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एनसीईआरटी की पाठ्य पुस्तकों में बदलाव: विज्ञान भी निशाने पर

वास्तव में जितने भी बदलाव किए गए हैं सब के सब, वर्तमान सत्ता अधिष्ठान की सांप्रदायिक तथा संशोधनवादी विचारधारा से पूरी तरह से मेल खाते हैं।
Charles Darwin
फ़ोटो साभार: ThoughtCo

वर्तमान भाजपा-नीत सरकार के पहले ही कार्यकाल में, 2018 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय में (जिसका नाम बदल कर अब एक बार फिर शिक्षा मंत्रालय कर दिया गया है) राज्य मंत्री ने, और किसी को नहीं देश की संसद को ही यह ज्ञान दिया था कि चार्ल्स डार्विन का विकास का सिद्धांत ‘‘वैज्ञानिक रूप से गलत’’ साबित हो चुका है। आखिरकार, इंसान हमेशा से ही पृथ्वी पर इंसान के रूप में मौजूद रहे हैं और ‘‘बंदर को इंसान बनते किसी ने भी नहीं देखा है।’’ उन्होंने यह भी कहा था कि इसलिए, स्कूलों तथा कालेजों की पाठ्यक्रम में समुचित बदलाव किए जाने चाहिए। मंत्री जी की वैज्ञानिकों ने और प्रेस ने खूब आलोचना की थी, लेकिन वह अपनी बात पर अडिग रहे थे और उन्होंने बाद में भी ऐसी बातों को दोहराया था। आज, सांसद के रूप में वह जनाब बड़े संतुष्ट भाव से मुस्कुरा रहे होंगे--आखिरकार, उनकी इच्छा पूरी जो की जा रही है।

पिछले कुछ हफ्तों में, देश में और बाहर भी, इस पर प्रेस में काफी चर्चा हुई है और टीका-टिप्पणियां आयी हैं कि मिडिल तथा हाई स्कूल स्तर की पाठ्य पुस्तकों में और खासतौर पर इतिहास तथा राजनीति विज्ञान की पाठ्य पुस्तकों में, एनसीईआरटी द्वारा क्या-क्या बदलाव किए जा रहे हैं और कैसे ये बदलाव सत्ताधारी पार्टी और उसके विचारधारात्मक, सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक साझीदारों के गहरे पूर्वाग्रहों को प्रतिबिंबित करते हैं। विद्वानों तथा टिप्पणीकारों ने उचित ही इन पाठ्य पुस्तकों से मुगलों तथा अन्य मुस्लिम साम्राज्यों से संबंधित पूरे के पूरे अध्यायों के काटे जाने, गांधी की हत्या से दक्षिणपंथी हिंदुत्ववादी ताकतों के रिश्तों के उड़ाए जाने, स्वतंत्र भारत के शुरुआती दशकों की कहानी का पुनर्लेखन किए जाने, गुजरात के दंगों आदि की पर्दापोशी किए जाने, आदि की जमकर खबर ली है। आलोचकों ने यह भी दर्ज किया है कि हालांकि एनसीईआरटी, सरकार तथा सत्ताधारी पार्टी के प्रवक्ताओं ने, कोविड महामारी को देखते हुए, पाठ्यक्रमों को ‘‘युक्तिसंगत’’ बनाने और इस तरह छात्रों का बोझ कम करने के तिनके की आड़ में छुपने की कोशिश की है, वास्तव में जितने भी बदलाव किए गए हैं सब के सब, वर्तमान सत्ता अधिष्ठान की सांप्रदायिक तथा संशोधनवादी विचारधारा से पूरी तरह से मेल खाते हैं।

फिर भी चंद उल्लेखनीय टिप्पणियों को छोड़ दिया जाए तो, विज्ञान व गणित की पाठ्यपुस्तकों में किए गए ऐसे ही बदलावों तथा काट-छांट पर, समुचित ध्यान नहीं दिया गया है। ये बदलाव, चाहे उतने चौंकाने वाले नहीं हों और उनके सामाजिक-विचारधारात्मक निहितार्थ भले ही उतने स्वत:स्पष्ट नहीं हों, ये किसी भी तरह से कम नुकसानदेह नहीं हैं।

डार्विन, विकासवाद और हिंदुत्व

9वीं और 10वीं की विज्ञान की पाठ्य पुस्तकों में से प्रजातियों के क्रमिक विकास (Evolution) संबंधी सामग्री को हटा दिया गया है और 11वीं तथा 12वीं कक्षा की पाठ्य पुस्तक में पहले क्रमिक विकास और आनुवांशिकता या हैरिडिटी पर जो अध्याय था, उसे बदलकर सिर्फ आनुवांशिकता का अध्याय कर दिया गया है और यहां तक कि डार्विन के संबंध में पहले जो एक बॉक्स हुआ करता था, उसे भी काट दिया गया है। कोई पूछ सकता है कि डार्विन के क्रमिक विकास के सिद्धांत से हिंदुत्ववादियों को क्या समस्या है और इस सब का वैश्विक संदर्भ क्या है?

पिछली कुछ सदियों में, अनेक सांस्कृतिक-धर्मशास्त्रीय परंपराओं में धार्मिक पुराणपंथ, जिसका समाज पर उल्लेखनीय प्रभाव रहा है, डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत से, जिसकी स्थापना उन्नीसवीं सदी के मध्य में की गयी थी, जूझता रहा है। पश्चिम में ईसाई रूढ़िवादी (orthodoxy), डार्विन के विकासक्रम के सिद्धांत को स्वीकार नहीं कर सकता था, जो यह संकल्पना पेश करता था कि सभी जीवधारी, अपने वातावरण के प्रभाव से धीरे-धीरे विकसित होते हैं और इंसान भी, वानरनुमा दोपायों की कहीं भिन्न प्रजाति से, मानव या होमो सेपिअन्स के रूप में विकसित हुए हैं। पिछले अनेक दशकों में काफी साक्ष्य सामने आने के बावजूद, धार्मिक कट्टरता ‘सृष्टिवाद’ के अपने विचारों के लिए और धार्मिक ग्रंथों की शाब्दिक व्याख्या के लिए, विकासवादी सिद्धांत से आने वाली चुनौती का सामना नहीं कर पा रहा था। बाइबिल के इस विचार की रक्षा के लिए कि ईश्वर ने एक साथ सभी जीवधारियों की सृष्टि की थी और खासतौर पर इस विचार की रक्षा के लिए कि ईश्वर ने मनुष्य को, ‘अपनी ही छवि’ में रचा था, डार्विन के विकासवादी सिद्धांत को नकारा जाना और उसका खंडन किया जाना, जरूरी था।

फिर भी यूरोप में तो बाइबिल में प्रस्तुत सृष्टिवाद को, शाब्दिक अर्थों से परे एक धर्मशास्त्रीय अर्थ में देखने का तरीका निकाल लिया गया है और इस तरह स्कूल, यूनिवर्सिटी तथा वैज्ञानिक शोध व्यवस्थाओं के स्तर पर, इस मुद्दे पर ज्यादातर टकरावों से बचने का रास्ता अपनाया गया है। लेकिन, अमेरिका आज भी इस मुद्दे पर टकरावों का केंद्र बना हुआ है और ऐसा खासतौर पर उन प्रांतों में है, जहां धुर-दक्षिणपंथी रिपब्लिकनों तथा पुराणपंथी एवेंजेलिकलों का बोलबाला है। वहां इस पर लड़ाइयां जारी हैं और अदालतों तक में अनेक लड़ाइयां जारी हैं कि डार्विन के विकासवाद को स्कूलों में पढ़ाया जाना चाहिए या नहीं?

दूसरी ओर, पश्चिम एशिया के कई हिस्सों में इस्लामी ग्रंथों की शब्दिक व्याख्याओं के चलन के बावजूद, वहां अब तक इस मुद्दे पर खास टकराव सामने नहीं आया है। बहरहाल तुर्की ने, जो गहरे सामाजिक-सांस्कृतिक बदलावों से गुजर रहा है और जहां, कमाल अतातुर्क के शासन में धर्मनिरपेक्ष आधुनिकीकरण के लंबे दौर के बाद, अब फिर से पुराणपंथ का उभार हो रहा है, शिक्षा के सभी स्तरों के पाठ्यक्रम से विकासवाद की पढ़ाई को प्रतिबंधित ही कर दिया गया है। इस सिलसिले में यह दावा किया जा रहा है विकासवाद तो विवादास्पद सिद्धांत है और यह तो एक और राय या विचार भर है।

ऐतिहासिक रूप से हिंदू धार्मिक रूढ़िवाद या पुराणपंथ और विकासवाद के सिद्धांत के बीच, ऐसी कोई बहस मुख्यत: इसलिए थी ही नहीं कि कभी यह पुराणपंथी ख्याल था ही नहीं कि सृष्टिवाद को शाब्दिक अर्थ में लिया जाना चाहिए। लेकिन, यह तभी तक था, जब तक कि हिंदुत्व का अवतरण नहीं हो गया और उसने पुराणों तथा पुराकथाओं की अपनी ही व्याख्या के आधार पर, विकासवाद का मुकाबला करना तय नहीं कर लिया, जोकि एक बार फिर इसी की पुष्टि करता है कि हिंदुत्व एक सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक आंदोलन है, न कि कोई धार्मिक आंदोलन।

हिंदुत्व के पैरोकारों ने विष्णु के दस अवतारों की दशावतार पुराकथा को, विकासवाद की ‘‘हिंदू’’ दृष्टि के रूप में पेश किया है। उनका कहना है कि विष्णु का इन अलग-अलग अवतारों में पृथ्वी पर अवतरण, ब्रह्मांडीय व्यवस्था को पुनर्स्थापित करने के लिए ही हुआ था। पहले मत्य, फिर कूर्म या कछुआ, वराह या सूअर, नृसिंह या नर-सिंह योग, वामन या बौना, परशुराम या योद्धा अवतार और कृष्ण यानी अतींद्रिय पुरुष अवतार। उनकी व्याख्या है कि अधिकांश पौराणिक साहित्य में इन अवतारों की, ऊर्ध्वगामी चेतना की दस अलग-अलग मंजिलों के रूप में व्याख्या की गयी है। बहरहाल, हिंदुत्व के पैरोकारों ने इसकी व्याख्या विकासवाद या क्रमिक या ऊर्ध्वविकास सिद्धांत के रूप में करनी शुरू कर दी है, जो उनके दावे के अनुसार इसका एक और साक्ष्य है कि प्राचीन भारतीय (पढ़ें वैदिक-संस्कृतीय हिंदू) ज्ञान, अपने पश्चिमी समकक्षों से पहले प्रकट हुआ था और उनसे श्रेष्ठतर था।

2019 में, आंध्र विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर ने, 106वीं भारतीय विज्ञान कांग्रेस को संबोधित करते हुए कहा था कि दशावतार, ऊर्ध्व विकास का डार्विन से बेहतर सिद्धांत मुहैया कराता है। इसी विचार को विश्व हिंदू परिषद के एक अधिकारी ने हाल ही में अल जज़ीरा को दिए एक साक्षात्कार में दोहराया था, जिसमें वह कहते हैं: ‘डार्विन के सिद्धांत ने धर्म के दायरे को सीमित कर दिया है और वह चूंकि हिंदुओं के खून में है, इसे स्कूलों में पढ़ाया जाना चाहिए।’

लेकिन, ऐसा लगता है कि हिंदुत्व को आनुवांशिक सिद्धांत से तो कोई समस्या नहीं है, सिर्फ विकासवाद से ही समस्या है। आनुवांशिकता के सिद्धांत का उपयोग, जैसाकि हिंदुत्ववादी ताकतें करने की हरसंभव कोशिश कर रही हैं, किसी न किसी प्रकार से यह साबित करने के लिए किया जा सकता है कि आर्य स्थानीय मूल के हैं और इसके लिए वे कथित रूप से जैनेटिक्स के आधार पर भी अपने तर्क गढऩे की कोशिश करते हैं।

आनुवांशिकता का सिद्धांत कुछ भारतीयों की नस्लीय शुद्धता की धारणा के लिए, कुछ जातियों की श्रेष्ठता की धारणा के लिए और यहां तक कि मवेशियों की देसी नस्लों की श्रेष्ठता व उनके विशेष गुणों की धारणा के लिए भी, अनुकूल बैठता है! पूर्व मानव विकास मंत्री ने 2019 में संसद में एक बार फिर अपने इस दावे को दोहराया था कि डार्विन का विकासवाद का सिद्धांत गलत है और ‘‘हमारा यह विश्वास है कि हम ऋषियों की संतानें हैं।’’ द्रमुक सांसद, कनिमोई ने इस दावे में अंतर्निहित इथनिक तथा जातिगत श्रेष्ठता की अनेकानेक धारणाओं पर तीखी चोट करते हुए कहा था: ‘मेरे पूर्वज ऋषि नहीं थे... (बल्कि) मनुष्य थे और वे शूद्र थे!’

एनसीईआरटी की पाठ्य पुस्तक से विकासवाद का काटा जाना एकाधिक अर्थों में बहुत भारी क्षति है। जैसाकि पाठ्य पुस्तक समिति में शामिल एक विशेषज्ञ ने कहा है विकासवाद, वैज्ञानिक अवधारणा का आधार है और अनेक अवधारणाओं को वृहत्तर संदर्भ में रखने में छात्रों की मदद करता है। ‘‘यह, ‘ज्ञान की पद्धति के रूप में आस्था’ और ‘ज्ञान की पद्धति के रूप में विज्ञान’ में अंतर करने का’’ महत्वपूर्ण तरीका भी है।

विज्ञान और गणित में और कहां-कहां चली कैंची

विज्ञान और गणित की पाठ्य पुस्तकों में और भी अनगिनत काट-छांट की गयी हैं। 10वीं की विज्ञान की पाठ्य पुस्तक और 11वीं, 12वीं की जीव विज्ञान की पाठ्य पुस्तक में से अब पुनरोत्पादन (reproduction) पर अध्यायों या अंशों को निकाल दिया गया है, जो यौन शिक्षा के प्रति और समाज में स्त्री-पुरुषों के बीच सामान्य संपर्क के प्रति भी, हिंदुत्व के अनुयाइयों के पाखंडी रुख को रेखांकित करता है। पाइथागोरस की प्रमेय के प्रमाण का हटाया जाना भी, पाइथागोरस के प्रति हिंदुत्ववादी वितृष्णा का ही साक्ष्य माना जाएगा क्योंकि वे इस सिद्धांत का भारत में और पहले से ज्ञान हो चुका होने के दावे करते हैं। यह भी हिंदुत्ववादियों के इसके दावों का ही हिस्सा है कि भारत में, पश्चिम के मुकाबले पहले से और श्रेष्ठतर ज्ञान मौजूद था। यह वाकई विचित्र है कि हिंदुत्ववादी, एक श्रेष्ठतर सभ्यता होने की औपनिवेशिक अवधारणा के खिलाफ अब लड़ाई छेडऩे का प्रहसन रच रहे हैं, जबकि अनगिनत भारतीय विद्वान, बुद्धिजीवी और राजनीतिक नेता, देश के आजाद होने के एक सदी पहले से यह लड़ाई लड़ रहे थे।

गणित और विज्ञान की पाठ्य पुस्तकों में की गयी दूसरी अनेक काट-छांट का तर्क समझना तो और भी मुश्किल है। मिसाल के तौर पर उच्चतर कक्षाओं के पाठ्य विषयों में से एडवांस्ड बीजगणित का हटाया जाना, जिसमें उन कक्षाओं से हटाया जाना भी शामिल है जिनमें गणित एक चयनित विशेषीकृत विषय के तौर पर पढ़ाया जाता है। कुल मिलाकर यह काट-छांट, गणित के छात्रों के ज्ञान तथा क्षमताओं को ही कमजोर करती लगती है। यह और भी विचित्र है क्योंकि गणित के ज्ञान को, आज की दुनिया में भारतीय छात्रों की सबसे बड़ी सामर्थ्य में से एक माना जाता है।

इसके अलावा पर्यावरण, भारत में सामाजिक आंदोलनों, औद्योगिक क्रांति और यहां तक कि विज्ञापनों पर भी अध्यायों या अंशों का काटा जाना, विचारधारात्मक आग्रहों से ही प्रेरित काट-छांट का ही मामला है! लेकिन, उस सब पर फिर कभी और चर्चा करेंगे।

मुल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

Hindutva’s Killing Fields: Science is Latest Target in Textbook Revisions

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