हरियाणा : भाजपा ने बताया कि हारी हुई बाज़ी कैसे जीती जाती है!
हरियाणा में तमाम अनुमानों और दावों को गलत साबित करते हुए भारतीय जनता पार्टी ने विधानसभा का चुनाव जीत लिया। हरियाणा के इतिहास में यह पहला मौका है जब कोई पार्टी लगातार तीसरी बार सत्ता में आई है। इससे पहले कभी कोई पार्टी लगातार तीन मर्तबा चुनाव नहीं जीती थी। इस राजनीतिक इतिहास के साथ-साथ और भी कई बातें ऐसी थी, जिनसे लग रहा था कि भाजपा बैकफुट पर है। भाजपा ने बीते मार्च में ही करीब साढ़े नौ साल पुराने मुख्यमंत्री को बदला था, जिससे लग रहा था कि मनोहर लाल खट्टर की सरकार के खिलाफ जबर्दस्त एंटी इन्कम्बैंसी है।
मुख्यमंत्री बदलने के कुछ ही दिनों बाद हुए लोकसभा चुनाव में यह एंटी इन्कम्बैंसी दिखी भी, जब भाजपा सूबे की 10 में से पांच लोकसभा सीटें हार गई और कांग्रेस पांच सीटें जीतने में सफल रही। लगातार दो लोकसभा चुनावों में अपना खाता खोलने में नाकाम रही कांग्रेस के पांच सीटें जीतने के अलावा किसान आंदोलन का निर्ममतापूर्वक दमन, अग्निवीर योजना, महिला पहलवानों का यौन शोषण जैसे मुद्दों के अलावा बेरोजगारी और महंगाई और बदहाल कानून व्यवस्था जैसे शाश्वत मुददों के चलते माहौल यह बना हुआ था कि विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के मुकाबले भाजपा बुरी तरह पिछड़ जाएगी। अपने लिए ऐसे प्रतिकूल माहौल में हुए चुनाव के दौरान भाजपा किसी तरह जीतने के लिए लड़ रही थी, जबकि कांग्रेस की जीत तय मानी जा रही थी। इतना तय है कि सूबे के बड़े कांग्रेसी नेता चुनाव की फिक्र छोड़ कर मुख्यमंत्री बनने के लिए लड़ रहे थे। पूरे चुनाव के दौरान उनके बीच इसी बात को लेकर कलह मची हुई थी कि मुख्यमंत्री कौन बनेगा।
हरियाणा के गांव-गांव में लोगों की धारणा भाजपा के हारने की थी। इस धारणा का एहसास प्रदेश के भाजपा नेताओं को भी था। उनका आत्मविश्वास किस कदर खोया हुआ था, इसकी बानगी मतगणना वाले दिन यानी आठ अक्टूबर को शुरुआती दौर में देखने को मिली। सुबह करीब साढ़े नौ बजे जब कांग्रेस 60 से अधिक सीटों पर आगे चल रही थी, तब मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी ने एक बयान दिया था कि अगर भाजपा हारती है तो उसकी जिम्मेदारी उनकी होगी। उनका यह बयान एक तरह से हार कुबूल करने वाला था। उन्होंने जीत की संभावना खत्म मान ली थी और हार का ठीकरा पार्टी के शीर्ष नेतृत्व यानी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के माथे पर न फूटे, इसलिए उन्होंने अपना माथा आगे कर दिया था। लेकिन 10 बजे के बाद स्थितियां बदलनी शुरू हुईं और 12 बजे तक साफ हो गया कि भाजपा 2014 से भी बड़े बहुमत के साथ सरकार बनाने जा रही है। भाजपा ने न सिर्फ सीटें बढ़ाई हैं, बल्कि उसके वोट प्रतिशत में भी हैरतअंगेज तरीके से इजाफा हुआ है।
दरअसल पूरे चुनाव के दौरान भाजपा के सूबाई नेताओं के हौसले भले ही पस्त दिखे हों, लेकिन भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने हिम्मत नहीं हारी थी। यह सही है कि प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की रैलियां भीड़ के लिहाज बेहद फीकी साबित हो रही थीं, इसीलिए इस बार उन्होंने ज्यादा रैलियां भी नहीं कीं और पूरा जोर माइक्रो प्रबंधन करते हुए सामाजिक समीकरणों को साधने में लगाया। कहने को तो भाजपा ने खुद 89 सीटों पर चुनाव लड़ा था और एक सिरसा की सीट पर हरियाणा लोकहित कांग्रेस के गोपाल कांडा को समर्थन दिया था।
लेकिन असल में भाजपा सिर्फ 90 उम्मीदवारों का चुनाव नहीं लड़ रही थी, बल्कि 90 सीटों पर 120 उम्मीदवारों का चुनाव लड़ रही थी। करीब 30 सीटों पर मजबूत निर्दलीय और दूसरी छोटी पार्टियों के उम्मीदवारों चुनाव भी परोक्ष रूप से भाजपा ने ही लड़ा। उन उम्मीदवारों को भाजपा की ओर से हर तरह की मदद की गई। बताया जाता है कि भाजपा ने अपने माइक्रो प्रबंधन के तहत कहीं मजबूत निर्दलीय उम्मीदवारों की तो कहीं इंडियन नेशनल लोकदल और बहुजन समाज पार्टी के उम्मीदवारों की मदद की। कई सीटों पर जननायक जनता पार्टी और आजाद समाज पार्टी के उम्मीदवारों को भी मदद पहुंचाने की चर्चा है।
भाजपा को इस माइक्रो प्रबंधन का फायदा कई सीटों पर मिला है। मिसाल के तौर पर महेंद्रगढ़ की नजदीकी मुकाबले वाली सीट को देखा जा सकता है, जहां एक निर्दलीय उम्मीदवार को 18 हजार वोट आए। वहां इंडियन नेशनल लोकदल को भी साढ़े तीन हजार वोट आए तो आम आदमी पार्टी और एक अन्य निर्दलीय ने मिल कर तीन हजार वोट काटे, जबकि हार-जीत का अंतर पांच हजार से कम वोटों का रहा। इसी तरह भिवानी में आम आदमी पार्टी तीसरे स्थान पर रही, जिसकी उम्मीदवार को 14 हजार वोट मिले लेकिन उसके बाद चौथे, पांचवें और छठे स्थान पर निर्दलीय रहे, जिनको कुल 15 हजार वोट मिले। बल्लभगढ़ सीट पर तो दूसरे और तीसरे स्थान पर निर्दलीय ही रहे। असंद सीट पर बसपा को 10 हजार और चौथे स्थान पर रहे निर्दलीय को आठ हजार वोट मिले, जबकि कांग्रेस तीन हजार वोट से हारी। गोहाना में दो निर्दलियों ने 13 हजार वोट काटे और कांग्रेस इतने ही वोट से हारी। इस तरह की सीटों की संख्या एक दर्जन से ज्यादा हैं, जहां निर्दलीय उम्मीदवारों ने कांग्रेस का गणित बिगाड़ा।
हरियाणा का चुनाव मुख्य रूप से भाजपा और कांग्रेस के बीच आमने सामने का चुनाव था और ऐसा लग रहा था कि दो ध्रुवीय चुनाव ही होगा। इसके बावजूद निर्दलीय उम्मीदवारों को 11 फीसदी वोट मिले हैं। राज्य की स्थापित पार्टियों- इंडियन नेशनल लोकदल, जननायक जनता पार्टी, बसपा, आजाद समाज पार्टी और आम आदमी पार्टी को मिला कर जितने वोट मिले हैं, उससे दोगुने वोट निर्दलीय उम्मीदवारों को मिले है। यह भाजपा के माइक्रो प्रबंधन का ही कमाल है।
दूसरी ओर कांग्रेस का माइक्रो प्रबंधन भाजपा के मुकाबले लगभग शून्य ही रहा। यही नहीं, सामाजिक समीकरणों को साधने में भी भाजपा कांग्रेस पर भारी पड़ी। कांग्रेस का सामाजिक समीकरण पूरी तरह से जाट व मुस्लिम वोट तक सिमट कर रह गया। वह बहुत ज्यादा दलित वोट भी नहीं हासिल कर सकी। इसका नतीजा यह हुआ है कि भूपेंद्र सिंह हुड्डा के गढ़ में सोनीपत और गोहाना जैसी सीट भी कांग्रेस हार गई। जाट बहुल इलाकों में जैसे जैसे जाट वोट एकजुट हुआ, उसके मुकाबले में दूसरी जातियों के वोट भी गोलबंद हो गए। पहले लग रहा था कि कांग्रेस का जाट, दलित और मुस्लिम वोट एक रहेगा तो यह 50 फीसदी से ऊपर चला जाएगा, जिसमें से कांग्रेस आसानी से जीतने लायक वोट हासिल कर लेगी। इसीलिए एग्जिट पोल के नतीजों में भी कांग्रेस को 43 फीसदी वोट मिलने का अनुमान जताया गया था। लेकिन कांग्रेस 40 फीसदी के आसपास वोट पर ही सिमट गई। इसकी अहम वजह यही रही कि वह पूरे सूबे में जाट और मुस्लिम के अलावा दूसरा वोट नहीं ले सकी।
कांग्रेस के इस नाकामी के मुकाबले भाजपा का सामाजिक समीकरण बहुत सधा हुआ रहा। उसने चुनाव से पहले पिछडी जाति का मुख्यमंत्री बनाने का जो दांव चला वह भी कारगर रहा। गौरतलब है कि सूबे में पिछड़ी जाति की आबादी 36 फीसदी के करीब है। हरियाणा में संभवत: पहली बार पिछड़ी जाति का कोई नेता मुख्यमंत्री बना था तो पिछड़ी जातियों ने एकजुट होकर भाजपा को वोट दिया। चुनाव के बीच में भाजपा के बड़े नेता अनिल विज ने मुख्यमंत्री पद की दावेदारी की तो खुद गृह मंत्री अमित शाह ने हरियाणा जाकर स्पष्ट किया कि भाजपा नायब सिंह सैनी के चेहरे पर चुनाव लड़ रही है और भाजपा जीती तो सैनी ही मुख्यमंत्री होंगे। ऐसी ही सफाई भाजपा के चुनाव प्रभारी धर्मेंद्र प्रधान ने भी हर जगह घूम-घूम कर दी। इसका नतीजा यह हुआ कि पिछड़ा वोट पूरी तरह से भाजपा के साथ जुड़ गया। इसके अलावा कई इलाकों में खासकर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र यानी एनसीआर और ब्रजभूमि से सटे इलाकों में इलाकों में हिंदू-मुस्लिम का जो नैरेटिव बना था उसका भी फायदा भाजपा को मिला।
लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा को लेकर यह धारणा बनी थी कि अब भाजपा की ताकत का क्षरण शुरू हो गया है। वह देश की राजनीति में एक केंद्रीय ध्रुव तो बनी रहेगी, लेकिन 2014 में उसका जो अभियान शुरू होकर 2019 में शिखर पर पहुंच गया था, अब वहां से उसका ढलान शुरू हो गया है। लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद हुए दो राज्यों- जम्मू कश्मीर और हरियाणा के विधानसभा चुनावों में जिस तरह से विपक्ष ने प्रचार किया और मतदान के बाद एग्जिट पोल के आंकड़ों में जैसे भाजपा के हारने और कांग्रेस के सफल होने की भविष्यवाणी की गई उससे भी यही संकेत निकल रहा था कि भाजपा अब कमजोर हो गई है।
भाजपा नेतृत्व की कमजोरी को लेकर भी अलग कहानियां प्रसारित हो रही थीं। कहा जा रहा था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अब भाजपा का सूत्र संचालन पूरी तरह अपने हाथ में लेने वाला है और अब नरेंद्र मोदी की पसंद से नहीं, बल्कि संघ की पसंद से भाजपा का अध्यक्ष बनेगा। लेकिन ये सारी धारणाएं एक झटके में हवा हो गईं। हालांकि जम्मू-कश्मीर में सारी हिकमत अमली के बावजूद भाजपा का जीत का ख्वाब पूरा नहीं हो सका है, लेकिन हरियाणा के चुनाव नतीजों ने सब कुछ बदल दिया है। भाजपा लोकसभा चुनाव में हार के सदमे से बाहर आ गई है और निश्चित रूप से उसके नेताओं और कार्यकर्ताओं का मनोबल ऊंचा होगा, जो आने वाले दिनों में महाराष्ट्र, झारखंड और दिल्ली विधानसभा के चुनावों में भी असर दिखाएगा।
हालांकि भाजपा ने हरियाणा का चुनाव जीत कर अपने ढलान की धारणा को खारिज करने में सफल रही है लेकिन चुनाव आयोग ने इस चुनाव में भी अपनी खोई हुई साख को बहाल करने की कोई कोशिश नहीं की। हर चुनाव की तरह इस चुनाव में भी वह पूरे समय भाजपा के विश्वस्त सहयोगी दल की तरह काम करता दिखा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. विचार व्यक्तिगत हैं. )
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