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विधानसभा चुनाव : क्या महाराष्ट्र में सफल होगा हरियाणा पैटर्न?

तथ्य यह है कि लोकसभा चुनाव में बीजेपी हरियाणा में संघर्ष की स्थिति में थी, लेकिन महाराष्ट्र में बीजेपी बुरी तरह हार गई थी। सवाल है कि बीजेपी के हार के कारण क्या रहे और क्या वे अब भी मौजूद हैं। 
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बीजेपी ने हरियाणा में जाति-ध्रुवीकरण का 'माइक्रो-मैनेजमेंट' किया और लगातार तीसरी बार सत्ता में आने का रिकॉर्ड भी बनाया। लिहाजा, 'हरियाणा पैटर्न' इन दिनों चर्चा में है, लेकिन महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव में भी क्या यह सफल हो पाएगा?

इस सवाल का जवाब ढूंढने के लिए सीधे एक तथ्य पर आते हैं। तथ्य यह है कि लोकसभा चुनाव में बीजेपी हरियाणा में संघर्ष की स्थिति में थी, लेकिन महाराष्ट्र में बीजेपी बुरी तरह हार गई थी। सवाल है कि बीजेपी के हार के कारण क्या रहे और क्या वे अब भी मौजूद हैं। यदि ऐसा है तो इसका असर विधानसभा चुनाव में पड़ना तय है। वजह, ये कारण स्थानीय स्तर पर कहीं मुखर साबित हो सकते हैं। 

दरअसल, लोकसभा चुनाव के दौरान महाराष्ट्र में बीजेपी की हार के लिए तीन अहम कारण रहे– 

1) मराठा आंदोलन के नेता जरांगे फैक्टर

2) महाविकास गठबंधन को दलितों और मुस्लिमों का एकमुश्त वोट मिलना 

3) दलों को तोड़ने के चलते उद्धव ठाकरे और शरद पवार के प्रति सुहानुभूति की लहर

मराठा एक निर्णायक वोट-बैंक

यदि बीजेपी को महाराष्ट्र में जीत हासिल करनी है तो उसे इन तीन चुनौतियों या बाधाओं को पार करना ही होगा। इसकी प्रतिक्रिया में संकेत मिल रहे हैं कि बीजेपी हरियाणा की तर्ज पर जातीय ध्रुवीकरण पर केंद्रित अपनी रणनीति पर चुनाव लड़ रही है। लेकिन, इस रणनीति को समझने के लिए यहां की जातीय ताकत को न समझना एक बड़ी भूल होगी।

महाराष्ट्र में मराठों की आबादी 32 फीसदी है जो हरियाणा के जाटों से कहीं अधिक है और यह ऐसा वोट-बैंक है जो लगभग निर्णायक भूमिका अदा कर सकता है। 

वहीं, राज्य की राजनीति इसी जाति के इर्द-गिर्द घूमती रही है। अब तक महाराष्ट्र में 12 मराठा मुख्यमंत्री हुए हैं और वह 30 वर्षों तक मुख्यमंत्री रहे हैं। 

लेकिन, गरीब मराठा समुदाय के मन में जो आरक्षण के मुद्दे पर उथल-पुथल मची है, उसका विस्फोट मनोज जरांगे के मराठा आरक्षण आंदोलन के माध्यम से हुआ। इस धमाके से सबसे ज्यादा नुकसान बीजेपी को हुआ। परिणाम, जरांगे के आंदोलन के केंद्र मराठवाड़ा में बीजेपी लोकसभा की एक भी सीट नहीं जीत सकी, जबकि यह उसका गढ़ समझा जाता रहा है। साथ ही, राज्य में उन्हें दोहरे अंक में भी सफलता नहीं मिल सकी और बीजेपी की सीटों की संख्या 25 से घटकर 9 पर रह गई।

दलित और मुस्लिम एकजुटता 

बीजेपी के महायुति गठबंधन की विफलता में बड़ी बाधा यह है कि महाविकास अघाड़ी को दलितों और मुसलमानों का एकजुट वोट मिला था। इसलिए यदि महायुति गठबंधन को जीत हासिल करनी है तो इन वोटों का बंटवारा अनिवार्य है। लेकिन, समस्या है यहां दलित वोट बैंक की तासीर का होना। 

महाराष्ट्र में दलित उपजाति के अंतर्गत 59 जातियां हैं और इनकी जनसंख्या लगभग डेढ़ करोड़ है। इनमें महार, मांग और चर्मकारों की जनसंख्या मुख्यतः कुल दलित जनसंख्या का 90 प्रतिशत है। बता दें कि महार/बौद्ध समुदायों की आबादी सबसे अधिक है और यह मतदाता राजनीतिक रूप से मुख्यत: प्रकाश अम्बेडकर की पार्टी बहुजन वंचित आघाडी के साथ जुड़ा हुआ है, जो बीजेपी विरोधी वोट-बैंक के रूप में भी जाना जाता है। लेकिन, चुनाव-दर-चुनाव अम्बेडकर का वोट प्रतिशत नीचे गिरता जा रहा है और पिछले लोकसभा चुनाव में भी देखें तो इन सभी दलित उपजातियों ने बड़ी संख्या में बीजेपी विरोधी महाविकास गठबंधन को वोट दिया था। यही वजह है कि बीजेपी इस समय मराठा आरक्षण आंदोलन को दलित विरोधी प्रचारित करने में जुट गई है और वह मराठा बनाम दलित फैक्टर को आक्रामक रूप से उभरना चाहती है।

दूसरा, इस राज्य में मुस्लिम वोट 12 फीसदी हैं जो हरियाणा के 7 फीसदी के मुस्लिम वोट के मुकाबले 5 प्रतिशत ज्यादा है और यह मराठा वोट-बैंक के साथ भी जुड़ जाता है तो बीजेपी के लिए रुझान बदलना काफी मुश्किल हो सकता है। यही वजह है कि इस वोट-बैंक को बेअसर करने के लिए महायुति गठबंधन से अजित पवार को सक्रिय रखा गया है। 

इसके अलावा मुस्लिम वोट का बंटवारा इस बात से भी तय होगा कि असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमएम का प्रदर्शन कैसा रहता है। हालांकि, लोकसभा चुनाव में यह फैक्टर ज्यादा प्रभावित नहीं रहा है। 

पिछड़ा वर्ग पर फोकस

महाराष्ट्र में बीजेपी हरियाणा में जाट बनाम 35 बिरादरी के पैटर्न पर मराठा बनाम ओबीसी जातीय ध्रुवीकरण कराना चाहती है। राज्य में ओबीसी वर्ग में 346 जातियां हैं और इनकी आबादी 40 फीसदी मानी जाती है। बीजेपी मराठा असर को कम करने के लिए इस वोट-बैंक को साध रही है और रणनीति के तहत खास तौर पर माली, धनगर और वंजारी फॉर्मूला को व्यवहारिक रूप देना चाहती है। इसमें बाकी ओबीसी को भी जोड़ने की कोशिश देखी जा रही है। देखना यह भी है कि यह वोट-बैंक चुनाव में किस तरह से प्रतिक्रिया देता है। 

हालांकि, ओबीसी अपनेआप में एक जाति नहीं बल्कि वर्ग है, जिसमें कई सारी जातियां हैं और सारी ही जातियां मतदान में एक ही तरह से प्रतिक्रिया देंगी तो इसकी गुंजाइश कम ही लगती है। फिर लोकसभा चुनाव में भी इस फार्मूले से बीजेपी को थोड़ा भी फायदा नहीं मिला था।

वहीं, यह भी सही है कि राजनीति में हमेशा वैसा नहीं होता जैसा हम सोच कर चलते हैं। यह सच है कि महाराष्ट्र और हरियाणा के बीच कुछ समानताएं हो सकती हैं, लेकिन अंतर इस तथ्य में है कि शरद पवार और उद्धव ठाकरे की क्षेत्रीय पार्टी यहां मजबूत स्थिति में हैं और हरियाणा की तरह यहां कांग्रेस बीजेपी के बीच सीधा मुकाबला नहीं है।

बीजेपी के प्रचार में कौन?

यह एक बड़ा सवाल है कि बीजेपी के प्रचार में कौन से नेता हैं जो चुनाव को प्रभावित कर सकते हैं। यदि हम थोड़ी देर के लिए मोदी को एक तरफ रख दें तो बीजेपी की तरफ से शाह और योगी जैसे राज्य के बाहर के प्रचारक भी महाराष्ट्र में वोट नहीं बढ़ा सकते। उल्टा इससे वह मराठी वोट-बैंक प्रभावित हो सकता है जो उत्तर भारतीय और गुजरातियों के साथ अब तक असहज ही रहा है, जबकि शाह गुजरात और योगी यूपी से आते हैं और महाविकास गठबंधन तो पूरे चुनाव को ही मराठी अस्मिता के आधार पर लड़ रहा है। खास तौर पर उद्धव ठाकरे मोदी-शाह को महाराष्ट्र विरोधी प्रचारित करके बता रहे हैं कि कैसे कई परियोजनाएं बीते कुछ वर्षों में महाराष्ट्र से गुजरात शिफ्ट की जा चुकी हैं।

फिर महाराष्ट्र में इस बार का चुनाव सिर्फ हिंदुत्व के मुद्दे पर नहीं लड़ा जा रहा है। कारण है कि इस बार राज्य के चुनाव में जातीय फैक्टर ज्यादा हावी हो गया है और बीजेपी को भी एहसास हो गया है कि यह चुनाव सिर्फ हिंदू-मुस्लिम मुद्दों पर नहीं लड़ा जा सकता है, इसलिए योगी से लेकर हिमंत बिस्वा-शर्मा जैसे कट्टर हिन्दू नेताओं के प्रचार को ज्यादा महत्व नहीं दिया जा रहा है जैसे झारखण्ड में दिया जा रहा है।

वहीं, ऐसा लगता है कि मोदी के भी सात-आठ दौरे हो सकते हैं जो काफी कम हैं। हरियाणा विधानसभा चुनाव में भी मोदी की प्रचार सभाएं अपेक्षाकृत कम देखने को मिली थीं। शायद ऐसा इसलिए भी क्योंकि देखा जा रहा है कि मोदी को भी अब पहले जैसा रिस्पॉन्स नहीं मिल रहा है।

सवाल है कि ऐसी स्थिति में बीजेपी के लिए प्रचार में मुख्य रूप से शाह शामिल हैं तो उससे क्या वाकई बीजेपी को फायदा होगा?

दूसरी तरफ, महाविकास गठबंधन के चुनाव प्रचार में एक तरफ शरद पवार तो एक तरफ उद्धव ठाकरे जैसे क्षेत्रीय चेहरे हैं जिनके मुकाबले कोई मराठी चेहरे नहीं ठहरते। वहीं, महाविकास अघाड़ी के प्रचार विज्ञापनों पर नजर डालें तो साफ है कि वह मराठी बनाम गुजराती को चुनावी मुद्दा बनाना चाहता है। महागठबंधन के प्रचार में जो मुद्दे हैं उनमें प्रमुख हैं कि राज्य की महायुति सरकार सरकार ने गुजरात के उद्योग को बढ़ावा दिया है, सरकार में भ्रष्टाचार व्याप्त है, राज्य की वित्तीय हालत खस्ता है, कर्ज लेकर योजनाएं चलाई जा रही हैं और पैसे की बंदरबांट हो रही है आदि। 

इसके अलावा इस चुनाव में एनसीपी का अजित पवार गुट सबसे कमजोर कड़ी साबित हो सकता है जिसका मुकाबला सीधे शरद पवार गुट से है और लोकसभा चुनाव में जो शरद पवार गुट से बुरी तरह हार चुका है।

मोदी की जगह संघ 

मोदी-शाह ने हरियाणा की तर्ज पर महाराष्ट्र में भी चुनाव प्रचार की जिम्मेदारी बीजेपी और संघ नेताओं को सौंपी है। इसके पीछे बीजेपी को डर है कि मोदी का अभियान जितना चुनावी मुद्दों के आधार पर लड़ा जाएगा, उतना ही महाविकास गठबंधन को फायदा होगा, क्योंकि महाविकास गठबंधन पूरा चुनाव ही 'महाराष्ट्र विरोधी गुजराती लॉबी' के खिलाफ लड़ रही है। लेकिन, मोदी और बड़े स्टार प्रचारक न होने का असर राज्य के बीजेपी नेताओं पर पड़ सकता है।

बहरहाल, दिवाली खत्म होने के साथ ही महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के लिए प्रचार जोर-शोर से शुरू हो गया है। दोनों गठबंधनों के संकल्प-पत्रों की घोषणा के बाद अब दोनों और से बागियों को शांत करके नुकसान की भरपाई करने का दौर चल रहा है और जाहिर है कि इस पूरी कवायद में जो गठबंधन बेहतर प्रबंधन करेगा वह बेहतर नतीजे भी ला सकता है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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