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बीच बहस: विपक्ष के विरोध को हंगामा मत कहिए

यह सत्तापक्ष की शब्दावली है जिसे सारे अख़बार, सारे चैनल, सारी समाचार एजेंसी प्रकाशित-प्रसारित करते हैं।
बीच बहस: विपक्ष के विरोध को हंगामा मत कहिए

जब जब संसद चलती है टीवी स्क्रीन पर सुबह से शाम तक यही सुर्खियां तैरती रहती हैं- सदन में विपक्ष का हंगामा। विपक्ष के हंगामे की वजह से लोकसभा स्थगित, राज्यसभा स्थगित। सुबह के अख़बारों में भी यही हैडलाइन यानी लीड ख़बर बनती है, जबकि वास्तव में इसे हंगामा नहीं विपक्ष का विरोध कहना चाहिए।

अब बताइए कि विपक्ष संसद के भीतर विरोध कैसे करेगा, जब उसकी सुनवाई न हो। जब विपक्ष की आपत्तियों को ख़ारिज कर दिया जाए। उसके सवालों के जवाब न दिए जाएं तो विरोध हंगामे की ही शक्ल लेगा। और न भी ले तब भी सत्ता पक्ष हर विरोध को बवाल का नाम ही देना चाहेगा। सत्ता पक्ष कहेगा कि विपक्ष हंगामा करता है, संसद चलने नहीं देता। और हम और आप भी यही कहेंगे-समझेंगे कि हां, विपक्ष बड़ा गैरज़िम्मेदार हो गया है।

सरकार या सत्ता पक्ष का क्या काम है- जनहित में नीतियां बनाना और उनका सही से क्रियान्वयन करना।

और विपक्ष का क्या काम है- सत्ता पक्ष पर लगाम लगाना, अंकुश कसना यानी अगर नीतिया जनहित में न हों तो उसका विरोध करना, आपत्ति जताना। सवाल पूछना। इसमें संसद का कामकाज रोकना भी शामिल है और नारेबाज़ी भी।

अब चाहे वो तीन कृषि क़ानून हों, चार श्रम सहिंताएं हों, रफ़ाल घोटाला हो या पेगासस जासूसी कांड या फिर कुछ मीडिया संस्थानों पर उनकी पत्रकारिता की वजह से छापेमारी, कोई भी जनहित का मुद्दा तो है नहीं। यह जनविरोधी, दमनकारी और बदले की कार्रवाई हैं। इसलिए इन्हें सदन में उठाना विपक्ष का पहला और पवित्र काम है। अब वह इसे कैसे उठाएगा। स्थगन प्रस्ताव देगा। बहस की मांग करेगा। जांच की मांग करेगा। और जब उसकी इन मांगों पर कान न धरा जाए... तब हंगामा भी होगा, नारेबाज़ी भी। यह सब लोकतंत्र और संसदीय कार्यवाही का हिस्सा है। इसमें कुछ भी अनपेक्षित या अनूठा नहीं है।  

आप खुद सोचिए, जब कोरोना काल में हुई मौतों पर सदन में झूठ बोल दिया जाए तो विपक्ष क्या करेगा। चुपचाप बैठकर सरकार के झूठ सुनेगा या तत्काल विरोध करेगा। और जब सदन में विरोध होगा तो उसे शोर और हंगामे का नाम दे दिया जाएगा।

अब पूरे मानसून सत्र यही चलेगा। विपक्ष सवाल पूछेगा और सरकार उसे हंगामे का नाम देकर ख़ारिज कर देगी। टीवी पर बहस कराएगी कि विपक्ष रचनात्मक भूमिका नहीं निभा रहा। सुबह के अख़बारों में भी आप यही हैडलाइन पढ़ेंगे और इस तरह विपक्ष की नकारात्मक छवि आपके दिमाग़ में बनेगी।

आज विपक्ष के विरोध को हंगामा कहने वाली भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) कांग्रेस के शासनकाल में इसी तरह विरोध करती थी। तब उसे अपनी भूमिका सही नज़र आती है, लेकिन आज जब कांग्रेस और अन्य दल उसकी नीतियों, कार्रवाइयों का विरोध करते हैं तो उसे सदन का वक़्त बर्बाद करना कहा जाता है।

आपको याद होगा कि मनमोहन सरकार वन और टू ख़ासकर टू यानी दूसरे कार्यकाल में बीजेपी के विरोध के चलते संसद के कई पूरे के पूरे सत्र काम नहीं हो सका। और उस समय बीजेपी क्या कहती थी? कहती थी कि सदन चलाना सरकार की ज़िम्मेदारी है।

आप कहेंगे कि उस समय मनमोहन सरकार भी तो बीजेपी की नहीं सुनती थी। उसके सवालों का जवाब नहीं देती थी। उसकी आपत्तियों पर कान नहीं धरती थी।

लेकिन ऐसा नहीं है। मनमोहन सरकार में विपक्ष के विरोध के चलते इस्तीफ़े भी हुए हैं और जांच भी बैठाई गई।

और एक और बड़ा फ़र्क़ है बीजेपी और कांग्रेस के विरोध में। बीजेपी के सामने कभी छवि का संकट नहीं रहा है। मतलब यह कि सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद बीजेपी को मीडिया ने कभी उस तरह नेगेटिव प्रचारित नहीं किया, जैसे कांग्रेस या वाम या अन्य दलों को किया जाता है। इसके पीछे है बीजेपी की धार्मिक और जातीय राजनीति। बीजेपी जिस सवर्ण और वर्चस्वशाली वर्ग की नुमाइंदगी करती है। देश के तमाम संसाधनों, संस्थानों के साथ मीडिया पर भी उसका कब्ज़ा रहा है। इसलिए उसके प्रति मीडिया के एक बड़े वर्ग में हमेशा अपनेपन का भाव रहा है। साफ्ट कॉर्नर रहा है। इसलिए बीजेपी चाहे राममंदिर के मुद्दे पर संसद ठप करे या महंगाई के। मीडिया ज़ोर-शोर से सरकार को ही घेरती थी, लेकिन आज अगर सदन में महंगाई का मुद्दा भी उठाया जाए तो उसे शोर-शराबे की संज्ञा दी जाएगी।

उस समय के टीवी चैनल आपने देखे होंगे तो पेट्रोल-डीजल के हर दिन के भाव का हिसाब रखा जाता था। बीजेपी नेता साइकिल चलाने लगते थे। गैस सिलेंडर लेकर सड़कों पर आ जाते थे। और वह हैडलाइन बनता था। यही नहीं न्यूज़ चैनल आपकी थाली कितनी महंगी हुई, उससे क्या-क्या चीज़ ग़ायब हुईं इसका बाकायदा ग्राफिक्स के जरिये बयान करता था। अब यह आपने कब से नहीं देखा। ज़रा सोचिएगा।

यही नहीं आप अन्ना आंदोलन और किसान आंदोलन की कवरेज़ को ही ध्यान से देख लीजिएगा। आपको फ़र्क़ समझ आ जाएगा। उस समय सिर्फ़ मीडिया की वजह से ही अन्ना आंदोलन का माहौल बना था और माना जाता है कि इस आंदोलन के पीछे बीजेपी और आरएसएस की भी ताक़त थी लेकिन आज जब किसान अपने दम पर आठ महीने से दिल्ली की सीमाओं पर डटे हैं तो उसे कितना और कैसा कवरेज़ दिया जा रहा है। कैसे कैसे जुमलों या विशेषणों से नवाज़ा जा रहा है। आतंकवादी से लेकर नक्सलवादी और अब मवाली तक। एक-दो अख़बारों या चैनलों को छोड़कर बाक़ी सब किसान आंदोलन के विरोध और सरकार के पक्ष में ही बैटिंग कर रहे हैं।

आप कहेंगे कि सत्ता पक्ष का काम है कि वो विपक्ष को बदनाम करे, ख़ारिज करे (हालांकि यह सैद्धांतिक तौर पर सही नहीं है) लेकिन मीडिया का तो काम है कि वह सरकार की इस चालाकी को पकड़कर उजागर करे। हम कॉरपोरेट मीडिया से इसकी अपेक्षा नहीं करते। क्योंकि वह तो खुद सरकार की गोदी में बैठा है, लेकिन जो खुद को जनवादी मीडिया कहते या समझते हैं कम से कम उन्हें तो सत्ता की इस शब्दावली से बचना चाहिए।

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