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क़ानून, ख़ामियां और जवाबदेही

जवाबदेही न्यायशास्त्र को हमारी मौजूदा न्याय प्रदान करने वाली प्रणाली में अपनी जड़ें जमा लेनी चाहिए, ताकि हमारे अधिकारियों को जिस तरह दण्ड मुक्त माहौल में जीने की लत लगी है, उसकी हमारे कानून के राज में कोई जगह नहीं है। जस्टिस मदन बी. लोकुर का आलेख
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क्या हमारे देश में दो कानूनी प्रणालियां चल रही हैं? सुप्रीम कोर्ट ने वास्तव में कहा यह था कि भारत में दो समानांतर कानूनी प्रणालियाँ नहीं हो सकती हैं, "एक अमीरों और साधन संपन्न लोगों के लिए, जो राजनीतिक शक्ति और प्रभाव का इस्तेमाल करते हैं और दूसरा उन छोटे और गरीब लोगों के लिए जिनके पास न्याय हासिल करने या अन्याय से लड़ने के लिए संसाधन और क्षमता नहीं है।" खैर, वास्तविकता हमें यही बताती है कि हमारे देश में दो समानांतर कानूनी प्रणालियाँ चल रही हैं, जैसा कि हाल ही में दुखद मुंडका आग और जहाँगीरपुरी बुलडोजर समर्थित विध्वंस, से प्रदर्शित हुआ है।

यह एक खुला रहस्य है कि दिल्ली और उसके आसपास कई अवैध निर्माण हुए हैं और हो रहे हैं, जो वास्तव में देश के के अन्य हिस्सों के मामले में भी सच है। जहां तक दिल्ली का संबंध है, मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा है कि दिल्ली के 80 प्रतिशत से अधिक हिस्से को अवैध और अतिक्रमण कहा जा सकता है, और यदि हाल ही चल रहा विध्वंस अभियान जारी रहा, तो इसके माध्यम से अनुमानित 63 लाख लोग बेघर हो जाएंगे।

मेरा मानना है कि बेघर होने वालों में से ज्यादातर गरीब और गरीब तबके के लोग ही होंगे क्योंकि नगर निगम के अधिकारियों में अमीर और साधन संपन्न या राजनीतिक रूप से शक्तिशाली और प्रभावशाली लोगों को छूने का साहस नहीं है। हाल के कुछ उदाहरणों पर विचार करें जहां इमारतों को बनने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए थी, या बनने के बाद भी, उन्हें किसी भी त्रासदी होने से बहुत पहले ही ध्वस्त कर दिया जाना चाहिए था। दुर्भाग्य से, इनके खिलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की गई क्योंकि इन इमारतों से जुड़े लोग या तो अमीर थे या शक्तिशाली या राजनीतिक रूप से प्रभावशाली, या तीनों थे।

कुछ खतरनाक इमारतों को बनने नहीं दिया जाना चाहिए था, लेकिन उनके बनने के बाद भी, किसी भी त्रासदी के होने से बहुत पहले ही उन्हे ध्वस्त कर दिया जाना चाहिए था। दुर्भाग्य से, कोई कार्रवाई नहीं की गई क्योंकि इन इमारतों से जुड़े लोग या तो अमीर थे या शक्तिशाली या राजनीतिक रूप से प्रभावशाली, या तीनों थे।

1997 की उपहार सिनेमा त्रासदी आज भी हमें सताती है। आज, 13 जून को, इस अविश्वसनीय आपदा की 25वीं वर्षगांठ है, और हम फिर से 59 लोगों की दिल दहला देने वाली जान की क्षति और सौ से अधिक लोगों की घायल को याद कर रहे हैं। काफी हद तक, जिन परिवारों ने अपने प्रियजनों को खो दिया है, वे अभी भी इस भयानक हक़ीक़त से उबर नहीं पाए हैं। ज़रूर, मालिकों और जिन्होंने त्रासदी को होने दिया, उन्हें दंडित किया गया है, लेकिन उनके लिए यह शायद ही कोई सांत्वना है। मेरा सवाल यह है: उन नगरपालिका अधिकारियों का क्या जिनकी नाक के नीचे यह त्रासदी हुई? उन्होंने कानून को लागू क्यों नहीं किया? क्या उन्हें उनकी आपराधिक लापरवाही के लिए उचित दंड दिया गया है? कोई नहीं जानता और, इस बात की पूरी संभावना है, वे बहुत हल्के में छुट गए होंगे। उपहार त्रासदी एक जवाबदेही न्यायशास्त्र की अनुपस्थिति का एक उत्कृष्ट उदाहरण है, और दुख की बात यह है कि यह भारत में मौजूद नहीं है।

जवाबदेही न्यायशास्त्र की अनुपस्थिति के दीर्घकालिक परिणाम होंगे। सुरक्षा के सबक नहीं सीखे गए हैं। अगर कुछ सबक सीखे भी जाते हैं, तो उन्हें जल्दी ही भुला दिया जाता है और रोकथाम के लिए सुधारात्मक कदम नहीं उठाए जाते हैं। याद रखें, समय पर एक सिलाई नौ को बचाती है। इसका नतीजा यह होता है कि त्रासदी खुद अलग-अलग तरीकों से आती है और सिलसिला जारी रहता है। आइए नीचे कुछ और उदाहरणों पर विचार करें।

दिल्ली में आग की त्रासदियों का एक भस्मवर्ण इतिहास

जनवरी 2018 में बवाना औद्योगिक क्षेत्र में भीषण आग लगने से 17 लोगों की मौत हो गई थी और कई अन्य झुलस गए थे। फैक्ट्री मालिक को गिरफ्तार कर लिया गया लेकिन बाद में वह जमानत पर छूट गया था। क्या उपहार त्रासदी से कोई सबक सीखा गया, और क्या उपहार की आग की पुनरावृत्ति न हो यह सुनिश्चित करने के लिए कोई सुधारात्मक या उपचारात्मक उपाय किए गए थे? जाहिर है, नगर निगम और अन्य वैधानिक अधिकारियों ने अपना काम नहीं किया, नहीं तो बवाना त्रासदी नहीं होती। सवाल यह है कि इन अधिकारियों को उनकी निष्क्रियता के लिए जवाबदेह क्यों नहीं ठहराया गया? हमें इस बात का कभी पता नहीं चलेगा।

जवाबदेही न्यायशास्त्र की अनुपस्थिति के दीर्घकालिक परिणाम होंगे। सुरक्षा के सबक नहीं सीखे गए हैं। अगर कुछ सबक सीखे भी जाते हैं, तो उन्हें जल्दी ही भुला दिया जाता है और रोकथाम के लिए सुधारात्मक कदम नहीं उठाए जाते हैं।

बमुश्किल एक साल बाद भीड़भाड़ वाले करोल बाग के होटल अर्पित पैलेस में एक बार फिर से  आग का नज़ारा देखने को मिला। फिर से, 17 लोगों की जान चली गई और 35 अन्य घायल हो गए। क्या नगर निगम के अधिकारियों की निष्क्रियता के लिए उनके खिलाफ कोई कार्रवाई की गई?

उसी साल, दिसंबर 2019 में दिल्ली के सदर बाजार की अनाज मंडी में भीषण आग लग गई थी। जिसके परिणामस्वरूप 43 लोगों की मौत हो गई, और 67 गंभीर रूप से घायल हो गए थे। मरने वालों में बिहार और उत्तर प्रदेश के प्रवासी मजदूर थे, जो अब सिर्फ आंकड़े बन कर रह गए थे। इमारत अवैध निर्माण इकाइयों का घर था। कोई फायर क्लीयरेंस नहीं था। इसमें ज्वलनशील सामग्री रखी गई थी, और यह एक ऐसी त्रासदी थी जो घटने का इंतज़ार कर रही थी। बाहर जाने वाला रास्ता सामान/सामग्री से भरा हुआ था, जिससे मजदूरों का आग से बचना मुश्किल हो गया था। खिड़कियों को सील कर दिया गया था, जिससे खतरनाक धुआं और कार्बन मोनोऑक्साइड बना, जो अंततः श्वासावरोध यानि सांस रुकने का कारण बन गया था। इमारत के मालिकों और उनके सहयोगियों को गिरफ्तार कर लिया गया, लेकिन बाद में उन्हें जमानत पर रिहा कर दिया गया। इन उल्लंघनों और उन्हे बरकरार रखने की अनुमति देने वाले नगरपालिका अधिकारियों और अग्नि शमन अधिकारियों के खिलाफ क्या कार्रवाई की गई? क्या उन्हें उतना ही दोष नहीं देना चाहिए जितना कि भवन के मालिकों और उनके सहयोगियों को दिया जाता है? क्या वे जवाबदेह नहीं हैं, या क्या केवल इसलिए कि उन्हें अपनी आँखें बंद रखने के लिए रिश्वत दी गई थी – ताकि वे कोई बुराई न देख पाए, और इसलिए ताकि वे आराम से छुट जाने के हकदार रहे?

ऐसे कई उदाहरण हैं, जिसमें छात्र-युवा संगठन कलेक्टिव दिल्ली की एक टीम ने इन त्रासदियों का दस्तावेजीकरण करने और आपराधिक लापरवाही के एक पैटर्न को समझने में अच्छा काम किया है। मुख्य रूप से, बिना किसी स्वीकृत भवन योजना के विशाल भवन बनते हैं। ये निर्माण अंधेरे की आड़ में नहीं हैं, बल्कि दिन के उजाले में किए जाते हैं और कुछ ही महीनों इन्हे पूरा कर लिया जाता है। इस दौरान हमारे नगर निगम के अधिकारी क्या कर होते हैं? इमारतों को अग्निशमन विभाग से कोई मंजूरी नहीं मिली, और चौंकाने वाली बात यह है कि कुछ ने मंजूरी के लिए आवेदन भी नहीं किया, जिसके परिणामस्वरूप ज़िंदा लोगों का एक श्मशान घाट बन गया। बुनियादी आग बुझाने के उपाय आमतौर पर गायब थे; आवश्यक उपकरण उपलब्ध नहीं थे, जैसे अग्निशामक यंत्र और आग से बचने की सीढ़ी; इमारत में एक ही प्रवेश या निकास था, और इसी तरह की खामियाँ आम हैं।

हाल की मुंडका आग इन त्रासदियों की श्रृंखला में नया आयाम है। एक चार मंजिला इमारत की दो मंजिलों में औद्योगिक निर्माण गतिविधि चल रही थी। इमारत में न तो अग्निशमन यंत्र था और न ही अग्निशमन उपकरण थे। अधिकांश मजदूर महिलाएं थीं, और वे एक आग में फंस गई थीं जिसमें कम से कम 27 लोग मारे गए, कुछ इतनी बुरी तरह से जले हुए थे कि पहचान मुश्किल हो गई थी और मृतकों की पहचान के लिए डीएनए जांच किए जा रही है। 

रिपोर्टों से पता चलता है कि इमारत में एक ही प्रवेश या निकास था। एक प्रवेश/निकास वाली चार मंजिला इमारत को कैसे बनने दिया गया? पता चलने के बाद, क्या भवन कानूनों और अग्निशामक कानूनों के अनुपालन को सुनिश्चित करने के लिए कोई कदम उठाए गए थे? उत्तर बहुत स्पष्ट है - अमीर, शक्तिशाली, और शायद राजनीतिक रूप से प्रभावशाली मालिक या निर्माण ठेकेदार थे।

इमारतों को अग्निशमन विभाग से कोई मंजूरी नहीं मिली, और चौंकाने वाली बात यह है कि कुछ ने मंजूरी के लिए आवेदन भी नहीं किया, जिसके परिणामस्वरूप ज़िंदा लूग्न के लिए वह एक श्मशान घाट बन गया। बुनियादी आग बुझाने के उपाय आमतौर पर गायब थे; आवश्यक उपकरण उपलब्ध नहीं थे, जैसे अग्निशामक यंत्र और आग से बचने की सीढ़ी; इमारत में एक ही प्रवेश या निकास था, और इसी तरह की खामियाँ आम थी। 

'कारखाने' के मालिक को गिरफ्तार कर लिया गया है, लेकिन यह सुनिश्चित है कि उन्हें बहुत जल्द जमानत मिल जाएगी। इमारत का मालिक फरार है और पकड़े जाने और गिरफ्तार होने के बाद उसे भी जमानत मिल जाएगी। अधिकारियों का क्या? उनमें से कुछ को निलंबित कर दिया गया है - बस। आखिरकार, केवल 27 लोगों की मृत्यु हुई, जिनमें 21 महिलाएं शामिल थीं, जिन्हें न्यूनतम मजदूरी के आधे से भी कम का भुगतान किया जाता था, जिससे समकालीन दासता को बढ़ावा मिलता है। यह आपराधिक दायित्व से बचाने का मामला है जो दण्ड से मुक्ति की संस्कृति को जन्म देता है, और हम इस उपहास के मूक गवाह हैं। जवाबदेही के नाम पर कुछ नहीं।

जहांगीरपुरी में बुलडोजर न्याय

"अमीर और साधन संपन्न" के स्वामित्व वाले अवैध और अनधिकृत निर्माणों के खिलाफ निष्क्रियता के कारण होने वाली इन त्रासदियों की तुलना जहांगीरपुरी में प्रशासन द्वारा हमारे कानूनी शब्दकोष में "बिना संसाधनों के छोटे तबकों" के खिलाफ शुरू किए गए बुलडोजर न्याय से करें। बिना सूचना और बिना किसी चेतावनी के, बुलडोजर पहुंचे और इन छोटे पुरुषों और महिलाओं के घर, ठेला या दुकान/स्टाल को तोड़ दिया गया। अपने आप से पूछें: अगर वे अमीर, शक्तिशाली या राजनीतिक रूप से प्रभावशाली होते तो क्या वे इस सक्रिय अन्याय के शिकार होते? क्या भारतीयों के दो समूहों के लिए कानून अलग हैं? ऐसा लगता है कि गरीब होना अपने आप में एक अपराध है। अपने आप से पूछें कि यदि आप एक दिन अपने घर के बाहर एक बुलडोजर देखते हैं, और कुछ मिनट बाद वह आपके सामान और व्यक्तिगत सामानों के साथ उसे ध्वस्त करना शुरू कर देता है, तो आपको कैसा लगेगा।

जहांगीरपुरी में हुकूमत की तरफ से की गई हिंसा से असहाय पीड़ित को नोटिस भी नहीं दिया गया। जाहिर है, विध्वंस मनमाने थे। लेकिन, सुप्रीम कोर्ट द्वारा हस्तक्षेप करने और विध्वंस के खिलाफ निषेधाज्ञा दिए जाने के बाद भी, अधिकारियों के पास अपनी बेरहम गतिविधि जारी रखने का साहस था। इसके अलावा, नगर निगम के अधिकारी ठेले या गाड़ी, जो चल संपत्ति है, को तोड़ने को कैसे जायज ठहरा सकते हैं? इनके मालिक को बस इन्हे दूर ले जाने के लिए कहा जा सकता था। लेकिन नगर निगम के अधिकारियों को पता है कि "संसाधनों और क्षमताओं के बिना छोटे लोग" लड़ाई नहीं लड़ सकते हैं, यह "अमीर और साधन संपन्न और राजनीतिक शक्ति और प्रभाव रखने वालों" के विपरीत हैं, जिन्हें लड़ने की आवश्यकता नहीं है।

छोटे व्यक्ति या गरीबों के लिए, जीवन को फिर से शुरू करना या फिर से घर बनाना आसान नहीं है। मानसिक स्वास्थ्य पहलू पर भी विचार करें। यह संकट और आघात एक ऐसा निशान  छोड़ सकते हैं जो आसानी से दूर नहीं होगा। लेकिन, क्या हमारे बुलडोजर-खुश अधिकारियों को इसकी परवाह है? वे जानते हैं कि उनकी कोई जवाबदेह नहीं हैं, भले ही वे एक बड़ी अनधिकृत आग-जाल संरचना को खड़ा रहने दें, उसके एवज़ में वे एक छोटी, अनधिकृत संरचना को ध्वस्त कर देते हैं। जब व्यवस्था उन्हे इतनी छुट देती है तो, उन्हें इसकी क्यों परवाह करनी चाहिए?

बिना सूचना और बिना किसी चेतावनी के, बुलडोजर पहुंचते हैं और इन गरीब/छोटे पुरुषों और महिलाओं के घर, ठेला या दुकान/स्टाल को तोड़ दिया जाता है। अपने आप से पूछें: अगर वे अमीर, शक्तिशाली या राजनीतिक रूप से प्रभावशाली होते तो क्या वे इस सक्रिय अन्याय के शिकार होते? क्या भारतीयों के दो समूहों के लिए कानून अलग हैं? ऐसा लगता है कि गरीब होना अपने आप में एक अपराध है।

न्याय समान होना चाहिए, लेकिन मुझे डर है कि हम एक महान मंथन देख रहे हैं जो कानून के शासन को अच्छा नहीं बनाता है। जीवन की हानि होने पर भी निष्क्रियता को माफ कर दिया जाता है, और कड़ी कार्रवाई स्वीकार्य है, भले ही इसका मतलब गरीबों की आजीविका और आश्रय का नुकसान क्यों न हो।

मुआवजा ही इसका एकमात्र जवाब नहीं है - यह सबसे आसान जवाब है। इसका समाधान प्रशासनिक अधिकारियों को संविधान और कानून के प्रति उतना ही जवाबदेह बनाने में है, जितना कि किसी अनधिकृत निर्माण के निर्माता या मालिक को जवाबदेह बनाना है। जब तक अधिकारियों को उनकी निष्क्रियता, लापरवाही या आपराधिक लापरवाही के लिए दंडित नहीं किया जाता, तब तक मौतें होती रहेंगी और हम हर बार किसी न किसी बेरहमी को होते देखते रहेंगे। दूसरी ओर, यदि अधिकारियों को उनके मनमाने व्यवहार और मनमाने कार्यों के लिए दंडित नहीं किया जाता है, तो हम दण्ड से मुक्ति की संस्कृति को प्रोत्साहित कर रहे होंगे। जवाबदेही न्यायशास्त्र को हमारी न्याय देने की प्रणाली में जड़ें जमा लेनी चाहिए ताकि हमारे अधिकारियों द्वारा जो दण्ड से मुक्ति की संस्कृति को पैदा किया जा रहा है उसे शब्दकोश से समाप्त किया जा सके। इतने सारे लोगों की एक धधकती आग में मौत के बाद, और इतने सारे लोग बुलडोजर न्याय के आगमन से बेघर हो जाने के बाद यह बहुत कम है जिसे हम कम हम कर सकते हैं।

जीवन की हानि होने पर भी निष्क्रियता को माफ कर दिया जाता है, और कठोर कार्रवाई स्वीकार्य है, भले ही इसका मतलब गरीबों की आजीविका और आश्रय पर हमला ही क्यों न हो। 

चूंकि हमारे कानूनी विद्वान कानूनों को फिर से लिखने में व्यस्त हैं, इसलिए उन्हें इस तरह से फिर से लिखना एक अच्छा विचार हो सकता है जो हमारे समाज के गरीब और हाशिए के वर्गों के हाथों में शक्ति प्रदान करता है, निर्लज्ज अधिकारियों को संविधान और कानून के प्रति जवाबदेह बनाकर, और अमीर, शक्तिशाली और राजनीतिक रूप से प्रभावशाली लोगों को भी कानून के प्रति जवाबदेह बनाकर ऐसा किया जा सकता है। तभी जीवन के अधिकार और गरिमा के साथ जीने के अधिकार की संवैधानिक गारंटी का कोई अर्थ होगा जब "छोटे पुरुषों [और महिलाओं] के पास बिना संसाधनों और क्षमताओं के न्याय प्राप्त करने या अन्याय से लड़ने की क्षमता होगी।"

न्यायमूर्ति मदन बी. लोकुर फिजी के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश हैं। वे भारत के सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश भी हैं।

सौजन्य: द लीफ़लेट 

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