किताब: जात-पात का जाल उलझाती सुलझाती 'जातियों की आत्मकथा'
हमारा देश जातियों का देश है। जातियों का इतना विशाल जाल यहां है कि उसे काटना तो दूर, उसे समझना भी कठिन ही नहीं असंभव-सा प्रतीत होता है।
जिस देश में जाति और पेशे हमारे जन्म के साथ ही बाईडिफाल्ट निर्धारित हो जाते हैं वहां पर जातियों की आत्मकथा तो लिखी और पढ़ी जा सकती है पर जाति का विनाश - क्या ये आसान काम है?
हालांकि 'जातियों की आत्मकथा' के लेखक नवल किशोर कुमार अपने आत्मकथ्य में कहते हैं कि ''निश्चित तौर पर जाति के विनाश का उद्देश्य ही इस किताब का असली मकसद है। लेकिन यह कैसे मुमकिन है, इसकी एक राह इस पुस्तक में है।” वे कहते हैं कि “इस प्रस्तावना के चार अहम भाग है - सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक। जिसने अपनी जाति की संस्कृति को नहीं जाना, वह अन्य जातियों के लोगों के साथ सौहार्दपूर्ण व्यवहार कैसे करेगा। यही तो जाति के विनाश की दिशा मे पहला कदम है।''
भारतीय समाज में खासकर हिंदू संप्रदाय में जाति की जकड़न बहुत जटिल है। इसके बारे में कहा जाता है कि -
हिंदू तेरी जात में जात, जात में जात
ज्यों केलन के पात में पात, पात में पात
यहां जन्म से लेकर मृत्यु तक जाति इंसान का पीछा नहीं छोड़ती। अतिशूद्र यानी दलित वर्ग में जाति अपना भयावह रूप दिखाती है। बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर ने जाति को ऐसी चार मंजिली इमारत कहा था जिसमें सीढ़ियां नहीं हैं यानी हिंदू धर्म के अनुसार सबसे ऊंची चौथी मंजिल पर ब्राह्मण, तीसरी पर राजपूत (ठाकुर), दूसरी पर वैश्य (बनिया) और पहली पर शूद्र होते हैं और उससे भी निचली भूतल पर अतिशूद्र (दलित) माने जाते हैं।
अतिशूद्रों यानी दलित या डिप्रेस्ड क्लास के बारे में बात करते हुए बाबा साहेब ने कहा था कि ये लोग किसी तरफ भी मुड़ें जाति का राक्षस रास्ता रोक कर खड़ा हो जाता है। इसलिए बाबा साहेब ने जाति के विनाश की बात कही थी। पर यक्ष प्रश्न यही कि जाति का खात्मा क्या इतना आसान है?
आज के संदर्भ में जाति के खात्मे की कोई बात करता है क्या? हां, जाति जनगणना की बात जरूर की जाती है। जाति के अनुपात में आरक्षण की बात की जाती है।
यह भी बताता चलूं कि इस पुस्तक में कंवल भारती की भूमिका किताब का महत्वपूर्ण भाग है। मैं तो यह सिफारिश करूंगा कि किताब के अध्यायों को पढ़ने से पहले यह भूमिका पढ़ी जानी चाहिए। इससे पाठक को जातियों की आत्मकथाओं को पढ़ने-समझने में सुविधा होगी।
अपनी भूमिका में कंवल भारती कुछ सवाल भी उठाते हैं जो काबिले-गौर हैं जैसे :
अग्रवाल मिष्ठान भंडार का मालिक बनिया ही कहलाता है। उसकी जाति हलवाई में परिवर्तित नहीं हुई। शर्मा डेयरी का मालिक, दूध का धंधा करके भी ब्राह्मण ही कहलाता है। पेशे के आधार पर उसकी जाति नहीं बनी।... ठाकुर फर्नीचर्स के यहां कार्यरत सभी कारीगर बढ़ई होते हुए भी मालिक ठाकुर ही रहेगा, वह बढ़ई नहीं माना जाएगा। ...फिर, दलित जातियों के संदर्भ पेशे क्यों आधारभूत हैं?
गड़रिया अपनी तुलना यादवों से करते हुए कहता है - ''यादवों और मेरे बीच में अंतर क्या है। यादव यायावर नहीं रहे। वे कृषक भी थे और मवेशीपालक भी। वे गाय भैंस चराते थे और इसके लिए उनके पास एक निश्चित भूभाग था, मतलब यह कि वे जिस इलाके में रहते थे, उसी इलाके तक सीमित रहते थे। इस कारण जमीन पर उनका अधिकार रहा। जमीन पर अधिकार होने के कारण ही यादवों ने राजनीतिक हस्तक्षेप किया। लेकिन मैं तो यायावर ही रहा। वैसे भी हम यायावरों के पास जमीन कहां और जब जमीन नहीं है तो राजनीतिक हस्तक्षेप कहां मुमकिन था।''
जातियों की आत्मकथा के रूप में सबसे पहली कृति (1981) में 'मैं भंगी हूं' आई जिसे सुप्रसिद्ध दलित लेखक भगवान दास ने लिखा था।
कवि, आलोचक और पत्रकार नवल किशोर कुमार की पुस्तक 'जातियों की आत्मकथा' भगवान दास की 'मैं भंगी हूं' के बाद अनेक जातियो के उद्भव और विकास पर किया गया पहला बड़ा काम है जो न केवल जातियों के समाजशास्त्र को समझने की दृष्टि से अपितु इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि यह जातियों से जुड़े ब्राह्मणवादी अर्थशास्त्र और राजनीति की परत भी उधेड़ता है।
लेखक ने बंजारा जाति की आत्मकथा लिखते समय कई महत्वपूर्ण जानकारियां दी हैं। यह उद्धरण देखिए- ''मैं तो वह हूं, जिसका कोई अपना मजहब नहीं। मैं हिदू भी हूं, मुस्लिम और कहिए तो ईसाई भी। दरअसल मैं तो वह हूं, जिसने वैश्विक स्तर पर इस दुनिया को अपना माना है और वह भी बिना किसी लाग-लपेट के। मैं जहां गया, मैंने उसे अपनाया। जितना लिया उससे अधिक दिया। लेकिन रहा मैं हमेशा बंजारा ही।'’...धर्म के मामले में हम बंजारे अलहदा हैं। कहीं कोई मंदिर देखा तो भगवान को प्रणाम कर लिया और कहीं कोई मस्जिद मिली तो ऊपर वाले की शान में वजू उपरांत नमाज अदा कर ली। हालांकि अब मेरे लोगों को आरएसएस के लोग बरगला रहे हैं कि हम हिंदू हैं, मैं पूछता हूं कि हम हिंदू कैसे हो गए? हम तो सुदूर अफगानिस्तान से आए लोग हैं। उनके पास जवाब नहीं होता।''
ऐसे समय में 'जातियों की आत्मकथा' के लेखक अपनी पुस्तक के माध्यम से जातियों के विनाश को ही इस पुस्तक का उद्देश्य बताते हैं। पुस्तक में दी गई सामग्री के अनुसार जाति का विनाश हो या नहीं पर लेखक ने विभिन्न जातियों की परकाया में प्रवेश कर उन जातियों के मन की बात जरूर हम पाठकों के सामने रखी है। इसके लिए निश्चय ही उन्होंने काफी अध्ययन और परिश्रम किया है जिसकी सराहना की जानी चाहिए।
जातियों की संस्कृति, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र तथा राजनीतिक इतिहास को समझने के लिए यह एक महत्वपूर्ण पठनीय पुस्तक है। एक बार अवश्य पढ़ी जानी चाहिए।
पुस्तक का नाम : जातियों की आत्मकथा
लेखक : नवल किशोर कुमार
प्रकाशक : न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन
पृष्ठ संख्या : 192
मूल्य : 350 रुपये
(लेखक सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़े हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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