रूस पर लगे आर्थिक प्रतिबंध का भारत के आम लोगों पर क्या असर पड़ेगा?
जब ऐसे देश युद्ध के भागीदार होते हैं जो संसाधनों की दुनिया में बहुत अधिक ताक़तवर हैं तो पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था डगमगा जाती है। रूस और यूक्रेन की लड़ाई में रूस पर लगे आर्थिक प्रतिबंधों से पूरी दुनिया पर यही ख़तरा मंडरा रहा है। रूस के क्षेत्रफल को देखिये। क्षेत्रफल यानी एरिया के लिहाज़ से रूस दुनिया का सबसे बड़ा देश है। भारत के क्षेत्रफल से पांच गुना बड़ा है। अमेरिका और चीन से दो गुना बड़ा देश है। इंग्लैंड से 70 गुना बड़ा देश है। लेकिन रूस की आबादी उत्तर प्रदेश की आबादी से भी कम यानी महज़ 14 करोड़ है। इतनी कम आबादी और इतने बड़े क्षेत्रफल से यह बात साफ हो जाती है कि रूस के संसाधनों का इस्तेमाल रूस से ज़्यादा दुनिया के दूसरे मुल्क करते हैं। रूस दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा तेल उत्पादक देश है और तीसरा सबसे बड़ा प्राकृतिक गैस उत्पादक देश।
रूस से हर रोज़ तकरीबन 50 लाख बैरल तेल का निर्यात होता है। इसमें से 48% ख़रीद यूरोप की होती है। तो तकरीबन 42% खरीद एशिया की होती है। यूरोप प्राकृतिक गैस की अपनी खपत का 90 प्रतिशत आयात करता है, जिसमें रूस से तकरीबन 45 प्रतिशत आयात करता है। रूस और यूक्रेन की लड़ाई का असर यह हुआ है कि जब से लड़ाई शुरू हुई है तब से कच्चे तेल की कीमत में 40 फीसदी का इजाफा हुआ है। कच्चे तेल की कीमत बढ़कर 110 डॉलर प्रति बैरल के आस पास पहुंच गयी है। रूस और यूक्रेन के बीच की लड़ाई जितने लम्बे समय तक मौजूद रहेगी तब तक कच्चे तेल की कीमत बढ़ती रहेगी।
पहले से ही बेरोजागारी, महंगाई और मांग की कमी से जूझ रही भारत की अर्थव्यवस्था पर इसका असर बहुत बुरा पड़ने वाला है। भारत अपनी जरूरतों का तकरीबन 84 फीसदी कच्चा तेल आयात करता है। आर्थिक जानकारों का कहना है कि अगर चुनाव न होते और कच्चे तेल की कीमतों के आधार पर पेट्रोल डीजल की कीमत बढ़ती तो अब तक इनकी कीमत में मौजूदा कीमत से 25 से 35 रूपये प्रति लीटर का इजाफा हो चुका होता। रसोई गैस की क़ीमतों में 400 रूपये का इजाफा हो गया होता।
तेल की कीमतों में इजाफे की सबसे ख़राब बात यह है कि तेल से अर्थव्यवस्था के कारोबार का पूरा पहिया जुड़ा हुआ है। तेल की कीमतें बढ़ेंगी तो परिवहन की लागत बढ़ जाएगी। ट्रक से लेकर ट्रैन का किराया बढ़ेगा तो सभी तरह के कारोबार की लागत बढ़ जाएगी। बिजली की कीमत बढ़ जायेगी। उर्वरक यानी फर्टिलाइजर बनाने में पोटाश और प्राकृतिक गैस का इस्तेमाल होता है। रूस और बेलारूस से पूरी दुनिया के पोटाश का तकरीबन 73 प्रतिशत उत्पादन होता है। इसलिए उर्वरक की कीमत बढ़ जायेगी। तेल की कीमतों के बढ़ने का असर ऐसा है कि कारोबारी से लेकर किसान तक सब पर असर पड़ेगा। भारत सरकार के इकोनॉमिक एडवाइजरी कौंसिल के सदस्य नीलकंठ मिश्रा का कहना है कि महंगे होते कच्चे तेल और कच्चे तेल से जुड़े सामानों की वजह से अगले साल भर में भारत के आयात बिल में तकरीबन 7.7 लाख करोड़ रुपये का इजाफा होने वाला है। यह मनरेगा के बजट के दस सालों के बजट के बराबर है।
आर्थिक जानकारों का कहना है कि सरकार चाहे तो कच्चे तेल की वजह से बढ़े हुए ख़र्च का भार खुद सहन कर सकती है। चुनाव की वजह से सरकार अब तक कच्चे तेल की बढ़ी हुए कीमतों का भार सहती भी आयी है। अगर सरकार आम लोगों पर बढ़े हुए खर्च का भार नहीं डालेगी तो इससे राजकोषीय घाटा बढ़ेगा लेकिन प्रभात पटनायक जैसे आर्थिक जानकारों ने कई बार लिखा है कि राजकोषीय घाटे को ध्यान में रखते हुए सरकार को आम जनता पर बोझ नहीं बढ़ाना चाहिए। अगर कच्चे तेल की बढ़ी कीमत से बढ़ा खर्चा सरकार आम लोगों से वसूलती है तो हो सकता है कि अमीर आबादी तो इसे सहन कर ले मर कम आमदनी वालों पर इसका बहुत बुरा असर पड़ेगा। भारत की प्रति व्यव्ति प्रति माह औसत आमदनी महज 16000 है। वह भी तब जब भारत घनघोर आर्थिक असमानता वाला देश है। केवल 1 प्रतिशत अमीरों के पास देश की कुल आमदनी का 22 फीसदी हिस्सा है और 50 प्रतिशत गरीब आबादी के पास केवल 13 प्रतिशत। ऐसी स्थिति में अगर सरकार कच्चे तेल की कीमत का भार जनता पर डालती है तो उन्ही किसानों और मजदूरों पर सबसे अधिक बोझ पड़ेगा जिनके खाते में सरकार चंद पैसा डालकर वोट वसूलने की रणनीति अपना रही है।
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