कर्नाटक : कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसले में SC/ST समुदाय से अत्याचार मामले में 98 लोगों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई
कर्नाटक के कोप्पल ज़िले की एक सेशन कोर्ट ने हाल ही में मराकुम्बी गांव में अनुसूचित जाति के लोगों के खिलाफ गंभीर अपराध के मामले में 101 लोगों को दोषी करार दिया। कर्नाटक राज्य बनाम मंजनाथ व अन्य का मामला साल 2014 का है। सिनेमाघर में टिकट खरीदने को लेकर हुई झड़प के बाद कथित तौर पर मदिगा समुदाय के लोगों के खिलाफ आरोपियों ने हिंसक हमले किए थे।
द मूकनायक की रिपोर्ट के अनुसार, अदालत ने दोषी ठहराए गए 98 लोगों को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम की धारा 3(2)(iv) के तहत आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई, जबकि जातिगत अपशब्दों का मामला तीन लोगों पर लागू नहीं हुआ, क्योंकि वे तीनों दलित समुदाय से ही थे। इसलिए इन्हें दंगा करने के मामले में पांच साल की जेल और 2 हजार रुपए के जुर्माने की सजा सुनाई गई।
ज्ञात हो कि अगस्त 2014 में दर्ज की गई प्रारंभिक शिकायत में आरोप यह लगाया गया था कि एक सिनेमा में विवाद के बाद आरोपियों ने मदिगा समुदाय के इलाके में प्रवेश किया और वहां के लोगों को गालियां दीं, हमले किए और उनके घरों को आग लगा दी।
शिकायत के बाद हुई जांच के दौरान कुल 117 लोगों को विभिन्न धाराओं के तहत आरोपित किया गया, जिसमें अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 3(1)(x) भी शामिल थी, जो अनुसूचित जाति/जनजाति समुदाय के सदस्यों को निशाना बनाकर अपमान या धमकी देने का अपराध है। इसके अलावा, धारा 3(1)(xi) के तहत अनुसूचित जाति/जनजाति की महिलाओं की मर्यादा भंग करने के इरादे से किए गए हमले को भी लागू किया गया। धारा 3(2)(iv) के तहत संपत्ति को आग लगाकर नष्ट करने का आरोप लगाया गया, क्योंकि इस घटना में कॉलोनी में आगजनी भी हुई थी।
इस मामले की सुनवाई के दौरान 11 आरोपियों की मौत हो गई, जबकि दो नाबालिगों को किशोर न्याय बोर्ड को सौंप दिया गया।
मामले की सुनवाई कर रहे विशेष न्यायाधीश सी. चंद्र शेखर ने हाशिये पर मौजूद समुदायों के दमन के सामाजिक प्रभाव पर जोर दिया। उन्होंने कहा, "चाहे कोई राष्ट्र कितना भी बड़ा हो, वह अपने सबसे कमजोर लोगों से ज्यादा मजबूत नहीं हो सकता। और जब तक आप किसी व्यक्ति को नीचे दबाए रखते हैं, आपका एक हिस्सा उसे नीचे रखने के लिए वहां होना चाहिए, इसलिए इसका मतलब है कि आप जितना ऊपर उड़ सकते हैं उतना नहीं उड़ सकते।"
न्यायाधीश ने अपराध की गंभीरता पर ज़ोर देते हुए कहा, “ऐसे मामले में दया दिखाना न्याय का उपहास होगा।” उन्होंने अनुसूचित जाति समुदाय के पुरुष और महिला पीड़ितों पर किए गए हमलों का उल्लेख करते हुए कहा कि महिलाओं की मर्यादा का उल्लंघन किया गया और पीड़ितों पर डंडों, पत्थरों और ईंटों से हमला किया गया। न्यायाधीश ने कहा कि अपराध की गंभीरता को देखते हुए आरोपी को न्यूनतम सज़ा से अधिक अवधि की सज़ा मिलनी चाहिए।
अदालत का निर्णय 35 गवाहों की गवाही पर आधारित थे। इनमें अधिकतर पीड़ित, बच्चे और महिलाएं थीं। गवाहों की जांच में काफी देरी के बावजूद उनके बयान सुसंगत रहे और चिकित्सा और फोरेंसिक साक्ष्यों से भी मेल खाते पाए गए। बचाव पक्ष की ओर से गवाहों की विश्वसनीयता पर उठाए गए सवालों को साक्ष्यों के मजबूत मेल के कारण खारिज कर दिया गया।
दोषियों ने अपने बचाव में तर्क दिया कि उनमें से कई गरीब किसान और दिहाड़ी मजदूर थे और उन्होंने आगजनी में प्रत्यक्ष भाग नहीं लिया था। हालांकि, अदालत को कोई भी ऐसा कारण नहीं मिला जिससे सजा में नरमी बरती जा सके। मंजुला देवी बनाम ओंकारजीत सिंह अहलूवालिया (2017) के एक उदाहरण का हवाला देते हुए न्यायाधीश ने अनुसूचित जाति और जनजातियों के सामने मौजूद चुनौतियों और सिस्टम द्वारा उन पर किए जाने वाले दमन का जिक्र किया। उन्होंने कहा कि इन समुदायों के सदस्य अक्सर सामाजिक अपमान, उत्पीड़न और हिंसा का शिकार होते हैं।
इससे पहले देश में एक ही मामले में कई लोगों को सजा दी गई है। छत्तीसगढ़ में जून 2003 में एनसीपी के कोषाध्यक्ष रामअवतार जग्गी की हत्या के मामले में निचली अदालत ने 27 आरोपियों को उम्र कैद की सजा सुनाई थी। हाई कोर्ट ने भी अप्रैल 2024 में सजा बरकरार रखी।
उत्तर प्रदेश के हमीरपुर की कोर्ट ने सितंबर 2022 में दोहरे हत्याकांड में 17 आरोपियों को उम्र कैद की सजा सुनाई। यूपी में एक साथ 17 आरोपियों को उम्र कैद का यह पहला मामला था।
साभार : सबरंग
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