महाराष्ट्र चुनाव: मराठा बनाम ओबीसी, लाड़ली बहन और किसान प्रमुख मुद्दे
हरियाणा की तरह महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में भी सीधी दोतरफा लड़ाई के संकेत मिल रहे हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि वहां दो पार्टियां थीं, यहां दो गठबंधनों के बीच मुकाबला होगा। हरियाणा में बीजेपी और कांग्रेस को 80 फीसदी वोट मिले थे। इस तरह, तीसरा फैक्टर नगण्य था। लेकिन, क्योंकि महाराष्ट्र में प्रमुख छह दल दो गठबंधनों से लड़ रहे हैं इसलिए बागियों की संख्या अधिक है। लिहाजा, उत्सुकता यह है कि मैदान में ये बागी परिणाम को कितना प्रभावित करेंगे। इसके अलावा, चुनाव में कुछ मुद्दे हैं जिनका असर परिणाम पर पड़ सकता है-
मराठा आरक्षण और ओबीसी फैक्टर
मराठा आरक्षण प्रदर्शनकारियों के नेता मनोज जरांगे पिछले कुछ साल से लगातार मराठा समुदाय के लिए शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण की मांग कर रहे हैं। साथ ही, कुनबी जाति को आरक्षण का लाभ देने के लिए प्रमाण-पत्र देने में सरकार की आनाकानी का विरोध करके उन्होंने महायुति गठबंधन को असहज कर दिया है। मराठा आंदोलन का राज्य में व्यापक असर देखने को मिला है। लोकसभा चुनाव में खास तौर पर मराठवाड़ा अंचल की बात की जाए तो मराठा आंदोलन के चलते बीजेपी को करारा झटका लगा था। इस क्षेत्र से उन्हें एक भी सीट नहीं मिली थी। यहां तक की बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ रहीं दिवंगत गोपीनाथ मुंडे की बेटी पंकजा मुंडे तक बीड़ की अपनी परम्परागत सीट बुरी तरह हार गईं थीं।
ध्यान देने वाली बात यह है कि राज्य में करीब 28 फीसदी मराठा समुदाय है जो सत्ता विरोधी रुख बनाए हुए हैं और यही बात बीजेपी और उनके समर्थक दलों के लिए चिंता का बड़ा कारण बन चुकी है।
वहीं, मनोज जरांगे की बीजेपी के खिलाफ लगातार बयानबाजी ने महायुति गठबंधन की मुश्किलें और बढ़ा दी हैं। उन्होंने बीजेपी को मराठा विरोधी करार दिया है, जिसके चलते मराठवाड़ा में सत्तारूढ़ महायुति गठबंधन के लिए विधानसभा की 46 सीटें चुनौतीपूर्ण हो गई हैं।
कयास लगाए जा रहे हैं कि जिस तरह से हरियाणा में 22 फीसदी जाट समुदाय का बड़ा हिस्सा बीजेपी के खिलाफ हो गया था, ठीक ऐसा ही यहां देखने को मिल सकता है। इसका जवाब देने के लिए बीजेपी ने अन्य पिछड़े समुदायों को लामबंद किया है। लेकिन, यह हरियाणा की तरह महाराष्ट्र में भी असर दिखाएगा तो कहना मुश्किल है, क्योंकि लोकसभा के चुनाव में भी बीजेपी ने यह दांव चला था, पर उसे यहां भारी नुकसान उठाना पड़ा था।
हालांकि, यह विधानसभा चुनाव है और कई बार जाति विशेष के उम्मीदवार भी स्थानीय स्तर पर असर डाल सकते हैं, इसलिए जातीय ध्रुवीकरण हो सकता है, पर महाराष्ट्र के पिछले चुनावी पेटर्न बताते हैं कि यहां मतदान के दौरान मराठा बनाम ओबीसी ध्रुवीकरण उतना कभी नहीं बन पाया है जितने की अपेक्षा सियासी दल करते हैं। दरअसल, ऐसा इसलिए कि यहां की राजनीति में इन दोनों समुदायों के बीच वर्चस्व की लड़ाई बहुत आक्रमक या संगठित नहीं हो सकी है जैसा कि दूसरे राज्यों में देखा गया है।
लाडकी (लाड़ली) बहन का असर
महायुति को सबसे ज्यादा भरोसा इसी योजना पर है। इसकी वजह है कि पिछले साल मध्य प्रदेश में बीजेपी को इसका फायदा मिला था। राज्य में 4 करोड़ 88 लाख महिला मतदाता हैं। इस योजना से लगभग दो करोड़ तीन लाख महिलाएं लाभान्वित हुई हैं। संक्षेप में कहें तो कुल महिला मतदाताओं में से 45 प्रतिशत इस योजना की लाभार्थी हैं। अब सवाल है कि बाकी का 55 प्रतिशत महिला वोट-बैंक ऐसी योजना को लेकर क्या प्रतिक्रिया देता है। फिर जिन्हें हम फ्लोटिंग वोटर्स कहते हैं, जिसका अर्थ है समर्थक वोटर तो वह 45 प्रतिशत महिला वोटरों में भी रहेगा, क्योंकि जो लाभार्थी संबंधित पार्टियों या विचारों के प्रति प्रतिबद्ध हैं, आमतौर पर उनकी राय नहीं बंटती। हालांकि, महागठबंधन ने इस योजना का विरोध न करके एक तरह से सियासी चतुराई दिखाई है और इसे जारी रखने की बात कहते हुए यहां तक भी कहा है कि वे यदि सत्ता में आए तो लाड़ली बहन योजना की राशि बढ़ाई जाएगी।
उद्धव-शरद के प्रति सहानुभूति
पिछले ढाई साल में राज्य में पहले शिवसेना और फिर एनसीपी में टूट पड़ गई। महाविकास गठबंधन यह प्रचार कर रहा है कि केंद्र के शासकों ने उनकी पार्टियां तोड़ी हैं, जबकि भाजपा सफाई दे रही है कि यह टूट लोगों को धोखा देकर उद्धव ठाकरे के पाला बदलने के कारण हुई है। लिहाजा, प्रचार में यह एक प्रमुख मुद्दा बन गया है। इसका असर लोकसभा चुनाव में साफ देखने को मिला था जब 48 सीटों में से राज्य में अकेले बीजेपी ने अपने 28 प्रत्याशी उतारे थे, लेकिन महाराष्ट्र की सबसे बड़ी पार्टी का दावा करने वाली बीजेपी को लोकसभा में महज नौ सीटों से संतोष करना पड़ा था। जाहिर है इस बुरी हार का एक कारण बीजेपी की 'पार्टी तोड़ो राज करो' छवि भी रही और जिसके कारण उद्धव ठाकरे और शरद पवार के प्रति लोगों के मन में सहानुभूति की लहर ने काम किया था। इसलिए विधानसभा चुनाव में इसके रहने की संभावना है क्योंकि इस बीच राज्य की राजनीति में कोई बदलाव नहीं आया है।
बता दें कि पिछले 2019 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी-शिवसेना गठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिला था। लेकिन, मुख्यमंत्री पद को लेकर दोनों दलों में रस्साकशी हुई और उसके बाद राज्य की राजनीति में कई बड़े मोड़ आए। इसके अलावा, राज्य में पिछले दो वर्षों में अधिकांश स्थानीय स्व-सरकारी निकायों यानी नगर पालिकाओं, नगर निगमों और जिला परिषदों तथा पंचायत समितियों में चुनाव नहीं हुए हैं। महायुति का तर्क था कि आरक्षण के मुद्दे को लेकर कानूनी लड़ाई चल रही है। हालांकि, सत्ताधारी दल द्वारा यह दावा करने के बावजूद कि वह तो चुनाव कराना चाहती थी, पर तकनीकी कारणों से यह संभव नहीं हो सका, स्थानीय लीडरशिप की नाराजगी रही है। यही वजह है कि इससे दूसरे और तीसरे पायदान के कार्यकर्ताओं को स्थानीय स्तर पर मौका नहीं मिला है, इसलिए उनका नाराज होना मायने रखता है, क्योंकि आमतौर पर मेयर, जिला परिषद अध्यक्ष या नगर अध्यक्ष भावी विधायक और सांसद होते हैं।
खेती के मुद्दे पर
वर्ष 2021-22 के लिए नाबार्ड अखिल भारतीय ग्रामीण आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट से पता चला है कि महाराष्ट्र में 59 प्रतिशत ग्रामीण परिवार कृषि में लगे हुए हैं। यानी उनकी आय का एक बड़ा हिस्सा खेती से आता है और इसलिए महाराष्ट्र के चुनाव में खेती का महत्व ज्यादा है। यह वर्तमान पृष्ठभूमि राजनीतिक कथा और सार्वजनिक भावना को प्रभावित कर सकती है।
महाराष्ट्र में गन्ना सबसे महत्वपूर्ण फसल है। महाराष्ट्र भारत का सबसे बड़ा चीनी उत्पादक राज्य है। हालांकि, 2024-25 की अवधि के दौरान उत्तर प्रदेश शीर्ष स्थान पर पहुंच गया। इसका कारण पिछले साल का सूखा बताया जा रहा है।
देखा जाए तो जुलाई 2018 से जुलाई 2019 की अवधि के दौरान महाराष्ट्र के कई हिस्सों में सूखे की स्थिति थी। लंबे सूखे के साये में अक्टूबर 2019 में महाराष्ट्र राज्य के चुनाव हुए। सबसे अधिक प्रभावित मराठवाड़ा क्षेत्र और पड़ोसी अहमदनगर और सोलापुर जिलों में 11 लाख से अधिक मवेशियों को आश्रय देने वाले सरकारी सब्सिडी वाले चारा शिविर सितंबर के अंत तक काम कर रहे थे। जानवरों को साबुत गन्ना भी खिलाया जा रहा था, जिसका रेट मिलों द्वारा चारे के रूप में दिए जाने वाले रेट से अधिक था। फिर अप्रैल से मई 2024 के बीच लोकसभा चुनाव के दौरान तस्वीर ज्यादा अलग नहीं थी। 2023 में, महाराष्ट्र में दक्षिण-पश्चिम (जून-सितंबर) और पूर्वोत्तर मानसून (अक्टूबर-दिसंबर) का मौसम था। उसके बाद जनवरी-फरवरी 2024 में शीतकालीन बारिश हुई और मार्च की शुरुआत में पारा 40 डिग्री सेल्सियस को पार कर गया।
फसल के उचित दाम पर रार
सूखे की चपेट में रहे महाराष्ट्र के किसानों को उनकी फसल का उचित दाम भी नहीं मिला है। यदि लातूर बाजार में 4,350-4,400 रुपये प्रति क्विंटल की औसत कीमत पर बेचे गए सोयाबीन का उदाहरण ही लें तो यह सरकार के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) 4,892 रुपये और पिछले साल के बाजार भाव 4,650-4,700 रुपये प्रति क्विंटल से काफी कम है। इस तरह, यवतमाल में कपास 6,500 से 6,600 रुपये प्रति क्विंटल मिल रहा है, जो एक साल पहले 6,800-6,900 रुपये था और इसका न्यूनतम आधार मूल्य 7,121 रुपये था।
वहीं, जालना जिले में बदनापुर तहसील के काजला गांव के किसान बालासाहेब डाके का कहना है कि पिछले एक साल में कपास भंडारण करने की लागत 7 रुपये से बढ़कर 12 रुपये प्रति किलोग्राम हो गई है। उन्होंने कहा है कि सत्तारूढ़ महायुति गठबंधन की लाड़ली बहन योजना इसकी वजह है। इस योजना के तहत 2.5 लाख रुपये तक की वार्षिक आय वाले परिवारों की महिलाओं को 1,500 रुपये का मासिक नकद हस्तांतरण दिया जाता है। बालासाहेब डाके ने दावा किया कि इस योजना के चलते खेतिहर मजदूरों के दिन या काम के घंटे कम हो गए हैं। नतीजा, कृषि श्रमिकों की कमी और मजदूरी बढ़ गई है।
चालू खरीफ सीजन के दौरान महाराष्ट्र में किसानों ने रिकॉर्ड 51.6 लाख हेक्टेयर में सोयाबीन की बुआई की है। पिछले साल 42.2 लाख हेक्टेयर में कपास की खेती हुई थी, जो घटकर 40.9 लाख हेक्टेयर रह गई है। साथ ही, इस 10.5 लाख हेक्टेयर में गन्ने की खेती की गई है। इनकी कीमतें एमएसपी से नीचे हैं। प्रचुर मात्रा में मानसून उत्पादन से कृषि क्षेत्र में संकट कम हो सकता है, पर फसल की कम कीमतें और खेती की बढ़ती लागत विधानसभा चुनाव में एक प्रमुख मुद्दा है।
कानून और व्यवस्था का सवाल
कानून-व्यवस्था के मुद्दे पर घिरने पर सत्तारूढ़ महायुति गठबंधन को दुविधा का सामना करना पड़ रहा है। इस मुद्दे पर ठाणे जिले के बदलापुर बलात्कार प्रकरण से लेकर महिलाओं के खिलाफ अपराध की घटनाओं को लेकर विपक्ष फ्रंट फुट पर है। अपराध का स्तर यह है कि राज्य में सत्ताधारी दल के नेताओं तक की सुरक्षा कायम रखने के मुद्दे पर सरकार असफल रही है। इस तरह, महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव में राज्य की कानून व व्यवस्था एक सहायक कारक सिद्ध हो सकता है।
इसके अलावा विदर्भ में सोयाबीन और कपास की कीमतों का मुद्दा, सिंचाई सुविधाओं का मुद्दा, बेरोजगारी और महंगाई, किसानों की समस्याओं का मुकाबला करना सत्तारूढ़ दल के लिए मुश्किल होगा। बाकी दोनों तरफ के घोषणा-पत्रों में लोक-लुभावन घोषणाएं तो हैं, फिर भी सवाल है कि इनके लिए फंड कहां से लाएंगे?
(महाराष्ट्र स्थित लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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