब उन्हीं शब्दों को समकालीन भारतीय सन्दर्भों में देखने की कोशिश करते हैं। एक देश जो फिलहाल यथास्थिति की स्थिति में पड़ा हुआ है। भारत आज के दौर में एक ऐसे अस्तित्व के संघर्ष में फँसा है जिसमें इसके आजादी और महान संविधान के वृहत्तर मूल्यों को बनाये रखने के प्रयासों में बदलावों के लिए मजबूर किया जा रहा है, उन लोगों द्वारा जो आजकल सत्ता पर काबिज हैं। व्यापक पैमाने पर कोशिशें इस बात को लेकर चल रही हैं कि इसके बुनियादी उसूलों को निहित स्वार्थों और विभाजनकारी अजेंडा के तहत कुचलकर रख दिया जाए। कोरोनावायरस ने इस स्थिति को बद से बदतर बनाने में ही मदद की है। इस महामारी के चलते बिना किसी जन प्रतिरोध के सरकार के लिए अपनी मनमर्जी को थोपने का अच्छा बहाना मिला हुआ है।

जहाँ तक शुरुआत की बात है तो भारत में चल रही कलह का वैश्विक नस्लीय संघर्ष से सम्बंध काफी हद तक अलग-थलग नजर आता है, लेकिन इसमें काफी समानताएं मौजूद हैं। आख़िरकार यह एक सार्वभौमिक सत्य है कि धार्मिक या वर्गीय संघर्ष भले ही देखने में विपरीत नजर आयें लेकिन हैं तो आपस में चचेरे भाई ही। ये दोनों ही भेदभाव के कुरूप डीएनए से जकड़े हुए हैं और जिनमें मानवता को लेकर भारी उदासीनता हमेशा से मौजूद रही है।

इसे संजोग ही कहना उचित होगा कि वे समानताएं महज संयोगवश, भाग्य की लकीर कहें तो ठीक उसी दिन परिलक्षित होकर देखने को मिली जिस दिन होल्डिंग ने अपनी बातों को दुनिया के समक्ष रखा था। जहाँ पूर्व के महान तेज गेंदबाज जोकि वेस्टइंडीज टीम के गौरवशाली हिस्सा रहे हैं, जिसके अंदर अफ़्रीकी-कैरेबियन और भारतीय संस्कृति का समृद्ध सम्मिश्रण शामिल है। जिसमें ताकत और यहाँ तक कि कमजोरी को भी गर्व के साथ स्वीकारने का साहस मौजूद है- पैवेलियन में खड़े होकर धाराप्रवाह स्वर में शिक्षा को कैसे व्यापक दृष्टिकोण के समूचे संयोजन में रखने से दुनिया में सकारात्मक परिवर्तनों को ला पाना संभव किया जा सकता है, ठीक उसी दौरान भारत भी बदलाव के अपने संस्करण के साथ उसे अंजाम में लाने की साजिश में लगा हुआ था।

भारत के केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा परिषद (सीबीएसई) द्वारा इस बीच स्कूली पाठ्यक्रमों से लोकतान्त्रिक अधिकारों, भारत में खाद्यान्न सुरक्षा, संघीय ढाँचे, नागरिकता और धर्मनिरपेक्षता जैसे अध्यायों को निकाल बाहर करने का कार्यक्रम संपन्न किया जा रहा था, जो कि महामारी के दौरान राज्य के अभूतपूर्व और विघटनकारी मंशा को उजागर करती है। इस कदम को लेने के पीछे का औचित्य यह बताया गया कि इससे छात्रों पर बोझ कम पड़ने जा रहा है। लेकिन इस मुद्दे पर हंगामे के बाद विभाग ने स्पष्ट किया है कि यह एक अस्थाई कदम उनकी ओर से उठाया गया है।

अस्थाई तौर पर या नहीं लेकिन भारतीय सरकार द्वारा जिस प्रकार की नीतियों को एक के बाद एक लागू किया जा रहा है उसमें यह बात स्पष्ट नजर आती है कि जिन मूल्यों के प्रति भारत प्रतिबद्ध था, उसे एक-एक कर बाधित किया जाना तय है। अपने स्कूली पाठ्यक्रमों के माध्यम से हमने लोकतंत्र के सिद्धांत, भारतीय राज्य के बारे में और आजादी और समानता के माध्यम से भारतीय राज्य क्या-क्या मुहैय्या करा रहा है, के बारे में सीखना आरंभ कर रहे थे। बाद के जीवन में हम इसके बड़े निहितार्थों को जीवन में चरितार्थ कर सके, भले ही यह सही हो या गलत रही हो। हमारे अधिकार और भेदभाव के बारे में हमारे संज्ञान की रूपरेखा असल में उन बुनियादी बातों के माध्यम से हमारे बीच आ सकी, जिन्हें हमने विभिन्न चरणों के दौरान अपने छात्र जीवन में अंगीकार किया था।

होल्डिंग ने अपने भाषण में बताया था कि किस प्रकार से शिक्षा, भेदभावपूर्ण व्यवहार, फासीवादी और विभाजनकारी आख्यानों की श्रृंखला को आने वाली पीढ़ियों में बफर जोन निर्मित कर तोड़कर धीमे किन्तु शर्तिया तौर पर सम्पूर्ण बदलाव लाने के जरिये हासिल किया जा सकता है। जबकि दुनियाभर में  बेहद धूर्ततापूर्ण और योजनाबद्ध तरीके से इसके ठीक उलट कोशिशें चल रही हैं। हालाँकि, इस सबको लेकर प्रतिरोध भी निर्मित हो रहे हैं।

हालाँकि भारत में इस अजेंडे को पलटने की कोशिशें निर्लज्ज तौर पर तेज हो चुकी हैं, इसके पीछे हमारे अस्तित्व में मौजूद अन्तर्निहित जड़ता की भूमिका अहम है। हम बमुश्किल प्रतिक्रिया जाहिर करते हैं, कोई पहलकदमी लेना तो काफी दूर की बात है। होल्डिंग अपने आप को इस बात के लिए जिम्मेदार मानते हैं कि उन्होंने इन क़दमों को तब नहीं उठाया था, जब वे छोटे थे। तब वे अपनेआप को यह कहकर न्यायोचित ठहराते थे कि चूँकि वे सीधे तौर पर इससे प्रभावित नहीं होने जा रहे हैं, इसलिए उन्हें इसे परे रखना चाहिए या उनके लिए इसकी अनदेखी कर देना उचित रहेगा। उम्र के साथ आई परिपक्वता और सालों-साल से दमन और भेदभाव को अपने चारों ओर देखते हुए अंदर ही अंदर जो गुस्सा और हताशा घुमड़ रही थी, वह उनके अंदर से उस दिन इंग्लैंड में फूट पड़ी थी। इसे निकलने में उनके जीवन के 66 साल लग गए थे। अपने भाषण में ऐसा लगता है कि वे यह प्रार्थना करने में लगे थे कि हममें से बाकी लोगों की जिंदगियों में इतना वक्त न लगे।

जिन्दगी किसी मकड़जाल की तरह है, और कोई भी इंसान इससे अछूता नहीं है। भारतीय जनसंख्या के एक हिस्से के तौर पर मध्य वर्ग को ही यदि लें तो वह देश में मौजूद शिक्षा के महानतम संस्थाओं में पढने वाले विद्यार्थियों के विरोध प्रदर्शनों को लेकर, जोकि वे सरकार की प्रतिबंधात्मक नीतियों के खिलाफ छेड़े हुए थे, को “उनकी” समस्या के तौर पर देखता है और यहाँ तक कि इसे एक राजनीतिक कृत्य के तौर पर चिन्हित करता है। वे छात्रों के विरोध प्रदर्शनों को जबरन हस्तक्षेप करार देकर उसकी भर्त्सना करते हैं। उनकी मानें तो छात्रों का दायित्व है कि वे अपने अध्ययन पर ध्यान केन्द्रित करें। और इस प्रकार से वे एक वृहत्तर व्यूहरचना को देख पाने में वंचित रह जाते हैं।

शिक्षा हमारे स्वतंत्र सोच को विकसित करने में मदद पहुँचाती है, और इस प्रकार बड़े पैमाने पर आबादी का प्रगतिशील हिस्सा जो समाज को समावेशी बनाने और देश में स्वतन्त्रता और मुक्त उद्यम को प्रतिस्थापित करने के प्रति कटिबद्ध है। इस प्रकार की भाईचारे वाली समावेशी नीति के अस्तित्व में बने रहने की स्थिति में समाज में मौजूद फासीवादी शक्तियों को फलने-फूलने और भविष्य के लिए भिन्न नैरेटिव स्थापित करने में ये बड़े अवरोधक नजर आते हैं। इसलिए इन्हें रोकने का उनके पास सबसे उत्तम तरीका यही रह जाता है कि वे उन स्थानों को ही नेस्तनाबूद करना शुरू कर देते हैं, जहाँ से इन्हें यह सब सीखने का मौका मिलता है।

होल्डिंग इस बात से सहमत होंगे। वे इन्हीं सबके बीच जमैका में पले-बढ़े। एक ऐसी व्यवस्था के बीच में से निकल कर आये थे, जो प्रमुखतया श्वेत नैरेटिव के इर्द-गिर्द ही बुनी हुई थी। उन्हें “अश्वेत लोगों में भी कोई अच्छाई हो सकती है, इसके बारे में कहीं से भी कुछ जानने को” नहीं मिला था। इस भावना को उन्होंने अपने भाषण के दौरान एक बार से अधिक बार दोहराया था। कुलमिलाकर देखें तो यही कहानी भारत के सन्दर्भ में भी फिट बैठती है। इतिहास की किताबों को उठाकर देख लीजिये तो आप पायेंगे कि  स्वतंत्रता आंदोलन में दलितों और निचली जाति के योगदान को, या अंग्रेजों के खिलाफ आदिवासी योद्धाओं के अभियानों को बेहद आसानी से आँखों के सामने से ओझल कर दिया गया है। हाल के दिनों में इतिहास की किताबों में पैदा किये गए घुमावदार मोड़ के जरिये बहुसंख्यकवाद के नैरेटिव के हिसाब से चीजों को गढ़ने की कोशिशें की गई हैं।

इसका जवाब वास्तव में शिक्षा ही हो सकता है, जिसमें सभी को शामिल किये जाने की आवश्यकता है। इस बिंदु पर मैं 80 के दशक के उत्तरार्ध की ओर लौटना चाहूँगा। एक नौ वर्षीय बालक के तौर पर मेरे लिए यह बेहद मनोरंजक दृश्य होता था जब मुझे कुछ बूढ़े लोगों जिनमें 60 साल की उपर के स्त्री और पुरुष दोनों शामिल थे, को मेरे घर के पास ही सांयकालीन कक्षाओं के लिए एक खुले आहाते में एकत्र होते देखता था। यह वह समय था जब राज्य सरकार की ओर से एर्नाकुलम जिले (कोच्चि) में पूर्ण साक्षरता के लिए एक अभियान की शुरुआत की गई थी। उस समय यह एक पायलट प्रोजेक्ट था जिसे बाद के दौर में सारे राज्य में लागू किया गया था। मेरे जानने वाली कुछ आंटियां भी इस अभियान में स्वयंसेवी शिक्षिका के तौर पर कार्यरत थीं।

1990 के दशक के मध्य तक आते-आते केरल पूर्ण साक्षर बन चुका था। इस अभियान के नारे बेहद सरल थे, और हर किसी को अपनी चिट्ठी-पत्री पढ़ सकने के लायक बना सकने में सक्षम बना सकने के इर्द-गिर्द इन नारों को बुना गया था। जबकि मिशन के स्पष्ट और तात्कालिक व्यावहारिक लक्ष्यों से परे भी एक व्यापक एजेंडा था। केरल के इस साक्षरता मिशन ने भ्रामक सूचनाओं की श्रृंखला को तोड़ने में अपनी भूमिका निभाई। एक से दो पीढ़ियों के बीच में इसने एक बफर निर्मित करने का काम किया और अपने हक के लिए आगे बढ़ते जाने के लिए जरुरी संसाधनों के साथ हर किसी को सशक्त बनाने का काम किया।

सभी अधिकारों में सबसे अधिक यदि कुछ महत्वपूर्ण है तो वह है अपने ज्ञान में बढ़ोत्तरी करते जाना, अपने आस-पास के खबरों को प्रसारित कर पाने में सक्षम होना, किसी दृष्टिकोण को पढने और समझने में सक्षम हो पाना और उस आधार पर अपनी खुद की राय बना सकने के काबिल बन पाना, न्याय और सत्य के विचारों को अपने भीतर तैयार कर पाना और फिर उन्हें अपनी संपूर्णता में अपने जीवन में अंगीकार करने जैसे कदम उठाना अपनेआप में युगांतकारी घटना है। इस बात को दुहराने की कोई आवश्यकता नहीं कि इसके बाद से ही केरल इससे होने वाले फायदों की फसल लगातार काट रहा है।

एक क्रिकेटर के तौर पर मिली सफलता और शोहरत के बल पर होल्डिंग का जो व्यक्तित्व और मुकाम है  उसके सहारे उन्होंने दुनिया को संबोधित किया और उनसे अपील की है कि वे स्वयं को शिक्षित बनाएं। यहाँ पर मैं खुद को संबोधित कर रहा हूँ और सभी को इसके पालन करने की अपील करता हूं। एक शिक्षित और सार्थक अस्तित्व की शुरुआत हम सभी के लिए सौभाग्य से कहें तो स्कूलों से शुरू हुई थी। अपनी कमियों के बावजूद, 80 के दशक के समय के शैक्षणिक मूल्यों, अवधारणाओं और विज्ञान के एक अभिन्न मिश्रण के तौर पर हमें मिला करती थी।

सारतत्व के तौर पर इस शिक्षा से महत्वपूर्ण तौर पर दुनिया को एक बेहतर जगह बनाने और सही दिशा में प्रगति सुनिश्चित करने को लेकर एक दिशा निर्माण संभव हो सका था। अब समय आ चुका है कि हम उस संदर्भ के फ्रेम को उपयोग में लायें जिसे हमने अपने जीवन के माध्यम से सीखने और अनलर्न करने में लगाया है, यह समझने के लिए कि क्या वर्तमान परिदृश्य आने वाली पीढ़ियों को सशक्त बनाने वाली सिद्ध होने जा रही है, और उन्हें आज से अधिक विकसित और प्रगतिशील समाज की ओर प्रेषित कर रही है। यदि ऐसा नहीं है तो इसके लिए काम करना होगा, क्योंकि यह हमारी समस्या है, न कि फिलहाल यह उनकी समस्या है।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Educate, Agitate, Communicate: Michael Holding and a Case for Rethinking the Information Age | Outside Edge

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