होली मोहब्बत वाली? या फिर इसका रंग भी बदल गया?
मुग़ल काल में होली खेलती महिलाएं (WOMEN CELEBRATING HOLI, MUGHAL, LUCKNOW 1780 / ATTRIBUTED TO MIHR CHAND / SOTHEBYS) साभार: The Heritage Lab
जब फागुन रंग झमकते हों, तब देख बहारें होली की
और दफ़ के शोर खड़कते हों, तब देख बहारें होली की
परियों के रंग दमकते हों, तब देख बहारें होली की
ख़ुम, शीशे, जाम झलकते हों, तब देख बहारें होली की
महबूब नशे में छकते हों, तब देख बहारें होली की
जब-जब होली आएगी नज़ीर अकबराबादी की 'होली की बहारें' ज़रूर गुनगुनाई जाएगी। हालांकि वो बात अलग है पहले लोग मिल कर गुनगुनाया करते थे पर अब सोशल मीडिया हैंडल पर अपने-अपने 'एक्सक्लूसिव' अंदाज़ में नज़ीर अकबराबादी का लिखा टाइमलाइन पर शेयर कर लेते हैं।
और नज़ीर ही नहीं अमीर ख़ुसरो की होली पर लिखी ये कविता भी ख़ूब वायरल होती है। ( भले ही इसका फ़िल्मी वर्जन )
आज रंग है ऐ मां रंग है री,
मेरे महबूब के घर रंग है री।
ऐ तोरा रंग मन भायो निजामुद्दीन
मुंह मांगे बर संग है री।
ऐ महबूब-ए-इलाही मैं तो ऐसो रंग और नहीं देखी।
देस विदेश में ढूंढ फिरी हूँ।
आज रंग है ऐ मां रंग है री।
मेरे महबूब के घर रंग है री।
वहीं मैथिलीशरण गुप्त होली पर लिखते हैं कि
जो कुछ होनी थी, सब होली
धूल उड़ी या रंग उड़ा है,
हाथ रही अब कोरी झोली।
आंखों में सरसों फूली है,
सजी टेसुओं की है टोली।
पीली पड़ी अपत, भारत-भू,
फिर भी नहीं तनिक तू डोली
बात होली से जुड़े साहित्य या अदब की दुनिया की करें तो भक्तिकाल से लेकर मुस्लिम शासकों और उसके बाद भी होली पर बहुत ही सुंदर साहित्य रचा-बसा है।
सूफ़ी संतों के अलावा शायरों और कवियों ने होली पर बहुत से गीत, ग़ज़ल, ठुमरी और शायरी लिखी है, सूरदास, रहीम, रसखान, पद्माकर, जायसी, मीराबाई, कबीर और भी कई नाम हैं जिन्होंने होली में सराबोर गीतों और गज़लों का संसार बुना है। ठुमरी, चैती, की ख़ूबसूरत बंदिशें हो या फिर शास्त्रीय संगीत में इस वक़्त छेड़े जाने वाले कुछ राग आज भी हर दिल अज़ीज़ हैं।
मुस्लिम साहित्य में होली का ज़िक्र
इसके अलावा मुस्लिम ( ख़ासकर मुग़ल ) शासकों के वक़्त भी होली के न सिर्फ़ धूमधाम से मनाने का ज़िक्र मिलता है बल्कि कई बादशाहों के उसमें शामिल होने का भी ज़िक्र है। अबुल फ़जल की लिखी आईन-ए-अकबरी और तुज़्क-ए-जहांगीरी ( Tuzuk-i-Jahangiri ) में भी होली खेलने और उससे जुड़े रिवाजों का ज़िक्र है।
19वीं सदी के बीच इतिहासकार मुंशी जकाउल्लाह( Munshi Zakaullah ) ने अपनी किताब तारीख़-ए-हिन्दुस्तानी ( Tarikh-i-Hindustani) में लिखा है कि ''कौन कहता है होली हिंदुओं का त्योहार है''! इस किताब में ज़िक्र है कि कैसे बाबर हिंदुओं को होली खेलते देखकर हैरान रह गए थे।
लखनऊ के एक कलाकार द्वारा बनाई गई होली उत्सव की तस्वीर (HOLI FESTIVAL BY A LUCKNOW PAINTER / 1800-1899 / CC BY / WELLCOME COLLECTION)। साभार: The Heritage Lab
'ईद-ए-गुलाबी'
बताया जाता है कि जहांगीर बहुत ही उत्साह से होली मनाते थे और उन्हीं के दौर में होली को ईद-ए-गुलाबी( रंगों का त्योहार) और आब-ए-पाशी ( पानी की बौछार का त्योहार) नाम दिए गए थे। शाहजहां के भी शाहजहानाबाद ( पुरानी दिल्ली ) में होली खेलने का ज़िक्र मिलता है। वहीं बहादुरशाह ज़फ़र के दौर में होली को लेकर और उत्साह दिखाई देता है। अपने वक़्त के अज़ीम शायर बहादुरशाह जफ़र के लिए कहा जाता है कि उन्होंने होली के लिए भी गीत लिखे थे, उन्हीं का लिखा एक होरी गीत या फाग है-
''क्यों मो पे रंग की मारी पिचकारी, देखो कुंवरजी दूंगी मैं गारी''
मुगल काल या फिर मुस्लिम शासकों की बात करें तो दिल्ली, आगरा के अलावा लखनऊ में नवाब आसिफुद्दौला और वाजिद अली शाह की होली भी माज़ी के पन्नों में बहुत से रंग लिए दर्ज है।
पूरे देश में और ख़ासकर उत्तर भारत में होली के बहुत से रंग देखने को मिलते हैं मथुरा-वृंदावन की होली में हिस्सा लेने तो देश-विदेश से लोग पहुंचते हैं। कान्हा की नगरी की होली हो या फिर अवध में रघुवीरा के गीत या फिर काशी की होली, बस जगह बदल जाती हैं लेकिन होली के रंग और उसमें सराबोर गीत और लोकगीत बहुत ही ख़ूबसूरत समां बना देते हैं लेकिन क्या वक़्त के साथ होली के रंग पर कोई और रंग चढ़ने लगा है?
इस दौर को पलट कर देखने पर क्या मिलेगा?
तारीख़ में दर्ज होली की ये तमाम विधा ग़ज़ल, गीत, रास, और फाग साबित करती हैं कि हमारे देश में होली से जुड़ी एक सम्पन्न विरासत रही है लेकिन मौजूदा दौर को जब हम पलट कर देखेंगे तो हमें क्या देखने को मिलेगा। ये सवाल हमने दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर अपूर्वानंद से पूछा तो उनका जवाब था -
''हम देखते हैं कि होली या फिर कृष्ण जन्माष्टमी पर लोग नज़ीर की, अमीर ख़ुसरो और बाक़ी लोगों की कथाएं लिखते हैं, उनके गीत लिखते हैं ( सोशल मीडिया पर ) हमारा जो इतिहास है, हमारे जो पुरखे थे वे उसमें बेहतर निकलेंगे क्योंकि इस वक़्त का इतिहास जब कोई निकालना चाहेगा तो उसे डीजे के वे गाने मिलेंगे जो हिन्दू त्योहारों की रात या फिर उनके जुलूसों में बजते हैं, और वे गाने मुसलमानों को गाली-गलौज करके बनाए जाते हैं, तो इससे हमारे वक़्त की जो तस्वीर बनेंगी, हमारे वक़्त के हिन्दुओं की तस्वीर बनेगी वे यह कि धार्मिक त्योहार पर ख़ुशी नहीं मनाई जाती थी बल्कि अपने धार्मिक त्योहार का इस्तेमाल दूसरों को बेइज्जत करने के लिए किया जाता था, तो हमारी आने वाली पीढ़ियों में हमारी अच्छी तस्वीर नहीं बनने वाली, मौजूदा दौर के बारे में जब वे जानना चाहेंगे कि हमारा क्या रवैया था? तो जो सबूत निकलेंगे वे ये गीत होंगे, ये गीत तो आज से 20 साल बाद भी इंटरनेट और बाकी जगहों पर रहेंगे, अभी होली आएगी तो आप देखेंगे कि लोग फेसबुक पर, ट्विटर पर सब अमीर ख़ुसरो को लगाना शुरू करेंगे लेकिन हम अपने समय का क्या लगाएंगे? तो क्या हम अपने समय का ये सब लगाएंगे? और इसके अलावा तो हमारे पास कुछ है नहीं''
सवाल- क्या मोहब्बत के त्योहार अब बदल गए हैं?
''हर त्योहार, ख़ासकर होली का त्योहार अपनी ख़ुशी में दूसरों को शामिल करने की दावत देता है उसमें हम भेदभाव नहीं करते लेकिन अगर त्योहार दूसरों को दूर करने के लिए इस्तेमाल किया जाने लगे तो उससे उस समुदाय की क्वालिटी का पता चलता है, कि वे समुदाय दूसरों के साथ अपनी ख़ुशी की साझेदारी नहीं करना चाहता। बल्कि उस मौक़े को दूसरों के लिए दुख के मौक़े में तब्दील कर देना चाहता है तो ये अफसोस की बात है, होली तो ऐसा मौक़ा हुआ करती थी जैसे कि ईद- बकरीद में हम जाया करते थे अपने मुसलमान दोस्तों के यहां,उसी तरह होली पर तीन-चार दिन तक लोग मिलने आते थे, मुसलमान भी आते थे लेकिन अब मुसलमान बचते हैं, तो ये ख़ुद हिन्दुओं के लिए सोचने की बात है कि उन्होंने अपनी ऐसी तस्वीर क्यों बनने दी है, ऐसे त्योहार जो ख़ुशी फैलाने का मौक़ा थे उसे क्यों उन्होंने नफ़रत को फैलाने के लिए इस्तेमाल होने दिया?
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''त्योहार औज़ार बन गए हैं''
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि एक दौर था जब मुल्क में हर मज़हब के लोग दूसरे के अक़ीदे का बहुत ही एहतराम किया करते थे लेकिन बदलते दौर में हिन्दू त्योहारों के आते ही अल्पसंख्यकों में एक अजीब सी दहशत दिखाई देने लगती है। ऐसा क्यों? और इसी से जुड़ा एक सवाल हमने वैज्ञानिक और शायर ग़ौहर रज़ा साहब से पूछा जिसके जवाब में उन्होंने कहा कि
'' इस वक़्त पूरा हिन्दुस्तान इस बात से सहमा है कि हर चीज़ को कन्वर्ट किया जा रहा है नफ़रत में, हमारे सारी परम्परा, वास्तुकला, हमारी सारी पेंटिंग, हमारी सारी रोज़मर्रा की चीज़ें जो एक-दूसरे को क़रीब लाती थीं उनके ऊपर बहुत बड़ा हमला है, तो ये फासीवादी एजेंडे का हिस्सा है''
वे आगे कहते हैं कि
''इस वक़्त मैं सहमा बैठा हूं कि कल कहां-कहां क्या-क्या होता है? और ख़ैर मना रहा हूं कि कहीं कुछ न हो, आम लोग कोई भी त्योहार आता है तो सहम जाते हैं कि कोई त्योहार आ रहा है अब कुछ होगा और होली पर भी इसका असर दिखता है। लोग सहमे हुए हैं और ये सहमाने का एक औज़ार बन गई है, होली एक ऐसा ख़ूबसूरत त्योहार है जिसमें एक-दूसरे को रंग लगाते हैं और उसमें हिंदू-मुसलमान की कोई बात नहीं हुआ करती थी, सब एक दूसरे को मुबारकबाद दिया करते थे, मुबारकबाद के मामले में जहां तक मैं समझता हूं होली कहीं ज्यादा आगे थी, ख़ासतौर से दोपहर के बाद जब होली खेल ली जाती थी तो लोग होली मिलन के लिए जाते थे, मिठाइयों का एक्सचेंज होता है एक दूसरे से, तो इतना ख़ूबसूरत ये त्योहार है इसमें जश्न ही जश्न है और अभी भी है ज़्यादातर जगहों पर, लेकिन कुछ लोग हैं जो हमारे त्योहारों को ख़राब कर रहे हैं''
ये दरार बहुत पुरानी है?
वहीं इतिहासकार सोहेल हाशमी ( sohail Hashmi ) के मुताबिक़ हिन्दू-मुसलमान सदियों से साथ रहते आए हैं, एक दूसरे के त्योहारों में शामिल होते आए हैं लेकिन 17वीं शताब्दी में शाह वलीउल्लाह के बाद जैसे ही ब्रिटिश आते हैं हमें हिन्दू और मुसलमान के बीच दरार दिखाई देनी शुरू हो जाती है, दोनों ही तरफ से। वे कहते हैं कि '' कट्टर मुसलमान और कट्टर हिन्दू के बीच आइडेंटिटी पॉलिटिक्स शुरू हो जाती है, बहुत से मुसलमान कहते हैं कि रंग नहीं खेलेंगे और भी तमाम चीजें तो जो सदियों से साथ मिलकर होली खेला करते थे वो धीरे-धीरे बंट गए, फिर हम देखते हैं कि हिन्दू अलग होली मना रहे हैं और मुसलमान अलग''
वे बताते हैं कि -
''मैं बहुत सी ऐसी हिन्दू फैमली को जानता हूं जो मुसलमानों के घर का खाना नहीं खाते थे लेकिन जब त्योहार होता तो उनके मुसलमान दोस्त, बिजनेस पार्टनर अपने हिन्दू दोस्तों के यहां हिन्दू हलवाई के यहां से मिठाई भिजवाते थे। और इसी तरह लोग मिलकर त्योहार मनाते थे''
वे आगे कहते हैं कि दूसरी तरफ 17वीं शताब्दी के आख़िर तक हमें सूफियों की तरफ से निर्गुण कवियों रैदास, कबीर की तरफ से समाज की एक अलग तस्वीर दिखती है जो समाज में बढ़ रही इस नफ़रत के ख़िलाफ़ खड़े हुए इसी कड़ी में हम देखते हैं कि निज़ामुद्दीन की दरगाह पर बसंत और होली का त्योहार बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता रहा है।
लेकिन समाज में अंग्रेजों ने जो ज़हर घोला उसका असर दिखता है।
लेकिन, मोहब्बत के रंग से पक्का कोई रंग नहीं
बेशक, अंग्रेजों ने भारत में जिस नफ़रत को घोला था उसका असर बहुत ही मेहनत से लगातार कम करने की कोशिश जारी थी लेकिन पिछले कुछ सालों में ऐसा लगता है कि की गई सारी मेहनत ज़ाया हो गई।
जिस दौर में सबको एक ही रंग में रंगने की कोशिश की जा रही है, नफरत का रंग चढ़कर बोल रहा है वैसे में और भी ज़रूरी हो जाता है कि साबित किया जाए कि भारत ही नहीं दुनिया भर में एक ही रंग है जो सबसे पक्का होता है और वो है मोहब्बत का रंग।
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